भारतीय संस्कृति के संरक्षक महात्मा कबीर
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कबीर का अध्यात्म वह मूल आधार है जिसके द्वारा समूचे विश्व में पुनः एक परिवर्तन और क्रांति घटित हॉप सकती है। समानता को लेकर कबीर के विचार वैदिककालीन समय पर आधारित हैऔर प्रकृति और संस्कृत के मूल से जुड़े हुए है। हृदयगत सरलता ,सहजता ,निश्छलता पर वे बल देते है। कबीर के सारे आग्रह मनुष्य जीवन और जगत को सवारने के रहे है। उनकीं साडी सोंच और चिंताओं का केंद्र जीवन रहा है। उनक रास्ता कर्म ,सच्चरित्रता ,नैतिकता ,खारापन ,संवेदनशीलता का है।इसे ही सहज योग की गरिमा देते चलते है। इस धरती पर चेतना का सारा प्रसार पत्थर ,पेड़ ,पशु ,पंक्षी ,मनुष्य तक का विकास कबीर के लिए राम है। जहां धड़कन नहीं वहां विराम है। कबीर ने धर्म समाज के क्षेत्र में तर्क, बुद्धि,और ज्ञान को कसौटी की तरह स्थापित किया ताकि भारतीय साझां सांस्कृतिक विरासत के आधारों पर समाज को आरूढ़ क्र एक स्वस्थ प्रगति का भी समरस समाज की दिशा प्रसस्त की जा सके। उन्होंने समाज की उपयोगी संस्थाओ को कभी नष्ट नहीं करना चाहा ,लेकिन गलत और गलित को कभी स्वीकार नहीं किया। कबीर तो उस मधुमक्षिका की तरह थे जो सौरभमयी पुष्पों के मकरंद से अमृततुल्य मधु का संचय करती है ,और सरे संसार को जीवनी प्रदान करती है ;उसीप्रकार कबीर ने भी सभी धर्मो और सम्प्रदायों से ग्राह्य तत्वों को ग्रहण कर एक नया पथ तैयार किया।
कबीर ने जिस धर्म-अध्यात्म की स्थापना की वः सतत चलनेवाली भाव भगति पर आधारित है। इस भाव भगति के सहारे उन्होंने समाज को संस्कारित और संयमित करना चाहा। समाज के विभिन्न घटको को एक सूत्र में बढ़ना चाहा और इस कार्य में सफल भी हुए। उनका मनना था कि जातिगत, कुलगत,धर्मगत,संस्कारगत ,विश्वासगत ,शास्त्रगत,सम्प्रदायगत अंतर्विरोधों के बीच से ही वह रास्ता तैयार किया जा सकता है;जिस एक मनुष्य दूसरे मनुष्य के स्तर पर बड़ी आसानी मिल सके। कबीर का प्राकट्य युग संधि पर हुआ था। तब जाति -पाति और छुआछूत का बोलबाला था। नीची समझी जानेवाली जाती के लोग ब्राह्मणवाद एवं मुल्लाओ के कारण उपेक्षित एवं सामाजिक रूप से शोषित थे। उन्होंने नीच समझी जाने वाली उपेक्षित जातियों की सांस्कृतिक ,सामजिक,चेतना के उत्थान में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जाति -पाति को अस्वीकार करते हुए भक्ति,कर्म और ज्ञान को महत्त्व दिया। वे सहज में आस्था रखनेवाले मानवतावादी व्यक्ति थे। इस्लाम को स्वीकार करने पर भी महजबी कटटरता से कोसो दूर थे। उनका कोई लगाव किसी रूढ और अंध मर्यादा में नहीं था। हृदय की स्वच्छ कसौटी पर विवेक की जो खरी लकीर बनती थी ,उसे ही महात्मा कबीर यथार्थ मानते थे। अनिभव की तुला पर तथ्य और सत्य की परख कर ग्रहण या त्याग की पद्धति ही उनका जीवनक्रम था। महात्मा कबीर को हिन्दू धर्म में प्रचलित वर्णव्यवस्था तथा ब्राह्मणीय मिथ्याभिमान से अत्यंत घृणा थी। उनकी और धनवान सभी भाई-भाई है। वे सवन किसी से कोई वास्तु अपने लिए नहीं मांगना चाहते थे,प्रत्युत अपना काम करते हुए संतोषपूर्वक व्यतीत थे।