जब ईसाई मिशनरियों ने भारतीय संस्कृति पर आघात किया

अंग्रेज  भारत  में मुख्यतया व्यापर करने के लिए आये और राजनितिक सत्ता को प्राप्त करने के पश्चात भी वे अपने इस लक्ष्य को नहीं भूले। वे भारतीयों के सामाजिक और धार्मिक आचरण में कोई हस्तक्षेप करना नहीं चाहते थे बल्कि वे किसी भी हस्तक्षेप के विरुद्ध थे। यूरोपियनो में से केवल पुर्त्तगाली ही ऐसे थे जिन्होंने भारतीयों को ईसाई बनाने की लालसा की। उन्होने न केवल प्रचार और भारतीय स्त्रियों से विवाह करने को ही इसका साधन बनाया बल्कि भारतीयों को जबरजस्ती बी ईसाई बनाने का प्रयत्ना किया परन्तु उनके प्रयास बुरी तरह असफल हुआ। अंग्रेजो नेके सम्मुख उनका उदहारण था। इस कारण  अंग्रेजो ने धर्म के स्थान पर आर्थिक और राजनितिक लाभ प्राप्त करना अपने उदेश्य बनांये। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने 18वी शताब्दी तक ईसाई धर्म प्रचारकों को अपनी सीमाओं में प्रवेश करने तक की आज्ञा नहीं दी। परन्तु बाद में परिस्तिथि में परिवर्तन हो गयी। 19वीं सदी के पहले दसक तक ही कंपनी की स्तिथि भारत में ढृढ़ हो गयी और यह निश्चित हो गया की भारतीय नरेसो में से कोई भी इसका मुकाबला नहीं कर सकता। इस कारण 1813 ई० में जब कंपनी के आदेश पत्र को दोहराने का अवसर आया तब वह धर्म प्रचारकों के दबावों के सम्मुख झुक गयी और आदेश के द्वारा आज्ञा लेकर ईसाई धर्म प्रचारको को भारत आने की सुविधा प्रदान कर दी गई। आदेश पत्र में यह कहा गया कि जो भी व्यक्ति भारतीय में लाभप्रद ज्ञान,सत्य,धर्म और ठीक नैतिकता का प्रचार करना चाहता हैं;वह भारत जा सकता हैं और वहाँ बस भी सकता हैं। इस कारण,उस समय से ईसाई धर्म प्रचारकों का भारत आना प्रारम्भ हुआ।

                                  1830-40  ई० के मध्य के समय ब्रिटेन में मानवतावादियों,उदारवादियों और धर्म प्रचारकों का प्रभाव बढ़ा यहां तक कि उन्होंने ब्रिटेन की राजनिति को भी प्रभावित किया। उदारवादियों ने भारतीयों की शिक्षा और ज्ञानवृद्धि पर बल दिया। मानवतावादियों ने लोक हितकारी सेवायें करके अपनी आत्माओं की उन्नति करने पर बल दिया और धर्म प्रचारकों में विचार व्यक्त किया कि मूर्ति पूजकों और जंगली व्यक्तयों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करना ईश्वर की सेवा करने के समान होगा। ये विभिन्न वर्ग केवल साधन और किस साधन पर अधिक बल दिया जाय,इसी पर एक दूसरे में मतभेद रखते थे। अन्यथा व्यवहार में इन सभी वर्गों का लक्ष्य एक ही था। अज्ञानता को नष्ट करना, शिक्षा प्रदान करना और मानवो की सेवा करना ,ये सभी लक्ष्य जंगली मनुष्यो को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने से प्राप्त किये जा सकते थे जो सम्पूर्ण संसार में ईसाई धर्म प्रचारकों का लक्ष्य था। भारत उनके इस उदेश्य पूर्ति के लिए एक उपयुक्त स्थान था। इस कारण इन वर्गों ने ब्रिटिश सरकार पर दबाव डाला। ब्रिटेन के विग दल में प्रयाप्त व्यक्ति उदारवादियों और मानवतावादियों के समर्थक थे। ईस्ट इंडिया कंपनी का तत्कालीन सचिव जेम्स मिल भी उदारवादी था और विश्वास करता था की कंपनी का एक मुख्य उत्तरदायित्व भारतीयों को शिक्षा प्रदान करना और उनकीं अज्ञानता को नष्ट करना हैं। तत्कालीन गवर्नर जनरल बेंटिक ,जेम्स मिल का अनुयायी था। इन व्यक्तियों के दबाव के कारण 1833 ईo में कंपनी के आदेश पत्र के पुनः दोहराये जाने के अवसर पर यह निश्चित कर दिया गया की किसी भी अंग्रेज व्यक्ति और धर्म प्रचारक के लिए भारत जाने और वहा बस जाने के लिए किसी की आज्ञा की आवश्यकता नहीं हैं। उस समय से ईसाई धर्म प्रचारकों का बहुत बड़ी संख्या में भारत आना आरम्भ हो गया।
