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नई कविता :द्वंद्व और तनाव की कविता है।

 नई कविता वैविध्यपूर्ण जीवन के प्रति आत्मचेतस् व्यक्ति की प्रतिक्रिया है। मुक्तिबोध के इस परिभाषा से स्पष्ट है कि नई कविता में जीवन का कोई भी विषय अकाव्योचित नहीं माना जाता। उसमें मानव जीवन के यथार्थ को उकेरने का सीधा प्रयत्न प्रबल आग्रह के साथ हुआ है। अशोक बाजपेई कहते हैं कि संभवतः नई कविता के पहले कभी मानवीय संबंधों को इतना गौरव नहीं मिला था और न ही उसमें निहित करूणा, तनाव, अकेलापन, आतंक ,सुख और अहलाद- संक्षेप में मानवीय संबंधों की ट्रेजडी और कॉमेडी दोनों ही इतने सीधे ढंग से काव्य में अवतरित हुए थे जितने की नई कविता ने हुए हैं। स्पष्ट है कि नई कविता अपने समय- संदर्भों में मानवीय उपस्थिति और लगाव की कविता है। डॉक्टर जगदीश चंद्र गुप्त द्वारा दी गई परिभाषा नई कविता की मूल स्थापनाओ को और भी स्पष्ट करती है। नई कविता प्रगतिवादी यथार्थ की आघात से उत्पन्न छायावाद के स्वप्न भंग के बाद की कविता है, जिसमें व्यक्त भावनाएं कुहासे के बीच पनपनेवाले तंद्रालस से युक्त न होकर दिन की तेज रोशनी के बीच विषमताओं से धिरे जागृत मनुष्य की भावनाएं। इस परिभाषा से गुजरने पर नई कविता के प्रारंभ को लेकर डॉक्टर गु

क्या गोदान एक महाकाव्यात्मक उपन्यास है ?

 गोदान एक महाकाव्य फिल्डिंग ने अपनी रचना ‘टॉम जॉन्स’ की भूमिका में सर्वप्रथम उपन्यास के भीतर महाकाव्य के गुण होने की घोषणा की थी। रैल्फ फॉक्स ने ‘उपन्यास महाकाव्य के रूप में’ शीर्षक निबंध में लिखा है ‘उपन्यास विश्व की कल्पना प्रसूत संस्कृति को बुर्जुआ सभ्यता की सबसे महत्वपूर्ण देन है” और इस अर्थ में उन्होंने उपन्यास को नए युग का समाज का महाकाव्य कहा है ।“उपन्यास हमारे वुर्जुआ समाज का महाकाव्य हैं।“  इसके बाद उन्होंने टालस्टॉय के वार एण्ड पीस, जेम्स जाँयस के यूलीसस, पर्ल बक के गुड अर्थ, एवं फील्डिंग के टॉम जॉन्स की चर्चा महाकाव्यित्मक उपन्यास के रूप में स्पष्ट की है ।स्पष्ट है कि सभी की जगह दो चार उपन्यासों को महाकाव्यात्मक उपन्यास कहने के पीछे उनका भाव लाक्षणिक है अभिधात्मक नहीं। भारत में उपन्यास को गद्य महाकाव्य घोषित करने का सर्व प्रथम प्रयास स्वातंत्र्योत्तर युग में किया गया। हिंदी में इस विषय का शास्त्रीय स्तर पर विवेचन नहीं हुआ है ।हिंदी काव्य परंपरा में महाकाव्य का जो स्वरूप परिनिष्ठित हुआ उसकी प्रमुख तत्वों की खोज गद्य महाकाव्य में नहीं की जा सकती। क्योंकि गद्य महाकाव्य उपन्यास

