शैवधर्म और विभिन्न संप्रदाय


गूगल के सौजन्य से 

शैवधर्म की उत्पत्ति हड़प्पा सभ्यता के पशुपति नामक देवता से मानी जाती है.हड़प्पाई मुहरों पर यह देवता योगी की मुद्रा में बैठा है ,जिनकी पहचान आदिशिव से की जाती है.यहीं के लोगों ने सर्वप्रथम लिंग और योनि की पूजा प्रकृति के प्रजनन शक्ति के रूप में करना शुरू किया था.ऋग्वेद में रूद्र नामक देवता की चर्चा मिलती है।,जो रोगविनाशक और वनस्पति का माना  जाता था.पाणिनी के अष्टाध्याय्यी में शैव या नटराज शब्द का प्रयोग किया गया है.जिनके डमरू के 14 बार बजने से अष्टाध्यायी के 14 सूत्र निकले थे जिसके आधार पर संस्कृत व्याकरण की रचना हुई। पातञ्जलि ने भी लौह ,दंड, गद्दा एवं चमड़े के वस्त्रों से सुसज्जित शिव भागवतों का उल्लेख बड़ी ही मनोयोग से  किया है.
भारतीय सांस्कृतिक परम्परा में मुख्यतः शैवधर्म की चार धाराएं प्रचलित थी - 1. वीरशैव या लिंगायत  2 .पाशुपत
3 .कापालिक    4 .कालमुख। वासव ने 12वीं शताब्दी में  कर्नाटक में लिंगायत संप्रदाय की स्थापना की थी.वह  कलचुरी शासक विज्जल का मंत्री था। इनका सिद्धांत विशिष्टाद्वैत का सिद्धांत था.इसमें मूर्तिपूजा का विरोध किया गया है.इस मत के अनुयायी सदैव अपने साथ एक लघु लिंग लिए रहते थे। शिव विशिष्टाद्वैत के संस्थापक श्रीकंठ बताये जाते है। इस संप्रदाय में पुरोहितों का एक वर्ग संगठित हुआ ,जिसे जंगम कहा जाता है। तमिल क्षेत्र में शैवों नेने संतों की परमरा चलाई जिसमें इनकी संख्या 63 बताई जाती है,इनकी रचनाओं को तिरुमुराई नामक ग्रन्थ में संकलित की गयी है। इस क्षेत्र के शैव धर्म में तीन वर्गों की वास्तविकता प्रतिपादित की गयी है - पति (ईश्वर,स्वामी ),पशु (जीव,आत्मा ),पाश (बंधन ,प्रकृति ).लिंगायत संप्रदाय का साहित्य तेलुगू एवं कन्नड़ भाषा में है।बंधन से मुक्ति के लिए 4 अंग है-विद्यापद,क्रियापद,योगपद,और चर्यापद।वीरशैवमत  गीतों को वचनशास्त्र कहा जाता है। ये लोग ॐ नमः शिवाय का उच्चारण करते थे।
पाशुपत शैवधर्म  का सबसे  संप्रदाय है। मालवा  में पाशुपत संप्रदाय के लोग काफी मात्रा में थे। ह्वेनसांग के अनुसार जालंधर,मालवा,महेश्वर में   पाशुपत संप्रदाय प्रचलित था। इस संप्रदाय के लोग लिंग पूजा करते थे,इससे सम्बंधित  उज्जैन का महाकाल मंदिर काफी प्रसिद्द है।  पाशुपत संप्रदाय के अनुसार 5 तत्वों की सत्ता स्वीकार की जाती थी-1 . कार्य  2 . कारण  3 .योग  4 .विधि  5 .दुखांत। पाशुपतों के प्रारंभिक साहित्य को आगम कहा जाता है,जो संस्कृत भाषा में प्राप्त है। कापालिक का उपास्य देव भैरव है। सुरापान और अभक्ष्य भोजन इसका अंग है। कपालिकसुरापान में विद्यमान देवता की पुजा करते थे।इस संप्रदाय का उदय गुप्तोत्तर काल  में हुआ था। रामानुज के भाष्य में कापालिकों का वर्णन मिलता है। कालमुख ,कापालिक का अंग होता है.भोजन के लिए नरकपाल का प्रयोग और भष्म को शरीर पर लगते थे। इनके लिए सुरापान साधना के लिए अनिवार्य  था.
शैव भगवत धर्म का ठोस ऐतिहासिक आधार पर उल्लेख सबसे पहले मेगस्थनीज द्वारा किया गया है। मगध नरेश अशोक का पुत्र जालौक शैव धर्म का कटटर अनुयायी था। गांधार की राजधानी पुष्कलावती का सरंक्षक देवता नंदी या विषभ को मन जाता है। यह मादेव का एक भव्य मंदिर भी पाया गया है। 100 ई0पूर्व में रेनिगुंटा के समीप के एक गांव गुड्डीमलम सेल लिंग और मनवाकर की सम्मिलित मूर्ति मिली है। ऐसी मूर्तियों को लिंगोद्भव मूर्ति खा जाता था। इस समय मुखलिंग प्रकार कभी मूर्ति मिली है ,जिसमे लिंग के ऊपर एक,दो,तीन,चार दिशाओं में शिव का मुख बनाया जाता था। कश्मीर में शैव सम्रदाय का संस्थापक वसुमित्र थे। कल्लट,उत्पल,रामकंठ,और अभिनवगुप्त अन्य आचार्य थे। इस संप्रदाय की दो शाखाये थी -स्पंदशास्त्र और प्रत्यभिज्ञाशास्त्र। प्रतिभिज्ञा संप्रदाय का प्रवर्तक सोमानन्द थे। कुषाण शासक हुविष्क के आकृति पायी जाती है। पुष्यभूति वंश का सम्राट हर्ष को शैव भक्त कहा  गया है। बांसखेड़ा तथा मधुबन ताम्रलेख के अनुसार 619 ई0 तक हर्ष शैव था। बाण के अनुसार थानेश्वर में घर-घर में खण्डपरशु अर्थात शिव की पूजा होती थी। हर्ष का समकालीन कामरूप का राजा भास्करवर्मन भी शैव था। पाल,सेन,और चंदेल राजाओं के अभिलेख ॐ नमः शिवाय की प्रार्थना थे। भोज ने नीलकंठेश्वर मंदिर उदयपुर में बनवाया था। भोज की तत्वपरीक्षा शैवधर्म से सम्बंधित है। 

Comments

Popular posts from this blog

प्रख्यात आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी

साम्प्रदायिकता का उद्भव एवं विकास

ब्रिटिश राज के अन्तर्गत स्त्री-शिक्षा