ईसाई धर्मप्रचारकों ने सभी सम्भव साधनो द्वारा अधिकतम संख्या में भारतियों को ईसाई धर्म  में परिवर्तित करने का प्रयास किया। उन्होंने लड़के लड़कियों के लिए मिशन स्कुल खोले। अंग्रेजी भाषा के माध्यम से शिक्षा प्रदान की। विभिन्न्न मानव हितकारी कार्य जैसे अस्पतालों की स्थापना,बीमारों,गरीबों,कोढियों  की सेवा ,अकाल एवं बाढ़ के अवसरों पर असहायों की सहायता आदि किये। भारतीयों की सामाजिक और आर्थिक एवं धार्मिक परम्पराओं की आलोचना की। भारतीयों को धन का लालच दिया,अपराधियों को दंड से मुक्त किया ,ईसाई चर्चों की स्थापना की और ऐसे सभी सार्वजानिक कार्य किये जिसके माध्यम से वे भारतीयों को ईसाई धर्म में परिवर्तित कर  सकते थे।आरम्भ में भारत सरकार  ने ईसाई पादरियों की उसके धर्म प्रचार में कोई सहायता प्रदान नहीं की ,परन्तु धीरे-धीरे उसने अप्रत्यक्ष तरीके से इन्हे सहायता देना प्रारम्भ कर  दिया। सभी अंग्रेज अधिकारी ईसाई धर्मप्रचारकों का सम्मान करते थे। उनकी कार्यो की सराहना करते थे और जिस तरह से भी संभव हो सकता था उनकी सदाहयता भी करते थे।
ईसाई धर्मप्रचारकों ने सर्वप्रथम ,शिक्षा अंग्रेजी भाषा के माध्यम से प्रदान करना शुरू क़िया।मुख्यतया लड़कियों के लिए उन्होंने व्यवस्थित रिप से स्कूल स्थापित किये। 1835 ईo में अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम स्वीकार कर  लिया गया। उससे ईसाई धर्मप्रचारकों को सहायता प्राप्त हुयी। इससे बहुत समय पहले ही 1972 ईo में ही सर चार्ल्स ग्रांट ने यह विचार व्यक्त किया कि अंग्रेजी शिक्षा का सबसे बड़ा लक्ष्य ईसाई धर्म का प्रचार थे। मैकाले ,जिसने अंग्रेजी भाषा को शिक्षा का माध्यम बनाने में प्रमुख भाग लिया था,वः भी इस बात को स्वीकार करता था की यह शिक्षा भारतियों को काली चमड़ी वाला अंग्रेज बनाकर छोड़ेगी। ईसाई धर्मप्रचारकों ने भी इस विचार को व्यक्त करने में कोईं  संकोच नहीं किया कि अपने शिष्यों को शिक्षा प्रदान करने में उनका मुख्य उद्देश्य उनकी आत्माओं का उद्धार है,जो केवल उनके द्वारा ईसाई धर्म को स्वीकार करने में ही  है। स्कूलों किम स्थापना में ईसाई धर्मप्रचारकों का मुख्य उद्देश्य ईसाई धर्म का प्रचार करना था। बाइबिल की शिक्षा न केवल मिशनरी स्कूलों  में ही प्रदान की जाती थी बल्कि सरकारी स्कूलों और कॉलेजों में भी दी जाती थी। कुछ स्कूल जो सरकारी अनुदान से चलाये जाते थे, ईसाई धर्मप्रचारकों द्वारा पूर्णतया ईसाई धर्म के सिद्धान्तो पर चलाये जाते थे।लड़कियों की शिक्षा के लिए जो स्कूल स्थापित किये गए थे ,उन सभी में ईसाई धर्म की शिक्षा अनिवार्य थी।इन सभी शिक्षण संसथाओ में अल्पायु बच्चो के मष्तिष्को को एक तरफ भारतीय धर्मो की सभी वस्तुतः एवं कल्पित बुराइयों के द्वारा और दूसरी तरफ ईसाई धर्म की अच्छाइयों और उसके माध्यम से आत्माओ के उद्धार की ाषद्वारा अध्यापको के माध्यम से प्रभावित किया जाता था। ईसाई धर्मप्रचारकों के प्रयत्न प्रयाप्त मात्रा में सफल रहे थे,यहाँ इस बात से स्पस्ट होता है कि इन मिशनरी स्कूलों में पढ़ने वाले विद्द्यार्थी खुले तौर से अपने धर्म के विश्वासों और परम्पराओ की आलोचना करने लगे थे। इसप्रकार,शिक्षा मुख्यतया ,अंग्रेजी भाषा के माध्यमसे और वः भी मिशनरी स्कूलों द्वारा प्रदान की गयी,शिक्षा ईसाई धर्म के प्रचार के लिए की गयी थी।
