प्राचीन भारत में विज्ञान एवं प्रौद्योगीकी
धर्म और आध्यात्मिकता से ओत-प्रोत होने के बावजूद भी विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत की प्रचुर सांस्कृतिक विरासत रही है।4000 ई.पूर्व में ही भारत में पहली औद्योगोकी या तकनीकी क्रांति का जन्म हुआ और इसका पहला चरण लगभग 3000 ई.पूर्व तक पूरा हो चुका था।लगभग इन 1000 वर्षों में फैले प्रथम औद्योगिक क्रांति के प्रमुख आविष्कार थे- आग की खोज,कृषि एवं सिचाई तकनीकों का विकास,बाढ़ का नियंत्रण ,हल एवं चक्के का विकास। इस युग में भारतवासियों ने पर्याप्त समुन्नत प्रौद्योगीकी का विकास कर लिया था।
हड़प्पा में बनी ईंट की इमारतों से प्रकट होता है कि प्राचीन भारत में लोगों को मापन एवं ज्यामिति का अच्छा ज्ञान था।सैंधव जन कांस्य के निर्माण और प्रयोग से भलीभांति परिचित थे।ताँबे में टिन मिलाकर धातुकर्मियों ने कांसा बनाने की तकनीक विकसित कर ली थी।हड़ाप्पाई विभिन्न प्रकार के बर्तनों एवं प्रतिमाओं के साथ-साथ कई तरह के औजार और हथियार भी बनाने में निपुण थे। मुद्रा निर्माण और मूर्तिका निर्माण इनका प्रमुख व्यावसाय था।स्वर्णकार सोने ,चांदी एवं कीमती पत्थरों के आभूषण बनाते थे।भवन निर्माण की कला तो अद्वितोय थी।पत्थरों को चमकाने एवं मृदभांडो के निर्माण वे सिद्धहस्त थे।
वैदिक काल में विज्ञान की विविध शाखाओं के विकास के संकेत मिलते है।इस संदर्भ में यजुर्वेद विशेष महत्व का है।इसमें स्थान-स्थान पर नक्षत्रों की चर्चा की गई है।चिकित्सकीय दृष्टि से यह ग्रंथ महत्वपूर्ण है।वैदिक साहित्यों में उल्लेखित शक्ति के प्रतीक रुद्र को यजुर्वेद में पहला दैवीय चिकित्सक माना गया है।वैदिक लोगों की गणित की जानकारी उच्चस्तरीय थी।उन्हें गणित की मूल अवधारणाओं तथा प्रारंभिक भिन्न की पर्याप्त् जानकारी थी।इसका अनुमान ऋग्वेद में उल्लेखित अर्ध (1/2),त्रिपद(3/4) जैसे पदों से सहज ही लगाया जा सकता है। खुले आकाश ने नीचे यज्ञ वेदियों के निर्माण की आवश्यकता ने इन्हे ज्यामिति के सिद्धांतों को गढ़ने में सहायता पहुचाई होगी।भारतीय गणित की सफलता का मुख्य कारण पदार्थों एवं स्थानीय विस्तारों के संख्यात्मक परिणाम से स्पष्टतः भिन्न अमूर्त संख्याओं के विषय में भारतीय विचार की सुबोधता थी।जहाँ यूनानी गणित मुख्य रूप से ज्यामिति एवं भू-माप पर आधारित था,वहीं भारतीयों ने साधारण संख्यानकन पद्धति की सहायता से प्राथमिक बीजगणित का विकास कर लिया था जिसमें यूनानी गणित की अपेक्षा अधिक जटिल संगणनाओं को सम्पन्न किया जा सकता था।
ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में गणित,खगोलविद्या और आयुर्विज्ञान तीनों का विकास विज्ञान के अलग-अलग क्षेत्र के रूप में हुआ।गणित के क्षेत्र में आर्यभट्ट प्रथम,भास्कर प्रथम,ब्रह्मगुप्त,महावीर,आर्यभट्ट द्वितीय,श्रीपत,मंजुल,श्रीधर,भास्कर द्वितीय विशेष उल्लेखनीय थे।गणित के क्षेत्र में भारतीयों का तीन प्रमुख योगदान है- अंकन पद्धति,दाशमिक पद्धति और शून्य का प्रयोग।दाशमिक पद्धति के प्रयोग का प्राथमिक साक्ष्य 500 ई.पूर्व का है।प्रख्यात आर्यभट्ट इससे परिचिता थे।चीनियों ने यह पद्धति बौद्ध धर्म प्रचारकों से सीखी और अरबों के माध्यम से यह पश्चिम जगत को ज्ञात हुई। भारतीय अंकन पद्धति का प्रयोग मौर्य शासक अशोक के अभिलेखों में मिलता है।भारतीय अंकन पद्धति को अरबों ने अपनाया और इसे सारी दूनियाँ में प्रसारित किया।अंग्रेजी में भारतीय अंक को अरबी अंक कहा जाता है जबकि स्वयं अरबों ने इसे "हिंदसा"कहा है।शून्य का आविष्कार भारतीयों ने ईसा पूर्व दूसरी सदी में किया था। अरब जगत में शून्य का प्रयोग सबसे पहले 873 ई.में पाया जाता है।अरबों ने इसे भारत से सीखा और यूरोप को निर्यात किया।ब्रह्मगुप्त,महावीर और भास्कर जैसे गणितज्ञों ने कई ऐसी खोजें की जो यूरोप के पुनर्जागरण काल एवं उसके बाद के कालों तक ज्ञात नहीं थी।उन्होंने वर्गमूल एवं घनमूल निकालने की ठोस प्रणाली को विकसित कर लिया था।वे घनात्मक और ऋणात्मक परिणामों के अभिप्राय से परिचित थे; तथा वर्ग समीकरण एवं अन्य प्रकार के अनिश्चित समीकरणों का उत्तर निकाल सकते थे।आर्यभट्ट ने पाई का वही मूल्य 3.1416 दिया जो आधुनिकतम शुद्ध मूल्य है और इसे 63832/20000 भिन्न में प्रकट किया है।प्रारंभिक गणितज्ञों की यह धारणा थी कि X/0 = X ,किन्तु भास्कर ने यह सिद्ध कर दिया कि यह असंख्यता होगी।हजारों वर्ष पहले भारतीयों ने यह अनुभव किया था कि असंख्य का कितना ही विभाजन किया जाय वह असंख्य ही होता है।भास्कर ने समिकरण द्वारा इसे सिद्ध भी किया कि 00/00=00 होता है।आर्यभट्ट ने त्रिभुज का क्षेत्रफल निकालने का नियम प्रतिपादित किया जिसके फलस्वरूप त्रिकोणमिति का जन्म हुआ।
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