मौर्य साम्राज्य के अध्ययन के स्रोत

 आरंभिक बौद्ध और जैन साहित्य में मध्य गंगा के मैदान जहां मगध स्थित था, की घटनाओं और परंपराओं का काफी उल्लेख किया गया है। जैन और बौद्ध परंपरा के ग्रंथ आरंभिक राजनीतिक गतिविधियों को बाद में संग्रहित हुए ब्राह्मण ग्रंथों से अधिक प्रामाणिक रूप में और सीधे तौर पर प्रस्तुत करते हैं ।पुराणों में गुप्त काल तक के शाही राजवंशों का इतिहास प्रस्तुत करने की कोशिश की गई है। 1837 ईस्वी में एशियाटिक सोसाइटी बंगाल के सचिव तथा कोलकाता टकसाल के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने पहली बार अशोक के ब्राह्मी लिपि में लिखे गए शिलालेख मेँ उल्लिखित देवनामाँ प्रिय पियदस्सी नामक राजा की अशोक के रूप में स्थापना 1915 ईस्वी में की। तब से अशोक प्रियदर्शी पर प्रकाश डालने वाले एक अन्य शिलालेख प्राप्त हुआ है ।लंका के इतिहास महावंश में मिले उल्लेखों से इस तथ्य की सत्यता संपुष्ट तथा स्थिर हो गई है। तब से अशोक प्राचीन भारतीय इतिहास की तिथिक्रमता के निर्धारण के एक प्रमुख शासक के रूप में जीवंत है।

भारत में प्राचीनतम लिखित सामग्री अशोक के शिलालेख हैं जो प्राकृत भाषा में है तथा ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी के हैं। पूर्व युगों की अपेक्षा मौर्यकालीन राजनीतिक ,सामाजिक ,धार्मिक व सांस्कृतिक जानकारी प्राप्त करने के लिए तथ्यपरक सामग्री की प्रचुर मात्रा में उपलब्धता साहित्यिक स्रोतों -जिसमें बौद्ध साहित्य ,जैन साहित्य ब्राह्मण साहित्य, धर्मेत्तर साहित्य ,विदेशी साहित्य आदि प्रमुख हैं ।इसके अतिरिक्त अभिलेखात्मक साक्ष्य, पुरातात्विक साक्ष्य और मौद्रिक के साक्ष्य भी विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डालते हैं।

बौद्ध परंपरा का कुछ साहित्य त्रिपिट को और जातकों में संग्रहित है जातक कथाएं यद्यपि बुद्ध के पूर्व जन्मों की कथाओं का एक संग्रह है तथापि इन कथाओं में जिस सामाजिक आर्थिक और पारिवारिक परिवेश का वर्णन मिलता है वह मौर्य काल तक थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ स्थापित रहा बिंदुसार तथा अशोक के तक्षशिला अभियान और उसके द्वारा बौद्ध धर्म स्वीकार करने से संबंधित महत्वपूर्ण सामग्री अशोका वरदान तथा दिव्या बदन से प्राप्त होती है । दिव्या मदन भारत के बाहर तिब्बत और चीनी बौद्ध स्रोतों में सुरक्षित एक महत्वपूर्ण बौद्ध ग्रंथ है महावंश और दीपवंश प्रमुख प्रवृत्ति बौद्ध ऐतिहासिक ग्रंथ जिसका संग्रहण श्रीलंका में 300 से 400 तक तथा 500 में हुआ था एक ग्रंथ अशोक के शासनकाल के महत्वपूर्ण स्रोत है परंतु इन स्रोतों का उपयोग काफी सावधानी से होनी चाहिए क्योंकि उनकी रचना भारत से बाहर बौद्ध धर्म के प्रचार के संदर्भ में हुई थी तथा इनमें अतिरिक्त अतिरंजित सामग्री बहुत है इसके अतिरिक्त त्रिपिटक ग्रंथों पर हादसे के रूप में लिखी गई कथाएं विशेषकर बुद्ध घोष रचित संबंध प्रसादी का तथा इसकी कथावस्तु मौर्य काल के संबंध में काफी उपयोगी जानकारी देती है।

