बंगाल में अंग्रेजी शासन

यूरोपीय अर्थव्यवस्था में सामंतवाह से पूँजीवादी की और एवं फिर व्यापारिक पूँजीवादी से ओैद्योगिक पूँजीवादी में हुए परिवर्तनो के कारण औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित करने के लिए बहुत सी यूरोपीय भक्तियों के बीच बड़ी प्रतियोगिता हुई। साम्राजवाद की इस प्रक्रिया में 17वी शताब्दी से ही बंगाल उच, फ्रांसीसी और अंग्रेजो कंपनियों के बीच युद्ध का मैदान बना गया। यह मुख्यतः बंगाल मे अच्छे व्यापारिक संभावानओं तथा सम्पन्न संसाधानों के कारण था। और इसलिए कई विदेंशों कम्पनियाँ आकर्षित हुई थी। ईस्ट इंडिया कम्पनी ओर उकसे अधिकारियों की बढती हुई व्यापारिक रूचि के कारण बंगाल के नवाबों के साथ ंसंघर्ष को जन्म दिया। बंगाल की राजनीति में अतंनिहित कमजोरी ने अंग्रेजों को नवाब के विरूद्ध युद्ध में विजय प्राप्त करने में बड़ी मदद को। विभिन्न गुटों के शासकों से अलगाव ने बाहय् भक्तियों के लिए व्यवस्था को तोड़ने के लिए प्रेरित किया। फलतः बंगाल पर अंग्रेजों का प्रमुख कायम हुआ। इस तरह अंग्रेज व्यापारी एक साम्रावादी के रूप में परिणत हो गये।
परिस्थितियाँः- 18वीं शताब्दी मे बंगाल से यूरोप को निरंतर कच्वें उत्पादों जैसे भोरा, चावल,नील, काली मिर्च, चीनी ,रेशम सूती कपड़े एंव कढाई- बुनाई के सामान आदि का निर्यात होता था प्रारभ्मिक 18वीं शताब्दी में ब्रिटेन को एशिया से होने वाले आयात का 60 प्रतिशत सामान बंगाल से ही जाता था। बंगाल की व्यापारियों क्षमताओ ही अंग्रेजों  द्वारा इस प्रदेश में ली जानेवाली रूचि का स्वाभविक कारण थी। अग्रेजों का बंगाल के साथ सम्बन्ध 1630 कें दशक में शुरू हुआ । पूर्व मूं प्रथम अंग्रेजों कम्पनी की स्थापना 1633 में उड़ीसा के बालासोर मे हुई और फिर  हुगली, कासिम बाजार, पटना और ढाका में। 1690 के आसपास  अंग्रेजो कम्पनी को सुतानाती, कालिकाता और गोविन्दपुर नाम के तीन गाँवों, के जमीदारो का अधिकार प्राप्त हो गया और कम्पनी द्वारा कलकता की स्थापना के साथ ही  बंगाल में अंग्रेजो व्यापारिक बस्ती को बसाने की प्रक्रिया पूर्ण हो चूकी थी 1680 तक बंगाल मे कम्पनी का वार्षिक निवेश 1 लाख 50 हजार पौड़ तक पहुँच गया। प्रान्तीय सूबेदार  कम्पनी को दिये जाने वाले विभेषाधिकारों का समर्थन नहीं करते थे क्योकि इससे अनेक राजस्व को भारी नुकसान पहुचता था। इसलिए प्रान्तीय प्रभासन की ओर से अंग्रजी कम्पनी पर प्रान्त में व्यापार के लिए अधिक अदायगी के लिए सदैव भारी दबाव रहता था। अंग्रेजो ने अपनी और से अनेक साधनों का प्रयोग कर व्यापार  पूर्व नियंत्रण स्थापित करने की कोशिश की बंगाल में स्वतंत्र प्रभुत्व को स्थापित करनेवाले विशेषाधिकारों को देने के समर्थन में नही था। फलतः 18 वीं सदी के मध्य से पतले ही अंग्रेजों के व्यापारिक हितों एंव प्रान्तीय सरकार के बीच झगड़ा शुरू हो गया।
    जिस समय अंग्रेजो बंगाल की राजनीति के लिए खतरा बनते जा रहे थे उसी समय प्रान्तीय प्रशासन मे भी कुछ अंदरूनी कमजोरियों पैदा हो गई। बंगाल का प्रशासन कुछ विशिष्ट भतौ पर आधारित था जैसे नवाब  का शासन स्थानीय कुलीन वर्गा के एक भक्ति भाली समूह के समर्थन पर निर्भर करता था। उसको उन हिन्दू सेढों के समर्थन को भी आवश्यकता थी जिनके नियंत्रण मे वित्तीय प्रशासन था। बड़े जमीदारों का समर्थन प्राप्त करना अतिआवश्यक था क्योकि ने केवल सरकारी कोष को राजस्व देते थे बल्कि आवश्यकता पड़ने पर नवाब को सैनिक सहायता भी प्रदान करते थे तथा अपने क्षेत्र में कानून-व्यवस्था का संचालन करते थे। बैंको के मालिकों एवं व्यापारियों घरानों विशेषकर जगत सेठ का घराना जो बंगाल  का सबसे बड़ा वित्तीय घराना था के समर्थन की आवश्यकता थी। नवाब की सफलता तभी तक निश्यित थी जब तक इन परस्पर  विरोधी गुट वाले समूहों की आशाओं की पूर्त्ति होती थी। 1757 से 1765 तक बंगाल का इतिहास नवाब से अंग्रेजो को राजनैतिक सत्ता के क्रमिक हस्तातरण का इतिहास हैं। इन आढ वर्षा में बंगाल के ऊपर तीन नवाबों सिराजुदौला, मीर जफर और मीर कासिम ने आदान किया। परन्तु वे नवाब की प्रभुसत्ता को कायम रखने में असफल रहे और अतंतः शासन का नियंत्रण अंग्रेजो के हाथ में चला गया।
सिराजुदौला और पलासी का युद्ध
अलीवदी खाँ की मृत्यु के बाद 10 अप्रैल 1756 में सिराजुदौला बंगाल का शासक बना। राज्यारोहण के समय उसी उम्र 25 वर्ष थी यूरोपीय विद्वानों के अनुसार वह अत्यधिक क्रूर दम्भो और असावधान शासक था। प्रशासनिक नीतियों तथा व्यवहार के सम्बन्ध में उसके केई निश्चित सिद्धान्त नही थे। लेकिन मुस्लिम इतिहास कारों ने इस मत का संडन किया है। आरम्भ में सिराजुदौला ने यूरोपीययों के साथ अपने सम्बन्ध मधुर बनाये रखने का प्रयत्न किया। उसने उनकों सुरक्षा का आश्वासन दिया, लेकिन साथ ही उसने इन लोगो को चेतवनी भी दी कि उसके शासन में गडबड़ी करने का प्रयत्न न करें। सिराज के उत्तराधिकार का विरोध उसकी चाची घसीटी बेगम तथा पूर्णिमा के सूबेदार उसने चचेरे भाई शौकतजंग ने किया। इसके अतिरिक्त जगत सेठ, उमीचरै राजवल्लम, रायदुर्लम और मीरजॉफर ने भी सिराज के उत्तराधिकार का विरोध किया था।