प्रारंभिक हड़प्पा संस्कृति

 आरंभिक हड़प्पा काल भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता सिंधु सभ्यता ,भारत एवं पाकिस्तान के जिन क्षेत्रों में विकसित हुई थी, उसके आसपास के क्षेत्रों में उससे पूर्व ताम्रपाषाणकालीन संस्कृतियों के पुरातात्विक साक्ष्य मिलते हैं। कालक्रम की दृष्टि से ये संस्कृति हड़प्पा सभ्यता के समकालीन थीं।इन विकसित ग्रामीण संस्कृतियों को रफीक मुगल आरम्भिक हड़प्पा संस्कृति का नाम देते हैं।कतिपय पुराविदों ने इन संस्कृतियों में सिन्धु सभ्यता का मूल उत्स खोजने की कोशिश की है, क्योंकि अनेक पुरास्थलों पर इन संस्कृतियों के अवशेष निचले स्तरों से मिले हैं तथा उनके ऊपरी स्तरों से सिंधु सभ्यता के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं । दक्षिणी अफगानिस्तान, पाकिस्तान के बलूचिस्तान,पंजाब तथा सिंध प्रांतों और भारत के उत्तरी राजस्थान में स्थित पुरास्थलों से प्राप्त सेंधव संस्कृतियों के संबंध में अभी तक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। प्रमुख स्थलों में अफगानिस्तान में स्थित मुंडीगाक ,पाकिस्तान में किल्ली गुल मोहम्मद, दंत सादात, कुली, मेही, आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त आमरी, कोटदीजी, हड़प्पा, राजस्थान में कालीबंगन, हरियाणा में वनवाली और एवं राखीगढ

भारत- दुर्दशा नाटक की भाषा एवं शिल्प

 भारतेंदु हरिश्चंद्र की नाट्य दृष्टि और भारत- दुर्दशा नाटक की भाषा एवं शिल्प जिस तरह निराला, मुक्तिबोध ने कविता की संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन किये और नए सौंदर्यशास्त्र की रचना की, उसी तरह  उनसे भी पहले भारतेंदु ने नाट्य संरचना में नवीन सर्जनात्मक मोड़ पैदा किए और हिंदी के नाट्य शास्त्र, दृश्य विद्या,नाटक के नवीन सौंदर्य बोध की परिकल्पना की।कथानक और पात्रों के चरित्र- चित्रण के संबंध में भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के महत्व को मानते हुए भी भारतेन्दु हिंदी नाटक में उनका ज्यों का त्यों पालन उपयुक्त नहीं मानते और हिंदी की प्रकृति और युग की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तन को अनिवार्य मानते हैं।सशक्त पात्रों के चित्रण और उनकी गहरी व्यंजनात्मकता के लिए उन्होंने देश विदेश के भ्रमण, प्राकृतिक सौंदर्य के निरीक्षण और मानव प्रकृति के सूक्ष्म अध्ययन और अनुभव को जरूरी समझा। साथ ही चरित्र- चित्रण में सजग और आलोचक की गंभीर आलोचना दृष्टि का महत्व माना है ।अधिकतर वह कालिदास और शेक्सपियर के नाटकों के कथा- विन्यास और पात्र परिकल्पना एवं सूक्ष्म चरित्र -चित्रण का उदाहरण देते हैं और मानव जगत के व्यापक दर्शन

भारत दुर्दशा में राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति

 भारतेंदु हरिश्चंद्र कृत भारत दुर्दशा नाटक हिंदी साहित्य की एक अनुपम कृति है ।सुप्रसिद्ध प्रबोध  चंद्रोदय की पात्रों की मानवीकरण की सांकेतिक परंपरा हिंदी में सबसे पहले भारत दुर्दशा में मौलिक स्वरूप में प्रकट हुई है। यह विशिष्ट शैली धार्मिक प्रबोधन के स्थान पर युगानुकूल राष्ट्रीय चेतना से अनुप्राणित है। श्री जयनाथ नलिन ने भारत दुर्दशा की समीक्षा करते हुए कहा है कि “भारत दुर्दशा अतीत गौरव की चमकदार स्मृति है’ आंसूभरा वर्तमान है और भविष्य निर्माण की भव्य प्रेरणा है। इसमें भारतेंदु का भारतप्रेम करुणा की सरिता के रूप में उमड़ चला है और आशा की किरण के रूप में झिलमिला उठा हैं।  भारतेंदु की राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति का सुंदर रूप भारत- दुर्दशा में परिलक्षित होता है। तत्कालीन जीवन की सामाजिक, धार्मिक ,राजनैतिक ,आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन की यथार्थ प्रतिकृति उनके प्रस्तुत नाटक में मुखरित हुई है। नाटककार की मौलिक कल्पना शक्ति समकालीन जीवन को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से भारत -दुर्दशा में व्यक्त करती है। सामयिक संगति को नाटक में खोजते हुए डॉक्टर लक्ष्मी सागर वाष्णेय लिखते हैं-“ भारत- दुर्दशा की कथा

