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Showing posts from July, 2015

पश्चिम भारत का महान शिक्षण केंद्र - बलभी

प्राचीन काल में पश्चिम भारत बौद्ध धर्म के हीनयान शाखा के केंद्र के रुप में उभरा।उन्होंने यहां कई मठ स्थापित किये। ये मठ शिक्षण केंद्र के रूप में काफी प्रसिद्ध हुए,इनमें से एक बलभी  भी था।गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र में आधुनिक 'वल'नामक स्थान पर नालंदा की कोटि का एक विश्वविद्यालय था।बलभी शहर की स्थापना मैत्रकवंशी राजा भटार्क ने की थी।सातवीं शताब्दी तक बलभी  एक व्यापारिक केंद्र के साथ-साथ एक शैक्षिक केंद्र के रूप में भी काफ़ी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था।प्रसिद्ध चीनी बौद्ध यात्री हुएनसांग के अनुसार यहाँ एक सौ बौद्ध विहार थे जिनमें लगभग 6000 हीनयानी भिक्षु निवास करते थे।             बलभी हीनयान बौद्ध धर्म की शिक्षा का प्रमुख उच्च शिक्षा का केंद्र था।एक अन्य बौद्ध चीनी यात्री इतसिंग यह जानकारी देता है कि यहॉं सभी देशों के विद्वान एकत्रित होते थे तथा विविध सिद्धांतों पर शास्त्रार्थ करके उनकी सत्यता निर्धारित किया करते थे।यहाँ के अध्यापक दो या तीन वर्षों तक छात्रों को पढ़ाया करते थे तथा इसी अवधि में छात्र प्रकांड विद्वान बन जाते थे।बलभी  में शिक्षा ग्रहण करने के लिए भारत के विभिन्न प

खगोलविज्ञान में प्राचीन भारतीयों की उपलब्धियाँ

खगोल विज्ञान वैदिक साहित्य के वेदांगों में से एक था।इस प्राचीन प्रकार की ज्योतिर्विद्या का मुख्य प्रयोजन समय-समय पर यज्ञों के दिनांक तथा काल का निश्चय करना था।खगोलविज्ञान से संबंधित प्राचीनतम स्रोत ज्योतिष वेदांग है;जो 500 ई.पूर्व की बताई जाती है।इससे ही 27 नक्षत्रों के बीच अमावस्या और पूर्णिमा के चंद्रमा के स्थान की गणना की जाती है।इसके साथ ही आयनों की गणना की जाती थी जो प्रत्येक 366 दिन के आवर्तन में पड़ते है। पांच सौर वर्ष में 67 चंद्र मास होते थे।सौर गणना की यह प्रणाली भारत में व्यापक रूप से व्यवहृत होती थी।इसे जैन साहित्य में भी उल्लिखित देख जा सकता है।              प्रारंभिक भारतीय ब्रह्माण्ड विज्ञान समान्यतः वर्गों एवं घनो पर आधारित है।सबसे पहले पृथ्वी एक वर्ग पर आधारित है,जिसका एक कोना दक्षिण की ओर है।उसका आकर पिरामिड की तरह का है जिसके कई क्रमिक संकेन्द्रिक वर्गाकार टीले है जो ऊपर एक बिंदु तक उठते गए है।इसके शिखर पर मेरु पर्वत है। यह एक ऐसा पिरामिड है जो ऊपर उठते हुए और भी चौड़ा होता जाता है।सूर्य के स्तर के ऊपर चंद्रमा का स्तर है जिसके समान कक्ष है।इस प्रारंभिक मेरु ब्रह्माण्

