भारत- दुर्दशा नाटक की भाषा एवं शिल्प

 भारतेंदु हरिश्चंद्र की नाट्य दृष्टि और भारत- दुर्दशा नाटक की भाषा एवं शिल्प

जिस तरह निराला, मुक्तिबोध ने कविता की संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन किये और नए सौंदर्यशास्त्र की रचना की, उसी तरह  उनसे भी पहले भारतेंदु ने नाट्य संरचना में नवीन सर्जनात्मक मोड़ पैदा किए और हिंदी के नाट्य शास्त्र, दृश्य विद्या,नाटक के नवीन सौंदर्य बोध की परिकल्पना की।कथानक और पात्रों के चरित्र- चित्रण के संबंध में भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के महत्व को मानते हुए भी भारतेन्दु हिंदी नाटक में उनका ज्यों का त्यों पालन उपयुक्त नहीं मानते और हिंदी की प्रकृति और युग की आवश्यकताओं के अनुसार परिवर्तन को अनिवार्य मानते हैं।सशक्त पात्रों के चित्रण और उनकी गहरी व्यंजनात्मकता के लिए उन्होंने देश विदेश के भ्रमण, प्राकृतिक सौंदर्य के निरीक्षण और मानव प्रकृति के सूक्ष्म अध्ययन और अनुभव को जरूरी समझा। साथ ही चरित्र- चित्रण में सजग और आलोचक की गंभीर आलोचना दृष्टि का महत्व माना है ।अधिकतर वह कालिदास और शेक्सपियर के नाटकों के कथा- विन्यास और पात्र परिकल्पना एवं सूक्ष्म चरित्र -चित्रण का उदाहरण देते हैं और मानव जगत के व्यापक दर्शन और मानवीय स्वभाव के जटिल से जटिल स्तरों की, उनके मनोवैज्ञानिक पहलूओं की सूक्ष्म जांच-पड़ताल के कारण उनकी प्रामाणिकता ,विश्वसनीयता और संवेदनशीलता का सशक्त सौंदर्य का उदाहरण देते हैं। वे पात्र विश्व संदर्भों में बार बार जीते हैं, देश काल की सीमा में बधे नहीं है ।पात्रों की परिकल्पना और चित्रण में भारतेंदु जितना जरूरी स्थितियों, संदर्भों और मानवीय संवेदना को मानते हैं उतना ही जरूरी उन पात्रों की संप्रेषणीयत्ता, दर्शकों से तादात्म्य और अभिनयशीलता को भी। इसलिए पात्र नाटककार के मोह से ग्रस्त, जड़ और आत्मकेंद्रित नहीं है, वे स्वतंत्र, सांकेतिक, व्यंजक और चारों ओर मौजूद है। यह अलग बात है कि कभी वे पात्र संस्कृत नाट्य प्रणाली के अनुरूप दीखते हैं और कभी प्रतीकात्मक।

वस्तुतः पात्र रचना करते समय भारतेंदु का मुख्य लक्ष्य है- सोद्देश्यता। जनचेतना और सांस्कृतिक पुनर्जागरण में, समकालीन व्यंग्य की प्रखरता में उनके पात्र एक साथ आगे बढ़ते हैं। यह सामूहिक संश्लिष्ट दृष्टि और सामाजिक चेतना, अनुशासित लोक व्यवस्था उनके पात्रों को मुखर और जीवंत बनाती है। यह उल्लेखनीय है कि भारत दुर्दशा के पात्र प्रतीकात्मक हैं फिर भी प्रसाद के ‘कामना’ नाटक के प्रतीकात्मक पात्रों की तुलना में अधिक स्पष्ट’ सजग अभिनेय है और हर प्रकार के दर्शकों को ग्राह्य है। उनमें दुरूहता, दर्शक से अंतराल ,आरोपण और प्रयोगात्मक वृत्ति स्थूल रूप में नहीं है क्योंकि उनमें लोक वृत्ति और आलोचना दृष्टि और मानव प्रकृति की स्वाभाविकता है और अभिनय का लचीलापन भी है।