मौर्य साम्राज्य के अध्ययन के स्रोत

 आरंभिक बौद्ध और जैन साहित्य में मध्य गंगा के मैदान जहां मगध स्थित था, की घटनाओं और परंपराओं का काफी उल्लेख किया गया है। जैन और बौद्ध परंपरा के ग्रंथ आरंभिक राजनीतिक गतिविधियों को बाद में संग्रहित हुए ब्राह्मण ग्रंथों से अधिक प्रामाणिक रूप में और सीधे तौर पर प्रस्तुत करते हैं ।पुराणों में गुप्त काल तक के शाही राजवंशों का इतिहास प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है। 1837 ईस्वी में एशियाटिक सोसाइटी बंगाल के सचिव तथा कोलकाता टकसाल के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने पहली बार अशोक के ब्राह्मी लिपि में लिखे गए शिलालेख मेँ उल्लिखित देवनामाँ प्रिय पियदस्सी नामक राजा की अशोक के रूप में स्थापना 1915 ईस्वी में की। तब से अशोक प्रियदर्शी पर प्रकाश डालने वाले एक अन्य शिलालेख प्राप्त हुआ है ।लंका के इतिहास महावंश में मिले उल्लेखों से इस तथ्य की सत्यता संपुष्ट तथा स्थिर हो गई है। तब से अशोक प्राचीन भारतीय इतिहास की तिथिक्रमता के निर्धारण के एक प्रमुख शासक के रूप में जीवंत है। भारत में प्राचीनतम लिखित सामग्री अशोक के शिलालेख हैं जो प्राकृत भाषा में है तथा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के हैं। पूर्व युगों की अपेक्षा

कामायनी का महाकाव्यत्व

 कामायनी का महाकाव्यत्व महाकाव्य किसी संस्कृति विशेष की गौरव गरिमा का व्याख्याता, जाति विशेष के सुख-दुख और उत्थान -पतन की कहानी तथा विश्वकोश होता है। और उसमें चिरंतन मानवता के लिए अभाव -भाव -निधि सन्निहित रहती है ।महाकाव्य एक ऐसे महान कवि कृति है जिसे श्रुति में "कविर्मनीषी परिभूः स्वंभूः "कहा गया। महाकाव्य के रचयिता न केवल युग विशेष का प्रतिनिधि होता है ,अतीत अतीत का गायक ,वर्तमान का चितेरा एवं भविष्य का वक्ता होता है ।उसकी कृति अपने महाकलेवर में शाश्वत मानवीय आदर्शों की विपुल राशि समेटे रहती है और इसलिए महाकाव्य के नाम से अभिहित की जा सकती है ।इस दृश्य से भारतीय वांग्मय अत्यंत संपन्न है और उसमें रामायण ,महाभारत तथा रामचरितमानस जैसे तीन महाकाव्य विद्यमान है. विश्व के किसी भी राष्ट्र में इतनी महत् स्तर की तीन महाकाव्य नहीं है। संस्कृत आचार्यों ने महाकाव्य के जो लक्षण निर्धारित किए हैं ,उनके आधार पर रघुवंश ,कुमारसंभव, किरात,नैषध, शिशुपाल वध आदि अन्य ग्रंथ भी महाकाव्य के गौरवशाली पद पर अभिषिक्त किए जा सकते हैं। जयशंकर प्रसाद द्वारा मंडित कामायनी को भी हिंदी महाकाव्यों की पँक्ति