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Showing posts from April, 2019

ईश्वरीय सिंहासन और बहिश्त की प्रतिकृति - ताज़महल

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                                                                इमेज़ :गूगल मुग़ल वास्तुकला का अंतिम और सर्वोत्कृष्ट चरण शाहजहां के काल में आरम्भ हुआ। बादशाह की रूचि को ध्यान में रखकर कलात्मक सृजन को सरंक्षण दिया गया। इसके काल में लाल पत्थरो का स्थान संगमरमर ने ले लिया फलस्वरूप शाजहाँ का काल संगमरमर काल के नाम से प्रसिद्द हो गया। इस काल की विशेषता भव्यता और मोहकता है। शाहजहाँ के काल में बनायीं गयी समस्त भवनों में सबसे सुन्दर ताजमहल है जो कि मुग़ल काल की अद्वितीय रचना है. सगमरमर का बना यह विश्वविख्यात मक़बर आगरा में यमुना के तट पर बना है। इसका निर्माण शाहजहाँ की प्रिय बेगम अर्जुमंद बानू बेगम की याद में किया गया हैतथा इसका नाम बेगम के लोकप्रिय   नाम मुमताज महल पर रखा गया है। मकबरे के वास्तुकार को लेकर इतिहासविदों में मतैक्य नहीं है.एक विचारधारा के अनुसार इसका निर्माण वेनिस के चाँदी और आभूषणों के शिल्पकार गैरिनिमो वैरोनियो ने किया जो मुग़ल साम्राट की सेवा में था इस विचारधारा के प्रवर्तक फ़ादर मेनरिक थे।स्मिथ ने भी इस मत का समर्थन किया है तथा इसे एक यूरोपीय कृति बताई है।  दूसरी विचारधारा

वफ़ादार बीबी की महबुबाना पेशकश - हुमायूं का मकबरा

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                                                                              सौजन्य :गूगल दिल्ली स्थित हुमायु का मकबरा केवल भारत की भवन निर्माण कला का सुन्दर उदाहरण ही प्रस्तुत नहीं करता ,वरन मुग़ल स्थापत्यकला के विकास का परिचय भी प्रदान करता है। इसका निर्माण हुमायु की पत्नी हाजी बेगम की देखरेख में हुआ जबकि भवन के आयोजन को अकबर का समर्थन भी प्राप्त था। हाजी बेगम शेरशाह सूरी द्वारा भगाये जाने के बाद हुमायु के साथ शरण लेने फारस गयी थी और जिसने फारसी वास्तुकला के आदर्शो को आत्मसात किया था। मुग़ल बादशाह के प्रवास के परिणामस्वरूप फ़ारसी आदर्शो का भारतीय परिस्तिति में अंतरण हुआ। दोनों देशो की वास्तुकला की महँ परम्पराओ के मिलन के परिणामस्वरूप इस्लामी भारत की एक एक उल्लेखनीय इमारत का निर्माण हुआ। इसने आगे चलकर ,एक शताब्दी बाद तक शाहजहाँ के काल मे भी मुग़ल वास्तुकला को प्रभावित किया। हुमायु के मकबरे का सर्वाधिक उल्लेखनीय पक्ष उसका भवन नहीं वर्ण सम्पूर्ण विशाल परिषर का खाका है। यह मकबरा पहले की मकबरो की भांति भूमि के एक बंजर टुकड़े पर नहीं खड़ा है अपितु उसके चारो और एक चारबाग की रचना की गयी है।

