क्या गोदान एक महाकाव्यात्मक उपन्यास है ?

 गोदान एक महाकाव्य

फिल्डिंग ने अपनी रचना ‘टॉम जॉन्स’ की भूमिका में सर्वप्रथम उपन्यास के भीतर महाकाव्य के गुण होने की घोषणा की थी। रैल्फ फॉक्स ने ‘उपन्यास महाकाव्य के रूप में’ शीर्षक निबंध में लिखा है ‘उपन्यास विश्व की कल्पना प्रसूत संस्कृति को बुर्जुआ सभ्यता की सबसे महत्वपूर्ण देन है” और इस अर्थ में उन्होंने उपन्यास को नए युग का समाज का महाकाव्य कहा है ।“उपन्यास हमारे वुर्जुआ समाज का महाकाव्य हैं।“  इसके बाद उन्होंने टालस्टॉय के वार एण्ड पीस, जेम्स जाँयस के यूलीसस, पर्ल बक के गुड अर्थ, एवं फील्डिंग के टॉम जॉन्स की चर्चा महाकाव्यित्मक उपन्यास के रूप में स्पष्ट की है ।स्पष्ट है कि सभी की जगह दो चार उपन्यासों को महाकाव्यात्मक उपन्यास कहने के पीछे उनका भाव लाक्षणिक है अभिधात्मक नहीं।

भारत में उपन्यास को गद्य महाकाव्य घोषित करने का सर्व प्रथम प्रयास स्वातंत्र्योत्तर युग में किया गया। हिंदी में इस विषय का शास्त्रीय स्तर पर विवेचन नहीं हुआ है ।हिंदी काव्य परंपरा में महाकाव्य का जो स्वरूप परिनिष्ठित हुआ उसकी प्रमुख तत्वों की खोज गद्य महाकाव्य में नहीं की जा सकती। क्योंकि गद्य महाकाव्य उपन्यास का ऐसा रूप है जिसमें नई चुनौतियों को प्रतिनिधि रूप में चित्रित किया जाता है।गोदान के महाकाव्यत्व पर विचार करने से पूर्व महाकाव्य के स्वरूप के संबंध में प्रचलित धारणाओं पर विचार करना उचित होगा। महाकाव्य का भारतीय एवंयुरोपीय दोनों परंपराओं में विश्लेषण किया गया है ।प्राचीनतम भारतीय आर्य भामह ने महाकाव्य की परिभाषा करते हुए लिखा है कि “वह लंबे कथानकवाला, महान चरित्रों पर आधारित, संधियों से युक्त, उत्कृष्ट तथा अलंकृत शैली में लिखा गया एक ऐसा काव्य है जिसमें जीवन के विविध रूपों और कार्यों का वर्णन रहता है। यह तो स्पष्ट है कि आधुनिक युग से पूर्व सभी महाकाव्य अनिवार्यता पद्य में ही लिखे गए थे। अतः पाश्चात्य और पौर्वात्य सभी साहित्यशास्त्रियों ने लक्ष्य ग्रंथों को सामने रखकर ही महाकाव्य के लक्षण निरूपित किए हैं। पद में होने के कारण सभी ने महाकाव्य का पदवद्ध होना स्वीकृत किया है। जैसे-जैसे महाकाव्य का व्यवहारिक स्वरूप बदलता गया, उसके लक्षणों में भी परिवर्तन आता गया ।कथानक, चरित्र, उद्देश्य, रस, आकार, भाषा तथा वर्ण विषय को लेकर अनेक विचार आते चले गए और उनमें से कुछेक को मान्यता भी प्राप्त हुई। महाकाव्य विषयक अर्वाचीन भारतीय मान्यताओं को सामने रखकर ही उपन्यास के विषय में निर्णय किया जा सकता है। आधुनिक युग में लिखे गए भारतीय पद्य महाकाव्य के परंपरागत लक्षणों की कसौटी पर खरे नहीं उतरते क्योंकि उनके मूल तत्वों में युगीन आवश्यकतानुसार परिवर्तन हो गया है। दूसरी बात यह है कि अर्वाचीन भारतीय समीक्षाशास्त्र, यूरोपीय समीक्षाशास्त्र एवं साहित्य परंपरा से प्रभावित हुआ है। भारतीय उपन्यास का प्रचलित रूप यूरोपीय देन है अतः महाकाव्य के अर्वाचीन स्वरूप की दृष्टि से ही विवेचन करना उपयुक्त होगा।