ईसाई धर्मप्रचारकों का सार्वजनिक सभाओ और अन्य प्रचार साधनो का प्रयोग मुख्यतया हिन्दू देवी-देवताओ की बुराई करके किया गया। उनका प्रचार कुछ मात्रा में ठीक लेकिन अधिकांशतया झूठ पर आधारित होता था। उन्होंने हिन्दुओ के जातिगत मतभेद और अश्पृश्यता के चलन और जनसाधारण की अज्ञानता से पूर्ण लाभ उठाया। इनका प्रचार जनजातियों एवं पिछड़ी जातियप में काफी सफल रहा और इनमे से बहुत बड़ी संख्या में लोगो को ईसाई धर्म में परिवर्तित भी किया। ईसाई धर्मप्रचारकों ने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए सरकारी साधनो का भी प्रयोग किया।जेलों और अस्पतालों को भी इस उद्देश्य की पूर्ति का साधन बनाया गया। सर सैयद अहमद खान ने लिखा है कि सैनिक और असैनिक सरकारी अधिकारी ईसाई धर्म प्रचारकों की सहायता किया करता थे। जेलों में कैदियों को ईसाई धर्मप्रचारक प्रत्येक दिन उपदेश किया करते थे। अपटालो में मिशनरी डॉक्टर बीमारों का इलाज करते थे ,जो निःसंदेह उनको प्रभावित करने की स्थिति में रहते थे।
कुछ ईसाई धर्मप्रचारकों नेयह  व्यक्त किया कि सम्पूर्ण भारतीयों को ईसाई धर्म में परिवर्तित किया जाना चाहिए। मसलन एडवर्ड के पत्र में लिखा गया था कि जयप्रकार सभी भारतवासी  सरकार के आदेशों का पालन करते है ,देश के सभी व्यक्ति बिजली के तर द्वारा एक दूसरे के साथ संपर्क स्थापित करते है और जिसप्रकार रेलवे भारत के सम्पूर्ण भागो को एक दूसरे से जोड़े हुए है ,उसीप्रकार यह आवश्यक है कि इस देश में एक ही धर्म के अनुयायी रहे और इसकारण यह उचित है कि भारत के सभी निवासी ईसाई धर्म को स्वीकार कर ले। ऐसे सभी पत्र और अन्य प्रचार साधन ,जिसके द्वारा भारतीयों को धर्म स्वीकार करने की आवश्यकता और उपयोगिता पर बल दिया जाता था ,न केवल जनसाधारण में ही प्रसारित किये जाते थे ,बल्कि राज्य की सेवा में नियुक्त प्रभावशाली  व्यक्तियों को भी भेजा जाता था,जिससे ईसाई धर्म के प्रचार में उनकी सहायता ली जा सके। ईसाई धर्मप्रचारकों ने अनाथ बच्चो को बड़ी संख्या में ईसाई बनाया। अकाल और बढ़ के अवसरों पर व्यक्तियों की मजबूरी का लाभ उठाकर उन्होंने अनेक व्यक्तियों को ईसाई बनाने में सफलता प्राप्त की। उन्होंने भारतीयों को धन,नौकरी,समाज में उचित स्थान दिलाने का लालच देकर भी बड़ी मात्रा में ईसाई धर्म में परिवर्तित किया    । कभी- कभी ईसाई धर्म धर्म प्रचारकों ने व्यक्तियों को जबरदस्ती भी धर्मपरिवर्तन के लिए बाध्य किया ,उन्होंने अपने प्रचार कार्य के लिए ,कभी-कभी मस्जिदों और मंदीरो का भी उपयोग किया और क्योंकि उसके साथ सरकारी चपरासी या सिपाही रहता था, इस कारण उन्हें कोई रोकने का साहस नहीं कर पता था।
1830 ई ० और 1850 ई० मे क्रमशः  सरकार ने दो  कानून बनाने जिनके  द्वारा धर्म परिवर्तन करनेवालो पर जो बधाये थी,उन्हे हटाने का प्रयत्न  किया गया। इन कानूनों द्वारा यह भी निश्चित  किया गया कि ईसाई धर्म को स्वीकार  करने वाले प्रत्येक हिन्दू और मुसलमान को अपने पिता की सम्पत्ति में से  उसका हिस्सा  मिलेगा। इन कानूनों ने भी भारतीयों को धर्म परिवर्तन के लिए प्रोत्साहित  किया।
