हैदर अली और टीपु सुल्तान के साथ अंग्रेजो का सम्बन्ध



                                                               सौजन्य :गूगल
आंग्ल- मैसूर सम्बन्ध
1757 ई0 के प्लासी युद्ध के बाद भारत में ब्रिटिश सत्ता की नींव पड़ी तथा बक्सर युद्ध के बाद मुगल सत्ता का अवमान हो गया। ूमुगल सम्राट अंग्रेजो का पेंशन भोंक्ता बन गया।तथा अवध का  राज्य उनका संरक्षित राज्य हो गया उसके बाद अंग्रेजो की प्रआरवादी नीतियों को बढ़ावा मिला और वे सम्पूर्ण  भारत पर अधिकार करने की और अग्रसर हुए। इनका किसी भारतीय शक्ति ने प्रतिरोध नही किया लेकिन  अभी भी दो भारतीय भक्ति विद्यमान थी जो लगातार अंग्रेजो को टक्कर दे रही  थी वे थी-1. मराठे और 2. मैसूर का शासक हैदर अली।
    प्रारम्भ में मैसूर विजयनगर राज्य का अंग था। 1565 ई0 में वाडेंयार वंश ने मॅसूर में एक स्वंतत्र राज्य की स्थापना की। 1704 ई0 में इस वंश ने मुगलों की अधीनता स्वीकार करते हुए कर देने के लिए बाध्य हुए। 1718 ई0 के रफी उद दरजात द्वारा मराठों के दिए गये फरमान द्वारा मैसूर से चौथ लेने का अधिकार मराठों को प्राप्त हुआ। 18 वीं शताब्दी के मध्य में मैसूर शासक से भारी शक्ति देव राज और नन्द राज नामक दो भाईयों ने हस्तगत कर ली। इस समय हैदर अली मैसूर की सेना में नायक का पद पर आसीन था। सैनिक कुशलता और नेतृत्व के गुणों के कारण वह 1755 ई0 में डिन्डीगल का फौजदार नियुक्त  किया गया। उसने डिन्डीगल के सम्पूर्ण लगान पर अधिकार कर के एक स्वतंत्र सेना का निर्माण किया, जो सिर्फ उसी के प्रति वफादार थी। उसने अपने सैनिको फांसिसियों द्वारा यूरोपीय पद्धति पर प्रशिक्षित करवाया तथा एक तोप खाना विभाग की स्थापना की। इसके बाद वह सेनापति नियुक्त हुआ तथा एक षडयंत्र द्वारा दीवान खांडेराव को कैदकर बंगलोर भेज दिया एवं मैसूर पर अधिकार कर लिया। 1760 ई0 में हैदर अली मैसूर का शासक बन बैठा जिसकी राजधानी श्रीरंगपट्टतम थी।
अंग्रेज-हैदर अली सम्बन्ध :- तृतीय कर्नाटक युद्ध के समय से ही हैदर अली का अंग्रेजों के साथ संघर्ष प्रारम्भ हो गया था। इस युद्ध में हैदर अली ने फ्रांसीसियों की मदद की थी। फ्रांसीसी सेनापति लैली ने उसे दस हजार रूपये प्रतिमास तथ इलबनसोए का दुर्ग देने का वायदा किया था तथा विजयोपरान्त हैदरअली को त्रिचानपल्ली, मदुरै, त्रिन्वेली देने का लालच दिया था। परन्तु कर्नाटक युद्ध में फ्रांसीसियों की हार ने यह स्वप्न धुमिल कर दिया। इसके अतिरिक्त 1761 ई0 में पांडिचेरी पर अंग्रेजों का अधिकार होने से हैदर और अंग्रेजों के बीच संबंधों में कटुता आ गई। दूसरा कारण हैदर अली ने अपनी सेना में 300 फ्रांसीसियों को भर्त्ती कर लिया। जो अंग्रेजों को अच्छा नहीं लगा। कर्नाटक के नवाब मुहम्मद अली तथा हैदर अली का पारस्परिक झगड़ा अंग्रेज अधिकारियों से हैदर की शत्रुता का अन्य कारण था। दोनों ही कर्नाटक के कई जिलों पर अपना-अपना अधिकार जताते थे। मुहम्मद अली द्वारा अंग्रेजी सेना का वेलूर में पड़ाव डालने की अनुमति से हैदर अली प्रसन्न नहीं था, इसने बदले में मुहम्मद अली के भाई और प्रतिद्वन्द्वी महफूज खाँ को संरक्षण प्रदान कर अंग्रेजों को नाराज कर दिया। 