नाटक की भाषा’ भाषा का संस्कार करती है ,निर्माण और रचना भी करती है और बनी- बनाए फ्रेमम को भी तोड़ती है। यह रचनात्मक और संघर्षशील प्रक्रिया उनकी मौलिकता है। इसलिए वह सामान्य भाषा देखने पर भी सामान्य नहीं होती। भारतेंदु और मोहन राकेश ने नाट्य भाषा का सही मुहावरा रचा है। भारत- दुर्दशा और आधे- अधूरे की भाषा बोल- चाल की और नितांत सामान्य दिखती हुई भी विलक्षण है। यह भाषा जहां यथार्थ का भ्रम पैदा करती है, वहीं नाट्य इसमें शब्द को क्रिया दे रहा है। दृश्य तत्व, ऐंद्रिय अनुभव और बिंबात्मकता, व्यंजना और संकेत देकर उनकी पुनर्रचना कर रहा है। नाट्य शब्द पर शोध करते हुए मोहन राकेश ने कहा है कि “जो कहा गया वह तो अर्थवान लगे ही जो नहीं कहा गया वह भी उतना ही अर्थवान लगे ,एक शब्द का अलग से महत्व नहीं है ।उस समग्र प्रभाव का है जो उस से ध्वनित होता है। यह ध्वनन ही भारत दुर्दशा की विशेषता है।“

भाषा भारतेंदु के नाटकों की शक्ति है ,नाटक के पुनर्सृजन का अनिवार्य अंग और मुद्राराक्षस में ,फिर वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति, प्रेमजोगिनी और भारत- दुर्दशा, नीलदेवी में भाषा के समान रूप नहीं मिलते। नाटकों में अंतर्निहित चेतना और परिवेश की अपेक्षा के अनुसार भाषा में भी परिवर्तन आए हैं। सत्य हरिशचंद्र में जो भारतीय सांस्कृतिक प्रवाह और जीवन- चेतना, एक पौराणिक प्रवेश चाहिए वह प्रेम जोगिनी में नाटक के अनुसार बोली के लहजे, त्वरा और लय में, व्यंग्य और जिंदादिली में बदल गया है।

भारतेंदु ने भाषा के प्रयोग को नाटक की प्रकृति ,उसके स्वरूप ,उसके वातावरण और उसकी चेतना की मांग से जोड़ा है। यही कारण है कि भारत- दुर्दशा में देशी मानसिकता पर व्यंग करने के लिए भी भारतेंदु ने सभ्य कमेटी की मीटिंग में बंगाली से टूटी फूटी बांग्ला प्रधान हिंदी और एडिटर से बिल्कुल भिन्न मुहावरेवाली भाषा बुलवाई है। बिम्ब योजना और प्रतीक नाट्य भाषा का अंग है ।मूलतः नाटक स्वयं एक रचनात्मक संवाद है और रंगमंच भी संश्लिष्ट, कलात्मक संवाद है ।नाटक की समग्र संरचना, कथानक, कथानक का विकास, संघर्ष ,पात्रों का चित्रण ,उनकी वैयक्तिकता और विरोध, वैशिष्ट्य और अंतर, नाटक के लक्ष्य की अनुभूति और उसका संप्रेषण, समूची रंग परिकल्पना, संवाद रचना या संवाद योजना पर ही आधारित होती है ।इसलिए नाटक में संवाद का अभिन्न और अनिवार्य अंग के रूप में योगदान है।वह इस विधा की स्वतंत्र मौलिकता, सृजनशक्ति के भी बोधक है ।यह केवल नाटककार की नाट्य रचना के अस्त्र मात्र या जरूरत भर नहीं है। चूँकि “भारत- दुर्दशा’ यथार्थवादी, व्यंग्यात्मक, समकालीन जीवन की प्रत्यक्षीकरण करनेवाला सामाजिक नाटक है इसलिए जीवन के हलचल की भाषा में रोजाना के मुहावरे और लहजे भी इसमें रच बस गए हैं।

भारत- दुर्दशा नाटक का शिल्प एवं भाषा

भारत- दुर्दशा को स्वयं भारतेंदु ने नाट्य रासक की संज्ञा दी है ,जो नवीन नाट्य पद्धति का अनुकर्ता है ।वस्तुतः नाट्य रासक  18 उपरूपकों में  से एक है ।नाट्य रासक का लक्षण बताते हुए स्वयं भारतेंदु ने लिखा है कि" इसमें एक अंक ,नायक उद्दात, नायिका वासकसज्जा ,पीठमर्द ,उपनायक और अनेक प्रकार के गान- नृत्य होते हैं ।अन्य परिभाषा के अनुसार भी नाट्य रासक  में एक अंक, नायक उद्दात, नायिका वासक सज्जा, उपनायक और पीठमर्द माना गया है ।लेकिन जो भारतेन्दु से भिन्न ठहरती है ,वह है श्रृंगार या हास्य रस की प्रधानता।प्रतिमुख संधि को छोड़कर शेष चारों संधि का निर्वाह हुआ है ।पर भारतेंदु द्वारा दी गई परिभाषा का उल्लंघन भी इसी नाटक में हुआ है ।आवश्यकता के अनुसार फेर -बदल किया गया है जैसे नाटक एक अंक के बजाय छः अंकों में विभक्त है। यथास्थान वीर, श्रृंगार और करूण का सन्निवेश भी हुआ है।