कथानकः- महाकाव्य का विषय महान एवं व्यापक हो यह आवश्यक है। उसकी कथावस्तु ऐतिहासिक, लोकविश्रुत, विस्तृत अथवा काल्पनिक हो सकती है। सभी स्थितियों में महाकाव्य के स्तर, योग्यता, कथानक के सामान्य जनता के हृदय तक अपना स्थान बना लेने पर निर्भर है। ऐतिहासिक कथानक अपनाने की अपेक्षा काल्पनिक कथानक द्वारा लोकहृदय को रसासिक्त कर देना अधिक कठिन काम है। गोदान को सामने रखकर यदि इस प्रश्न पर विचार किया जाए तो प्रेमचंद की अपूर्व सफलता का लोहा मानना पड़ेगा। गोदान का कथानक कल्पित होते हुए भी ऐतिहासिक और लोक विश्रुत कथानकों से भी अधिक व्यापक, महान ,बृहद आयामी, सर्वदेशीय प्रभविष्णुता के गुणों से युक्त है। भारतेतर देशों के भी लाखों पाठक इसे अपना कंठाहार बना चुके हैं। देश की राजनीतिक, धार्मिक और आर्थिक परिस्थितियों के विविध चित्र विशाल पटल पर अंकित देखकर ही नलिन विलोचन शर्मा जी ने गोदान को भारतीय जीवन की विशाल धारा का बड़े पैमाने पर चित्र कहा था ।उन्होंने कहा था कि भारतीय जन-जीवन का एक ओर तो नागरिक है और दूसरी और ग्रामीण। एक साथ अत्यंत प्राचीन भी है और जागरण के लिए छटपटा भी रहा है। इतने बड़े पैमाने पर यथार्थ चित्रण भारतीय भाषा में अन्यत्र नहीं मिलती ।डॉक्टर गोपाल राय ने इसे ग्राम जीवन और कृषि संस्कृति का महाकाव्य कहा है। इससे आगे बढ़कर गोपाल कृष्ण कौल कहते हैं कि गोदान उपन्यास की शैली में भारतीय जीवन का महाकाव्य है ।उसके महाकाव्यात्मक होने का एक कारण भी है  कि वह केवल युग -जीवन का ही प्रतिबिंब नहीं है, उसमें आनेवाले युग की प्रसव वेदना ,युगधर्म एवं समाज के उत्थान की ओर उन्मुख करने की प्रेरणा भी है।

गोदान का चित्रफलक काफी फैला हुआ है ।शहर एवं गांव के विविध पहलुओं के चित्र इसकी काव्यात्मकता को उजागर करते हैं। भारतीय गांव के चित्र का शायद ही कोई कोना हो जिस पर प्रेमचंद जी की नजर नहीं पड़ी हो ।गोदान में गांव टूट रहे हैं और शहर आबाद हो रहे हैं। ढ़हते हुए सामंतवाद के मलबे से महाजनी सभ्यता सिर उठा रही है ।प्रेमचंद जी ने इन सब का चित्र विस्तृत फलक पर खींचा है ।उनकी रचनाओं का कैनवास बहुत बड़ा है ।

