खगोलविज्ञान में प्राचीन भारतीयों की उपलब्धियाँ

खगोल विज्ञान वैदिक साहित्य के वेदांगों में से एक था।इस प्राचीन प्रकार की ज्योतिर्विद्या का मुख्य प्रयोजन समय-समय पर यज्ञों के दिनांक तथा काल का निश्चय करना था।खगोलविज्ञान से संबंधित प्राचीनतम स्रोत ज्योतिष वेदांग है;जो 500 ई.पूर्व की बताई जाती है।इससे ही 27 नक्षत्रों के बीच अमावस्या और पूर्णिमा के चंद्रमा के स्थान की गणना की जाती है।इसके साथ ही आयनों की गणना की जाती थी जो प्रत्येक 366 दिन के आवर्तन में पड़ते है। पांच सौर वर्ष में 67 चंद्र मास होते थे।सौर गणना की यह प्रणाली भारत में व्यापक रूप से व्यवहृत होती थी।इसे जैन साहित्य में भी उल्लिखित देख जा सकता है।
             प्रारंभिक भारतीय ब्रह्माण्ड विज्ञान समान्यतः वर्गों एवं घनो पर आधारित है।सबसे पहले पृथ्वी एक वर्ग पर आधारित है,जिसका एक कोना दक्षिण की ओर है।उसका आकर पिरामिड की तरह का है जिसके कई क्रमिक संकेन्द्रिक वर्गाकार टीले है जो ऊपर एक बिंदु तक उठते गए है।इसके शिखर पर मेरु पर्वत है। यह एक ऐसा पिरामिड है जो ऊपर उठते हुए और भी चौड़ा होता जाता है।सूर्य के स्तर के ऊपर चंद्रमा का स्तर है जिसके समान कक्ष है।इस प्रारंभिक मेरु ब्रह्माण्ड विज्ञान से संबंधित संख्या की एक सृंखला है।यह प्रणाली खगोल विज्ञान की अपेक्षा गणितीय अपेक्षाओं से संचालित होती है।28 का वर्गाकार कक्ष बताने के लिए भुजा 6 के एक मौलिक वर्ग की परिधि के चारों ओर इकाई वर्ग रख दिए जाते थे और प्रत्येक कोने पर प्रत्येक इकाई वर्ग में जोड़कर अर्थात् (4×6)+4,इस  प्रकार  चंद्रमा के उतरते केन्द्रों का ज्यामितीय चित्र प्रस्तुत किया जाता था।
         जैन और बौद्ध धर्म के मूल पाठों में प्राप्त परवर्ती ब्रह्माण्ड विज्ञान बुनियादी तौर पर वृत की संकल्पना पर आधारित है।मूलभूत अंतर यह है कि सूर्य प्रज्ञप्ति सिद्धांत में पृथ्वी को वृत्ताकार मण्डलक के रूप में चित्रित किया गया है  जिसके केंद्र में मेरु पर्वत है और ठीक ऊपर ध्रुवतारा है।पृथ्वी को घेरे सात संकेंद्रित महासागर और महाद्वीप है जबकि सभी ग्रह मेरु पर्वत की पुरब से पश्चिम की ओर परिक्रमा करते है।जम्बुद्विपोप्रज्ञाप्ति में और भी प्रगति यह हुई कि परिधि ब्यास ए/10 के अनुपात के आधार पर इस वृत की विस्तृत ज्यामिति और विस्तृत गणना की गयी है। संख्यात्मक परिणाम क्षेत्र बाण औत चापकर्णों के खंडों की लम्बाई के लिए प्राप्त किये जाते है और कतिपय मामलों में चतुष्कोण समाधान अपेक्षित होते है।साधारण रूपान्तर के साथ महा मेरु या सिनेरु ब्रह्माण्ड विज्ञान का बौद्ध विश्व में केंद्र स्थान ग्रहण कर लेता है।तत्पश्चात परमाणु सिद्धांत के अंतर्गत परमाणु मिलकर अणु बनाते है।इन अणुओं को वैशेषिक अनश्वर मानते है जबकि बौद्ध उन्हे प्रकृति का एक अंश मानते है जो चक्र के रूप में प्रकट होते है और गायब हो जाते है।केवद्ध सुत्त (दीघ निकाय) में मिलता है कि सभी पदार्थ चार तत्वों से बना है,अग्नि,वायु,जल और मिट्टी।तैतरीय उपनिषद में एक पाँचवाँ तत्व जोड़ दिया गया है जो अभौतिक और सर्वव्यापी है।अभिधर्म पिटक में परमाणु सिद्धान्त का पूर्ण विकसित रूप मिलता है।
          वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ज्योतिष विषयक रचनाएँ 300 ई.पूर्व की है।ज्योतिष विषयक मूल ग्रंथों में अब केवल एक सूर्य सिद्धात ही प्राप्त होता है। ज्योतिष या खगोल विज्ञान के क्षेत्र में भारत में आर्यभट्ट एवं वाराहमिहिर दो उद्भट  विद्वान हुए।आर्यभट्ट का जन्म पाँचवीं शताब्दी हुआ था जबकि वराहमिहिर छठी शताब्दी में पैदा हुए।आर्यभट्ट को भारतीय खगोल विज्ञान का संस्थापक माना जाता है जिसने सबसे पहले यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती है।आर्यभट्टीयम नामक अपने ग्रंथ में आर्यभट्ट ने अनुमान के आधार पर पृथ्वी की परिधि का मान निकाला जो आज भी शुद्ध माना जाता है।उन्होंने सूर्यग्रहण एवं चंद्रग्रहण के कारणों का पता लगाया। सर्वप्रथम उन्होंने सिद्ध किया कि सूर्य और चद्रमा के बीच में पृथ्वी के आ जाने से चंद्रग्रहण लगता है और सूर्य और पृथ्वी के बीच चंद्रमा के आ जाने से सूर्यग्रहण लगता है।उन्होंने इस मिथक को गलत बताया कि राहु और केतु चंद्रग्रहण एवं सूर्यग्रहण के लिए जिम्मेदार है।आर्यभट्ट के परवर्ती वराहमिहिर ने अपने सुविख्यात ग्रंथ वृहदसंहिता में यह प्रतिपादित किया कि सूर्य एक स्थिर ग्रह है ;चंद्रमा पृथ्वी का चक्कर लगता है और पृथ्वी सूर्य का।इसप्रकार भारतीय मनीषियों ने दुरवीक्षण यंत्र के अभाव में भी दशमलव के प्रयोग द्वारा निरीक्षण की अत्यंत शुद्ध मास सापेक्ष विधियाँ पूर्णतः सिद्ध कर ली थी।

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