1765 ई0 में हैदर अली मराठों के भय से मद्रास सरकार की ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया, लेकिन अंग्रेजी सरकार उसकी विस्तारवादी नीति पर अंकुश लगाना चाहती थी। अंग्रेजों ने हैदर अली के दुश्मन हैदराबाद के निजाम से संधि कर ली, इस समय निजाम को मराठों से पहले ही सहायता प्राप्त थी। इस प्रकार अंग्रेजों ने हैदर अली के विरूद्ध निजाम, मराठों तथा अंग्रेजों का एक त्रिदलीय संगठन स्थापित कर लिया। मद्रास सरकार और निजाम दोनों का उद्देश्य हैदर अली के अधिकार क्षेत्र में स्थित बालाघाट पर अधिकार करना था। अंग्रेजों से प्रोत्सान हम पाकर निजाम ने इस क्षेत्र पर हैदर अली को चुनौती दी यही प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध का कारण बनी।
प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध (अगस्त 1767-1769) :- अंग्रेजों ने निजाम को हैदरअली के विरूद्ध सैनिक सहायता देने का बचन दिया। कर्नल स्मिथ के नेतृत्व में ब्रिटिश सेना के साथ निजाम मैसुर पर आक्रमण कर दिया। इस समय हैदर अली ने अद्भूत कुटनीतिज्ञता का परिचय देते हुए 35 लाख रूप्ये देकर मराठों को अपने ओर मिला लिया। इस रकम का आधा भाग तुरन्त प्रदान किया गया और शेष अधो के लिए कोलार की सोने की खान बंधक रख दिया। इसके बाद उसने निजाम से एक संधि कर अपनी ओर मिला लिया। हैदर अली के खिलाफ बना गठबंधन टूट गया और अंग्रेज अकेले पड़ गये। फिर कर्नल स्मिथ ने निजाम और हैदर अली की सेना को चनगम दर्रे पर पराजित कर दिया त्रिनोमलाई के युद्ध में भी अंग्रेज विजयी हुए। इधर टीपू सुल्तान के नेतृत्व में मैसूर सेना ने सेंट टामस माउन्ट स्थित अंग्रेजी गोदामों को लूट लिया। हैदर अली के संगठित हमले से मद्रास कौंसिल भयभीत हो गई और संधि करने का प्रस्ताव रखा। हैदर अली की शर्तो के अनुरूप फरवरी 1769 ई0 में मद्रास की संधि से प्रथम आंग्ल मैसूर युद्ध समाप्त हुआ। यह संधि हैदर अली, तंजोर के राजा, मालावर के राजा और कम्पनी के बीच हुई जिसके अंतगर्त मैसूर के शासक को दिए गये कारूर और इसके किलों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों पर आपसी सहयोग से सबका अधिकार मान लिया गया। किसी भी पक्ष पर आक्रमण करने की स्थिति में सभी दलों द्वारा एक दूसरे का सहयोग करने का वायदा किया गया। हैदर अली द्वारा मद्रास सरकार के सभी बंदी कर्मचारियों को रिहा कर दिया गया। तंजौर के शासक के साथ हैदरअली मित्रतापूर्ण व्यवहार करने का वायदा किया तथा बम्बई प्रेसीडेंसी एवं अंग्रेजी कारखानों की व्यापारिक सुविधायें कायम रखी गई।
