कबीर की भक्ति साधना और उनका रहस्यवाद


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मैंने उन फूलो को सुना जो शब्द करते थे और उन ध्वनियों को देखा जो जाज्वल्यमान थी;अंडरहिल ये शब्द महात्मा कबीर के व्यक्तित्व के लिए सौ फीसदी सही है। महात्मा कबीर का रह्स्यवाद जीवात्मा की उस अन्तर्निहित प्रवृति का प्रकाशन है जिसमे वः दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शांत एवं निश्छल सम्बन्ध जोड़ना चाहती है।यह सम्बंध  बढ़ जाता है कि दोनों मेकुछ भी अंतर नहीं रह जाता। जीवात्मा की शक्तिया इसी शक्ति के अनंत वैभव और प्रभाव से ओत -प्रोत जाती है।जीवन में केवल उसी दिव्य शक्ति का  अनंत तेज अन्तर्निहित होता हैऔर जीवात्मा अपने अस्तित्व को  भूल सा जाती है।एकभावना,एक वासनासदैव जीवन के अंग -प्रत्यंगों में प्रकाशित होती है ;यही दिव्य संयोग है।  दिव्य शक्ति से इसप्रकार  जाती है कि आत्मा  के  गुणों का प्रदर्शन होने लगता हैऔर आत्मा के गणो का। इस संयोग में एकप्रकार का उन्माद होता है ,नशा रहता  है। उस एकांत सत्य से ,उस दिव्य शक्ति से जिव का ऐसा प्रेम हो जाता है कि वः अपनी सत्ता परमात्मा की सत्ता में अन्तर्निहित कर देता है। उस प्रेम में चंचलता नहीं रहती ,अस्थिरता नहीं रहती ,वह प्रेम अमर होता है।
रहस्यवाद के उन्माद में जीव इन्द्रिय जगत से बहुत ऊपर उठकर विचार शक्ति और भावनाओ का एकीकरण कर अनंत और अंतिम प्रेम के आधार में मिल जाना चाहता है। यही उसकी साधना है,यही उसका उद्देश्य है। उसमे जिव अपनी सत्ता खो देता है। मैं ,मेरा मुझे का विनाश रहस्यवाद का आवश्यक अंग है। एक अपरिमित शक्ति के गोद में ही मैं और मेरा सदैव के लिए अन्तर्निहित हो जाता है। वह जिव अपना आधिपत्य नहीं रख पाता। एक सेवक की अपंने को स्वामी के चरणों में भुला देना चाहता है। संसार के इन वही बंधन का विनाश कर आत्मा ऊपर उठती है ,हृदय की भावना साकार बनकर ऊपर की और जाती है,केवल इस लिए की वः अपनी सत्ता एक असीम सकती के आगे डाल दे। हृदय के इस गति में कोई स्वार्थ नहीं , संसार की कोई वासना नहीं ,कोई सिद्धि नहीं ,किसी ऐश्वर्य की प्राप्ति नहीं ,केवल हृदय के प्रेम की पूर्ति है। और ऐसा ह्रदय वह चीज हैजिसमे केवल भावनाओ का क़द्र ही नहीं वरन जीवन की वह अंतरंग अभिव्यक्ति है जिसके सहारे संसार के वही पदार्थो में उसकी सत्ता निर्धारित होती है। अनंत सत्ता के सामने जीव अपने को इतने समीप ला देता है कि उसको साधारण भावना में अनंत शक्ति की अनुभूति होने लगती है।
रहस्यवाद  अपने नग्न रूप में एक अलौकिक विज्ञान है।जिसमे अनंत के सम्बन्ध की भावना का प्रादुर्भाव होता हैऔर रस्यवादी वः व्यक्ति है जो इस सम्बन्ध के अत्यंत निकट पहुँचता है। उसे कहता ही नहीं ,वरन उस सम्बन्ध का ही रूप धारण कर वह अपनी आत्मा तक को भूल जाता है।कबीर जैसे रहस्यवादियो की उद्देश्य  परिस्थितिया होती है। प्रथम परिस्थिति तो वह है जहां वह व्यक्ति विशेष अनंत शक्ति से अपना सम्बन्ध जोड़ने के लिए अग्रसर होता ,वहां सस्कार की सीमा को पर कर ऐसे लोक में पहुँचता है जहाँ भौतिक बंधन नहीं ,जहाँ संसार के नियम नहीं ,जहां उसे अपने सांसारिक अवरोधों की परवाह नहीं।वः ईश्वर के समीप पहुँचता है और दिव्य विभूतियों को देखकर चकित हो जाता है।कबीर ने इसका वर्णन करते हुए कहा है -
घट-घट में रटना लगी रही,परघट हुआ अलेख जी।
कहु चोर हुआ,कहु साह हुआ ,कहु ब्राह्मण है कहु लेख जी।
