प्रारंभिक हड़प्पा संस्कृति

 आरंभिक हड़प्पा काल

भारत की सबसे प्राचीन सभ्यता सिंधु सभ्यता ,भारत एवं पाकिस्तान के जिन क्षेत्रों में विकसित हुई थी, उसके आसपास के क्षेत्रों में उससे पूर्व ताम्रपाषाणकालीन संस्कृतियों के पुरातात्विक साक्ष्य मिलते हैं। कालक्रम की दृष्टि से ये संस्कृति हड़प्पा सभ्यता के समकालीन थीं।इन विकसित ग्रामीण संस्कृतियों को रफीक मुगल आरम्भिक हड़प्पा संस्कृति का नाम देते हैं।कतिपय पुराविदों ने इन संस्कृतियों में सिन्धु सभ्यता का मूल उत्स खोजने की कोशिश की है, क्योंकि अनेक पुरास्थलों पर इन संस्कृतियों के अवशेष निचले स्तरों से मिले हैं तथा उनके ऊपरी स्तरों से सिंधु सभ्यता के पुरावशेष प्राप्त हुए हैं ।

दक्षिणी अफगानिस्तान, पाकिस्तान के बलूचिस्तान,पंजाब तथा सिंध प्रांतों और भारत के उत्तरी राजस्थान में स्थित पुरास्थलों से प्राप्त सेंधव संस्कृतियों के संबंध में अभी तक साक्ष्य प्राप्त हुए हैं। प्रमुख स्थलों में अफगानिस्तान में स्थित मुंडीगाक ,पाकिस्तान में किल्ली गुल मोहम्मद, दंत सादात, कुली, मेही, आदि प्रमुख हैं। इसके अतिरिक्त आमरी, कोटदीजी, हड़प्पा, राजस्थान में कालीबंगन, हरियाणा में वनवाली और एवं राखीगढ़ी आदि पुरास्थलों में भी उत्खनन से प्राकसैंधव पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। मृदभांडों के आधार पर प्राक् सैंधव संस्कृतियों को पुराविदों ने अनेक क्षेत्रीय संस्कृतियों में विभाजित किया है, जैसे क्वेटा संस्कृति, आमरी संस्कृति, नाल संस्कृति, कुली संस्कृति, जॉब संस्कृति एवं सोधी संस्कृति आदि।

आरंभिक हड़प्पा संस्कृति के उद्भव से पहले कृषक समुदायों के उद्भव का सबसे प्राचीन प्रमाण मेहरगढ़ से प्राप्त होता है। यह स्थान स्थाई शिविर के रूप में स्थापित हुआ और पांचवी सहस्त्राब्दी ई. पूर्व में आबाद गांव बन गया ।इस स्थान पर लोग गेहूं, जौ और खजूर पैदा करते थे और भेड़- बकरियाँ तथा मवेशी पालते थे। तीसरी सहस्त्राब्दी ई.पूर्व के मध्य में बहुत छोटे और बड़े गांव सिंधु नदी के आस-पास बलूचिस्तान में किली गुल मोहम्मद और अफगानिस्तान में मुंडीगाक में बस गए थे । सिंधु नदी के बाढ़ वाले मैदानों, हड़प्पा के पास जलीलपुर जैसे गांव भी अस्तित्व में आए। इन किसानों ने सिंधु नदी के अत्यधिक उपजाऊ मैदानों का उपयोग करना सीख लिया था। इसलिए गांवों के आकार और उनकी संख्या एकाएक बढ़ गई। इसप्रकार प्रति एकड़ भूमि पर खेती करने से प्रचूर मात्रा में उपज होती थी ।इसके कारण सिंधु, राजस्थान ,बलूचिस्तान और अन्य क्षेत्रों में बस्तियों का काफी विस्तार हुआ .उन्होंने अपने लिए उपयोगी पत्थरों के खदानों और अन्य खदानों का उपयोग करना सीख लिया था। इसकाल में अस्थाई बस्तिओं में पशुचारी, खानाबदोश समुदायों के मौजूद होने के संकेत मिलते हैं। कृषकों के इन खानाबदोश समूहों के संपर्क ने कृषकों को अन्य क्षेत्रों के संसाधनों का उपयोग करने में सहायता दी। क्योंकि पशुचारी खानाबदोशों के बारे में यह माना जाता है कि जिन क्षेत्रों से गुजरते हैं वे वहां व्यापारिक गतिविधियों में लग जाते हैं। इन सभी कारणों से धीरे-धीरे, छोटे-छोटे कस्बों का विकास हुआ। बहुत से विद्वानों ने इसे ही ‘आरंभिक हड़प्पा काल ‘कहा है क्योंकि उनकी नजर में यह हड़प्पा की सभ्यता का निर्माण युग था, जिसमें सांस्कृतिक एकता की कुछ प्रवृत्तियों के प्रमाण भी मिले हैं।