    फ्रांसीसी की लड़ाई के लिए उत्तरदायी परिस्थितियाँः-भारत में ब्रिटिश राजनीतिक सत्ता का आरंभ 1757 के प्लासी के युद्ध को माना जाता है।जब बगाल के नावब सिराजुदौला को ईस्ट इंडिया कम्पनी की सेना ने परास्त कर दिया । इस संघर्ष के पीछे कई उत्तरदायी कारण थेः-
1.वर्ष 1717 ई0 में  मुगल सम्राट के एक माही फरमान द्वारा अंग्र्रेजों को विशेषधिकार मिले हुए थे। इस फरमाश के अनुसार कम्पनी को बिना कर चुकाने बंगाल से अपने सामान्य का आयात निर्यात करने की आजादी मिली हुई थी ओर उन्हें दस्तक जारी करने का अधिकार प्राप्त था। कंपनी के कर्म चारियाँ को भी निजी व्यापार की छुट प्राप्त थी। यह फरमान कंपनी और बंगाल के नवाब के बीच झगड़े को जड़ की। इससे बंगाल को सरकार को राजस्व की हानि होती थी। दूसरे कंपनी को दस्तक जारी करने का जो अधिकार मिला  था, उसका दुरूपयोग कंपनी के कर्मचारी अपने निजी व्यापार पर भी करना चुकाने के लिए करते थे। मुर्शिद कुली खान से लेकर अली खाँ तक बंगाल के सभी तनाबों ने 1717 के फरमान की अंग्रेजो की व्याख्या पर आपत्ति की तथा कम्पनी करी देने के लिए बाध्य किया था एवं दस्तकों के दुरूपयोग पर सख्ती से पाबंदी लगा दी थी। सिराजने अंग्रेजों से मांग की कि वे जिन शर्त्तो पर मुर्शिदकुली खान के समय में व्यापार करते थे, उन्ही भतों पर अब भी व्यापार करें अग्रेजों ने इस बात को मानने से इंकार कर दिया। थे अपने मालो पर नवाब को कर चुकाने के लिए तैयार नही थे। इसके विपरीत उन्होने उन भारतीय मालों पर भारी कर  लगा दिए जो कलकता आते थे।
2.दुसरा कारण यह था कि अंगेजो ने नवाब से आज्ञा लिए बिना ही कलकता की किलेबदी करना शुरू कर दी क्योंकि उन्हे चन्द्रनगर स्थित फ्रासींसीयो से टकराव को स्थिति बन रही थी। सिराज ने इस सम्पूर्ण कार्यवाही को अपने की सम्प्रभुता का उलंघन माना। उसने अंगेजो और फ्रासीसीयों दोनो को आज्ञा दी कि वे कलकता ओर चन्द्ररनगर की अपने किलेबन्दियों गिरा दे और एक दूसरे से लड़ने से बाज आएँ। फ्रांसीसी कम्पनी ने इस आज्ञा का पालन किया पर अंग्रेजो ने इसे मानने से इंकार कर दिया। वह नवाब की इच्छा के विपरीत बंगाल जमें रहने और अपनी भर्तो पर व्यापार करने पर अड़े थे। फलतः सिराज ने उनसे अपने देश के कानून मनवाने का निर्णय किया।
3.अंग्रेजो ने सिराजुदौला के राज्याभिषेक के अवसर पर परम्परागत नजराना देने की उपेक्षा की थी जिससे सिराज बेहद नाराज था।
4. अंग्रेजो ने सिराजुदौला के विरोधियों को प्रोत्साहित किया तथा प्रांत के घेंरलू नीतियाँ में भी हस्तक्षेप करने लगे उन्होने घसीटी बेंगम ओर भौकता से गुत समझौता कर लिया तथा हिन्इ राजाओं ओर सेठों के साथ भी नवाब के विरूद्ध साँठ-साँठ करने के लिए सम्बन्ध स्थापित करने आरम्भ कर दिए। इन सब बातों को नवाब अत्यंत गंभीर माना।
5. नवाब उस समय और अधिक नाराज हुआ जब घसोटी बेगम के प्रमुख सहायक ढ़ाका के राजबल्लम के पुत्र कृष्णवल्लभ को उसे नवाब को सौंपने से कलकत्ता के अंग्रेज अधिकारियों ने इन्कार कर दिया। कृष्णवल्लभ ने बेगम के होरों तथा सम्पत्ति को हथियाकर कलकत्ता में अंग्रेजों को भरल में भाग गया था। ब्रिटिश अफसरों ने सिराजुद्दौला द्वारा लगाये गये आरोपों को निराधार बताया। लेकिन अंग्रेज इतिहासकार हिल का मानना है कि ‘‘सिराजुद्दौला के उन समस्त आरोपों में कुछ अंग तक सच्चाई थी जो उसने अंग्रेजों पर आक्रमण के लिए लगाये थे।
                    ज्ब अंग्रेज अधिकारियों द्वारा नबाव ने जो आपत्तियाँ दर्ज की थी उसपर कोई ध्यान नहीं दिया गया तब सिराज में अंग्रेजों को समस्त फैक्टरियाँ बंद कर देने का आदेश दिया। आदेश की अवहेलना होने पर नवाब के 15 जून 1756 को फोर्ट विलियम का घेरा डाल दिया तथा 20 जून 1756 को इस पर अधिकार कर लिया। गर्वनर ड्रेक और अन्य अंग्रेज नागरिक पृष्ठ द्वार से भागने में सफल रहे तथा कलकत्ते से 20 मील दूर फुल्टा द्वीप पर भरल ली जिसे उसकी जहाजरानी सम्बन्धी श्रेष्ठता ने सुरक्षित बना दिया था तथा मद्रास को मिलने वाली सहायता का इंतजार करने लगे। नवाब कलकत्ता को मानिक चैद के हवाले कर स्वयं जीत की खुशी मनाने मुर्शिदाबाद आ गया।
ब्लैकहोल की घटना :- ब्लैकहोल कहानी के रचयिता जे0 जैद0 हॉलवेल माने जाते है जो शेष जीवित 23 प्राप्तियों में से एक थे। इनके अनुसार युद्ध की आमप्रणाली के अनुसार अंग्रेजों बंदियों को जिसमें स्त्रियाँ और बच्चे भी शामिल थे, एक कहा में बंद कहा में बंद कर दिया गया। 118 फूट लम्बे और 14 फीट 10 इंच चौडे़ कक्ष में 146 कैदी बंद थे।
20 जून 1756 की रात्रि को ये बंद किए गये थे तथा अगले प्रातः उनमें से केवल 23 व्यक्ति ही जीवित बच पाये थे। शेष उस जून की गर्मी, घुटन तथा एक दूसरे से कुचले जाने से मर गये थे। इतिहासकारों द्वारा इस घटना को विशेष महत्व नहीं दिया गया है तथा समकालीन इतिहासकार गुलाम हुसैन ने अपनी पुस्तक सियार-उल-मुत्खैसि में इनका कोई उल्लेख नहीं किया है। परन्तु ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इस घटना को नवाब की विरूद्ध लगभग 7 वर्ष तक चलते रहनेवाले आक्रामक युद्ध के लिए प्रचार का कारण बनाए रखा तथा अंग्रेजी जनता का समर्थन प्राप्त करने में सफल रहे। यह घटना इसके पश्चात होनेवाले प्रतिकार के लिए विशेष महत्व रखती है।
