पुण्यतिथि के बहाने - भिखारी ठाकुर

बारिश की बूंदों की मानिंद यादें अतीत के गर्त में डूब जाती है ,लेकिन महापुरुषो के पदचिह्न आनेवाली पीढ़ियों को बराबार यह संदेश देते है कि क्षमता और परिश्रम से किया गया कार्य रेत पर लिखी इबारत नही होती;जिसे हवा का एक झोंका या पानी का एक बुलबला आसानी से मिटा दे ।बहुमुखी प्रतिभा के धनी ऐसे ही महापुरुष भिखारी ठाकुर थे,जिसे भोजपुरी साहित्य का शेक्सपियर कहा जाता था ।भिखारी ठाकुर को भोजपुरी भाषा पर जबरदस्त अधिकार था।साहित्य की सभी विधाओं ,संगीत,नाटक,गीत,काव्य,रंगमंच एवं नृत्य पर उनका समान अधिकार था।शुरुआती जीवन में रामयण मंडली के साथ काम करने के कारण इन्होंने अपना सम्पूर्ण काव्य चौपाइयों में ही लिख डाला।इस महान बिभूति का जन्म सारण जिले के कुतुबदियारा गाँव में 18 दिसम्बर 1887 को एक नाई परिवार मे हुआ था।इनके पिता दलसिंगार ठाकुर और माता शिवकली ठाकुर पैतृक पेशे से संबंधित थे।अतः इनका प्रारंभिक जीवन घोर गरीब में बिता था ,9 वर्ष की अवस्था में भिखारी विद्याध्ययन के लिए गुरु के पास गए।लेकिन ककाहरा सीखने के बाद ही उन्होंने विद्या का साथ छोड़ गाय चराने लगे।आर्थिक तंगी के चलते कम उम्र मे ही भिखारी ठाकुर नौकरी की तलाश में मेदनीपुर,खड़गपुर तथा उड़ीसा का दौरा किया।यहीं पर भिखारी रामलीला करने लगे और अंत अंत तक इससे जुड़े रहे। 83 वर्ष की अवस्था में 10 जुलाई 1971 ई.में भिखारी ठाकुर की मृत्यु हो गई।
       भिखारी ठाकुर का सम्पूर्ण साहित्य सामाजिक समस्याओं पर केंद्रित है।चाहे वह आप्रवसान की समस्या हो या पारिवारिक कलह या आर्थिक तंगी सब पर उन्होंने धड़ल्ले से हमला किया है। जिस महिला अधिकारिता और महिला सशक्तिकरण की बात आज की जा रही है उसको ठाकुर ने अपने नाटको में काफी पहले ही उठाया था। बेटी वियोग ,पुत्र वध, भाई विरोध,विदेसिया,गबरघिचोर,ननद-भौजाई,गंगा-स्नान तथा राधेश्याम विहार में स्त्री-प्रश्न को प्रमुखता से उठाया गया है।विधवा विलाप में विधवाओं के प्रति सामाजिक नजरिए को दर्शाया गया है,उन पर  किये जानेवाले कठोर व्यवहार एवं उनके द्वारा अपनाये जाने वाले विधि-निषेधों का सिलसिलेवार वर्णन किया गया हैं।गबरघिचोर मेंअवैध बच्चे की समस्या को उठाया गया है;जबकि बेटी बेचवा में पैसे की खातिर एक पिता अपनी बेटी की शादी एक 80 साल के बुढ़े से कर देता है।विदेसिया में एक प्रवासी बिहारी की कथा है,जो नौकरी की खोज में  कलकत्ता चला जाता है और वहीं एक पुतुरीया के फेर में पड़कर अपनी नवविवाहिता को विरह-वियोग में तड़पने के लिए छोड़ जाता है।यह सिर्फ उस समय की समस्या नहीं थी,आज भी हजारों की संख्या में बिहारी मजदूर पलायन को वाध्य है। आज भी हजारों की संख्या मे महिलाएं अपने पति का परदेश से लौटने का इंतजार करती रह्ती है।

             

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