व्यापारिक मार्ग पर स्थित दक्षिणी अफगानिस्तान का मुंडीगिक नामक  स्थान आरंभिक हड़प्पा का प्रमुख स्थल रहा है ।यहां के निवासी शिल्प कृतियों का प्रयोग करते थे जिनसे एक ओर ईरान के कुछ नगरों और दूसरी ओर बलूचिस्तान के कुछ नगरों के साथ संबंधों का पता चलता है। खानाबदोश लोगों के कुछ समूहों द्वारा पड़ाव डालने की धीमी शुरुआत से यह स्थान एक घनी आबादीवाला नगर हो गया। यहां ऊंची दीवारें और बुर्ज धूप से सुखाई हुई ईटों से निर्मित थे ।एक विशाल भवन जिसमें खंभों की कतारें थी, महल के रूप में पहचाना गया है। मिट्टी के बर्तनों की अनेक किस्में मिली हैं ।वे लोग प्राकृतिक सजावट के रूप में चिड़ियों, लंबे सींगवाले जंगली बकरे, बैल और पीपल के पेड़ों को चित्रित करते थे। पक्की मिट्टी की बनी हुई स्त्रियों की छोटी-छोटी मूर्तियां भी मिली हैं जो बलूचिस्तान की बस्तियों में पाई गई मूर्तियों से मिलती- जुलती है। वह कांसे की मूँठदार कुल्हाड़ियों और बसूलों का प्रयोग करते थे। सेलखड़ी और लाजवर्द जैसे अल्प अमूल्य पत्थरों से ईरान और मध्य एशिया के साथ उनके संबंधों का पत्ता चलता है क्योंकि ये पत्थर स्थानीय रूप से उपलब्ध नहीं थे।

मुंडीगाक के दक्षिण-पूर्व की ओर क्वेटा घाटी है। दंब सादात नामक स्थान में बड़े-बड़े ईटों के घर पाए गए हैं, जिसका संबंध है 3000 ई.पूर्व के आरंभ में से है। इस घाटी में पांडु रंग के मृदभांड पाए गए हैं। पांडुरंग के मिट्टी के बर्तनों पर काले रंग से चित्रकारी की गई है। ज्यामितीय अलंकरण अभिप्राय मुख्य रूप से मिलते हैं। पशु -पक्षियों का चित्रण दुर्लभ है। ये लोग पक्की मिट्टी  की मोहरो और तांबे की वस्तुओं का भी प्रयोग करते थे। इन खोजों से उस समय के समुदायों की संपन्नता का संकेत मिलता है। जिन्होंने अपनी खाद्य समस्या सुलझा ली थी और दूर के क्षेत्रों से व्यापारिक संबंध स्थापित कर लिए थे ।राणा घुंडई नामक स्थान में लोग बारीकी से बने हुए तथा चित्रकारी किए हुए मिट्टी के बर्तनों तथा क्वेटा घाटी में पाए गए मिट्टी के बर्तनों में स्पष्ट समानताएं पाई गई है ।दोनों पर काले कुबड़े बैलों के चित्र बने थे।