आयुर्विज्ञान के विकास में भारतीयों का योगदान

ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के बाद भारत में चिकित्साशास्त्र विज्ञान की एक नई शाखा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।लेकिन औषधीय एवं शारीरिक रचना विज्ञान का प्रारंभिक स्तर वेदों में दिखाई पड़ता है।अथर्ववेद में अतिसार ,ज्वर एवं जलोदर आदि की पहचान की गई है।इसी वेद में पहली बार चिकित्सकीय ज्ञान का संहिताकरण किया गया है।स्थान-स्थान पर रोगों एवं व्याधियों की चर्चा की गयी है।यजुर्वेद में प्रथमो दैवो भिषजः कहकर शक्ति के देवता रुद्र को पहला दैवीय चिकित्सक माना गया है।यजुर्वेद में ही पब्लि बार यक्ष्मा एवं राजयक्ष्मा के 100 प्रकारों का उल्लेख मिलता है।    यद्यपि चिकत्सा विज्ञान के आरंभिक बीज वेदों में मिलते है ,लेकिन वैव्यानिक धरातल पर आयुर्विज्ञान का विकास दूसरी शताब्दी में चरक की चरक संहिता एवं सुश्रुत की सुश्रुत संहिता में परिलक्षित होता है।चरक संहिता को भारतीय चिकित्साशास्त्र का विश्वकोश माना गया है।इसमें अनेक प्रकार के ज्वर,कुष्ट,मिर्गी और यक्ष्मा के विभेदों,लक्षणों एवं निदान के उपायों की व्याख्या की गयी है। यहीं नहीं चरक संहिता में भारी संख्या में उन पेड़-पौधों का भी वर्णन है जिनका प्रयोग दवा के रूप मे

प्राचीन भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगीकी

धर्म और आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत होने के बावजूद भी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की प्रचुर सांस्कृतिक विरासत रही है।4000 ई.पूर्व में ही भारत में पहली औद्योगोकी या तकनीकी क्रांति का जन्म हुआ और इसका पहला चरण लगभग 3000 ई.पूर्व तक पूरा हो चुका था।लगभग इन 1000 वर्षों में फैले प्रथम औद्योगिक क्रांति के प्रमुख आविष्कार थे- आग की खोज,कृषि एवं सिचाई तकनीकों का विकास,बाढ़ का नियंत्रण ,हल एवं चक्के का विकास। इस युग में भारतवासियों ने पर्याप्त समुन्नत प्रौद्योगीकी का विकास कर लिया था।                     हड़प्पा में बनी ईंट की इमारतों से प्रकट होता है कि प्राचीन भारत में लोगों को मापन एवं ज्यामिति का अच्छा ज्ञान था।सैंधव जन कांस्य के निर्माण और प्रयोग से भलीभांति परिचित थे।ताँबे में टिन मिलाकर धातुकर्मियों ने कांसा बनाने की तकनीक विकसित कर ली थी।हड़ाप्पाई विभिन्न प्रकार के बर्तनों एवं प्रतिमाओं के साथ-साथ कई तरह के औजार और हथियार  भी बनाने में निपुण थे। मुद्रा निर्माण और मूर्तिका निर्माण इनका प्रमुख व्यावसाय था।स्वर्णकार सोने ,चांदी एवं कीमती पत्थरों के आभूषण बनाते थे।भवन निर्माण की

चित्रकला की अदभुत शैली- पटना कलम

17वीं-18वीं शताब्दी में पारंपरिक भारतीय चित्रकला की एक क्षेत्रीय शाखा नए रूप में बिहार राज्य की राजधानी पटना और उसके आस-पास के क्षेत्रों में आकार ले रही थी,जिसे पटना कलम के रूप में पहचान मिली।वास्तव में इस शैली के कलाकार मुगल चित्रकार ही थे जो औरंगजेब और उसके परवर्ती शासकों के चित्रकला के प्रति अरुचि के कारण पलायन के लिए बाध्य हुए थे। ये कलाकार पटना जैसे उभरते नवीन व्यापारीक केंद्रों की ओर उन्मुख हुए और इसे अपनी कला के केंद्र के रूप में विकसित किया। ये चित्रकार पटना के लोदी कटरा,दीवान मुहल्ला,नित्यानंद का कुआँ और मच्छरहत्ता जैसे इलाकों में स्थाई रूप से बस गए।          पटना कलम के चित्रकारों ने व्यावसायिक तौर पर बाजार की मांग के अनुरूप चित्रों के निर्माण का कार्य शुरू किया। इन चित्रों को उस समय विदेशी व्यापारी और पटना के कुलीन वर्ग के लोग बड़े चाव से खरीदते थे।रईसों की अभिरुचि पोट्रेट्स या व्यक्तिचित्र में  तथा फूल एवं पक्षियों में अधिक थी ;जबकि विदेशियो की रुचि भारपिकझेतीय संस्कृति,परम्परा,पर्व-त्योहार,वेश-भूसा,रीति-रिवाज तथा उद्योग-धंधों में अधिक था।इस प्रकार के चित्रों को बनवाने के