सिराज द्वारा कलकता पर विजय के पश्चात अंग्रेजी सम्मान और उसके व्यापार को काफी धक्का लगा। इस अपमान का बदला लेने के लिए मद्रास की कौंसिल ने एक विशाल सेना जिसका नेतृत्व क्लाइब कर रहा था बंगाल भेजी। साथ ही एडमिरल वाटसन के नेतृत्व में एक जहाजी बेड़ा भी रवाना किया गया। 2 जनवरी 1757 को अंग्रेजों द्वारा कलकता पर अधिकार कर लिया गया। उन्होंने नबाव के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी तथा कलकता के भव्य भवनों में काफी लूट-मार की। प्रतिउत्तर में नबाव एक सेना लेकर कलकते की तरफ चला, क्लाइब ने यह जानते हुए कि नबाव को सेना शक्तिशाली संधिवार्त्ता के लिये प्रयत्नशील हो गया। फलतः 9 फरवरी 1757 को नबाव और अंग्रजों के बीच अलीनगर की संधि हो गई। संधि की शर्तो के अनुसार अंग्रेजों को पुरानी व्यापारिक सुविधायें लौटा दी गई। अंग्रेजों को भारी धनराशि क्षतिपूर्ति के रूप में दी गई। कलकते की किले बंदी का अधिकार भी अंग्रेजों को दे दिया गया। यह भी माना गया कि बिहार और उड़िसा में जिस किसी माल के साथ अंग्रेजों का दस्तक हो वह सब बिना महसूल के आने-जाने दिया जाय। अंग्रेजों को अपने सिक्के चलाने का अधिकार दिया गया। लेकिन नबाव ने अंग्रेजों इस प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया कि फ्रांसीसियों के विरूद्ध उनके साथ संधि करे। इस संधि ने बंगाल में अंग्रेजों तथा नवाव सिराजुद्दौला के बीच हुए प्रथम संघर्ष को समाप्त कर दिया। जिसका विचार सर्वथा उपयुक्त है ‘‘कलकता छोड़ने से पहले नवाब सिराजुद्दौला बरबाद हो चुका था।‘‘
युरोप में सप्तवर्षीय युद्ध के छिड़ जाने के कारण अंग्रेजों तथा फ्रांसीसियों में भी दक्षिण भारत में युद्ध छिड़ गया। अंग्रेजों ने चन्द्रनगर पर आक्रमण कर दिया। क्लाइब ने चन्द्रनगर पर अधिकार कर लिया। चन्द्रनगर पर अंग्रेजों की प्रतिद्वन्द्वी फ्रांसीसी शक्ति का पूर्णतया अंत कर दिया। इस प्रकार फ्रांसीसियों की हार और चन्द्रनगर पर अंग्रेजों का अधिकार नबाव के सम्मान तथा अधिकार के लिए एक भारी चुनौती थी इससे उसकी सरकार का सम्मान घटा, क्योंकि फ्रांसीसी उसकी प्रजा थे। इसके साथ इस घटना ने नवाब के दुश्मनों को भी अंग्रजों के साथ मिलने के लिए उकसाया। इसके बाद अंग्रेजों की मंशा बंगाल की सत्ता पर एक कठपुतली शासक बनाने की थी। क्लाइब ने नवाब के दीवान रायदुर्लभ, नवाब के सेनापति मीरजाफर तथा बंगाल के प्रसिद्ध बैंकर जगतसेठ से मिलकर एक षडयंत्र की रचना की। षडयंत्र की शर्त्ते अभीचंद के माध्यम से निर्धारित की गई। गुलाम हुसैन ने मीरजाफर को ही सारे षड़यंत्र और बुराई की जड़ बताया है। अंग्रेजों ने मीरजाफर को नवाब बनाने का फैसला किया। 5 जून 1757 को अंग्रेजों और मीरजाफर के बीच एक गुप्त समझौता हुआ। इसके अनुसार यह निश्चय हुआ कि अंग्रेजों की सहायता से मीरजाफर को बंगला का नवाब बना दिया जाएगा। इसके बदले में वह अंग्रेजों को कलकता, ढाका तथा कासिम बाजार को किलेबंदी की अनुमति दे देगा तथा समस्त फ्रांसीसियों और उसकी बस्ती को अंग्रेजों के हवाले कर देगा तथा एक करोड़ रूप्ये की कम्पनी को देगा। भविष्य में यदि उसे सैनिक सहायता की आवश्यकता पड़ी तो अंग्रेज उसकी सहायता करेंगे, परन्तु सेना का व्यय नवाब को देना होगा। यह भी कहा गया कि अंग्रेजों के शत्रु नवाब के शत्रु माने जाएगे। अंतिम क्षणों में गुप्त संधि के रहस्य खोलने की अभीचंद द्वारा धमकी दिए जाने पर क्लाइव ने उसे धन का लालच देकर मना लिया। क्लाइव ने दो समझौता पत्र तैयार करवाया। एक जो वास्तविक सफेद कागज पर था और दूसरा लाल कागज पर। वास्तविक समझौते में अभीचंद को कमीशन देने की बात नहीं कही गई थी, जबकि झूठे समझौता पत्र में उसे नवाब की कुल सम्पत्ति का 50 प्रतिशत तथा तीस लाख रूपये देने की बात कही गई थी। इस पर वाटसन के नकली हस्ताक्षर थे।
टंग्रेजों न नवाब पर यह आरोप लगाया गया कि नवाब ने अलीनगर की संधि का उल्लंघन करते हुए अंग्रेजों के अमैत्रीपूर्ण रूख अपनाया है तथा फ्रांसीसियों के प्रति मित्रता प्रकट की है। क्लाइव ने नवाब के उत्तर की प्रतीज्ञा नहीं नहीं की और सेना सहित नवाब के विरूद्ध मुर्शिबाद की ओर प्रस्थान किया। 23 जून 1757 को प्रतिद्वन्द्वी सेनायें मुर्शिदाबाद के दक्षिण में 22 मील की दूरी पर स्थित फारसी गाँव में टकराई। अंग्रेजी सेना में 950 यूरोपीय पदाति, 100 यूरोपीय तोपची, 50 नाविक तथा 2100 भारतीय थे। नवाब की 50 हजार सेना का नेतृत्व मीरजाफर कर रहा था। नवाब की एक अग्रगामी टुकड़ी जिसका नेतृत्व मीरमदान और मोख लाल कर रहे थे, क्लाइब को पीछे हटने और पेड़ों के पीछे छिपने के लिए बाध्य कर दिया। लेकिन गोली लगने से मीरमदान मारा गया नवाब सिराजुद्दौला ने अपने प्रमुख अधिकारियों से मंत्रण ली। मीर जाफरने उसे पीछे हटने को कहा तथा यह भी कहा गया कि सिराज को सेना का नेतृत्व जनरलों के हाथ में छोड़, युद्धक्षेत्र से चला जाना चाहिए। सिराज 2000 घुड़सवारों सहित मुर्शिदावाद लौट गया। फ्रांसीसी टुकड़ी जल्दी ही हार गई। मीर जाफर ने अंग्रेजों से लड़ने का कोई प्रदान नहीं किया। युद्ध में क्लाइव को विजय हुई। मीरजाफर ने क्लाइव को बधाई दी। मीरजाफर 25 जून को मुर्शिदाबाद लौट गया तथा अपने आपको नवाब घोषित कर लिया। सिराज बंदी बना लिया गया और मीरजाफर के पुत्र मीरान द्वारा कत्ल कर दिया गया। मीरजाफर ने कंपनी की सेवाओं के बदले 24 परगना की जमींदारी प्रदान ली। क्लाइव को 2 लाख 34 हजार पौंड की निजीभेंट तथा 50 लाख रुपया सेना एवं नाविकों के पुरस्कार के रूप में दिया गया। बंगाल की समस्त फ्रांसीसी वस्तियाँ अंग्रेजों दे दी गई। यह भी निश्चित हुआ कि भविष्य में अंग्रेज पदाधिकारियों तथा व्यापारियों को निजी व्यापार पर कोई चुंगी नहीं देनी होगी।