मध्य और दक्षिणी बलूचिस्तान में अंजीरा, तोगाऊ,निंदोवाड़ी और बालाकोट जैसी बस्तियों के आरंभिक सभ्यता के समाजों की जानकारी देती है ।घाटी की व्यवस्था के अनुसार गांव और उपनगर विकसित हुए। बालाकोट में विशाल इमारतों की अवशेष पाए गए हैं। इस क्षेत्र के कई वस्तियों से फारस की खाड़ी से संपर्क का पता चलता है। संपूर्ण बलूचिस्तान प्रांत के लोग एक ही प्रकार के मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करते थे। वह अपने मिट्टी के बर्तनों पर कूबड़े बैल और पीपल के चिन्हों का प्रयोग करते थे, जो विकसित हड़प्पा काल में भी जारी रहा।

4000 BC के मध्य तक सिंधु के कछारी मैदान में परिवर्तन का केंद्रबिंदु बन गए। सिंधु नदी और घग्घर-हाकरा नदियों के किनारों पर बहुत सी छोटी और बड़ी बस्तियां बस गई ।यह क्षेत्र हड़प्पा की सभ्यता का मुख्य केंद्र बन गया। सिंधु घाटी के निचले मैदानों के समान सिंधु प्रांत के विकास का पता चलता है। आमरी में मिले मकानों के अवशेषों से पता चलता है कि लोग पत्थर और मिट्टी की ईंटों के मकानों में रहते थे। उन्होंने अनाज को रखने के लिए अनाज के कोठार भी बनाए थे। वे मिट्टी के बर्तनों पर भारतीय कुबड़े बैलों जैसे जानवरों के चित्र बनाते थे। यह चित्र पूर्ण विकसित हड़प्पा काल में बहुत लोकप्रिय था। वे चाक पर बने मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करते थे। थारों और कोहत्रास बूथी जैसे स्थानों से ही से भी ऐसी ही वस्तुएं पाई गई है ।यहां पर हड़प्पा के सभ्यता के शुरू होने से पहले ही उन्होंने अपनी बस्तियों की किलेबंदी कर ली थी।

सिंधु के बाएं किनारे पर स्थित कोटदीजी मेंं आरंभिक काल के निवासियों ने अपनी बस्ती के चारों ओर अति विशाल सुरक्षात्मक दीवार बना ली थी ।उनकी सबसे बढ़िया खोज मिट्टी के बर्तन थे। वे चाक पर बने मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग करते थे। जिन पर गहरे भूरे रंग की साधारण धारियों की सजावट होती थी।इसप्रकार के मिट्टी के बर्तन कालीबंगा और  मेहरगढ़ के निवासियों के बर्तनों से समानता रखते थे। कोटदीजी के मिट्टी के बर्तनों की किस्में सिंधु नदी के आसपास के संपूर्ण भूभाग में पाई गई है। जहां पर हड़प्पा के पूर्व शहरी और शहरी अवस्था से संबंधित बस्तिओं के बारे में जानकारी मिली है। मिट्टी के बर्तनों का समान रूप से सजावट की इस प्रवृत्ति से यह संकेत मिलता है कि सिंधु नदी के मैदानी भागों में रहने वालों के बीच घनिष्ठ संबंध थे। इसे हड़प्पा की सभ्यता में संस्कृतियों के मूल प्रक्रिया का भी पूर्वाभास मिलता है ।मिट्टी के बर्तनों के अनेक डिजाइन शहरी अवस्था तक शेष रहे। उसी समय के अन्य मिट्टी के बर्तन मुंडीगांक में बने हुए मिट्टी के बर्तनों के समान थे। इसे आरंभिक हड़प्पा के स्थानों में विस्तृत आपसी संबंधों का पता चलता है। चान्हूदड़ो नामक स्थान पर आरंभिक हड़प्पा के मकानों का पता चलता है।