भारतेंदु ने अपने 'नाटक' नामक निबंध में नाटकों के तीन प्रकार बताएं - काव्य मिश्र ,शुद्ध कौतुक और भ्रष्ट। काव्य मिश्र मेंं  प्राचीन और नवीन तत्वों का सन्निवेश रहता है। प्राचीन के अंतर्गत नाट्य के रूपक और उपरूपकोंं की गणना ,नाट्य -संधियाँ और कार्यावस्थाओं का समावेश होता है।  नवीन के अंतर्गत दो भेद भारतेंदु ने स्वीकार किए है- नाटक और गीतिरूपक। जिसमें कथा विभाग विशेष और गीति न्यून हो, वह 'नाटक 'और जिसमें गीति विशेष हो, वह  गीतिपरक । इन नवीन नाटकों की रचना के पीछे श्रृंगार ,हास्य ,कौतुक, समाज- संस्कार और देश -वत्सला के भाव छुपे रहते हैं। भारत -दुर्दशा मिश्र कोटि की रचना माना जाता है ।

इस प्रकार भारतेंदु के नाटक समन्वयात्मक दृष्टि  के परिचायक हैं, जिसमें समयानुकूल जनरूचि के अनुरूप प्राचीन के साथ नवीन का भी समन्वय है। यही कारण है कि इनके नाटक का मूल्यांकन केवल आधुनिक नाट्य पद्धतियों की दृष्टि से ही नहीं किया जा सकता वरन् नाटक के शास्त्रीय तत्वों के निर्वाह की ओर भी इनकी दृष्टि गई है। शास्त्रीय तत्वों के विनियोजन के रूप में देखा जाए तो कथावस्तु, कार्यों की अवस्थाओं और संधियों के विभिन्न रूपों का वर्णन मिलता। नवीनता की दृष्टि से हास्य, करुण, वीर रस की प्रधानता, समाज- संस्कार और देश- वत्सला का भाव भी है ।नाटक के छः अंक हैं जिसमें प्रतीकात्मक ढंग से सामाजिक यथार्थ को नाटकीयता के साथ उपस्थित किया गया है जिसमें विभिन्न नवीन नाट्य तत्वों के साथ भारतीय मानसिकता का अंतर्विरोधी और परिणाम वर्णित है।