प्लासी के युद्ध का महत्व :- प्लासी की लड़ाई में अंग्रेजों की सफलता का बंगाल के इतिहास पर एक विशेष प्रभाव हुआ। अंग्रेजों की इस विजय से बंगाल के नवाब की स्थिति कमजोर पड़ गई भले ही यह विजय विश्वासघात या अन्य किसी साधन से प्राप्त ली गई हो। बाह्य रूप से सरकार में कोई अधिक परिवर्त्तन नहीं हुआ था और अभी भी नवाब सर्वोच्च अधिकारी था। लेकिन व्यावहारिक तौर पर कम्पनी के प्रभुत्व पर निर्भर था। कम्पनी ने नवाब के अधिकारियों की नियुक्ति में हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। नवाब के प्रशासन की आंतरिक कलह स्पष्ट रूप से प्रकट होने लगी और अंग्रेजों के साथ मिलकर विरोधियों के द्वारा किये गये षडयंत्र ने अंततः प्रशासन की ताकत को कमजोरी किया तथा वित्तीय उपलब्धि के अतिरिक्त ईस्ट इंडिया कम्पनी ने फ्रांसीसी और उच्च कम्पनियों को कमजोर बनाकर बंगाल के व्यापार पर सफलतापूर्वक अपनी हजारेदारी को स्थापित कर लिया।
प्लासी के युद्ध का सामरिक महत्व कुछ भी नहीं था। यह एक छोटी की झड़प थी जिसमें कम्पनी के कुल 65 व्यक्ति तथा नवाब के 500 व्यक्ति मारे गये थे। अंग्रेजों ने किसी विशेष सामरिक योग्यता तथा चातुर्य का प्रदर्शन नहीं किया। नवाब के साथियों ने विश्वासघात किया। मीर मदान के वीरगति प्राप्त होते ही गद्दारों का बोलबाला हो गया। यदि मीरजाफर और राय दुर्लभ राजभक्त होते तो अंग्रेजी आकांक्षा अंकुरित होने से पूर्व ही नष्ट हो गई होती। क्लाइव अपनी कुटनीतिक चातुरी से जगत सेठ को भय दिखाया, मीर जाफर की आकांक्षाओं को जगाया तथा बिना लड़े ही मैदान मार लिया। के0 एम0 पन्निकर का मानना है कि ‘‘यह एक सौदा था जिसमें बंगाल के घनी सेठों तथा मीरजाफर ने नवाब को अंग्रेजों के हाथों बेंच डाला।‘‘
प्लासी की लड़ाई के बाद बंगाल अंग्रेजों की अधीनता में चला गया और फिर कभी स्वतंत्र न हो सका। मीरजाफर अपनी रक्षा और पद के लिए अंग्रेजों पर निर्भर था। 6000 अंग्रेजी सेना नवाब की रक्षा के लिए बंगाल में रखी गई। इस युद्ध के बाद होनेवाली बंगाल की लूटने अंग्रेजों को अनन्त साधनों का स्वामी बना दिया। इस घन की सहायता से ही अंग्रेजों ने दक्कन विजय कर लिया तथा उत्तरी भारत अंग्रेजी कदमों में लोटने लगा।
कम्पनी की निश्चित में भी परिवर्त्तन हुआ पहले वह बहुत सी विदेशी कम्पनियों से एक थी जिसे नवाब के अधिकारियों को धन देना पड़ता था। अब उसका बंगाल के व्यापार पर एकाधिकार हो गया। फ्रांस को अपनी खोई हुई स्थिति को प्राप्त करे का अवसर नहीं मिला। उन्होंने 1759 में एक प्रयत्न किया लेकिन पराजय का मुँह देखना पड़ा। इस प्रकार अंग्रेजी ईस्ट इंडिया कम्पनी एक व्यापारिक कम्पनी से साम्राज्यवादी कम्पनी के रूप में परिणत हो गई।
भारत के भाग्य पर प्लासी के युद्ध का अत्यधिक प्रभाव पड़ा। मालेसन के अनुसार संभवतः इतिहास में इतना प्रभावित करनेवाला युद्ध नहीं लड़ा गया। इस युद्ध के कारण इंगलैण्ड मुस्लिम संसार की सबसे बड़ी शक्ति बन गया। प्लासी के युद्ध के कारण ही इंगलैंड पूर्वी समस्या में विशेष भूमिका निभाने लगा। इसी के कारण उसे मॉरीशस तथा आशा अंतरीय को विजय करने तथा उन्हें अपना उपनिवेश बनाने पर बाध्य होना पड़ा तथा मिश्र को अपनी संरक्षण में लेना पड़ा।
मीरजाफर के साथ अंग्रेजों के सम्बन्ध :- सत्तासीन होने के साथ ही मीरजाफर को अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ा। मिहनापुर के राजा रामसिन्हा, पूर्णिया के हिजीर अली खाँ जैसे जमींदारों ने उसे अपना शासक मानने से इंकार कर दिया। मीरजाफर के कुछ सिपाही जिनकों अपना वेतन निरंतर नहीं मिल रहा था, वे विद्रोही हो रहे थे। मीरजाफर को अपने कुछ अधिकारियों विशेषकर राय दुर्लभ की वफादारी पर संदेह था। उसे विश्वास था कि राय दुर्लभ ने जमींदारों को उसके विरूद्ध विद्रोह के लिए उकसाया था। परन्तु रायदुर्लभ ने जमींदारों को उसके विरूद्ध विद्रोह के लिए उकसाया था। परन्तु रायदुर्लभ क्लाइब की शरण में था, इसलिए वह उसको छू भी न सका। मुगल बादशाह के पुत्र अली गौहर जो बाद में आलमशाह के नाम से जाना गया के द्वारा बंगाल के सिंहासन पर अधिकार करने का प्रयास आदि।