चरित्र-चित्रणः- महाकाव्यों में अनेक पात्र होते हैं। जगत के विचित्र्य को रुपायित करने के लिए भले- बुरे ,ऊंच-नीच धनी -निर्धन ,विद्वान -मूर्ख ,स्वार्थी -परोपकारी-,शहरी -ग्रामीण  आदि अनेक प्रकार के व्यक्तियों और व्यक्ति समूहों का सृजन किया जाता है ।मानव -जीवन की व्यापक अभिव्यक्ति इन पात्रों के चारों ओर बन गए घटनाक्रम द्वारा ही की जाती है ।इन पात्रों का अंकन मनोवैज्ञानानुमोदित यथार्थवादी एवं विश्वसनीय रूप में होना चाहिए ।गोदान के पात्र इन्हीं सब विशेषताओं से समन्वित है। निजी विशेषताएं रखते हुए भी उनकी वर्ग प्रनिधित्व क्षमता अपूर्व है। उन्हें त्रिआयामीय अधिकार प्रदान करके प्रेमचंद ने अपनी  महाकाव्योचित पात्र रचना का अच्छा परिचय दिया है। गोदान की ग्रामीण पात्र सीधे-सादे किसान है, गरीब और निरक्षर। वे अपने छोटे-छोटे खेतों में बैलों की तरह काम करते हैं ।वे सच्चे और ईमानदार है, फिर भी दिन- दिन विपन्न होते जा रहे हैं। गांव में साहूकार है ,जो जोंकों की तरह लग कर किसान के खून का दोहन कर रहे हैं। जमींदार एवं उनके करिंदे हैं। धर्म के ठेकेदार दातादीन है। गांव में पंचायत है ,पर वहां अब पंच परमेश्वर का वास नहीं है। थाना भी है पर अत्याचार एवं रिश्वत की ही उसकी शासन प्रणाली है ।शहर है ,जहां पाखंड और पैसे का बोल बाला है ।प्रेम वासना और स्वार्थ का ही दूसरा नाम है ।खन्ना ,पूंजीपति वर्ग के प्रतिनिधि हैं, मेहता प्रोफेसर हैं ,सामाजिक समस्याओं पर आदर्शवादी ढंग से सोचना अपना फर्ज समझते है ।उन्हें राय साहब एवं खन्ना जैसे लोगों की नकली देशभक्ति में एक विशेष प्रकार का खतरा दिखाई पड़ता है।मालती डॉक्टर है ,और साथ ही साथ नारी स्वतंत्र की प्रबल प्रवक्ता भी है। मेहता, मालती अपने प्रेम को परिणय  का रूप नहीं देते हैं, मित्रभाव एवं सहवास का रूप देते हैं। इसके अतिरिक्त उपन्यास में गोबर जैसा विद्रोही युवक ,विधवा विवाह करने वाली झुनिया ,एकनिष्ठ चमारीन सिलिया, मातादीन, बेलारी के पंचों के लिए एक मुंह तोड़ उत्तर है -धनिया और खुशमिजाज हरफनमौला का चरित्र मिर्जा खुर्शीद , अपने ढंग से अकेले व्यक्तित्व है।

प्रबन्धात्मकताः- महाकाव्य के कथानक में अनुस्यूत विविध घटनाओं को कार्यकारण श्रृंखला के अंतर्गत एक दूसरे से जुड़ा होना चाहिए। प्रसांगिक कथा, आधिकारिक कथा से पूर्ण सामंजस्य रखें। महाकाव्य जीवन की व्यापक और बहुआयामी घटना या घटना समूह को लेकर चलता है ,अतः उसमें नाटक के समान धारावाहिकता नहीं हो सकती ।कथानक में अनेक विराम या मोड़ आते हैं, लेकिन कथासूत्र टूटना नहीं चाहिए। गोदान में इस सामंजस्य की रक्षा अथ से इति तक हुई है। ग्राम और शहर की कथाओं को इस खूबी और उद्देश्य की समानता के द्वारा जोड़ा गया है कि कहीं दरार नहीं दिखाई पड़ती।कथिनक के स्वरुप में  निर्धारक तत्व ,उद्देश्य की ओर उन्मुख हैं ।उनमें एक आंतरिक अन्विति दृष्टिगोचर होती है। जो कथानक की सफलता का प्रबल प्रमाण है।

नायक:- महाकाव्य का प्रमुख तत्व होने के कारण नायक के संबंध में सभी विचारकोंं ने विस्तार से प्रकाश डाला है। महाकाव्य के संबंध में रविंद्रनाथ टैगोर की धारणा है कि "कवि के मन में जब एक महत् व्यक्ति का उदय होता है, और जब सहसा एक महापुरुष कवि की कल्पना राज्य पर अधिकार आ जमाता  है ,मनुष्य -चरित्र का उद्दात महत्त्व मन के सामने प्रतिष्ठित हो जाता है, तभी उसके उन्नत भावों से प्रेरित होकर उस विशिष्ट पुरुष की प्रतिमा प्रतिष्ठित करने के लिए भाषा का मंदिर निर्माण किया जाता है ।मंदिर की भिति थ पृथ्वी के भीतर से उठाई जाती है, जबकि उसका शिखर आसमान में होता है। उस मंदिर में प्रतिष्ठित प्रतिमा को नाना प्रदेशों से आए लोग सिर झुकाते हैं। इसी को महाकाव्य कहते हैं।