भारत दुर्दशा नाटक का प्रारंभ ही प्रतीकात्मक ढंग से होता है ।जिसमें विभिन्न मनोभावों का मानवीकरण किया गया है। भारत- दुर्दशा,भारत दुर्दैव ,सत्यनाश फौजदार, रोग, आलस्य, मदिरा, अंधकार, निराशा ,डिस्टलायल्टी को पात्र के रूप में उपस्थित किया गया है। भारत का प्रवेश कुत्तों, स्यारों और कौओं के बीच होता है। उन्हीं के अनुकूल शमशान, मैदान ,टूटे-फूटे मंदिर ,किताबखाना और ब्रिटिशों का साज-सज्जा से युक्त बैठक आदि अनेक उपयुक्त स्थानों की कल्पना की गई है। नाटक का प्रारंभ मंगलाचरण से भिन्न स्तर पर होता है। पर्दे के पीछे नटरंग से एक योगी भारत के अतीत वैभव की ओर संकेत करते हुए लावनी गाता है और वर्तमान भारत की दुर्दशा से तुलना करता है। समूची कथावस्तु स्थूल रूप से छः अंको में विभक्त है पर प्रत्येक अंक की कथा परस्पर अंतर्संबंधित है। यही कारण है कि प्रत्येक अंक का अंत जिज्ञासावृत्ति को जागृत रखता है कि आगे क्या होगा? साथ ही रसोद्रेक के स्थाई भाव की सृष्टि भी होती है । प्रथम अंक में योगी का लावनी गाना, भारतीय राजाओं की परस्पर फूट और कलह के कारण यवन राज्य की स्थापना और फिर ब्रिटिश राज्य का होना वर्णित है। भारतीयों की दुरावस्था और अंग्रेजों द्वारा किए गए आर्थिक शोषण का वर्णन है। एक ओर अविद्या, दुख, कलह, आलस्य ,महंगाई, रोग, टैक्स आदि की मार से भारतवासी दुखी है, दूसरी ओर अंग्रेजी राज में आई सुख -शांति को देखकर विक्टोरिया महारानी को देवता तुल्य  मानकर स्तुति भी है। पर देशी धन का विदेश गमन चिंता का कारण भी बनता है। दूसरा अंक दीन -हीन भारत अपनी दुखगाथा वर्णित करते-करते मुर्छित हो जाता है। आशा,निर्लज्जता के साथ आती है और भारत को उठाकर भीतर ले जाती। तीसरा अंक भारत -दुर्दैव आधा हिंदुस्तानी और आधा मुसलमानी ड्रेस पहने हुए आता है। यही भारत -दुर्दशा का कारण है जिसका सेनापति सत्यनाश फौजदार है। जिस फौज के कार्यकर्ता सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक ,आर्थिक ,सांस्कृतिक सभी स्तरों पर शोषण करते हैं। फूट ,संतोष ,डाह,दुर्भिक्ष, अतिवृष्टि, स्वार्थपरता, अनावृष्टि के सहयोग से ही भारत दुर्दैव भारतीयों का नाश, धन ,बल ,विद्या तीन स्तरों पर कर रहा है। चतुर्थ अंक- लाही, टिड्डी, कीड़े, पाला, हैजा,  डेंगू, एपिलेप्सी ,बहुदेववाद,आलस्य, छुआछूत ,शराबखोरी , कलह, अविद्या तथा आदि सत्यनाशी सेनापति के सिपाही हैं ।जिनका सहयोग ही भारतीय नाश का प्रमुख कारण।पंचम अंक- औपनिवेशिक शासन के सामाजिक, आर्थिक शोषण से छुटकारा पाने के लिए भारत में के पढ़े-लिखे लोग सात सभ्यों की कमेटी बनाते हैं ।इस कमेटी में सुरेंद्रनाथ बनर्जी ,फिरोजशाह मेहता और रानाडे का जिक्र है। पर अंग्रेज शासक अपने "हाकिमेच्छा" नामक दफा से सब को पकड़ ले जाती है। षष्ठ अंक- अंत में भारत अचेत पड़े हुए हैं ।भारत -भाग्य उसे जगाने की चेष्टा करता है पर भारत के उठने की आशा न देखकर भारत -भाग्य अपनी छाती में कटार का आघात कर लेता है।

इस प्रकार ,इस नाटक का अंत भारत -भाग्य के द्वारा सुखांत ना होकर दुखांत होता है ,जो भारतीय शास्त्रीय परंपरा के विपरीत, इस नाटक के प्रारंभ में ही मुख संधि ,बीज नामक अर्थप्रकृति, और आरंभ नामक कार्यावस्था का सम्यक निर्वाह हुआ है । अंत में भी निर्वहण संधि और कार्य नामक अर्थप्रकृति और फलागम नामक कार्यावस्था है. इसके अतिरिक्त तीसरे, चौथे अंक में बिंदु अर्थ प्रकृति, प्रयत्न कार्यावस्था और प्रतिमुख संधि तथा पांचवें अंक में पताका अर्थ प्रकृति है जो प्रधान फल की प्राप्ति का द्योतक है। इसी में प्रात्याशा कार्यावस्था और गर्भ संधि मानी जा सकती है। प्रतिमुख संधि का निषेध है फिर भी इस नाटक में प्रतिमुख संधि है क्योंकि तीसरे ,चौथे अंकों में प्रतिमुख संधि में दिए  प्रधान फल का निदर्शन  हीं होता है ।लेकिन विमर्श संधि इस रचना में नहीं है ।नाटक में नवीन और प्राचीन तत्वों का समुचित निर्वाह हुआ है।

