पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता

 चंद्रवरदाई कृत पृथ्वीराज रासो आदिकाल का सर्वाधिक महत्वपूर्ण एवं विशालकाय महाकाव्य है। यह ऐतिहासिक काव्य परंपरा में विवादास्पद है ,जिसमें कवि ने अपने बालसखा एवं आश्रयदाता महाराज पृथ्वीराज तृतीय के जीवन और युद्धों का व्यापक प्रभावपूर्ण और यथार्थ चित्रण 1500 पृष्ठों और 68 सर्गों में किया है। इसमें कुल 1, 00,000 छंद है ।यह ग्रंथ संवाद -शैली में है। कवि की पत्नी प्रश्न करती है और कवि उसका उत्तर देता है। इसमें यज्ञ कुंड से चार क्षत्रीय कुलों की उत्पत्ति तथा चौहानों की अजमेर राज्य स्थापना से लेकर पृथ्वीराज के पकड़े जाने तक का विस्तृत वर्णन है ।ऐसा लगता है कि ग्रंथ का अंतिम भाग चंद के पुत्र जल्हण ने पूर्ण किया था ।पृथ्वीराज रासो की साहित्यिक गरिमा को सभी विद्वानों ने मुक्त कंठ से स्वीकारा है। यह एक सफल महाकाव्य है जिसमें वीर और श्रृंगार दोनों रसों का सुंदर परिपाक हुआ है।

कर्नल टॉड ने सर्वप्रथम इस महाकाव्य को प्रामाणिक मानकर और इसकी काव्य गरिमा की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुए बंगाल एशियाटिक सोसाइटी  से इसका प्रकाशन आरंभ करवाया ।उसी समय डॉक्टर ह्वूलर को कश्मीर की यात्रा करते समय कश्मीर के राजकवि जयनाक द्वारा संस्कृत में लिखी पृथ्वीराज विजय की खंडित प्रतियां देखने को मिली ।डॉक्टर ह्वुलर ने पृथ्वीराज विजय को प्रामाणिक और पृथ्वीराज रासो को अप्रामाणिक घोषित किया ।क्योंकि पृथ्वीराज विजय की सभी तिथियों और सम्वतों का मेल इतिहास से होता है जबकि पृथ्वीराज रासो  में दिए गए सम्वतों और ऐतिहासिक सम्वतों में 100 वर्ष का अंतर है । तभी से पृथ्वीराज रासो की  प्रामाणिकता अप्रामाणिकता को लेकर विद्वानों में काफी मतभेद रहा है।

सर्वथा अप्रामाणिक मानने वाला वर्ग:

 इस वर्ग में डॉ. व्हीलर ,डॉक्टर कविराज श्यामलदास , मुरारीदीन,गौरीशंकर हीराचंद ओझा ,मुंशी देवी प्रसाद ,आचार्य रामचंद्र शुक्ल, डॉ मोतीलाल मनेरिया, डॉ रामकुमार वर्मा आदि विद्वान है। इस महाकाव्य को महत्वपूर्ण एवं विलक्षण इन्होंने भी स्वीकार किया है और इसके साहित्यिक महत्व पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं खड़ा किया है।

दूसरा प्रामाणिक मानने वाला वर्ग है ।इस वर्ग में डॉक्टर ग्रियर्सन ,बाबू श्यामसुंदर दास ,मथुरा प्रसाद दीक्षित ,मोहनलाल , विष्णु लाल पांड्या, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध ,डॉ दशरथ शर्मा, मिश्र बंधु आदि विद्वान आते हैं।इन विद्वानों ने इसकी महत्ता के अनेक पक्ष उद्घाटित किए हैं।

एक तीसरा वर्ग भी है जो पृथ्वीराज रासो को अर्ध प्रामाणिक मानता है ।इस वर्ग में डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी, सुनीति कुमार चटर्जी, अगरचंद नाहटा, कविराज मनमोहन सिंह तथा माताप्रसाद गुप्त आते हैं। इन विद्वानों ने रासो की साहित्यिकता को रेखांकित किया है।

रासो को सर्वथा अप्रामाणिक  मानने वाले विद्वानों ने अनेक तर्क दिए हैं तथा प्रामाणिकता पर प्रश्नचिन्ह लगाया है। इस तरह का विवाद पर्याप्त समय से रहा है। इस वर्ग के लेखकों ने पृथ्वीराज रासो को पूर्णरूपेण और प्रामाणिक घोषित कर अपने मत  के समर्थन में निम्नलिखित तर्क दिए हैं ।इसे रूपांतरों की एकता, पात्रों, प्रसंगों और संवतों में अनैतिहासिकता ,भाषा की बहुलता तथा रचनाकारों की अनेकता आदि समझा जा सकता है।

घटना वैषम्य:

रासो में वर्णित अनेक घटनाएं ऐसी है जो इतिहास से मेल नहीं खाती है, जैसे :-

1. रासो में चौहानों को अग्नि वंश का बताया गया है जबकि प्राचीन ग्रंथों और शिलालेखों के अनुसार वे सूर्यवंशी थे।