इस संसार की  वस्तुएं अनंत शक्ति में विश्राम पाती है और सभी अनंत सत्ता में आकर मिल जाती है। यहां रहस्यवादी ने  अपने लिए कुछ भी नहीं कहा  है,वहचुप है।उसे ईश्वर की इस  पर आश्चर्य सा होता है।वः मौन होकर इन बातो को देखता है। यद्यपि ऐसे समय वह अपना व्यक्तित्व भूल जाता है।,पर ईश्वर की अनुभूति स्वयं अपने हृदय में पाने में असमर्थ रहता है। द्वितीय स्थिति तब आती है जब आत्मा  परमात्मा से से प्रेम करने लगती है। भावनाये इतनी तीव्र हो जाती है कि आत्मा इस प्रकार का उन्माद या पागलपन छा जाती है। आत्मा मानो प्रकृति का रूप रख पुरुष,आदिपुरुष से प्यार करने लगती है। तीसरी अवस्था में आत्मा और परमात्मा का इतना एकीकरण हो जाता है कि फिर उनमे कोई भिन्नता नहीं रहती। आत्मा अपने में परमात्मा का अस्तित्व मानती है और परमात्मा के गुणों को प्रकट करती है।जिसप्रकार आरंभिक अवस्था में आग और लोहे का गोला ,ये दोनों भिन्न है ,पर आग से तपाये जाने पर गोला भी लाल होकर अग्नि का स्वरूप धारण कर लेता है तब उस लोहे के गोले में वस्तुओं को जलने की वहीँ शक्ति आ जाती है जो आग में है।
महात्मा कबीर ने किसी ऐसे धर्म या संप्रदाय का सीधा अनुशरण नहीं किया था अपितु उन्होंने उन सभी के सारतत्वों को ग्रहण कर अपनी सरगहिता प्रदर्शित की थी।और इसी का उपदेश भी दिया था। या यो कहे कि कबीर तो मधुमक्षिका की तरह थे ,जिसप्रकार मधुमक्षिका सौरभमयी पुष्पों के मकरंद से अमृततुल्य मधु का संचय करती है ,उसीप्रकार कबीर ने सभी धर्मों एवं सम्प्रदफाओं से ग्राह्य तत्वों का अधिग्रहण कर एक नया मार्ग तैयार किया।परम तत्त्व की व्याख्या करने के क्रम में कबीरदास कहते है कि मर्रे सवन विचार करते -करते अपने मन ही मन सत्य का प्रकाश हो गया और मुझे उसकी उपलब्धि भी हो गयी। मेरे धीरे-धीरे चिंतन करते ही उस निर्मल जल की प्राप्ति हो गई जिसका वर्णन मैं काने जा रहा हूँ। इस जल का नाम उन्होंने रामजलू भी दिया है।इसी के द्वारा उन्होंने अपनी जिज्ञासारूपी पिपासा की तृप्ति भी बताई है। फिर भी वः उस जल के किसीऐसे स्वरूप का वर्णन नहीं कर पते जो सर्वसाधारण के लिए भी बोधगम्य हो सके।वे सवन उसे अकथनीय समझ कर कहते है-"वह जैसा कहा जाता है वैसा ही उसका पूर्ण रूप में भी होना संभव नहीं है,वह जैसा है ,वैसा ही है। "उनका यह भी कहना है कि "मेरे सद्गुरु ने मुझे उस तत्त्व की ओर विचारपूर्वक संकेत कर दिया था ,किन्तु मई उसे अपने अनुमान के आधार पर अनुशरण करते-करते राम को कुछ हद तक जान पाया हूँ। "उनका कहना है कि अपनी स्वप्ना जैसी स्थिति में ही मैंने उस निधि का जो यत्किंचित रूप पाया ,उसकी शोभा किसीप्रकार गोपनीय न थी,वह अपार थी। अपने हृदय में वह समा नहीं रही थी ,और उसके आगे मेरी सारी कुप्रवृत्तियाँ  अपने आप नष्ट हो गयी। उनका यहाँ रामजलु नामक परमतत्त्व अकथनीय बनकर गुणातीत का रूप भी ग्रहण कर लेता है।वह उसे अन्यत्र अलख,निरंजन ,,निरभै, निराकार ,शून्य तथा स्थूल से भिन्न अथवा दृश्य और अदृश्य से विलक्षण भी  है। कहते है कि उस अवगति के गति का क्या परिचय दूँ जिसके नाम ,गांव का कोई पता ठिकाना नहीं है,उस गुणविहीन को देखा ही कैसे जा सकता है। अथवा उसका नाम ही क्या दिया जा सकता है -
                              "अलख निरंजन लखै न कोई ,निरभै निराकार है सोई।
                                सुनि अस्थूल रूप नहीं रेखा,दृष्ट ,अदृष्ट छिप्यो नहीं पेखा।।"