मीरजाफर ने कम्पनी को सहायता से सिंहासन तो प्राप्त कर लिया, लेकिन यह सौदा घाटे का रहा। कंपनी के अधिकारियों की उपहार तथा रिश्वत सम्बन्धी मांगों ने उसका खजाना खाली कर दिया। कर्नल मालेसन के अनुसार कम्पनी के अधिकारियों का अब एक ही उद्देश्य था कि ‘‘जितना लूट सको, लूटो, मीरजाफर सोने की एक ऐसी थैली है जिनमें जब जो चाहे हाथ डाल लो।‘‘ कम्पनी के डायरेक्टरों का मानना था कि उनके हाथ कामधेनु गाय लग गई है और बंगाल की दौलत कभी खत्म नहीं होगी। यह आज्ञा जारी की गई कि बम्बई और मद्रास की प्रेसीडेंसियों का खर्च भी बंगाल उठाये तथा अपने राजस्व से कम्पनी के भारत से होनेवाले पूरे निर्यात का माल खरीदे।
मीरजाफर के जल्दी ही पता चल गया कि कम्पनी और उसके अधिकारियों की सारी माँगे वह पूरी नहीं कर सकता। अंग्रेज अधिकारी भी अपनी आशाएँ पूरी न होते देखकर नवाब को आलोचना करने लगे। अंग्रेज कम्पनी का ऐसा विचार था कि मीरजाफर डच कम्पनी के सहयोग से बंगाल में अंग्रेजों के बढ़ते प्रभाव में कटौती करने की कोशिश कर रहा है। इसी बीच मीरजाफर के पुत्र मीरान की मृत्यु के कारण उत्तराधिकार के प्रश्न को लेकर एक विवाद पैदा हो गया। मीरान के पुत्र और मीरजाफर के दामाद मीरकासिम के बीच इसके लिए संघर्ष हुआ, कलकता के नये गवर्नर बॉन्सीटार्ट ने मीरकासिम का पक्ष लिया। बॉन्सीटार्ट के साथ एक गुप्त समझौते के द्वारा मीरकासिम कम्पनी को आवश्यक धन अदा करने के लिए सहमत हुआ इस शर्त्त पर कि यदि वे बंगाल के नवाब के लिए उसके दावे का समर्थन करें। मीरजाफर पहले ही अंग्रेजों का विश्वास खो चूका था। अपनी दये वेतन के लिए सेना के विद्रोह ने मीरजाफर को नवाब के पद से रूराने के लिए अंग्रेजों के दवाब डालने को और सरल बना दिया। अगस्त 1760ई0 में कर्नल कलॉड को वासीटार्ट ने यह सुझाव दिया कि अगर मीरजाफर वर्द्धबान तथा नदिया जिले जिनसे लगभग 50 लाख रूप्या वार्षिक की आय हो सकती थी, अंग्रेजों को दे देय तो वह उसको समर्थन प्रदान कर देगा। लेकिन मीरजाफर को यह भर्त्त मंजूर नहीं थी। फलतः 27 सितम्बर 1760 ई0 को मीरकासिम और कलकत्ता कौंसिल के बीच एक संधि सम्पन्न हुई। जिसमें भर्त्ते थी- (1) मीरकासिम ने कम्पनी को वर्द्धमान, मिदनापुर तथा चटगाँव के जिले देना स्वीकार किया।
(2) सिलहट के चूने के व्यापार में कम्पनी को आधा भाग मिलेगा।
(3) मीरकासिम कम्पनी को दक्षिण में अभियानों के लिए 5 लाख रूपये देगा।
(4) मीरकासिम कम्पनी के मित्र अथवा शत्रुओं को अपना मित्र अलवा शत्रु मानेगा।
(5) दोनों एक दूसरे के आसामियों को अपने प्रदेश में बसने की अनुमति देगे।
(6) कम्पनी नवाब के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगी तथा नवाब को सैनिक सहायता प्रदान करेगी।
        म्ीरकासिम भी बंगाल के सिंहासन पर उसी ढंग से पदासीन हुआ जिस ढं़ग से मीरजाफर ने इसको प्राप्त किया था। मीरजाफर ने मीरकासिम के पक्ष में गद्दी छोड़ दी तथा 15 हजार मासिम पेंशन पर कलकत्ता में रहने लगा। नवाब बनते ही मीरकासिम ने कम्पनी के अधिकारियों को पुरस्कार स्वरूप धन वितरित किया। इन अधिकारियों ने कम्पनी को वित्तीय कठिनाईयाँ को दूर करने के लिए लगभग 17 लाख रूपये प्राप्त किए।
मीरकासिम और बक्सर युद्धः मीरकासिम अलीवर्दी खाँ के बाद एक योग्य, कुशल और शक्तिशली शासक था और वह स्वयं को विदेशी दासता से मुक्त करना चाहता था। उसे यह बात अच्छी तरह मालूम थी कि आजादी बनाये रखने के एक भरा हुआ काष और प्रशिक्षित सेना आवश्यक है। इसलिए उसने सार्वजनिक अर्थवस्था को संभालने, राजस्व प्रशासन से भ्रष्टाचार मिटाकर अपनी आय बढ़ाने और यूरोपीय तर्ज पर एक आधुनिक और अनुशासित सेना खडी करने की कोशिश की। सत्ता करने के बाद मीरकासिम ने दो महत्वपूर्ण कार्य किया। प्रथम तो कलकत्ता में स्थित कम्पनी से सुरक्षित दूरी को बनाये रखने के लिए उसने अपनी राजाधानी को मुर्शिदाबाद से मुंगेर में हस्तारित कर दिया और द्वितीय अपनी पंसद के अधिकारियों के साथ उसने नौकरशाही का पुनगर्ठन किया तथा सेना सके कौशल तथा क्षमताओं को बढाने के लिए यूरोपीय ढं़ग पर गठित किया। मुंगेर में तोपों तथा तोपेघर बन्दूकें बनाने की व्यवस्था की गई। मीरकासिम ने राज्य की आर्थिक स्थिति सुधारने का प्रयत्न किया। जिन आधिकारियों ने गबन किया था उनपर बडे-बडे जुर्माने किए गये। कुछ नये कर लगाये गये तथा पुराने करों पर 3132 भाग अतिरिक्त करके रूप में लगाया गया। उसने एक और कर खिजरी जमा जो अभी तक अधिकारियों द्वारा छुपाया जाता रहा था वह भी प्राप्त किया।
बक्सर युद्ध के कारणः - कम्पनी की इच्छाओं के अनुसार मीरकासिम कठपुतली शासक नहीं बन सका। वह कम्पनी की आर्थिक माँगों को अधिक सफलता से पूरा कर सका था। हैरी वेरेलेस्ट ने मीरकासिम और कम्पनी के झगडों को दो भागों में बाँटा है तात्कालिक तथा वास्तविका उसके कारण तत्कालिक कारण तो आंतरिक व्यापार था परन्तु वास्तविक उस नवाब की राजनैतिक इच्छाएँ थी। नन्दलाल चटर्जी के अनुसार-‘‘नवाब की इच्छा अंग्रेजों से पूर्ण रूपेय स्वतंत्र होने की थी तथा वह शनैः शनैः 1757 में स्थापित अंग्रेजी सत्ता को समाप्त करना चाहता था। उसका मुख्य उद्देश्य यूरोपीय व्यापारियों की विशेष शक्ति को समाप्त कर निष्कम्हक तथा निरंकुश सूबेदारी स्थापित करना था।‘‘