जैन परंपरा के दो ग्रंथ अचरा अंगसूत्र और सूत्र कृतन अन्य ग्रंथों में पुराने माने जाते हैं हालांकि यह सभी ग्रंथ छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व के बाद विभिन्न चरणों में लिखें और संग्रहित हुए हैं निरावली सूत्र तथा 1200 ई. के हेमचंद्र रचित परिशिष्ट पर्व वर्मन से विशेष रूप से चंद्रगुप्त मौर्य और उसके आरंभिक जीवन मगध राज्य की विजय और जैन धर्म स्वीकारने से संबंधित सामग्री प्राप्त होती है।

तीसरी और चौथी शताब्दियों मे रचित पुराणों में मौर्य वंशावली तथा तिथिक्रमता के बारे में सूचना प्राप्त होती है ।ऐतिहासिक दृष्टि से सूचनाएं अंतर्विरोध लिए हुए है तथा इसकी उपादेयता इस तथ्य में निहित है कि महाभारत युद्ध के पश्चात् जिन राजवंशों ने ईसा की छठी शताब्दी ईस्वी तक शासन किया उनके विषय में जानकारी प्राप्त करने का एकमात्र साधन पुराण हैं। विष्णुपुराण में नंद राजाओं के मूल तथा उन्हें कौटिल्य और चंद्रगुप्त मौर्य द्वारा स्थापित करने का विवरण प्राप्त होता है पुराणों की टीका से भी मौर्यकाल के बारे में जानकारी प्राप्त होती है।

धर्मेंद्र साहित्य के अंतर्गत सोमदेव कृत्य कथासरित्सागर और शिवेंद्र कृत बृहटकथा मंजरी उसे मौर्य जूते कुछ घटनाओं के साक्ष्य प्राप्त होते हैं तथा इन्हें द्वितीय साक्षी माना जा सकता है इसी प्रकार विशाखदत्त करते मुद्राराक्षस जिसे गुप्तकालीन समझा जाता है मैं यह वर्णित है कि चंद्रगुप्त ने सत्ता कैसे प्राप्त की यह भी साहित्य का अधिक के तथा ऐतिहासिकता का द्वितीयक है इन ग्रंथों की तुलना में कल्हण की राजतरंगिणी मौर्य काल के विषय में अधिक जानकारी देती है।

धर्मसूत्र स्मृतियां महाकाव्य और पुराण धार्मिक तथा पूर्णता ब्राह्मणवादी परंपरा में लिखे गए ग्रंथ है लेकिन कौटिल्य के अर्थशास्त्र में इससे कुछ भी न परंपरा प्रस्तुत की गई है यह ग्रंथ अत्यधिक व्यवहारिक और धार्मिक विचारों से कम प्रभावित है तथा मौर्य जोगिन इतिहास जानने का प्रमुख स्रोत माना जाता है 905 में इसकी खोज से अनेक विवाद उत्पन्न हुए जैसे अर्थशास्त्र मौर्य जी के बाद की रचना है हाल ही में अर्थशास्त्र के लेखन काल के संबंध में नए विचार आए हैं कि इस ग्रंथ का लेखन पूर्ण रूप से मौर्य काल में नहीं हुआ था ।सांख्यिकीय की गणना के आधार पर यह मान्यता सामने आई है कि अर्थशास्त्र के कुछ अध्ययन का लेखन ईशा बाद की प्रथम दो शताब्दियों में हुआ होगा। इसके बावजूद कई अन्य विद्वान इस ग्रंथ के अधिकांश हिस्से को मौर्य काल का आलेखन मानते हैं। उनकी मान्यता है कि मूल ग्रंथ चंद्रगुप्त के मंत्री कौटिल्य द्वारा लिखा गया था। और बाद के अन्य विद्वानों ने इसकी टिप्पणी लिखें और संपादन किया 15 अधिकरण हो और 180 प्रकरणों में विभक्त इस ग्रंथ में करीब-करीब सभी विषय आ गए हैं। जैसे अर्थशास्त्र ,समाजशास्त्र राजनीति आदि। किंतु इसके अधिकतर भाग में प्रशासनिक समस्याओं का विवेचन हुआ है। इसमें राज्य के अंगों राजा के प्रशिक्षण कर्तव्यों और दोषों अमात्यों और मंत्रियों की नियुक्ति और उनके कर्तव्यों, दीवानी और फौजदारी कानूनों के प्रशासन तथा शिल्पी संघों और निगमों का विवेचन हुआ है।