भारत- दुर्दशा में बड़े ही सजीव रूप से देश की विभिन्न समस्याओं को चित्रित किया गया है फिर भी पूरे रचाव में नाटक उतना सशक्त नहीं बन पाया है जितना कि अलग-अलग अंकों में। पांचवें अंक में यथार्थ का जितना सशक्त चित्रण हुआ है नाट्य स्थिति, भाषा, संवाद और पात्र का एकजुट प्रभाव जितना आकर्षित करता है उतना संपूर्ण नाटक के धरातल पर इन नाट्य तत्वों का संयोजन समुचित रूप में नहीं हो सका है। इसी प्रकार जब अंतिम अंक में भारत- भाग्य को अचेत देखकर कटार मारकर आत्महत्या कर लेता है तो यह नाटकीयता की चरम स्थिति है ।यद्यपि नाटक का यह अंत भारतीय परंपरा के अनुकूल नहीं है पर भारतेंदु का मानना है कि इसका दर्शकों के चित्तत पर देर तक असर रहता है। यद्यपि यह  नाटक कथ्य को संप्रेष्य करने में पूरी तरह सफल है । पर नाटकीय कलाओं का सफल प्रयोग नहीं हो सका है ।इसका कारण बराबर नए-नए प्रयोगों को करते रहना है। फिर भी भारतेंदु ने सिर्फ कलागत प्रयोगों के हेतु ही नाटकों की रचना नहीं की। वरन वे बराबर नई-नई आधारभूमि खोजते रहे ,ताकि युगीन सत्य को तल्खी के साथ व्यक्त कर सकें। विभिन्न प्रयोगों के द्वारा वे अधिक से अधिक तीखे ढंग से भारतीय अंधविश्वासी, रुढ़िवद्ध,जड़ समाज को जागृत कर देशभक्ति और आत्माभिमान के भाव को भरना चाहते थे। यही कारण है कि संस्कृत, फारसी, अंग्रेजी नाटकों में से यथा स्थान लाभ उठाते हैं पर उनकी दृष्टि इस स्तर संतुलित और व्यावहारिक रही. अतः पूर्व में, प्रयोग में आने वाली विभिन्न रंग शैलियों के सम्मिश्रण के बावजूद नाट्य कृति कमजोर नहीं है, हाँ तत्वों की दृष्टि से कुछ शिथिल अवश्य है।

नाटक की भाषा पात्रानुकूल ,विषय के अनुरूप, सरल ,चपल और प्रवाहपूर्ण है। बीच-बीच में गीतों की योजना से नाटक में जीवंतता आई है। इन गीतों के माध्यम से अंग्रेजों की अर्थनीति और कूटनीति का सशक्त चित्र उभरा है ।वस्तुतः नाटकों में गीत योजना यह भारतेंदु युग में संस्कृत नाटकों की परंपरा में जन्मी हैं। क्योंकि संस्कृत के नाटकों में बीच-बीच में श्लोकों की रचना अनिवार्य अंग के रूप में स्वीकृत हो चुकी थी। इसी परंपरा में गीतों की योजना के साथ नाट्य रचना प्रसाद तक चली। बीच के दौर में गीतों से हटने की प्रवृत्ति भी मिलती है लेकिन यदि नाटक किसी मकसद को लेकर लिखा जाएगा तो विचार और भाव  को गहराने के लिए आवश्यकतानुसार गीतों का निवेश भी होना चाहिए। ब्रेख्त ने भी नाटकों में गीतों का प्रयोग किया है ।नाटकीय प्रभाव को घनीभूत करने के लिए आवश्यक भी है ,पर इसकी भरमार रचना में नहीं होनी चाहिए ,कि  प्रवाह या कथ्य ही कमजोर पड़ जाए।

भारत -दुर्दशा में संवाद योजना भी अच्छी बन पड़ी है ,काव्य को गति देने में सहायक हुई है। परंतु स्वगत कथनों का लंबा विस्तार नाटक में अतिरंजना और अतिनाटकीयता पैदा कर देता है ।करूण और वीर रस की व्यंजना इस नाटक में विशेष रूप से हुई है। जहां भारत- दुर्दैव का उत्साह प्रदर्शित होता है वहां वीर और जहां भारत -भाग्य का दुर्दीन, उसका विलाप  है वहां करूण रस की सृष्टि हुई है ।बीच-बीच में व्यंग्यात्मक लहजे में हास्य का पुट भी आया है। व्यंग्य- विनोद और हास- परिहास  को तो पूरे नाटक में ब्रिटिश राज के प्रति अपनी तीखी प्रतिक्रिया को प्रकट करने के लिए कारगर औजार के रूप में इस्तेमाल किया है। वैसे व्यंग्यात्मक लहजे में अपनी बात को रखना यह पूरे भारतेंदु युग की यही खासियत रही है। साथ ही प्रतीकों का भी सजीव और विस्मृत न होने वाला रूप उपस्थित किया गया है।