(1) नवाब के बार-बार प्रार्थना करने पर भी बिहार का उप सूबेदार नायब रामनारायण अपने लेखे-जोखे को जमा नहीं कर रहा था। पटना किपत अंग्रेज अधिकारियों के द्वारा रामनारायण को समर्थन दिया जा रहा था और वह भी कभी भी नवाब विरोधी भावनाओं को नहीं छिपाता था। फलतः अंग्रेज और मीरकासिम के बीच तनाव उत्पन्न हो गया। मीरकासिम अपनी सत्ता के इस स्पष्ट उल्लंघन को सहन नहीं कर सका। उसने वॉन्सीटार्ट की सहमति से पूर्व ही रामनारायण को निलम्बित किया, फिर सेवा से हरा दिया तथा मार डाला।
(2) आंतरिक व्यापार में प्रतिवर्ष बढ़ती हुई भ्रष्टता से मीरकासिम के वित्तीय साधन तथा उसके राजनैतिक अधिकार क्षेत्र दोनों में कभी हो रहा था। अंग्रेजों तथा उनके एजेन्टों और गुमास्ते के हथकंडे उसकी राजसत्ता के लिए खतरा बनते जा रहे थे। ये लोग सिर्फ जनता पर ही अत्याचार नहीं करते थे अपितु नवाब के अधिकारियों को भी बंदी बना लेते थे। मैकाले के अनुसार-‘‘कम्पनी का प्रत्येक सेवक अपने आपको स्वामी समझता था स्वामी अपने आपको कम्पनी का ही रूप् समझता था।‘‘कम्पनी के सेवक वृक्षों के नीचे न्यायालय लगाते थे तथा मनमाना दंड दिया करते थे। मीरकासिम चाहता था कि झगडे की स्थिति में कम्पनी के गुमाश्ते नवाब की अदालतों के अधीन कार्य करे। लेकिन अंग्रेंज इसके लिए तैयार नहीं थे। असली मतभेद सत्ता के प्रश्न पर था कि बंगाल प्रान्त का स्वामी आखिर कौन है। नवाब या कंपनी नवाब कम्पनी को एक व्यापारिक कम्पनी मानता था तथा व्यापारिक कम्पनी की दृष्टि से सभी  सुविधाओं देने के लिए तत्पर था परन्तु वह उसे सत्ता में साझीदार बनाने के लिए तैयार था जबकि कम्पनी यह चाहती थी कि नवाब उसके हाथों में कठपुतली बनकर रहे और उसकी इच्छा से शासन करें।
(3) मीरकासिम का झगड़ा आंतरिक व्यापार पर लगे करों को लेकर प्रारम्भ हुआ। वॉसीटार्ट ने आंतरिक व्यापार की परिभाषा ‘‘राज्य के एक स्थान से दूसरे स्थान पर माल को लाने तथा ले जाने‘‘ को माना। कम्पनी को 1717 ई0 में फर्रूखसीयर ने एक फरमान द्वारा आयात तथा निर्यात कर से छूट दे दी थी। उसपर कोई बहस नहीं थी। नवाब ने दस्तक का प्रश्न उठाया जिसके अनुसर कर की छूट होती थी तथा जिसकी सहायता से कम्पनी क अधिकारी अपना निजी व्यापार चलाते थे तथा नवाब को कर से वंचित रखते थे। इसके अतिरिक्त अब इन अधिकारियों ने यह दस्तक धन लेकर भारतीय व्यापारियों को भी देनी आरम्भ कर दी थी जिससे शेष मिलनेवाला कर भी समाप्त हो गया था। दूसरी तरफ कम्पनी के अधिकारी नवाब के कानूनों का उल्लघन करते थे, उसके अफसरों का निरादर करते थे तथा जनता की लूटते थे। एक बार एलिस जो पटना का एजेन्ट था कम्पनी के सिपाहियों को मुंगेर के दुर्ग की तलाशी लेने के लिए भेज दिया था क्योंकि उसे संदेह था कि कम्पनी के दो भगोडों ने वहाँ शरण ले रखी थी।
(4) कम्पनी के सेवक केवल कर रहित व्यापार ही नहीं करते थे अपितु बाजार से सस्ता माल खरीदने के लिए बल प्रयोग भी करते थे जिसकी शिकायत मीरकासिम ने कम्पनी के गवर्नर से की थी। लेकिन कलकत्ता परिषद समास्या को सुलाझाने में दिलचस्पी नहीं रखती थी। उसने मीरकासिम से झगडे़ का स्वागत किया क्योंकि नये नवाब से उन्हें पहले की भाँति बहुत साधन प्राप्त करने की आशा थी।
(5) मीरकासिम के उस कार्यवाही ने युद्ध को सन्निकट ला दिया जिसमें उसने सभी आन्तरिक कर हटा लिए। अब भारतीय व्यापारी भी अंग्रेज व्यापारियों के समान हो गये। परिषद के सदस्य चाहते थे कि नवाब अपनी प्रजा पर कर लगाए क्योंकि केवल उसी अवस्था में वे दस्तक का दुरूपयोग कर सकते थे । पटना के अधिकारी एलिस की उत्तेजनापूर्ण कार्यवाही ने युद्ध को समीप ला दिया।
                डॉडवेल को विचार है कि युद्ध परिस्थितियों के कारण हुआ न कि युद्ध के उद्देश्य से। नवाब अपनी इच्छा से राज्य करना चाहता था परन्तु अंग्रेजों ने अपने विशेषाधिकारों की रक्षा के लिए नवाब पर युद्ध थोप दिया। कम्पनी और नवाब में युद्ध 1763 ई0 में ही आरम्भ हो गया। मीरकासिम ने अत्यधिक साहस के साथ अंग्रेजों के साथ युद्ध आरम्भ किया। अंग्रेजों ने कटवाह, मुर्शिदाबाद, गिरआ, आटे उदयनाला और मुंगेर के स्थानों पर मीरकासिम को पराजित कर मीरजाफर को पुनः सिंहासन पर बैठाया। पराजय के बाद मीरकासिम, अवध के नवाब मुआऊद्दौला तथा मुगल बादशाह शाह आलम द्वितीय से सहायता प्राप्त करने के लिए अवध पहुँचा। उन तीनों की सम्मिलित सेनाओं ने पटना पर आक्रमण कर दिया। हेक्टर मुनरो के नेतृत्व में अंग्रेजो सेना से इनका मुकाबला हुआ। युद्ध बक्सर के स्थान पर 22 अक्टूबर 1764 को हुआ, जिसमें अंग्रेजी सेना विजयी रही।

बक्सर की लड़ाई का महत्व :- बक्सर की लड़ाई के द्वारा अंग्रेजों ने बंगाल के ऊपर अपना पूर्ण राजनीतिक नियंत्रण स्थापित कर लिया। वास्तव में हस्तांतरण की प्रक्रिया का प्रारम्भ पलासी की लड़ाई से हुआ था। और इसकी चरम परिणति बक्सर के युद्ध में हुई।
बक्सर की लड़ाई ने बंगाल नवाब के भाग्य के सूर्य को अस्त कर दिया और अंग्रेजों का बंगाल में एक शासक शक्ति के रूप में उदय हुआ। मीरकासिम ने बादशाह शाह आलम और अवध के नवाब भुजाउद्दौला के साथ मिलकर अंग्रेजों के विरूद्ध सफलता पूर्वक एक संघ का निर्माण किया। यह संघ अंग्रेजों के सम्मुख असफल रहा। इस लड़ाई में अंग्रेजों की विजय ने ब्रिटिश शक्ति की सर्वोच्चता को सिद्ध कर दिया और उनके विश्वास को और मजबुत किया। यह विजय केवल अकेले मीरकासिम के विरूद्ध न थी बल्कि मुगल बादशाह एवं अवध के नवाब के विरूद्ध थी। अंग्रेजों की इस युद्ध में सफलता ने यह सिद्ध कर दिया कि भारत के अन्य भागों में ब्रिटिश शासन की स्थापना बहुत दूर नहीं थी।