इसके अतिरिक्त अर्थशास्त्र के कुछ अध्याय में मौर्य शासन के आदर्श और पद्धति का पता चलता है अतिरिक्त व्यय को पूरा करने के उद्देश्य से कृषि का उत्पादन बढ़ाने के लिए सरकार ने उस भूमि में खेती कराई जहां पहले खेती नहीं होती थी। उसने सिंचाई के साधनों में वृद्धि की और यातायात के साधनों का विकास तथा व्यापार की उन्नति की सरकार ने सिक्कों का प्रचलन बढ़ाकर व्यापार व उद्योगों पर पूर्ण नियंत्रण स्थापित किया था।

विदेशी स्रोतों से प्राप्त सूचनाएं अपेक्षाकृत अधिक प्रासंगिक और लगभग समकालीन हैं इनमें यूनानी और लैट्रिन के क्लासिकल ग्रंथों से प्राप्त सूचनाएं उल्लेखनीय हैं यह उन लोगों द्वारा लिखा गया यात्रा वृतांत है जिन्होंने उस समय भारत भ्रमण किया था इसमें मेगास्थनीज काफी चर्चित और जाना माना नाम है जो चंद्रगुप्त मौर्य के काल में भारत आया था और वह राजा के दरबार में भी आया था मेगास्थनीज का वृतांत प्रथम शताब्दी पूर्व के स्ट्रेबो और डायोडो रस तथा द्वितीय शताब्दी पूर्व के एलियन के यूनानी ग्रंथों में मिलता है। मेगास्थनीज की इंडिका भारत मैं उपलब्ध नहीं है पर यूनान और रोम के अन्य लेखकों ने इंडिका के आधार पर अपने वर्णन लिखे हैं जिसके जिससे पाटलिपुत्र के प्रशासन जाति व्यवस्था तथा राय दरबार पर प्रकाश पड़ता है मेगास्थनीज के वर्णन में सिकंदर के भारत पर आक्रमण का वर्णन मिलता है जिसके आधार पर मौर्य शासकों की तिथियां सुनिश्चित की गई है परंतु मेगास्थनीज ने अपने कुछ विवरण भारत के बारे में सुनी सुनाई बातों के आधार पर लिख दिया है जैसे भारत में दास प्रथा नहीं थी जबकि कौटिल्य अर्थशास्त्र में मौर्य के समय दास पाए जाते थे और उन्हें कृषि कार्य के लिए उपयुक्त समझा जाता था उल्लिखित है जिसके कारण तत्वों की विश्वसनीयता संदिग्ध हो गई है इसे स्पष्ट है कि एक विदेशी होने के कारण मेगास्थनीज भारतीय समाज की जटिलताएं समझ पाने में असमर्थ रहा होगा।

एरियन जैसे यूनानी लिखकों ने हर प्रसंग में इंडिका को विश्वसनीय नहीं माना है। फिर भी एकमात्र मेगास्थनीज का विवरण ऐसा है जिसका काल निश्चित है कि कौटिल्य अर्थशास्त्र का काल निर्धारण में संदेश एक परपरेहीं है ।इसलिए मेगास्थनीज के द्वारा दिए गए उद्धरण ही मौर्य साम्राज्य के संस्थापक के प्रशासन के विषय में जानकारी के एकमात्र  निश्चित और प्रत्यक्ष स्रोत है ।इन दिनों में राजा की दिनचर्या पार्षदों के मुख्य कार्यों और साथ ही सिंचाई आदि कार्यकलापों पर नियंत्रण रखने वाले दंडाधिकारी यों के प्रमुख दायित्व का भी वर्णन है इसमें पाटलिपुत्र का नगर प्रशासन और साम्राज्य के सैन्य संगठन का खाका तथा साथ ही राजतंत्र के पतन और लोकतंत्र इन राज्यों के उत्थान से संबंधित अनुसूचियां अभिलिखित हैं।

मेगास्थनीज के अतिरिक्त स्ट्रेबो ,प्लुटार्क, जस्टिन ,डायोडोरस आदि, अन्य विवरणों से भी मौर्य कालीन इतिहास की सूचनाएं प्राप्त होती है ।सूचनाएं अधिकांश की इंडिका पर आधारित हैं तथा एकांगी हैं ।विशेष रुप से लेखक चंद्रगुप्त से ही जुड़े हैं। यूनानी विवरणों के अतिरिक्त और चीनी भाषा के साहित्य में भी मौर्य काल के संबंध में जानकारी प्राप्त होती है।