                     इसप्रकार,ईसाई धर्मप्रचारको  ने सभी सम्भव साधनो द्वारा अधिकतम भारतीयों को ईसाई धर्म में परिवर्तित करने का प्रयत्न किया। 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध में ये धर्मप्रचारक सबसे अधिक क्रियाशील रहे,परन्तु 1857 ई०के विद्रोह ने उनके कार्यकलापों को गंभीरता से प्रभावित किया क्योंकि सरकार बहुत शंकालु हो गयीऔर उसने उन्हें अनेक कार्य में सहयोग देना बंद कर दिया। परन्तु तब भी ईसाई धर्म प्रचारक एक लम्बे समय तक भारत में प्रभावपूर्ण रहे। भारत में मुख्यतया हिन्दुओ में 19वीं सदी में हुए सामजिकौर धार्मिक आंदोलनों के होने का एक मुख्य उद्देश्य भारतीयों को ईसाई धर्म में परिवर्तित किये जाने से रोकना था। उन आंदोलनों ने भी,निःसंदेह ईसाई धर्म प्रचारकों के कार्य में बाधा डाली।ईसाई धर्मप्रचारक, भारत में केवल एक सीमित मात्रा में  ही सफल हुए। मुख्यतया हिन्दू धर्म परिवर्तन के लिए उत्सुक न थे। हिन्दू एक ईश्वर में विश्वास करते हैऔर सभी धर्मो को उनके निकट जाने के विभिन्न मार्ग मानते है। इस कारण हिन्दुओ को धर्म परिवर्त्तन की आवश्यकता नहीं हुई। मुस्लमान ईसाई धर्म प्रचारकों के प्रचार से इसलिए प्रभावित नहीं हुए कि ,क्योंकि वे धर्मांध है और वे केवल अल्लाह को ही सत्य ईश्वर मानते है। इसकारण से ईसाई धर्म प्रचारक मुख्यतः हिन्दुओ के पिछड़े वर्गों ,खासकर अस्पृश्य जातियों को ही अपने निशाने पर लिया और उनका ही बड़े पैमाने पर धर्म परिवर्त्तन करवाया। इसके पीछे मुख्य कारण यह था की निम्न जातियाँ भारतीय संस्कृति के सामाजिक ताने -बाने  में काफी महत्वहीन थेऔर पददलित थे, जबकि जनजातीय समूह के लोग अपनी अज्ञानता एवं गरीब के चलते इनके प्रलोभनों के शिकार हुए। इसप्रकार, कहा जा सकता है कि भारतीयों का बहुसंख्यक वर्ग ईसाई धर्म प्रचारकों के विचार और प्रभाव से मुक्त रहा।
लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि ईसाई धर्म प्रचारकों के प्रयत्न सर्वथा बेकार और प्रभावहीन हो गए। उन्होंने प्रयाप्त संख्या में भारतीयों को ईसाई धर्म में परिवर्तित किया। इसके अतिरिक्त उन्होंने सामाजिक लाभ के विभिन्न्न कार्य किये। उनके द्वारा स्थापत स्कूलो, कॉलेजों और अस्पतालों ने हरतीयो को ज्ञान  करने और कमजोर था आशय व्यक्तियों की सेवा करने मेबहुत योगदान दियाऔर मुख्यतया ऐसे दूरस्थ प्रदेशो में झा न भारतीय समाज और न सरकार कोई परोपकारी या लाभदायक कार्य कर पाई थी ;ईसाई धर्म प्रचारकों ने अकाल और बाढ़ के अवसरों पर भी आशय व्यक्तियों के लिए बहुत सेवा कार्य किया। ईसाई धर्म प्रचारक पहले व्यक्ति थे,जिन्होंने छूट की बीमारी जैसे तपेदिक ,कोढ़ आदि से ग्रस्त व्यक्तियों के उपचार और सेवा का कार्य किया इनसे भी अधिक लाभदायक परिणाम यह हुआ कि भारतीयों को अपने समाज और धर्म की बुराइयों और अन्याय को समाप्त करने के लिए कटिवद्ध होकर प्रयत्न किया और उनमे से कुछ जैसे स्वामी विवेकानंद ने गरीब ,दुर्बल और आशय व्यक्तियों की सेवा करने को ही सर्वश्रेष्ठ धार्मिक कर्तव्य बताया। यह समाज और धर्मसुधार था निर्धनों और दुर्बलों की सेवा करने की भी भावना 20वीं सदी तक भी उस समय तक रही जब तक कि भारतीयों में उग्र राष्ट्रीयता की भावना उभर कर सामने न आ गयी।


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