विक्रमशिला विश्वविद्यालय

8वीं शताब्दी में बिहार एवं बंगाल में शासन की बागडोर संभालनेवाले पाल शासकों का शिक्षा के प्रसार में अप्रतिम योगदान था। उन्होंने शिक्षा के विकास के लिए बड़े-बड़े बौद्ध मठों,विहारों एवं विश्वविद्यालयों की स्थापना करवाई। इसमे बिहार का विक्रमशिला विश्वविद्यालय अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के रूप में ख्यातिप्राप्त था।इसकी भौगोलिक  स्थिति भागलपुर से लगभग 30 किमी.पूर्व में पत्थरघाट नामक पहाड़ी पर बताई जाती है।           बौद्ध शिक्षा के प्रमुख केंद्र के रूप में विक्रमशिला महाविहार की स्थापना पालवंशीय शासक धर्मपाल (775-800ई,)ने करवाई थी।यहां160 विहार तथा व्याख्यान के लिए अनेक कक्ष बने हुए थे।इस  विश्वविद्यालय के अंतर्गत छः महाविद्यालय कार्यरत थे।प्रत्येक महाविद्यालय में एक केंद्रीय कक्ष,जिसे "विज्ञान भवन" कहा जाता था तथा 108 अध्यापक थे।सभी महाविद्यालयों के प्रवेशद्वार पर एक-एक द्वारपंडितों की नियुक्ति की गयी थी।द्वारपंडितों द्वारा परीक्षण के पश्चात ही महाविद्यालय में दाखिले की प्रक्रिया शुरू होती थी।इसमें उन्हीं विद्यार्थियों को प्रवेश मिलता था ,जिन्हें द्वारपंड़ितों की अनुमति प्राप्त होत

पुष्करम महोत्सव - दक्षिण भारत का महाकुम्भ

धर्म के प्रति आस्था और निष्ठा सदियों से भारतीय समाज का अभिन्न अंग रहा है।जब कोई ऐसा अवसर सदियों बाद मिलनेवाला हो तो यह श्रद्धा अंधभक्ति में बदल जाती है और जनता भीड़ का रुप ले लेती है।शांति और सौहार्द्र अक्सर यहीं चूक जाता है और भक्तों को इसका खामियाजा अपनी जान देकर  चुकाना पड़ता है।ऐसा ही धार्मिक आस्था का सैलाब तब उमड़ा जब आंध्रप्रदेश के गोदावरी नदी के तट पर सालों भर चलने वाला उत्तर भारतीय कुम्भ मेलों के सदृश 14 जुलाई 2015 से महापुष्करम महोत्सव का आयोजन किया गया।महोत्सव के पहले ही दिन 29 श्रद्धालुओं की मौत हो गयी लिसमें 23 वृद्ध महिलाएं थी,जो 50-60 आयुवर्ग से संबंधित थी।          यूँ तो यह धार्मिक समारोह हर 12 साल पर आयोजित होता है ,लेकिन इस बार के महोत्सव का खास महत्व है।खगोलीय दृष्टिकोण से गोदावरी पुष्करम को अत्यंत शुभ माना जा रहा ,क्योकि इस वर्ष महाकुम्भ की भांति महापुष्करलु पड़ा है।इस अवसर पर हजारों की संख्या में श्रद्धालु पवित्र गोदावरी में डुबकी लगाने के लिए जमा हुए है।ऐसा माना जाता है कि इस समय कोई भी व्यक्ति पवित्र नदी में स्नान करेगा तो उसके सारे पाप धूल जाएगें।इस मौके को कोई मू

इतिहास के आइने में महिला सशक्तिकरण

महिलाओं की गुलामी तथा दूसरे दर्जे की सामाजिक स्थिति का प्राचीन समय से ही साहसिक एवं तर्कपूर्ण प्रतिवाद किया जाता रहा है।मध्यकाल की शताब्दियों के लंबे गतिरोध के दौर में स्त्री मुक्ति की वैचारिक पृष्ठभूमि तैयार करने के कार्य लगभग रुके रहे और प्रतिरोध की धारा भी अत्यंत क्षीण रही।आधुनिक युग में पुनर्जागरण काल के मानवतावाद और धर्मसुधार आंदोलन ने समाज की पितृसत्तात्मक ढांचे के विरुद्ध स्त्री समुदाय में भी नई चेतना के बीज बोए जिसका प्रस्फुटन प्रबोधन काल में हुआ।जो देश औपनिवेशिक गुलामी के नीचे दबे होने के कारण मानवतावाद और तर्क बुद्धिवाद के नवोंवेष से अप्रभावित रहे और जहाँ इतिहास की गति कुछ विलंबित रही,वहाँ भी राष्ट्रीय जागरण और स्वतंत्रता संघर्ष के काल में स्त्री समुदाय में अपनी मुक्ति की नई चेतना जागृत हुई।               भारत में 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में कुछ पुरुष सुधारकों ने स्त्रियों के दारुण एवं बर्बर स्थिति में सुधार की मांग करने की शुरुआत की थी तथा शताब्दी के अंतिम दशकों में कुछ जागरूक महिलाओं ने अपने स्वयं के संगठन खड़े किये और व्यवस्था परिवर्तन की पुरजोर मांग उठाई।परम्परा,न