भारतीय वास्तुकला के विकास में मुगलों का योगदान

1526 ई० में हुए पानीपत के द्वितीय युद्द के पश्चात् मुगलो का उतरी भारत पर अधिपत्य स्थापित हुआ। आधुनिक ऐतिहासिक शोधों में बाबर से औरंगजेब के शासन तक के काल के भवन निर्माण की विशेषता, विविधता और सौंदर्य की तुलना गुप्तकालीन भवनों से की जा रही है।मुग़ल बादशाहो में अकबर ने आर्थिक और धार्मिक रूप से साम्राज्य के सुदृढ़ीकरण की रिप्रेख्या तैयार की ,जिसके चलते उसके और उसके ुअत्तराधिकारियो के शासनकाल में काफी बड़ी मात्रा में सत्ता और संसाधनों का केन्द्रीकरण हुआ ,जो इसके पहले कभी दिखाई नहीं पड़ा था। फलतः बादशाह की शक्ति में वृद्धि हुईऔर उस शक्ति की दृश्य अभिव्यक्ति के नए साधनो और बड़े माध्यमों की खोज प्रारम्भ हुई। सत्ता का केन्द्रीकरण राज्य द्वारा संगीत-नृत्य,चित्रकला,वास्तुकला आदि को दिए गए संरक्षण में दिखाई पड़ा। परिणामस्वरूप,मुग़ल शासको की व्यक्तिगत पसंद और रूचि ने भवन निर्माण कला को काफी प्रभावित किया। अकबर ,जहांगीर और शाहजहां काल में कला की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न शैलियों में हुयी।लेकिन इन सभी शैलियों क एकीकृत रूप में मुग़ल स्थापत्य शैली ,इंडो पर्शियन स्थापत्य शैली या इंडो सारसेनिक स्थापत्य शैली के ना

हैदर अली और टीपु सुल्तान के साथ अंग्रेजो का सम्बन्ध

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                                                               सौजन्य :गूगल आंग्ल- मैसूर सम्बन्ध 1757 ई0 के प्लासी युद्ध के बाद भारत में ब्रिटिश सत्ता की नींव पड़ी तथा बक्सर युद्ध के बाद मुगल सत्ता का अवमान हो गया। ूमुगल सम्राट अंग्रेजो का पेंशन भोंक्ता बन गया।तथा अवध का  राज्य उनका संरक्षित राज्य हो गया उसके बाद अंग्रेजो की प्रआरवादी नीतियों को बढ़ावा मिला और वे सम्पूर्ण  भारत पर अधिकार करने की और अग्रसर हुए। इनका किसी भारतीय शक्ति ने प्रतिरोध नही किया लेकिन  अभी भी दो भारतीय भक्ति विद्यमान थी जो लगातार अंग्रेजो को टक्कर दे रही  थी वे थी-1. मराठे और 2. मैसूर का शासक हैदर अली।     प्रारम्भ में मैसूर विजयनगर राज्य का अंग था। 1565 ई0 में वाडेंयार वंश ने मॅसूर में एक स्वंतत्र राज्य की स्थापना की। 1704 ई0 में इस वंश ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करते हुए कर देने के लिए बाध्य हुए। 1718 ई0 के रफी उद दरजात द्वारा मराठों के दिए गये फरमान द्वारा मैसूर से चौथ लेने का अधिकार मराठों को प्राप्त हुआ। 18 वीं शताब्दी के मध्य में मैसूर शासक से भारी शक्ति देव राज और नन्द राज नामक दो भाईयों ने हस्तगत