गोदान का नायक होरी ऐसा ही विशिष्ट पात्र है। करोड़ों पाठक उसके सुख- दुख को अपना मान चुके है और हमारा विश्वास है कि यथेष्ट काल तक ऐसा होता रहेगा ।होरी की महानता उच्च कुल में उत्पन्न होने के कारण नहीं है, वरन् उस के विशिष्ट चारित्र्य के कारण है जिसमें जातीय भावनाएं वैयक्तिक गुणवत्ता एक साथ सजीव हो उठी है ।यदि पुनरुत्थान काल का नायक मिल्टन के महाकाव्य में शैतान का रूप धारण कर सकता है तो बीसवीं शताब्दी में प्रेमचंद के गोदान का नायक अपने महाकाव्ययीय भूमिका की पूर्ति हेतु अगर होरी महतो बन जाए तो ,इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए ।महाकाव्य और साधारण और अलौकिक नायकों की अलौकि कथा के चित्र देते थे आज के गद्दे महाकाव्य में सामान्य नागरिक भूमिका पर प्रतिशत नायक की अलौकिक ता का चित्र दिया जाता है और होरी इसका ज्वलंत उदाहरण है।

वर्णनात्मकता :- महाकाव्य में जीवन के विविध प्रसंगों, प्रकृति के अनेक रूपों, बदलते ही ऋतुओं, पर्वत, नदी ,वन ,उत्सव, नाटक ,त्यौहार, विवाह, मृत्यु आदि का चित्रण होना चाहिए।इस वर्णनात्मकता का उद्देश्य युग जीवन और परिवेश को सजीवता प्रदान करना है, जिससे पाठक कल्पनाशील और संवेदनायुक्त हो सके ।इससे भावोद्रेक और रसाभिव्यक्ति में सहायता मिलती है ।इतिवृत्तात्मकता  से उबे हुए पाठक रचनाकार की सृजनात्मक कल्पना के कौशल से एकाग्रता ग्रहण करते हैं। गोदान में इन सभी कौशलों का ऐसा सटीक और अद्भुत प्रयोग हुआ है कि पाठकों का मन उबने का नाम नहीं लेता। जहां कहीं मेहता के भाषण आदि में उबानेवाली परिस्थिति उत्पन्न हो सकती थी, उसे अपनी व्यंग्यात्मक प्रबंध पटुता से मनमनोजक बनाने में प्रेमचंद ने कमाल कर दिखाया है।

रसात्मकता:- रस को काव्य की आत्मा माना गया है और महाकाव्य को सर्वप्रमुख काव्य रूप। अतः महाकाव्य में रस का अवेरिल प्रभाव अनिवार्य है। भारतीय आचार्यों के अनुसार श्रृंगार ,वीर और शांत में से कोई एक अथवा अधिक रस प्रमुख हो। अन्य रस अंग रूप में हो आए ।आधुनिक काल में इस नियम का पालन आवश्यक नहीं माना जाता है। अब करुण रस को भी वही स्थान प्राप्त हो चुका है ।यूरोप में प्राचीन काल से लेकर अब तक अनेक करूण रस प्रधान त्रासदी पर कृतियों और महाकाव्य की रचना हो चुकी है ।गोदान भारतीय किसान की महान त्रासदी है ।गोदान का अंगिरस करुणा रस है।अन्य रसों का समावेश भी यथास्थान हुआ है।

समस्यामूलक:-

महाकाव्य वैविध्यपूर्ण मानव जीवन की अभिव्यक्ति होता है ।मानव जीवन की समस्याएं अधिक मात्रा में अधिक सफलता के साथ  चित्रित हो सकेगी ।उस कृति को उतना ही  उच्चस्तरीय माना जाएगा।जीवन की विविधता और  परिस्थितियों की व्यापकता की दृष्टि से गोदान व्यापक आयामीय कृति है।

व्यापक सत्यः-

शास्त्रों के समान, काव्य और साहित्य भी सत्यशोधन की ओर अग्रसर रहता है ।महाकाव्य विश्वजनिन भावनाओं एवं मानव सत्य की खोज का प्रयास करते आए हैं ।रामायण ,महाभारत आदि महाकाव्यों के समान गोदान में आर्थिक विषमता एवं शोषण से उत्पन्न मानव -पीड़ा की शोध की गई है ।इस शोध  के दौरान प्रेमचंद्र निरंतर तटस्थ बने रहे हैं और सभी पात्रों को उन्होंने समान सहानुभूति अर्पित की है। यही कारण है कि गोदान की अपील सार्वकालिक और सार्वदेशिक है।

सांस्कृतिक चेतना :- महाकाव्य जातीय भावनाओं और आदर्शों को अभिव्यक्त करता है ।उसमें जातीय संस्कार और व्यक्तिगत चिंतन के लिए भी अवकाश रहता है ।महाकाव्य राष्ट्रीय आंदोलन, युगधर्म ,वर्ग -संघर्ष एवं सांस्कृतिक परिवर्तन आदि को रेखांकित करता हुआ, सांस्कृतिक विकास की दिशा निर्देशित करता है।गोदान में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ये सभी विशेषताएं और प्रसंग प्रयुक्त हुए हैं। 1930 के आस-पास का इतना प्रामाणिक और संश्लिष्ट अभिलेख उस जिसमें उत्तर भारत की राजनैतिक, सामाजिक ,आर्थिक ,धार्मिक ,सांस्कृतिक नैतिक ,सांप्रदायिक स्थिति का चित्र हो, अत्यंत दुर्लभ है।