पुण्यतिथि के बहाने - भिखारी ठाकुर

बारिश की बूंदों की मानिंद यादें अतीत के गर्त में डूब जाती है ,लेकिन महापुरुषो के पदचिह्न आनेवाली पीढ़ियों को बराबार यह संदेश देते है कि क्षमता और परिश्रम से किया गया कार्य रेत पर लिखी इबारत नही होती;जिसे हवा का एक झोंका या पानी का एक बुलबला आसानी से मिटा दे ।बहुमुखी प्रतिभा के धनी ऐसे ही महापुरुष भिखारी ठाकुर थे,जिसे भोजपुरी साहित्य का शेक्सपियर कहा जाता था ।भिखारी ठाकुर को भोजपुरी भाषा पर जबरदस्त अधिकार था।साहित्य की सभी विधाओं ,संगीत,नाटक,गीत,काव्य,रंगमंच एवं नृत्य पर उनका समान अधिकार था।शुरुआती जीवन में रामयण मंडली के साथ काम करने के कारण इन्होंने अपना सम्पूर्ण काव्य चौपाइयों में ही लिख डाला।इस महान बिभूति का जन्म सारण जिले के कुतुबदियारा गाँव में 18 दिसम्बर 1887 को एक नाई परिवार मे हुआ था।इनके पिता दलसिंगार ठाकुर और माता शिवकली ठाकुर पैतृक पेशे से संबंधित थे।अतः इनका प्रारंभिक जीवन घोर गरीब में बिता था ,9 वर्ष की अवस्था में भिखारी विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास गए।लेकिन ककाहरा सीखने के बाद ही उन्होंने विद्या का साथ छोड़ गाय चराने लगे।आर्थिक तंगी के चलते कम उम्र मे ही भिखारी ठाकुर नौ

हड़प्पाकालीन धर्म और समाज

हड़प्पा संस्कृति के धर्म के विषय में लिखित साक्षयों का पूर्ण अभाव है। इस संस्कृति के उत्खनन से मिले साक्ष्यों से धर्म के केवल क्रियापक्ष पर ही प्रकाश डाला जा सकता है,सैद्धान्तिक  पक्ष पर कोई टिप्पणी नहीँ की जा सकती।              हड़प्पा समाज के शीर्ष पर तीन प्रकार के लोगों की अदृश्य श्रेणियां थी- शासक,व्यापारी ,तथा पुरोहित।पुरोहित हड़प्पा,मोहनजोदड़ों,लोथल एवं कलिबंगन जैसे नगरों में रक्षा प्राचीर से घिरे हुए विशिष्ट सुविधाओं से युक्त दुर्ग क्षेत्र में निवास  करते थे,जो निःसंदेह विशेषाधिकारों से युक्त व्यक्तियों य शासकों का निवास क्षेत्र था। मोहनजोदड़ो के किलेबंद नगर एवं निचले भागों में बड़ी-बड़ी इमारतें मिली है जिनकी पहचा न मंदिरों के रूप में की गयी है;लेकिन वास्तविकता यह है कि अभी तक एक भी स्थल ऐसा नही मिला है जिसे मंदिर कहा जा  सके। मोहनजोदड़ो में प्राप्त पवित्र स्नानागार के उत्तर पूर्व 83×24मी वाला एक भवन प्राप्त हुआ है जिसे पुरोहित का भवन कहा जाता है,आवश्य ही उस काल में इसका धार्मिक महत्व रहा होगा ।       हड़प्पा काल के सबसे महत्वपूर्ण देवता के रूप में आदिशिव की पहचान की गयी हैं। मोहनजो