द्वितीय आंग्ल-मैसूर यद्ध (1780-1784) :- 1770 में ई0 में पेशवा माधवराव द्वारा मैसूर पर आक्रमण इस युद्ध का महत्वपूर्ण कारण था। इस युद्ध में मराठे और हैदरअली दोनों अंग्रेजों से सहायता का आग्रह किया। लेकिन अंग्रेज तटस्थ बने रहे। इसने पीछे उनका तर्क था कि हैदर अली की सहायता करने पर मराठे रूष्ट होकर उनके प्रदेश कर्नाटक पर आक्रमण कर देंगे और यदि वे मराठों की सहायता करते है तो भविष्य में मराठों के साथ हैदर अली समझौता कर उनके खिलाफ आक्रमण कर देगा। इस प्रकार अंग्रेजों ने मद्रास की संधि का उलंघन किया जिससे हैदर अली नाराज हो गया। दुसरा कारण यह था कि हैदर अली ने मुरारी राव से गूँटी का प्रदेश छिन लिया तथा फ्रांसीसियों को अपनी सेना में भर्त्ती किया एवं उचों से मित्रता स्थापित करते हुए, उनके प्रतिनिधि अपने दरबार में रखा। तीसरा कारण 1778 ई0 में अंग्रेजों द्वारा पांडिचेरी पर अधिकार करना तथा माही पर आक्रमण करना था। माही इस समय हैदर अली के नियंत्रण में था और यहाँ से उसको सैनिक सामग्री प्राप्त होती थी। 1779 ई0 में माही पर अंग्रेजों के अधिकार ने दोनों के बीच सम्बन्ध बिगाड़ दिया।
इधर हैदराबाद का निजाम मद्रास सरकार द्वारा उत्तरी सरकार से सम्बन्धित खिराज रोक लिये जाने के कारण नाराज था। मद्रास सरकार की अदूरदर्शितापूर्ण नीति तथा निजाम और मैसूर के साथ अभद्रता निजाम और हैदरअली को पुना सरकार से मिलने के लिए बाध्य कर दिया। रघुनाथ राव समर्थन देने और सूरत की संधि के मराठें अंग्रेजों से युद्ध लड़ रहे थे। फलतः नाना फड़नवीस के नेतृत्व में एक चर्तुदलीय संगठन का निर्माण अंग्रेजों के खिलाफ हुआ जिसमें हैदरअली, निजाम, पूना सरकार और नागपुर के योंझले शामिल थे। इस प्रकार आंग्ल मराठ युद्ध मैसूर के साथ दूसरे युद्ध में परिवर्त्तित हो गया तथा 1780 में युद्ध छिड़ गया।
वारेन हेस्टिंग्स ने बंगाल से एक सेना आयूरफूट के नेतृत्व में मद्रास भेजी। आयरकूट ने दूरदर्शिता का परिचय देते हुए हैदरअली के मित्रों को उससे अलग कर दिया। भोंसले और सिन्धियाँ को हैदरअली की सहायता न करने पर राजी कर लिया गया तथा निजाम को गुंटूर का जिला प्रदान कर युद्ध से अलग कर दिया गया। इस प्रकार हैदर अली अकेला रह गया। लड़ाई के प्रथम चरण में हैदरअली ने कर्नाटक पर अधिकार कर लिया तथा मद्रास के निकट पहुँच गया। उसने पार्टोनोवों और कांजीवरम को लूट लिया तथा कर्नल फ्लेचर और कर्नल बेली की सेना को पराजित कर भागने पर मजबूर कर दिया। हैदर अली के आक्रमण से हेक्टर मुनरों भयभीत होकर अपने तोपखाने को एक तालाब में फेंककर मद्रास की ओर भाग गया। सर आयरूट की बंगाली सेना आने के बाद अंग्रेजों की स्थिति दक्षिण में सुदृढ़ होने लगी, उसने जुलाई 1781 ई0 में पोर्टोनोवा में हैदल अली का दृढ़ता के साथ मुकाबला किया तथा सितम्बर में उसे हरा दिया। इसके बा नागपट्टनम पर अंग्रेजों ने घेरा डाला तथा त्रिकोमाली उचों से छिन लिया। हैदर अली ने सेना को पुनः संगठित किया, इस समय उसे एडमिरलल सफरिन के नेतृत्व में फ्रांसीसी सेना के मद्रास पहुँचने से सहायता मिली। टीपू ने सफलता पूर्वक ब्रेथवेट को तंजोर में घेर लिया। लेकिन फ्रांसीसी सेना बुसी के आने का इंतजार कर रही थी जो हैदर की मृत्यु के चार महीने पश्चात कर रही थी जो हैदर की मृत्यु के चार महीने