बंगाल में अंग्रेजी शासन

यूरोपीय अर्थव्यवस्था में सामंतवाह से पूँजीवादी की और एवं फिर व्यापारिक पूँजीवादी से ओैद्योगिक पूँजीवादी में हुए परिवर्तनो के कारण औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित करने के लिए बहुत सी यूरोपीय भक्तियों के बीच बड़ी प्रतियोगिता हुई। साम्राजवाद की इस प्रक्रिया में 17वी शताब्दी से ही बंगाल उच, फ्रांसीसी और अंग्रेजो कंपनियों के बीच युद्ध का मैदान बना गया। यह मुख्यतः बंगाल मे अच्छे व्यापारिक संभावानओं तथा सम्पन्न संसाधानों के कारण था। और इसलिए कई विदेंशों कम्पनियाँ आकर्षित हुई थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी ओर उकसे अधिकारियों की बढती हुई व्यापारिक रूचि के कारण बंगाल के नवाबों के साथ ंसंघर्ष को जन्म दिया। बंगाल की राजनीति में अतंनिहित कमजोरी ने अंग्रेजों को नवाब के विरूद्ध युद्ध में विजय प्राप्त करने में बड़ी मदद को। विभिन्न गुटों के शासकों से अलगाव ने बाहय् भक्तियों के लिए व्यवस्था को तोड़ने के लिए प्रेरित किया। फलतः बंगाल पर अंग्रेजों का प्रमुख कायम हुआ। इस तरह अंग्रेज व्यापारी एक साम्रावादी के रूप में परिणत हो गये। परिस्थितियाँः- 18वीं शताब्दी मे बंगाल से यूरोप को निरंतर कच्वें उत्पादों जैसे भोरा, चावल,नी

कबीर की भक्ति साधना और उनका रहस्यवाद

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                                                                  सौजन्य : गूगल इमेज मैंने उन फूलो को सुना जो शब्द करते थे और उन ध्वनियों को देखा जो जाज्वल्यमान थी;अंडरहिल ये शब्द महात्मा कबीर के व्यक्तित्व के लिए सौ फीसदी सही है। महात्मा कबीर का रह्स्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्निहित प्रवृति का प्रकाशन है जिसमे वः दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शांत एवं निश्छल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है।यह सम्बंध  बढ़ जाता है कि दोनों मेकुछ भी अंतर नहीं रह जाता। जीवात्मा की शक्तिया इसी शक्ति के अनंत वैभव और प्रभाव से ओत -प्रोत जाती है।जीवन में केवल उसी दिव्य शक्ति का  अनंत तेज अन्तर्निहित होता हैऔर जीवात्मा अपने अस्तित्व को  भूल सा जाती है।एकभावना,एक वासनासदैव जीवन के अंग -प्रत्यंगों में प्रकाशित होती है ;यही दिव्य संयोग है।  दिव्य शक्ति से इसप्रकार  जाती है कि आत्मा  के  गुणों का प्रदर्शन होने लगता हैऔर आत्मा के गणो का। इस संयोग में एकप्रकार का उन्माद होता है ,नशा रहता  है। उस एकांत सत्य से ,उस दिव्य शक्ति से जिव का ऐसा प्रेम हो जाता है कि वः अपनी सत्ता परमात्मा की सत्ता में अन्तर्निहित कर देता है। उस

भारतीय संस्कृति के संरक्षक महात्मा कबीर

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              सौजन्य :गूगल ईमेज कबीर का अध्यात्म वह  मूल आधार है जिसके द्वारा समूचे विश्व में पुनः एक परिवर्तन और क्रांति घटित हॉप सकती है। समानता को लेकर कबीर के विचार वैदिककालीन समय पर आधारित हैऔर प्रकृति और संस्कृत के मूल से जुड़े हुए है। हृदयगत सरलता ,सहजता ,निश्छलता पर वे बल देते है। कबीर के सारे आग्रह मनुष्य जीवन और जगत को सवारने के रहे है। उनकीं साडी सोंच और चिंताओं का केंद्र जीवन रहा है। उनक रास्ता कर्म ,सच्चरित्रता ,नैतिकता ,खारापन ,संवेदनशीलता का है।इसे ही सहज योग की गरिमा देते चलते है। इस धरती पर चेतना का सारा प्रसार पत्थर ,पेड़ ,पशु ,पंक्षी ,मनुष्य तक का विकास कबीर के लिए राम है। जहां धड़कन नहीं वहां विराम है। कबीर ने धर्म समाज के क्षेत्र में तर्क, बुद्धि,और ज्ञान को कसौटी की तरह स्थापित किया ताकि भारतीय साझां सांस्कृतिक विरासत के आधारों पर समाज को आरूढ़ क्र एक स्वस्थ प्रगति का भी समरस समाज की दिशा प्रसस्त की जा सके। उन्होंने समाज की उपयोगी संस्थाओ  को कभी नष्ट नहीं करना चाहा ,लेकिन गलत और गलित को कभी स्वीकार नहीं किया। कबीर तो उस मधुमक्षिका की तरह थे जो सौरभमयी पुष्पों क