बक्सर ने पलासी के निर्णयों पर पक्की मोहर लगा दी भारत में अब अंग्रेजी सता को चुनौती देनेवाला दुसरा नहीं था। बंगाल का नया नवाब उनकी कठपुतली था। अवध का नवाब उनका आभारी तथा मुगल सम्राट उनका पेंशनर था। इलाहाबाद तक के प्रदेश उनका अधिकार हो गया तथा उनके लिए दिल्ली का मार्ग खुल गया। प्लासी के युद्ध ने बंगाल में अंग्रेजी की शक्ति को सुदृढ़ किया तथा बक्सर के युद्ध ने उत्तरी भारत में तथ अब वे समस्त भारत पर दावा करने लगे थे। इसके पश्चात मराठों और मैसूर ने कुछ चुनौती प्रस्तुत की थी, लेकिन वे भी पराजित किये गये। बक्सर का युद्ध भारत के इतिहास में निर्णायक साबित हुआ।
प्लासी का युद्ध तो केवल झड़प् मात्र थी जबकि बक्सर का युद्ध पूर्णतया निर्णायक युद्ध था जिसने अंग्रेजों को बंगाल का स्वामी बना दिया। शक्ति उनके साथ में रहेगी अथवा नहीं पहले यह निश्चित नहीं था, वे शक्ति के लिए संघर्षत थे, पर अब उन्हें अकस्मात् ही समस्त शक्ति प्राप्त हो गई थी। बिना किसी संदेह के शक्ति का विषय अभी खुला था पर अब उन्हें चुनौती नहीं दी जा सकती थी। यदि प्लासी ने बंगाल में अंग्रेजी सत्ता का आरम्भ किया तो बक्सर की लड़ाई ने उसकी सत्ता को दृढ़ कर दिया।
ब्ंगाल में द्वैध शासन प्रणाली - बंगाल की राजनीति समस्या को सुलझाने के लिए क्लाइब ने द्वैध शासन की स्थापना की। इसमें वास्तविक शक्ति कम्पनी के पास रखी गई परन्तु प्रशासन का भार नवाब को उठाना था। वह नहीं चाहता था कि बंगाल की सारी प्रशासनिक व्यवसाएँ सीधे कम्पनी के हाथ में आ जाय। उसके विचार में यह कम्पनी के हित में नहीं था। मुगल साम्राज्य में प्रशासन के निमित्त प्रांतों में सूबेदार और दीवान की नियुक्ति होती थी। सूबेदार निजामत का कार्य करता था जिसमें पुलिस, सैनिक संरक्षण तथा फौजदारी कानून आदि आते थे जबकि दीवान दीवानी कानून लागू करने के साथ कर संग्रह करता था। दोनों अधिकारी एक दूसरे पर संतुलन प्रतिसंतुलन की नीति के तहत कार्य करते थे तथा सीधे केन्द्रीय सरकार के प्रति उत्तरदायी लेकिन औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात बंगाल स्वतंत्र राज्य की तरह व्यवहार करने लगा जिसमें बंगाल का नवाब मुर्शिदकुली खान ने निजामत और दीवानी दोनों अधिकार हस्तगत कर लिया।
12 अगस्त 1765 के फरमान के अनुसार शाह आलम ने 26 लाख रूपये वार्षिक के एवज में दीवानी का भार का कम्पनी को सौंप दिया। कम्पनी को 53 लाख रूपये निजामत के कार्य के लिए भी देने थे। फरवरी 1765 में मीरजाफर की मृत्यु के बाद क्लाइव ने नजमुद्दौला को नवाब बनाया। नये नवाब के साथ एक संधि की गई जिसमें शर्त यह थी कि निजामत का लगभग समस्त कार्य भार जिसमें सैनिक संरक्षण और विदेशी मामले आते है पूर्णतया कम्पनी के हालों में रहेगा। दीवानी मामले डिप्टी सूबेदार के माध्यम से चलाया जायेगा, जिसको कंपनी मनोनित करेगी तथा बिना उसकी इच्छा के डिप्टी सूबेदार को हटाया नहीं जा सकता। इस प्रकार कम्पनी को मुगल सम्राट से दिवानी तथा बंगाल के नवाब से निजामत का कार्यभार मिल गया।
इस समय कम्पनी सीधे कर संग्रह का भार लेना नहीं चाहती थी और न उसके पास ऐसी क्षमता थी। कम्पनी ने दीवानी कार्य के लिए दो उपदीवान बंगाल के लिए मुहम्मद रजा खाँ तथा बिहार के लिए राजा सिताब राय को नियुक्त किये। मुहम्मद रजा खाँ उपनाजिम के रूप में भी कार्य करता था। इस प्रकार बंगाल में दीवानी और निजामत का समस्त कार्य भारतीयों द्वारा संचालित किया जाता था। लेकिन इस पर अंग्रेजों का पूर्ण नियंत्रण था। पर वे इसके प्रशासन की सीधी जिम्मेदारी नहीं लेते थे। प्रशासन नवाब तथा उसके अफसरों के नाम पर ही चल रहा था। इस प्रशासन को द्वैध शासन पद्धति कहा गया।
रजा खॉन बंगाल में कम्पनी की ओर से दीवान तथा नवाब की ओर से नायब ताजिम के पद पर नियुक्त किया गया। नवाब का नाजिम होने के कारण वह आम प्रशासनिक कार्य तथा फौजदारी सम्बन्धी न्याय व्यवस्था का कार्य देखता था। इन सबके लिए वह नवाब के प्रति उत्तरदायी था। साथ ही राजस्व एकत्रित करने तथा दीवानी न्याय के लिए वह कम्पनी के प्रति उत्तरदायीथा। द्वैध सरकार के अंतर्गत कम्पनी का कार्य केवल यही था कि वह देखे कि राजस्व ठीक ढंग से वसूला किया जाता है कि नहीं ताकि प्रशासनिक खर्चो के बाद बचे पैसे कम्पनी के कार्य में लगाया जा सके।
बंगाल में द्वैध शासन स्थापित करने के उद्देश्य -
यदि कम्पनी स्पष्ट रूप से राजनैतिक सत्ता अपने हाथ में लेती है तो उसका वास्तविक रूप उजागर हो जाएगा और संभवतः सारे भारतीय इसके विरोध में उठ खड़े होंगे।
संभवतः फ्रांसीसी, उच्च तथा डेन विदेशी कम्पनियाँ सुगमता से कम्पनी की सूबेदारी स्वीकार नहीं करेगी तथा कम्पनी को वह कर नहीं देगीं जो बंगाल के नवाब को देती थी।
राजनैतिक शक्ति पूर्णतः हस्तगत करने से इंगलैण्ड तथा विदेशी शक्तियों के बीच कटुता आ जाती और संभवतः ये सभी शक्तियाँ इंगलैंड के विरूद्ध एक संघ का निर्माण कर सकती थी।