पश्चात ही आ सका। वर्षा प्रारम्भ होने पर हैदर अली को अकीट के पाए अपना पड़ा। कैंसर से पीड़ित हैदर अली की 7 दिसम्बर 1782 को मृत्यु हो गई। इसके टीपू ने बेलौर पर अधिकार कर लिया जिससे उसे मंगलोर पर आक्रमण करने का प्रात्साहन मिला। फुलार्टन ने टीपू के इस अभियान को असफल बना दिया। इस समय धीरे-धीरे अंग्रेज आगे बढ़ते हुए मंगलोर से श्रृरंगपट्टनम की ओर आने लगे। अब टीपु के पास लड़ाई बन्द कर संधि के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं था। अंग्रेज भी इस लम्बे युद्ध से थक चूके थे। दोनों पक्षा शांति चाहता था। फलतः 11 मई 1784 ई0 को मंगलोर की संधि से द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध का समापन हुआ।
संधि की शर्तों के अनुसार यह तय किया गया कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के शत्रुओं की सीधे या परोक्ष रूप से मदद नहीं करेंगे तथा एक दूसरे के सहयोगियों के साथ युद्ध नहीं करेंगे। 1770 ई0 में हैदर अली द्वारा कम्पनी को दी गई व्यापारिक सुविधायें पूर्ववत्त कायम रहेंगी। दोनों पक्ष अम्बोरगुर एवं सतगुर महलों को छोड़कर बाकी क्षेत्रों पर पूर्ववत अधिकार के लिए राजी हुए और टीपू भविष्य में कर्नाटक पर दावा नहीं करने के लिए तैयार हुआ। इसके अतिरिक्त 1680 युद्ध बंदियों को छोड़ने के लिए तथा कम्पनी को कालीकट में जो कारखाने तथा अधिकार 1779 ई0 में प्राप्त हुए थे उसे वापस देने के लिए राजी हुआ।
तृतीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (1790-92 ई0) :- तृतीय मैसूर युद्ध का प्रधान कारण टीपू द्वारा विभिन्न आंतरिक सुधार कर अपनी स्थिति मजबूत करना था। साथ ही वह निजाम और मराठों के साथ मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ एक संघ बनाने के लिए प्रयत्नशील था जिसके कारण अंग्रेजों को निजाम एवं मराठों से भय उत्पन्न हो गया था। दूसरा कारण 1787 ई0 में फ्रांस एवं टर्की में टीपू द्वारा अपने दूत भेजकर उनकी मदद प्राप्त करने की कोशिश करना था। तीसरा और महत्वपूर्ण कारण क्रेंगनौर का आयाकोटा के शहर तथा किले को हस्तगत करने का टीपू का प्रयत्न था। 1789 ई0 में ट्रावनकोर का शासक इनको खरीदने के लिए डचों से बातचीत कर रहा था। डचों को इस किलों को बेंचने का पूरा अधिकार था। ये किले उत्तरी मालावार की कुंजी थे और मैसूर की सुरक्षा के लिए आवश्यक थे। टीपू नहीं चाहता था कि ये क्षेत्र किसी शत्रु के हाथ में जायें। उसने इन किलों को समर्पन करने की मांग की। लार्ड कार्नवालिस ने सूचित किया कि वे अपने मित्र राज्य ट्रावनकोर के दावे का समर्थन करे। इससे टीपू क्रोधित हुआ और ट्रावनकोर पर आक्रमण कर दिया। इसके साथ ही अंग्रेजी सेना का मैसूर पर आक्रमण कर दिया। इसके साथ ही अंग्रेजी सेना का मैसूर पर आक्रमण हो गया। इससे पूर्व ने निजाम और मराठों से संधि कर एक त्रिगुट का निर्माण कर लिया। संधि के तहत दोनों ने अंग्रेजों को सैनिक सहायता देने का वचन दिया और यह भी तय हुआ कि युद्ध के पश्चात् जीती हुई