मौर्यकालीन इतिहास जानने का सबसे विश्वसनीय स्रोत अभिलेखात्मक साक्ष्य हैं। जिन्हें पढ़ा जा सका है ऐसे सबसे पहले भारतीय अभिलेख अशोक के हैं। साम्राज्य के एक छोर से दूसरे छोर तक शिलाखंडों हो और स्तंभों पर खुदे ये लेख सामाजिक, धार्मिक तथा प्रशासनिक आचरणों को विनियमित करने के निर्मित जारी किए गए।  राजकीय समादेश या घोषणाएं हैं ।ये सामान्यतः प्राकृत भाषा और ब्राम्ही में लिपि में खूदे हुए हैं। पर कुछ अभिलेख खरोष्ठी लिपि तथा ग्रीक भाषा की अरमाइक  लिपि में भी लिखे गए पाए गए हैं ।अशोक की राजाग्याओं को धर्मलेख कहा गया है लेकिन इसमें ऐसे विषयों का उल्लेख नहीं है जिन्हें विशुद्ध रूप से धार्मिक कहा जा सके ।इसके विपरीत इनके विषय हैं राजा और परिषद के आपसी संबंध,  न्याय -प्रशासन, राजुकों और महामात्रों जैसे उच्चपदस्थ राज्याधिकारियों के अधिकार और कर्तव्य तथा राजा के पितृवत आदर्श ।यद्यपि कौटिल्यीय 'अर्थशास्त्र' मेंं अशोककालीन अधिकांश अधिकारियों का उल्लेख नहीं है, किंतु मेगास्थनीज और कौटिल्य की कृतियों से मोटे तौर पर जिस व्यापक राजकीय नियंत्रण का संकेत मिलता है ,अशोक द्वारा अपने राजत्व काल के प्रारंभ में जारी किए गए आदेशों से सामान्यतः उनकी पुष्टि होती है।

अशोक के शिलालेख के दो समूह मिलते हैं पहले प्रकार के शिलालेख ऐसे हैं जिसमें अशोक द्वारा बौद्ध संघ के लिए की गई घोषणाओं को समाविष्ट किया गया है यहां अशोक का व्यवहार 'एक सामान्य बौद्ध' जैसा को समाविष्ट किया गया है। ऐसे शिलालेख छोटे समूह में मिलते हैं तथा कम महत्वपूर्ण है। दूसरे प्रकार के शिलालेखों के अंतर्गत मुख्य तथा गौड़ चट्टान लेखों के नाम से प्रसिद्ध चट्टानों की सतहों पर लिखे गए लेख तथा विशेष रूप से निर्मित स्तंभों पर लिखे हुए लेखों का को रखा जा सकता है ।इसकी स्थापना इस उद्देश्य को दृष्टिगत रखकर के की गई है कि अधिक से अधिक लोग इन्हें पढ़ सके तथा इन्हें समझ सके इन्हीं संपूर्ण प्रजा की के लिए की गई उद्धघोषणाएं माना जा सकता है। जिसमें धम्म को व्याख्यायित किया गया है ।इस प्रकार के शिलालेख बड़े समूह में और अधिक महत्वपूर्ण है।

मुख्य शिलालेख विशाल वृत्ताकार शिलाओं पर लिखा हुआ पाया गया हैं।तेरहवें शिलालेख में कलिंग विजय का उल्लेख है ।परंतु उड़ीसा में यह नहीं मिलता है। उड़ीसा में दो शिलालेख मिलते हैं, जिन्हें अतिरिक्त कलिंग अभिलेख कहा गया है। जिसमें प्रशासन संबंधी तथा जनता को पुत्र और पुत्री के समान मानने का विचार व्यक्त किया गया है। अतिरिक्त शिलालेखों को पंद्रहवां और सोलहवां शिलालेख कहा गया है।

मास की तथा एरागुड़ी मातृभाषा है जहां से मुख्य शिलालेख तथा लघु शिलालेख दोनों ही प्राप्त हुए हैं ब्रम्हगिरी एवं राजू मंदा गिरी में प्रथम तथा द्वितीय लघु शिलालेख मिले हैं तृतीय लघु शिलालेख में अशोक के धर्म की विवेचना की गई है इस श्रेणी में आबू नामक स्थान पर मिलने वाला शिलालेख अशोक का मात्र एक ऐसा शिलालेख है जो पत्थर की पट्टी ऊपर खुदा है बाकी सभी उपयुक्त अभिलेख पहाड़ियों पर खुले हैं आबू लेख को तृतीय लघु शिलालेख कहा जाता है। गुलबर्गा के समतल गांव के से तीन अन्य लघु शिलालेखों को खोजा गया है ।इनकी भाषा लिपि तथा प्रकार आंध्र प्रदेश के एरागुड्डी अभिलेख के समान है इतिहासकार इस खोज के सहारे यह निष्कर्ष निकाल सके हैं कि सा पूर्व तीसरी सदी में कर्नाटक के उत्तरी तथा इसके साथ लगे हुए भागों को अशोक ने विजीत किया था।