इसप्रकार ,सामाजिक यथार्थबोध को लेकर जिन सामाजिक नाटकों की रचना भारतेंदु ने की है, वे निश्चय ही पश्चात्य नाटककार ब्रेख्त के सन्निकट है, जिनमें सामाजिक बदलाव की ताकत मिलती है. नवीन प्रयोगों के धरातल पर बुने गए इनके नाटकों में आज भी विकास की संभावनाएं हैं। भारत -दुर्दशा नाटक तो हिंदी नाटक के विकास में एक नींव के रूप में है जो नाटक की सामाजिक सोद्देश्यता को बनाए रखने के साथ-साथ नाटकों को जनता के बीच में उसकी भाषा या लोक रूपात्मक तत्वों के साथ उपस्थित किया है ।वस्तुतः भारतेंदु ऐसे नाटकों के पक्षधर बनकर उपस्थित होते हैं जो नाटकों की सामाजिक सोद्देश्यता और जीवन की कलात्मक प्रस्तुति पर बल देते हैं ताकि जनता की चेतना उन्नत और विकसित हो सके। विभिन्न प्रकार की कलात्मक चकाचौंध के स्थान पर एक सजगता पैदा हो ,जागृति लाए ।आज के नाटककारों के लिए भी भारत - दुर्दशा नाटक प्रेरणास्रोत बन सकता है। जनपक्षीय नाट्य परंपरा के  विरासत के रूप में भारत- दुर्दशा की प्रस्तुति हो सकती है।

पाश्चात्य तत्वों का समावेश:-

इस नाटक में पाश्चात्य शैली के अनुरूप दुखान्त श्रेणी का सशक्त चित्रण करने के उपरांत अंत में भारत को अचेतावस्था में पड़ा दिखाया गया है। और उसके परम मित्र भारत -भाग्य को आत्महत्या करते दिखाया गया है। भारतीय नाट्यशास्त्र में इसप्रकार का दुखान्त तो वर्जित है ही, मंच पर आत्महत्या का दृश्य भी वर्जित है। किंतु पाश्चात्य शैली में दोनों तत्व पाए जाते हैं ।

अरस्तु के अनुसार पाश्चात्य नाटकों के नाटकीय कथा में संघर्ष की स्थिति अनिवार्य होती है और यह संघर्ष आरंभ, विकास, चरणसीमा ,उतार और अंत की विभिन्न श्रेणियों से होती हुई समाप्त होता है ।भारत-दुर्दशा में भारत की प्रार्थना यानी उसके क्षीण प्रयास का आभास पाते ही प्रतिनायक भारत -दुर्दैव सतर्क होकर अपनी तैयारियां आरंभ कर देता है ।फौजदार के सहयोग से आरंभ होता है ,रोग ,आलस्य ,मदिरा और अंंधकार के सहयोग से संघर्ष का विकास होता है ।"करहूँ उतै,सब गोन" में सारी सेना के प्रयाण से चरम सीमा की झलक मिलती है। अथवा सात सभ्यों की मीटिंग में चरम सीमा  कही जा सकती है ।क्योंकि भारत का अधिक से अधिक प्रयत्न यही हैं। सात सभ्यों के गिरफ्तार होने से  नायक के पक्ष का कमजोर होना, संघर्ष की निगती है और नायक के प्रधान सहायक की आत्महत्या एवं सर्वत्र अंधकार और निराशा का छा जाना संघर्ष का अंत है।

भारत- दुर्दशा में आत्महत्या, युद्ध और अंधकार के जो दृश्य ग्रहण किए गए हैं वह पाश्चात्य नाट्य शिल्प का प्रभाव है, किंतु पात्रों के प्रस्तुतीकरण, उनके चरित्रांकन और उनके अंतर्द्वंद का वह चित्र यहां नहीं मिलता ।यूरोपीय नाटकों जैसी व्यक्ति वैचित्र्य की पद्धति पर भारत -दुर्दशा के पात्रों की रचना नहीं हुई है. इसमें भारत की ही आदर्शात्मक शैली का अनुकरण किया गया है ।सभी पात्र एकांकी हैं, स्थिर और वर्ग प्रतिनिधि से है ।भारत और भारत भाग्य में कोई अवगुण नहीं है ,तो भारत -दुर्दैव में सत्तगुण का कोई क्षलक नहीं मिलता।


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