जब ईसाई मिशनरियों ने भारतीय संस्कृति पर आघात किया

अंग्रेज  भारत  में मुख्यतया व्यापर करने के लिए आये और राजनितिक सत्ता को प्राप्त करने के पश्चात भी वे अपने इस लक्ष्य को नहीं भूले। वे भारतीयों के सामाजिक और धार्मिक आचरण में कोई हस्तक्षेप करना नहीं चाहते थे बल्कि वे किसी भी हस्तक्षेप के विरुद्ध थे। यूरोपियनो में से केवल पुर्त्तगाली ही ऐसे थे जिन्होंने भारतीयों को ईसाई बनाने की लालसा की। उन्होने न केवल प्रचार और भारतीय स्त्रियों से विवाह करने को ही इसका साधन बनाया बल्कि भारतीयों को जबरजस्ती बी ईसाई बनाने का प्रयत्ना किया परन्तु उनके प्रयास बुरी तरह असफल हुआ। अंग्रेजो नेके सम्मुख उनका उदहारण था। इस कारण  अंग्रेजो ने धर्म के स्थान पर आर्थिक और राजनितिक लाभ प्राप्त करना अपने उदेश्य बनांये। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 18वी शताब्दी तक ईसाई धर्म प्रचारकों को अपनी सीमाओं में प्रवेश करने तक की आज्ञा नहीं दी। परन्तु बाद में परिस्तिथि में परिवर्तन हो गयी। 19वीं सदी के पहले दसक तक ही कंपनी की स्तिथि भारत में ढृढ़ हो गयी और यह निश्चित हो गया की भारतीय नरेसो में से कोई भी इसका मुकाबला नहीं कर सकता। इस कारण 1813 ई० में जब कंपनी के आदेश पत्र को दोहराने का अव

शैवधर्म और विभिन्न संप्रदाय

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गूगल के सौजन्य से  शैवधर्म की उत्पत्ति हड़प्पा सभ्यता के पशुपति नामक देवता से मानी जाती है.हड़प्पाई मुहरों पर यह देवता योगी की मुद्रा में बैठा है ,जिनकी पहचान आदिशिव से की जाती है.यहीं के लोगों ने सर्वप्रथम लिंग और योनि की पूजा प्रकृति के प्रजनन शक्ति के रूप में करना शुरू किया था.ऋग्वेद में रूद्र नामक देवता की चर्चा मिलती है।,जो रोगविनाशक और वनस्पति का माना  जाता था.पाणिनी के अष्टाध्याय्यी में शैव या नटराज शब्द का प्रयोग किया गया है.जिनके डमरू के 14 बार बजने से अष्टाध्यायी के 14 सूत्र निकले थे जिसके आधार पर संस्कृत व्याकरण की रचना हुई। पातञ्जलि ने भी लौह ,दंड, गद्दा एवं चमड़े के वस्त्रों से सुसज्जित शिव भागवतों का उल्लेख बड़ी ही मनोयोग से  किया है. भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में मुख्यतः शैवधर्म की चार धाराएं प्रचलित थी - 1. वीरशैव या लिंगायत  2 .पाशुपत 3 .कापालिक    4 .कालमुख। वासव ने 12वीं शताब्दी में  कर्नाटक में लिंगायत संप्रदाय की स्थापना की थी.वह  कलचुरी शासक विज्जल का मंत्री था। इनका सिद्धांत विशिष्टाद्वैत का सिद्धांत था.इसमें मूर्तिपूजा का विरोध किया गया है.इस मत के अनुयाय