इसके अतिरिक्त रुद्रदामन की गिरनार प्रशस्ति जो जूनागढ़ में पाई गई है मैं सुदर्शन झील के निर्माण में चंद्रगुप्त तथा झील की मरम्मत के संदर्भ में अशोक का नाम आया है यह प्रशस्ति संवत 72ई. लिखित है संभवत यह शक संवत है जिसके आधार पर इसका सही समय 150 ई. निर्धारित होता है ।गिरनार के इस संस्कृत अभिलेख से मौर्यों के सिंचाई व्यवस्था का वर्णन प्राप्त होता है तक्षशिला के प्रियदर्शी अभिलेख जलालाबाद एवं अफगानिस्तान के लंपाका अभिलेख, सोहगौरा, गोरखपुर तथा तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के स्थान महास्थान अभिलेख आदि में मौर्यकालीन राजनीतिक ,आर्थिक एवं सामाजिक जीवन का चित्रण मिलता है सोहगौरा तथा महास्थान अभिलेखों में अकाल के समय किए गए उपायों का वर्णन है ।अभिलेख यद्यपि मौर्यकालीन इतिहास से संबंध है, तथापि अशोक के नहीं माने जाते हैं।

मौर्यकालीन स्थापत्य कला के बहुत ही कम अवशेष मिले हैं कुम्हरार की खुदाई उसे स्तंभों पर खड़े सभाभवन  वाले एक मौर्य प्रासाद का पता चलता है। यह भव्य प्रासाद अपने आकार -प्रकार तथा बनावट में ईरान की समकालीन शाही कला की झलक देता है। कौशांबी, राजगृह पाटलिपुत्र, हस्तिनापुर तथा तक्षशिला आदि स्थानों की खुदाई उसे भी मौर्यकालीन इतिहास की आर्थिक, व्यापारिक, राजनीतिक गतिविधियों का पता चलता है।

पुरातात्विक साक्ष्यों में सिक्कों का स्थान काफी महत्वपूर्ण माना जाता है मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था की जानकारी के लिए एक महत्वपूर्ण स्रोत है मौर्यकालीन अर्थव्यवस्था में जो सिक्के प्रचलन में आए थे उन्हें आहत सिक्कों की संज्ञा दी जाती है। जिन पर न किसी मौर्यकालीन राजा का नाम लिखा मिलता है, ना कोई तिथि अंकित है । केवल चंद्र, सूर्य, पर्वत, वृक्ष, पशु-पक्षी आदि की आकृतियां मिलती है । इस प्रकार पंचमार्क्ड सिक्के लगभग 500 ईसवी पूर्व से ही मिलने लगते हैं। परंतु मौर्य काल के पंचमार्क्ड सिक्के इस दृष्टि से महत्वपूर्ण है कि वे शायद एक केंद्रीय प्राधिकरण द्वारा जारी किए जाते थे क्योंकि उनके चिन्हों में एकरूपता और समानता पाई जाती है।

अशोक के पाटलिपुत्र के पास एक अभिलेख से पहाड़ी तथा अर्धचंद्र का एक प्रतीक प्राप्त हुआ है ।जिसके कारण इन सिक्कों को मौर्य काल से संबंधित किया गया है ।अर्थशास्त्र में वर्णित चांदी के पण को तथा इसके खंडो और गुणकों को मौर्य काल की स्थापित मौद्रिक इकाई माना जाता है। यह 3/4 तोला के बराबर होता था ।उत्तरी काली मृदभांडों के साथ आहत सिक्कों का कई स्थानों पर पाया जाना इस बात का सूचक है कि इन जगहों पर मौर्य काल में अच्छी खासी आबादी थी। इन सिक्कों को राजाओं के अतिरिक्त संभवत व्यापारियों व्यापारिक श्रेणियों और नगर निगमों ने चालू किया था।


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