वे किसी से भी कुछ मांगने को मरण के सामान समझते थे ,और भिक्षावृत्ति को प्रोत्साहित करते नहीं जान पड़ते।उनकी नज़र में स्वावलम्बी बनना ही सर्वश्रेष्ठ उपाय है।
कबीर की भक्ति के केंद्र में राम थे। उनका राम वास्तव में न केवल निर्गुण की सीमा है और न सगुण की।राम का सर्वव्यापी रूप ऐसा है जो केवल अंतर्दृष्टि और प्रेम का अनजान लगानेवाले व्यक्ति को प्रतिक्षण और प्रत्येक जीव में दिखाई दे सकता है। वहीं उसे देखनेवाले ही जान सकते है जाननेवालों के लिए वः गूंगे के गुड़ के सामान है ;जो उसके स्वरूप को अनुभव तो कर सकता ,परन्तु उसका वर्णन नहीं कर सकता। कबीर के राम की प्राप्ति न जप से, न तप से,न जोग से, न वेद-पुराण-स्मृति से ,किसी से भी सम्भव नहीं है। उसकी प्राप्ति हो सकती है केवल भक्तिभाव से। सगुन भक्ति में जहा वेद,शास्त्र और पुराणों की सम्मति और समर्थन प्राप्त है वहीं कबीर की भक्ति इनकी सर्वथा उपेक्षा कर व्यक्ति मानस को ही साध्य एवं साधन मानकर चली थी।इनकी भक्ति में यद्यपि वेद,शास्त्र, पुराण अनुमोदित विचारो की अभिव्यक्ति मिलती है ,साथ ही उस भारतीय चिंता को और जीवन मूल्यों को भी आत्मसात किया गया है ;जिनका प्रतिपादन प्राचीन काल से होता आया है। इसीप्रकार कबीर का ज्ञान ईश्वर संबंधी भ्रमो के निराकरण के लिए और कबीर द्वारा अनुभूत सत्य ब्रह्म के निरूपण में प्रत्युक्त हुआ है। कबीर ने ब्रह्म ,ईश्वर ,जिव अथवा सृष्टि संबंधी जो भी मान्यताये स्थिर की है ,उन्हें उन्होंने पारिभाषिक शब्दावली और दार्शनिक उहापोह में नहीं उलझाया है। सामान्य बुद्धिजन्य तर्क के आधार पर स्पष्टता के साथ उन्होंने अपन बात कह दी है। उन्होंने ज्ञान का सहारा लेकर अनेक प्रकार के वाह्याचारो ,जैसे मूर्तिपूजा,तीर्थयात्रा,तिलक,माला, कंठी आदि के खंडन से लिया है। तर्क द्वारा उन रस्मो के खोखलेपन को वे दिखते है। इसीप्रकार उन्होंने तर्क के सहारे सगुण उपासना में जो अंतर्विरोध है,उसे भी व्यक्त किया है। उनका रास्ता श्रद्धा और स्वीकृति का नहीं है वरन स्वानुभूति और स्वतन्त्र चेतना का है। ज्ञान को वे स्वानुभूति के समकक्ष समझते थे। उनके लिए पुस्तकों में लिखे विचारो की जानकारी ज्ञान नहीं था। कबीर ने पुस्तकीय ज्ञान और उसको अर्जित करनेवाले पंडितों की जड़ता का अत्यंत निर्ममता के साथ उपहास किया है।
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