2. पृथ्वीराज की माता का नाम ,माता का वंश आदि ऐतिहासिक शिलालेखों से मेल नहीं खाते हैं। पृथ्वीराज की माता अनंगपाल की पुत्री नहीं थी, क्योंकि शिलालेखों में उसे गहरवार वंशी बताया गया है। रासो में पृथ्वीराज की माता का नाम कमला है, जबकि इतिहास के अनुसार उनकी माता कर्पूर मंजरी थी।

3. रासो में पृथ्वीराज की बहन का विवाह मेवाड़ के राजा समर सिंह से दिखाया गया है। लेकिन यह शिलालेखों से सिद्ध नहीं होता है क्योंकि पृथ्वीराज के पश्चात समर सिंह 119 वर्षों तक जीवित रहे।

4. रासो के अनुसार पृथ्वीराज के पिता सोमेश्वर की मृत्यु गुजरात के राजा भीमदेव के हाथों हुई। अपने पिता की मृत्यु के प्रतिशोध स्वरुप पृथ्वीराज ने भीमदेव का वध किया।किंतु यह दोनों घटनाएं कल्पित है। इतिहासकारों ने भीमदेव, भीमसेन, भीमराव तथा भीम सिंह नामों का उल्लेख एक ही राजा के लिए किया है।

5. गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने पृथ्वीराज और जयचंद की स्वतंत्रता को भी संगत नहीं माना है और नहीं संयोगिता स्वयंवर को।

6. शहाबुद्दीन गौरी की मृत्यु पृथ्वीराज के से करवाना भी उचित नहीं है क्योंकि गौरी की मृत्यु खोखरों के हाथों हुई थी।

रूपांतर की अधिकता के कारण इसे अप्रामाणिक माना जाता है । वृहत्,मध्यम, लघु तथा लघुत्तम आकार की प्रतियां मिलती है। भाषा की बहुलता भी विवाद का कारण है। इस प्रकार रासो की प्रमाणिकता के संबंध में और भी बहुत से तर्क दिए जाते हैं, जिनसे सिद्ध होता है कि रासो पूर्णरूपेण प्रमाणिक ग्रंथ  है। इसके अनेक रचयिताओं का उल्लेख किया जाता है । यह सही कि इसे प्रामाणिक मनाने वाले विद्वानों के पास अप्रामाणिक मानने वालों  का खंडन करने के लिए पर्याप्त तर्क नहीं है फिर भी काफी कुछ प्रामाणिक है।

रासो को अर्ध प्रामाणिक मानने वाले वर्ग के तर्क अधिक सटीक है ।इस धारणा से रचना का महत्व स्वयंसिद्ध हो जाता है । इस वर्ग के साहित्यकारों ने ऐतिहासिकता के साथ साहित्यिकता को आधार बनाया है ।डॉ हजारी प्रसाद द्विवेदी ,सुनीति कुमार चटर्जी ,अगरचंद नाहटा, कविराज मोहनसिंह आदि विद्वान रासो को अर्द्ध -प्रामाणीकरण स्वीकार करते हैं । इन विद्वानों का विचार है कि रासो दसवीं शताब्दी के साहित्य के काव्य- रूप से संबंध रखता है। उसकी संवाद प्रवृत्ति संदेश रासक के समान है। उस पुस्तक में  संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य की प्रवृतियां भी दिखाई देती हैं। रासो ऐतिहासिक ग्रंथ नहीं है, अपितु एक काव्य ग्रंथ है।अतः उसमें अतिशयोक्ति आ सकती है । यदि उसमें शुक और शुकी के संवाद रख लिए जाए और शेष निकाल दिए जाएं, तो यह ग्रंथ प्रामाणिक सिद्ध होता है ।आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का मानना है कि "वस्तुत मूल पृथ्वीराज रासो शौरसेनी अपभ्रंश में लिखा गया था जो परिनिष्ठित साहित्यिक अपभ्रंश से थोड़ी भिन्न और उससे कुछ आगे बढ़ी हुई थी।"

अतः यह निष्कर्ष निकलता है कि चंद्रवरदाई कृत पृथ्वीराज रासो न तो पूर्णतः प्रामाणिक ग्रंथ है और न हीं यह सर्वथा अप्रमाणिक ही सिद्ध होता है ।ऐसी अवस्था में जब तक कोई और नई काव्य सामग्री का उद्घाटन नहीं हो जाता, इसे अर्द्ध प्रामाणिक ग्रन्थ ही स्वीकार किया जाना चाहिए। डॉ हरिशचंद्र वर्मा का कथन एकदम सटीक ज्ञान प्रतीत होता है कि" रासो आदिकाल का ही नहीं संपूर्ण हिंदी साहित्य का महत्वपूर्ण ग्रंथ है। यह एक ऐतिहासिक चरित् काव्य है।

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