भूमि को वे आपस में बाँट लेंगे। इस संगठन का निर्माण कार्नवालिस की कुटनीतिक चालों का परिणाम था। इससे वह अंग्रेजों के राजनीतिक प्रभावों के सुरक्षित रखने में सफल हो गया तथा भारतीय शक्तियों को अंग्रेजों के विरूद्ध संगठित होने से रोक लिया। कार्नवालिस ने कुर्ग के राजा और क्रैनानोर की बीबी के साथ भी एक सुरक्षात्मक संगठ बनाया। ईधर टीपू ने पूरा सरकार और निजाम को अपनी तरफ मिलाने की कोशिश की, लेकिन उसे सफलता नहीं मिली।
जनरल मिडोज ने जो मद्रास का गवर्नर और सेनाध्यक्ष फरवरी 1790 ई0 में युद्ध की घोषणा कर दी तथा मैसूर पर आक्रमण कर दिया जो टीपू द्वा असफल कर दिया गया। कर्नल फ्लायड की सेना ने गुजलहट्टी के किलों पर घेरा डाल दिया। कर्नल मैक्सवेल के नेतृत्व में बंगाल सेना ने कांजीवरम पहुँचकर मद्रास सेना के साथ मिल गई। लेकिन टीपू ने त्रिचना पल्ली और उसके आस पास के गाँवों में ब्रिटिश क्षेत्र को काफी हानि पहुँचाई। 1790 ई0 में अंग्रेजो सेना की प्रगति से असंतुष्ट होकर स्वयं कार्नवालिस ने ब्रिटिश सेना का नेतृत्व सम्भाल लिया और एक बड़ी सेना की सहायता से टीपू पर आक्रमण कर दिया। वेलौर और अम्बूर से होता हुआ बंगलोर पर आक्रमण कर दिया तथा मार्च 1791 ई0 में जीत लिया तथा श्रीरंगपट्टनम तक पहुँच गया। निजाम की सेना अप्रैल 1791 ई0 में गवर्नर जेनरल की सेना के साथ मिल गई। हरिपन्त तथा पुरुष राम के नेतृत्व में मराठा सेना ने श्रीरंगपतनम पर अंतिम आक्रमण के समय बहुत बहादूरी का प्रदर्शन किया। लेकिन टीपू असाधारण वीरता प्रदर्शित करते हुए राजधानी को बचा लिया। टीपू की वीरता, टीपू की निजाम और मराठों से गुप्तवार्ता तथा कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के दबाव के चलते कार्नवालिस ने युद्ध समाप्त करने का निश्चित किया। टिपू को भी आराम की आवश्यकता थी। फलतः 18 मार्च 1792 ई0 को श्रीरंगपतनम की संधि हुई।
इस संधि के अनुसार टीपू सुल्तान को क्षतिपूर्त्ति के रूप में तीन करोड़ तीस लाख रूपये और लगभग आधा राज्य अंग्रेजों को देना पड़ा। इसमें आधा धन तुरंत दे दिया गया और आधा किस्तों में दिया जाना था। धन चुकाने की अवधि तक उसने अपने दो पुत्रों को अंग्रेजों के पास बंधक के रूप में रखा। टीपू से प्राप्त प्रदेश को कार्नवालिस ने त्रिगुट के सदस्य शक्तियों (मराठों, अंग्रेजों और निजाम) में बाँट दिया। अंग्रेजों को डिण्डीगल, सैलम और मलावार के प्रदेश प्राप्त हुए। अब मैसूर तीन तरफ से अंग्रेजी प्रदेश से घिर गया। कुर्ग को भी अंग्रेजों ने अपने प्रभुत्व में ले लिया। इस प्रकार अंग्रेजों ने मैसूर की राजधानी श्रीरंगपतनम के आस पास के प्रदेशों पर पूरा अधिकार जमा लिया। ताकि अवसर पड़ने पर श्रीरंगपतनम पर आसानी से आक्रमण किया जा सके। निजाम को कृष्णा और पन्ना नदियों के बीच का प्रदेश मिला तथा मराठों को पश्चिमी कर्नाटक का क्षेत्र प्राप्त हुआ। टीपू ने अपने राज्य का आधा भाग अंग्रेजों और उसके सहयोगियों के बीच बाँट दिया। अब दक्षिण भारत के पूर्वी और पश्चिमी