मैंने इस जगत में हरी को अपने दो -दो नेत्रों से देखने की कोशिश की है और यहां मैंने हरी के अतिरिक्त अन्य किसी भी वास्तु को नहीं पाया। मेरे ये नेत्र उसी के अनुराग में लाल हो गए है और मुझसे अब उसके सिवाय और कुछ भी नहीं अहा जा सकता ,जिसप्रकार कोई बाजीगर ढ़ोल पीटकर तमाशे आरम्भ कर देता है ,सभी लोग उसे देखने को जुट जाते हैऔर फिर वह अपने सारे स्वांग को सकल भी लेता है ,उसीप्रकार इस जगत की सृष्टि या प्रलय का रहश्य भी जान लेना चाहिए। उस हरी ने ब्रह्माण्ड के रूप में अपनी लीला का विस्तार कर रखा है जिसे सकल कर वह फिर अपने रंग में रमन करने लग जाता है।यहाँ सारा संसार केवक कहने सुनाने मात्र कही है। उसने इसी में अपने को छिपा रखा हैजिस कारण उसे कोई उसे पहचान नहीं पाता।सृष्टिकर्ता में ही सृष्टि हैऔर सृष्टि में ही सृष्टिकर्ता ओत -प्रोत है।
कबीर ने इस शरीर के भीतर समझे जानेवाले आत्मतत्व के लिए बतलाया है कि "न तो यहाँ मनुष्य है,न देव है,न योगी है ,न यति है,न अवधूत है, न माताहै, न पुत्र है,न गृही है, न उदासी है, न राजा है,न रंक है,न ब्राह्मण है, न बढ़ई है ,न त्यापासवी है,ना शेख ही है,यहतो उस राम का एक अंश रूप है। यहाँ उसीप्रकार नहीं मिटा करता ,अर्थात वह भी नित्य तथा निर्विकार है।"यहाँ शरीर पंचतत्वों को मिलाकर निर्मित कर दिया गया है,किन्तु समझने की बात यह है कि वे तत्त्व मूलतः क्या वास्तु है?उसीप्रकार ,यदि इस जीवतत्व को हम कर्मवद्ध कह दिया करते है तो फिर वह कर्म कहा से आ गया है? सच तो यह है कि हरिमात्र ही सब कुछ है। जीवतत्व मूलतः और तत्वतः व्ही है  जो परमतत्व है। उसमे दीख पड़नेवाली साडी विभिन्नताएँ मिथ्या और भ्रमात्मक है।
परम् तत्व की रहस्यमयी अभिव्यक्ति कीमूल प्रेरक शक्ति मकया के आश्रित कहे जा सकते है। इस माया को उन्होंने एक परमसुन्दरी के रूप में चित्रित किया है,जिसक अस्वाभाव ही ठगना और फ़साना है। कबीर ने उस माया का वर्णन करते हुए कहा है कि उस ठगनी का त्याग करने की कोई लाख चेष्टा करे ,वह पिंड नहीं छोड़ती। उसे बार-बार पकड़ती रहा करती है। वह जल, स्थल,आकाश सर्वत्र एक सामान व्याप्त है। कही माता-पिता ,कभी स्त्री-पुरुष,कभी आदर मां ,कभी जप-तप और कभियोग केरूप में भी बंधन दाल दिया करती है। उसके पांचो पुत्र -काम क्रोध ,मोह ,मद  ,तथा मत्सर हमें सदा विविध प्रकार के नाच नचाया करते तथा अभिभूत किये रहते है। यह माया ही वस्तुतः उस परमतत्व  की नटसारी या लीला भी है ,यही वह सत ,रज,तथा तम के रूप में दिख पड़नेवाली त्रिगुणात्मक प्रकृति भी है जिसका पसरा सरे जगत के रूप में लक्षित होता है,जो इसप्रकार फसाकर ाहेड़े का शिकार करने निकलती है।
इसप्रकार जो कबीर का परमतत्व है,वही वेदांत के अनुसार ब्रह्माकहा जाता है, जिसे वे करता कहते है;व्ही वेदांत का उपाधिगत ईश्वर है तथा जो उनके यह जीव कहा गया हैवह वेदांत का जीवात्मा है। इसीप्रकार जो कबीर की माया है वही कुछ विशेषताओ की ओर ध्यान नहीं देने परवेदान्त की भी त्रिगुणात्मिक प्रकृति बन जाती है।फिर व्ही भरम-कर्म का मूल कारण होने से वेदांत की अविधा भी कहि जा सकती है। कबीर के परमतत्व वेदांत के ब्रह्मा की भांति नीरा भावात्मक चैतन्य मात्र नहीं हैप्रत्युत उनके साहब के उप में उसे व्यक्तित्व भी प्राप्त है। वह लीलामय तथा सर्वशक्तिमान पुरुष के रूप में अपने खेल का श्रिष्टिरूपी ताना-बाना खड़ा करके उसके पीछे अपने को छिपा लेता है। फिर भी वह इस्लाम के अल्लाह जैसा शासक नहीं है,और उक्त सभीप्रकार के गुण उसमे वस्तुतः आरोप कर लिए गए है। उसका अपना सहज रूप तो सगुन तथा निर्गुण दोनों सर परे निरंजन का हैऔर सभी विकारो से रहित तथा निराकार भी है।                       

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