भाषा शैली :- उद्देश्य एवं सन्निविष्ट भावनाओं को सफलता के साथ अभिव्यंजित करनेवाली भाषा -शैली महाकाव्य का अनिवार्य तत्व है ।गोदान की भाषा भावानुकूल, सशक्त, प्रौढ़ ,प्रवाहमयी और व्यवहारिक है। उसमें भावों को व्यक्त करने की पूर्ण क्षमता है। शैली व्यंजनापूर्ण, पात्रानुकूल तथा आवश्यकतानुसार अलंकारों तथा अन्य प्रयोगों से समन्न्वित है।

कथा विभाजन:- महाकाव्य प्रकथनात्मक रचना होती है। अतः कथानकोंं को विभाजित करके खंडों, कांडों या उपशीर्षकों में विभाजित करना समुचित माना जाता है ।गोदान के कथानक का यह विभाजन संख्या द्वारा किया गया है। प्रत्येक खंड  की कथा अपनी प्रसंगानुकूलता को बनाए रखकर मूल कथा से जुड़ी हुई है।

उद्देश्य :- महाकाव्य की रचना का उद्देश्य भी महान होना चाहिए। भारतीय आचार्यों ने धर्म ,अर्थ ,काम ,मोक्ष में से किसी एक की प्राप्ति महाकाव्य के लिए आवश्यक मानी है ।काव्य के उद्देश्य युग -धर्म के साथ बदलते रहते हैं ।समाज की कल्याण भावना  कला का उद्देश्य रहा है ।जैसे-जैसे समाज का रूप बदलता जाएगा महाकाव्य का उद्देश्य भी परिवर्तित होता रहेगा ।गोदान का उद्देश्य ऐसे शोषणमुक्त समाज की रचना का है जिसमें वर्ग- संघर्ष और ऊंच-नीच के बीच भेदभाव न हो ।मानव की श्रेष्ठता एवं लोकहित को दृष्टि में रखकर गोदान की रचना हुई है। प्रेमचंद ने निर्ममता से रहस्योद्घाटन का बीड़ा उठाया है  और वे इस उद्देश्य में सफल सफल हुए हैं।

दूसरे शब्दों में कहें तो ,कहा जा सकता है कि उपन्यास एक ऐसा प्रकथनात्मक गद्य महाकाव्य है जिसमें मनोवैज्ञानिक चित्रण से युक्त ऐसा सुनियोजित सांगोपांग जीवंत कथानक हो जो  रसात्मकता या प्रभावप्रभावा उत्पन्न कर सके, जिसमें यथार्थ अथवा संभावना पर आधारित ऐसे चरित्रों का अंकन हो जो युगीन यथार्थ का प्रतिनिधित्व कर सकें ,जिसमें महत् उद्देश्य की प्राप्ति के लिए किसी महत्वपूर्ण, गंभीर, सुनियोजित घटनाक्रम पर आधारित व्यापक जीवन के विविध रूपों, मानसिक स्थितियों एवं कार्यों का कलात्मक वर्णन विषयानुकूल एवं गरिमामयी शैली में किया जाए ,इसमें सांस्कृतिक परंपरा का उद्घाटन भी हो जाए,जिससे सांस्कृतिक परंपरा का उद्घाटन भी हो जाए ।नन्ददुलारे बाजपेयी ने गोदान को महाकाव्य मानने से इनकार कर दिया है ,परंतु उनके तर्क सही नहीं कहे जा सकते ।डॉक्टर मक्खनलाल शर्मा ने भी बाजपेयी के तर्कों का जवाब देते हुए यहां तक कहा है कि "इस महान और सर्वव्यापी आदि कथानक को विशिष्ट देशकाल ,परिस्थिति में रूपायित करने वाली महान गाथा की यह कलात्मक अभिव्यक्ति गोदान यदि महाकाव्य नहीं है तो दुनिया में आज तक न कोई महाकाव्य लिखा गया है और ना लिखा ही जा सकता है। गोदान अपने युग की प्रतिनिधि रचना है और वह आज भी प्रसांगिक है।


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