इंगलैण्ड के पास एक समय प्रशिक्षित अधिकारियों की कमी थी जो शासन का भार संभालते। क्लाइव ने अपने अधिकारियों को लिखा कि यदि हमारे पास तीन गुणा भी प्रशासनिक सेवा करने वाले लोग हों तो भी वे इस कार्य के लिए पर्याप्त नहीं होंगे। जो थोड़े बहुत लोग कम्पनी के पास थे भी, वे भारतीय भाषा एवं रीति-रिवाजों के अनभिज्ञ थे।
कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स के व्यापार में बाधा पड़ने की संभावना थी। ने लोग प्रदेश के स्थान पर धन में अधिक रूचि रखते थे।
क्लाइव का यह विचार था कि यदि कंपनी बंगाल की राजनीतिक सत्ता हाथ में लेती है तो अंग्रेजी संसद कंपनी के कार्य में हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर देगी।
क्लाइव का मानना था कि कम्पनी के डायरेक्टरों को आर्थिक लाभ की अत्यंत चिन्ता है। उनको झुठी राजनैतिक पदोन्नति से इतनी प्रसन्नता नहीं होगी। प्रशासन का कार्य हाथ में लेने का अर्थ था अपना व्यय बढ़ाना जिससे उनको कभी भी आर्थिक कठिनाई आ सकती थी।
द्वैध प्रणाली की हानियाँ :- प्रशासन की द्वैध प्रणाली आरम्भ से ही असफल साबित हुई। इसने बंगाल में अराजकता और अशांति को जन्म दिया तथा यह अप्रभावी और अव्यवहारिक साबित हुई।
प्रशासन में गिरावट :- निजामत में शिथिलता के कारण बंगाल में कानुन व्यवस्था अत्यंत खराब हो गई। न्याय व्यवस्था चौपट हो गई। नवाब में कानून लागू करने की शक्ति और सामर्थ्य नहीं रहा था। इधर कम्पनी प्रशासन का उत्तरदायित्व ग्रहण नहीं कर रही थी। ग्रामीण क्षेत्रों में डाकू-लूटेरों का साम्राज्य था तथा संन्यासी छापामारों के रूप में सरकार की सत्ता को चुनौती दे रहे थे। प्रशासन में भ्रष्टाचार का बोलबाला था। अपनी धन लोलुपता के कारण कम्पनी के अधिकारी ईमानदार भारतीयों को अपने कर्मचारी के रूप में इस्तेमाल नहीं करते थे। भ्रष्ट भारतीय अपने मालिकों का अनुशरण करते थे। बंगाल की स्थिति पर भाषण करते हुए कार्नवाल ने 1858 में हाउस ऑफ कामन्स में कहा था कि ‘‘1765-68 तक ईस्ट इंडिया कम्पनी की सरकार से अधिक भ्रष्ट, झूठी तथा बुरी सरकार संसार के किसी भी सभ्य देश में नहीं थी।‘‘
आर्थिक अव्यवस्था :- भारत का अन्न भंडार कहा जानेवाला बंगाल अब उजाड़ बन चूका था। भू-राजस्व संग्रह का भार उन व्यक्तियों को दिया जाता था जो अधिकाधिक बोली लगाते थे। यह ठेका एक वर्ष के लिए होता था। इन लोगों की भूमि में अस्थाई रूप् से कोई अभिरूचि नहीं थी। वे अधिकाधिक लगान प्राप्त करते थे। बंगाल में कृषकों पर भूमिकर अधिक होता था तथा उसके संग्रह करने में भी बहुत कड़ाई होती थी। फलतः किसान निर्धन होते चले गये। कई बार तो लगान चुकान करने के लिए किसानों को अपने बच्चे बेचनें पड़े या भूमि छोड़कर भाग जाना पड़ा। इस प्रकार बंगाल का हराभरा खेत, उजाड़ हो गया। 1770 में बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा जिससे अत्यधिक जानमाल की हानि हुई। अकाल के दिनों में भी भूमिकर अत्यंत कठोरता से वसूला गया। कम्पनी के कर्मचारियों ने लोगों की आवश्यकता वस्तुओं में भी दाम बढ़ाकर लाभ कमाया, जिससे जनता को काफी कष्ट हुआ।
वाणिज्य व्यापार का पतन :- 1717 से बंगाल में अंग्रेजों को कर विहिन व्यापार करने अनुमति थी। इसके तहत कम्पनी के कलकत्ता स्थित गवर्नर की आज्ञा से कोई भी माल बिना निरीक्षण तथा रोक-टोक के इधर से उधर जा सकता था। कर सम्बन्धी आज्ञा से सरकार को हानि हुई तथा भारतीय व्यापार नष्ट हो गया। कम्पनी का व्यापार लगभग एकाधिकार हो गया तथा उसके कार्यकर्त्ताओं े भारतीय व्यापारियों से कम मूल्य पर भाल बेंचकर उन्हें अत्यधिक हानि पहुँचाई।
उद्योग धंधों में ह्रास :- बंगाल में कपड़ा उद्योग को काफी नुकसान उठाना पड़ा। कम्पनी ने बंगाल के कपड़ा उद्योग को हतोत्साहित करने का प्रयत्न किया क्योंकि इससे इंग्लैण्ड के रेशम उद्योग को क्षति पहुँच रही थी। 1769 ई0 में कम्पनी के डायरेक्टरों ने कार्यकर्त्ताओं को आदेश दिया कि कच्चे सिल्के उत्पादनको प्रोत्साहित किया जाय तथा रेशम बुनकरों को कपड़ा निर्मित करने से रोका जाय। रेशम के सुत बनानेवालों को कम्पनी के कार्य में लगने के लिए बाध्य किया जाय। कुछ जुलाहों के इंकार करने पर उनके अंगूठे काट लिए गये, कुछ ने उत्पीड़न से बचने के लिए स्वयं अपने अंगूठे काम लिए। कंपनी के गुमाश्ते जुर्माना कैद तथा कोड़े का भय दिखाकर जुलम्हों के अग्रिम ध दे देते थे तथ माल तैयार करने के लिए बाध्य करते थे तथा फिर वे अन्य लोगों के लिए कार्य नहीं कर सकते थे। इन लोगों से दासों की भाँति कार्य लिया जाता था। इसके अतिरिक्त भारतीय गुमाश्ते तथा निरीक्षण करनेवाले माल का मुल्य बाजार मुल्य से 15 प्रतिशत से 40 प्रतिशत काम आँकते थे। भारत के आंतरिक व्यापार पर एकाधिकार होने के कारण कम्पनी के कारिन्दे कपास तथा सिल्क के कच्चे माल के भाव भारतीय उत्पादकों के हितों के विरूद्ध बढ़ा देते थे। इस प्रकार शिल्पकारों के लिए काम करना लाभदायक नहीं था। अतः वे लोग इन कामधंधों से दुर होते चले गये जिसका प्रभाव वस्तुओं के व्यापार पर स्पष्ट रूप से पड़ा।

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