आयुर्विज्ञान के विकास में भारतीयों का योगदान

ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के बाद भारत में चिकित्साशास्त्र विज्ञान की एक नई शाखा के रूप में प्रतिष्ठित हुआ।लेकिन औषधीय एवं शारीरिक रचना विज्ञान का प्रारंभिक स्तर वेदों में दिखाई पड़ता है।अथर्ववेद में अतिसार ,ज्वर एवं जलोदर आदि की पहचान की गई है।इसी वेद में पहली बार चिकित्सकीय ज्ञान का संहिताकरण किया गया है।स्थान-स्थान पर रोगों एवं व्याधियों की चर्चा की गयी है।यजुर्वेद में प्रथमो दैवो भिषजः कहकर शक्ति के देवता रुद्र को पहला दैवीय चिकित्सक माना गया है।यजुर्वेद में ही पब्लि बार यक्ष्मा एवं राजयक्ष्मा के 100 प्रकारों का उल्लेख मिलता है।
   यद्यपि चिकत्सा विज्ञान के आरंभिक बीज वेदों में मिलते है ,लेकिन वैव्यानिक धरातल पर आयुर्विज्ञान का विकास दूसरी शताब्दी में चरक की चरक संहिता एवं सुश्रुत की सुश्रुत संहिता में परिलक्षित होता है।चरक संहिता को भारतीय चिकित्साशास्त्र का विश्वकोश माना गया है।इसमें अनेक प्रकार के ज्वर,कुष्ट,मिर्गी और यक्ष्मा के विभेदों,लक्षणों एवं निदान के उपायों की व्याख्या की गयी है। यहीं नहीं चरक संहिता में भारी संख्या में उन पेड़-पौधों का भी वर्णन है जिनका प्रयोग दवा के रूप में होता था।सुश्रुत संहिता में मोतियाबिन्द ,पथरी और कई रोगों का शल्योपचार बताया गया है।रोगों के उपचार के क्रम में सुश्रुत ने आहार एवं सफाई पर विशेष बाल दिया है।इनके बाद औषधिशास्त्र का सबसे बड़ा महत्वपूर्ण लेखक वाग्भट हुआ जिसने अष्टांगहृदय नामक ग्रंथ की रचना की । प्राचीन भारतीयों ने शल्य चिकित्सा के सूक्ष्म से सूक्ष्म औजारों के निर्माण में सफलता हासिल कर रखी थी और वे अंग प्रत्यारोपण जैसी दुष्कर शैल्य -चिकित्सा में माहिर थे। वेदों में बताया गया है कि युद्ध में कट्टे विश्वपाला के पैरों को अश्विनी कुमारों ने जोड़ दिया था।सुश्रुत ने भी शल्यक्रिया के बहुत सारे उपकरणों का उल्लेख किया है जिनकी संख्या 121 तक है।यूनानियों,अरबों एवं मिश्रवासियों ने शल्य चिकित्सा का ज्ञान भारतीयों से सीखा था।
     प्राचीन भारतीय चिकित्साशास्त्र के अनुसार बीमारियाँ जन्मजात कारकों ,मौसम में बदलाव और शरीर के सूक्ष्म अवयवों में आई विकृतियों के परिणामस्वरूप होता है।भारतीय चिकित्साशास्त्र का मूलभाव "दोष" की अवधारणा थी।यह माना जाता था कि वात,पित्त और कफ तीन मूल द्रव्य दोषों के समुचित द्वारा स्वास्थ्य को सुरक्षित रखा जा सकता है।इन दोषों में कतिपय  चिकित्साशास्त्रियों ने रक्त का चौथा दोष भी सम्मिलित कर दिया।तीन प्रारंभिक दोष त्रिगुण व्यवस्था से जुड़े हुए थे और सदाचार ,वासना और जाडय से उनका सम्बन्ध था। ऐसा माना जाता था कि शारीरिक क्रियाओं की व्यवस्था "पंचवायु" द्वारा होती है।उदान वाक् शक्ति को,प्राण श्वसन क्रिया को,समान पेट की अग्नि को,अपान मलस्खलन एवं सृजन को तथा वयान विच्छिन्न वायु को गति प्रदान करता है। इसमे यदि किसी प्रकार का विकार उत्पन्न होता है तो मनुष्य स्वस्थ नही रह सकता। भले ही उस समय भारतीयों को मष्तिष्क की क्रियाविधि का स्पष्ट ज्ञान नही था फिर भी वे मेरुदंड की महत्ता से परिचित थे और तंत्रिका तंत्र के अस्तित्व से अपरिचित नहीं थे।उन्होंने चिकित्साशास्त्र का एक सम्पूर्ण ताना-बाना बुन डाला था जिस पर भविष्य की पीढियाँ बड़ी-बड़ी इमारतें खड़ी कर सकती थी।

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