किनारों पर अंग्रेजों का आधिपत्य और मजबूत हो गया। मालावार और कर्नाटक में जो टीपू की प्राकृतिक सीमाएँ थी समाप्त हो गई। टीपू के हाथ से उसके राज्य के बहुत से उपजाऊ क्षेत्र भी निकल गये। निजाम को क्षेत्र का सबसे बड़ा भाग मिला, जबकि मराठों ने अपने राज्य का फैलाव तुंगभद्रा एवं कृष्णा नदियों तक कर लिया। इस संधि से गावणकोर के राजा को जिसके लिए प्रत्यक्ष रूप से लड़ाई लड़ी गई थी, उसे कुछ भी प्राप्त नहीं हुआ। इस संधि के सफल होने पर कार्नवालिस ने हर्ष पूर्वक कहा है कि ‘‘हमने अपने शत्रु को प्रभावशाली ढ़ंग से पंगु बना दिया है तथा अपने साथियों को भी शक्तिशाली नहीं होने दिया।‘‘ यथार्थ ही है।
चतुर्थ आंग्ल-मैसूर युद्ध (1799 ई0) :- नया गवर्नर जेनरल लार्ड वेलेजली एक साम्राज्यवादी था और दक्षिण में मैसूर राज्य को अंग्रेजो साम्राज्य के लिए खतरा समझता था वह टीपू को एक ऐसा भुज समझता का  जिसे नरम व्यवहार के द्वारा कभी भी शांत नहीं किया जा सकता  था वह उसे एक महत्वाकांक्षी और दंयी शासक समझता था जो फ्रांसीसियों की मदद से कभी भी अंग्रेजों के लिए खतरा बन सकता था। टीपू पर यह आरोप लगाया जा रहा था कि फ्रांसीसियों वह अफगानिस्तान के जमानशाह और तुर्की की सरकार की सहायता से अंग्रेजो को भारत से निकालना चाहता है। वेलेजली को विश्वास था कि टीपू ने फ्रांस के द्वीप मारीशस में एक निशन भेजा है जो एक फ्रांसीसियों के लेकर लौटे है जिन्होने श्रीरंगपत्तनम एक जैकोबियन क्लब और स्वाधीनता का वृक्ष लगाया है। यह विश्वास टीपू और अंग्र्रेजो के बीच तनाव उत्पन्न करने के लिए पर्याप्त थे। दुसरा कारण यह था कि टीपू अपनी अंग्रेजो द्वारा शर्मनाक हार भूला नही था तथा हार का बदला लेने और अपने ऊपर लगाये गये प्रतिबन्धों को हटाये जाने के लिए कृतसंकस्प था। उसने अपनी सेना को मजबूत बनाना शुरू कर दिया 1769 ई0 में टीपू ने नौसेना बोर्ड का गठन किया जिसमें 22 युद्धपोत तथा 20 बड़े फ्रिगेट निर्मित करने की योजना थी। उसने मंगलौर, वाजिदाबाद तथा मोलिदाबाद में पोत बनाने के लिए पोतांगानों की स्थापना की जिससे अंग्रेज भयभीत हो गये। अंतिम कारण अंग्रेजो द्वारा टीपू पर इस बात के लिए दबाव डालना था कि वह अपनी नौकरी से फ्रासीसि अफसरों को हटा दे।  रेमांड के अधीन जो सैन्य शक्ति है उसे भंग करके एक सहायक संधि पर हस्ताक्षर करे टीपू के इस बात से इंकार करने पर बेलेजली ने टीपू के विरूद्ध युद्ध की घोषणा कर दी।
    टीपू ने अंग्रजो सेना की श्रीरंगपतनम से 45 मील दूर सदसीर में रोकने की कोशिश की जिसमें उससे भारी क्षति उठाने के कारण पीछे हटना पड़ा हैरीसन की फौज से वह पुः मालावेली में पराजित हुआ । उसने बाद वह सेना को पुन संगठित कर श्रीरंगपतनम को बचाने की कोशिश करने लगा तथा आखिरी साँस तक लड़ता रहा । अंता में श्रीरंगपतनम के उत्तरी दरवाजे पर लाभों के ढेर में उसका मृत शरीर पड़ा मिला। 4 मई 1799 ई0 को अंग्रेजो ने श्रीरंगपतनम पर अधिकार कर लिया

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