हड़प्पा के शहरीकरण के पूर्ववर्ती काल में मेहरगढ़ के लोगों ने एक संपन्न उपनगर बसाया था।वे पत्थरों की कई प्रकार की मालाएं बनाते थे। वे कीमती पत्थर लाजवर्द मणि का प्रयोग करते थे जो बदख्शां क्षेत्र से पाया जाता था ।बहुत सी मोहरोंं और ठप्पों का भी पता चला है ,जिसका इस्तेमाल आपसी लेन-देन के  प्राधिकार के रूप में होता था। मोहरों का प्रयोग संभवत व्यापारियों द्वारा दूर-दराज के क्षेत्रों को भेजे जाने वाले माल की गुणवत्ता की गारंटी देने के लिए किया जाता था। मिट्टी के बर्तनों के डिजाइन मिट्टी की बनी मूर्तियों पत्थर और तांबे की मूर्तियों से पता चलता है कि इन लोगों का इरान के निकटवर्ती नगरों के साथ घनिष्ठ संबंध था। मेहरगढ़ के लोगों द्वारा प्रयोग किए गए अधिकतर मिट्टी के बर्तन दम्ब सादात और क्वेटा घाटी  के बस्तियों में प्रयुक्त किए जाने वाले बर्तनों से मिलते थे। मिट्टी की बनी स्त्री मूर्तियां भी प्राप्त हुई हैं। जो जॉब घाटी की स्त्री मूर्तियों से मिलती जुलती है। इन समानताओं से उस क्षेत्र में रहने वाले समुदायों के बीच निकट आपसी संबंधों का पता चलता है।

रहमानढेरी नामक आरंभिक सिंधु उपनगर की खुदाई में उपनगर का आकार आयताकार पाया गया है, जिसमें घर, सड़कें, गलियां नियोजित ढंग से बने हुएहै। सुरक्षा हेतु विशाल दीवारें थी, फिरोजी और नीलम के मनके का इस्तेमाल होता था। बर्तनों के टुकड़ों में पाए गए असंख्य भीतिचित्र हड़प्पा लिपि के पूर्व सूचक हो सकते हैं ।पत्थर, तांबे और काँसे से बनी मोहरे और औजार भी मिले हैं ।तरकाई किले से किलेबंदी के साथ-साथ खाद्यान्नों के बहुत सारे नमूने खोज निकाले गए हैं जिसमें गेहूं और जौ, मूंग ,मसूर की दालेंं और देसी मटर शामिल है ।फसल काटने के औजारों का भी पता चला है ।उसी क्षेत्र से  लीवान नामक स्थान पर पत्थर पत्थर के औजार बनाने की एक बहुत बड़े कारखाने का पता चला है। यहां लोग पत्थर की कुल्हाड़ी, हथौड़े ,चक्कियाँ आदि बनाते थे। नीलम और मिट्टी की बनी मूर्तियों के पाए जाने से मध्य एशिया के साथ संबंधों का पता चलता है ।सरायखोला नामक स्थान पर जो पश्चिमी पंजाब के उत्तरी किनारे पर स्थित है एक अन्य आरंभिक बस्ती का पता चला है। यहां पर लोग कोट दीजी जैसे बर्तनों का इस्तेमाल करते थे।

पश्चिमी पंजाब में शहरीकरण की अवस्था से पहले की बस्तियाँ खोजी गई है। यहां की मिट्टी के बर्तन कोटदीजी के बर्तनों से साम्य रखते हैं। बहावलपुर क्षेत्र में हाकरा नदी की सूखी तलहटी में आरंभिक हड़प्पा काल के 40 स्थलों का पता चला है। यहां के अधिकतर स्थानों का औसत आकार लगभग 5 से 6 एकड़ था। गमनमाला 27.3 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला था ।इससे स्पष्ट होता है कि गमन माला कालीबंगन के हड़प्पा उपनगर से बड़ा था ।इन उपनगरों में कृषि कार्यों के अतिरिक्त आवासीय ,प्रशासनिक और औद्योगिक कार्य होते होंगे ।कालीबंगन में आरंभिक हड़प्पा काल के भी अवशेष प्राप्त हुए हैं यहां के लोग कच्ची ईंटों के मकानों में रहते थे। इन कच्ची ईंटों का मानक आकार होता था, बस्ती के चारों ओर चारदीवारी भी प्राप्त हुई है ।उन लोगों द्वारा प्रयुक्त मिट्टी के बर्तनों का आकार और डिजाइन दूसरे क्षेत्रों में प्रयुक्त मिट्टी के बर्तनों के आकार और डिजाइन से भिन्न थे। बलि स्तम्भ जैसे मिट्टी के बर्तनों के कुछ नमूनों का प्रयोग शहरी चरण के दौरान जारी रहा ।जूते हुए खेत के हल से स्पष्ट होता है कि उस समय के किसानों को हल की जानकारी अवश्य थी।

बलूचिस्तान, सिंध, पंजाब और राजस्थान मेंं आरंभ में छोटी-छोटी कृषक बस्तियां थी। इसके पश्चात इन क्षेत्रों में अनेक प्रकार की क्षेत्रीय परंपराओं का अभ्युदय हुआ। किंतु एक ही प्रकार के मिट्टी के बर्तन, सींगवाले देवता के चित्र और मिट्टी की मातृदेवियों की मूर्तियों से पता चलता है कि एकीकरण की परंपरा आरंभ हो चुकी थी। बलुचिस्तान  के लोगों ने फारस की खाड़ी और मध्य एशिया के नगरों के साथ पहले ही व्यापारिक संबंध स्थापित कर लिए थे। इसप्रकार ,आरंभिक हड़प्पा काल  से हड़प्पा की सभ्यता की उपलब्धियों की जानकारी मिलती है।

प्रौद्योगिकी और वैचारिक एकीकरण की इस प्रक्रियाओं की पृष्ठभूमि में हड़प्पा की सभ्यता का उदय हुआ ।इस सभ्यता की उत्पत्ति  से संबंधित प्रक्रियाएं अस्पष्ट हैं क्योंकि इनकी लिपि का अध्ययन नहीं किया गया है। और अनेक बस्तियां अनखुदी ही रह गई हैं। उन्नत और सिंधु घाटी की उर्वर मैदानों में खेती करने तथा उन्नत प्रौद्योगिकी के प्रयोग से खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी हुई होगी, इससे अतिरिक्त खाद्यान्नों की संभावनाएं पैदा हुई होंगी। इसके कारण जनसंख्या में भी वृद्धि हुई । इसके साथ-साथ समाज के धनी वर्ग बहुमूल्य वस्तुओं को प्राप्त करने के लिए दूरदराज के समुदायों के साथ व्यापारिक संबंध स्थापित किए । अतः खाद्यान्नों से गैर कृषि कार्य करने के अवसर प्राप्त हुए । गांव का पुरोहित संपूर्ण क्षेत्र में फैले हुए पुरोहित कुल का अंग सकता था। इसी प्रकार की प्रक्रियाएं धातु  विज्ञानियों, कुम्हारों और शिल्पियों के संबंध में भी सामने आई। गांव में अनाज रखने के चबूतरे बड़े-बड़े कोठारों में बदल गए। कई कृषक समूहों और  पशुचारी यायावर समुदायों का एक दूसरे के साथ घनिष्ठ संपर्क होने से उनके बीच तनाव  तथा परस्पर विरोध उत्पन्न हो सकता था। कृषक एक समुदाय के रूप में स्थापित होने के पश्चात अन्य कम खुशहाल समूहों को अपनी ओर आकृष्ट कर सकते थे।

पशुचारी यायावरी जातियों के बारे में यह प्रसिद्ध है कि वे व्यापार और लूटपाट के कार्य में लगी थींं। अपनी आर्थिक दशा के अनुसार वे गतिविधियों में सम्मिलित होते थे ।कृषक समुदाय में अधिक उपजाऊ भूमि को हथियाने के लिए संघर्ष होता होगा। संभवत यही कारण है कि कुछ समुदायों ने अपने चारों ओर सुरक्षा के लिए दीवार बना ली थी। सिन्धु क्षेत्र में विभिन्न प्रतियोगी समुदायों के लोगों के एक वर्ग ने दूसरों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लिया था। इससे 'विकसित हड़प्पा काल' के आरंभ का संकेत मिलता है।चूँकि हड़प्पा सभ्यता एक विस्तृत भौगोलिक क्षेत्र में में फैली हुई थी, इस कारण विकसित हड़प्पा काल के आरंभ होने की कोई एक तीथि नहीं हो सकती।



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