भारत दुर्दशा में राष्ट्रीय चेतना की अभिव्यक्ति

 भारतेंदु हरिश्चंद्र कृत भारत दुर्दशा नाटक हिंदी साहित्य की एक अनुपम कृति है ।सुप्रसिद्ध प्रबोध  चंद्रोदय की पात्रों की मानवीकरण की सांकेतिक परंपरा हिंदी में सबसे पहले भारत दुर्दशा में मौलिक स्वरूप में प्रकट हुई है। यह विशिष्ट शैली धार्मिक प्रबोधन के स्थान पर युगानुकूल राष्ट्रीय चेतना से अनुप्राणित है। श्री जयनाथ नलिन ने भारत दुर्दशा की समीक्षा करते हुए कहा है कि “भारत दुर्दशा अतीत गौरव की चमकदार स्मृति है’ आंसूभरा वर्तमान है और भविष्य निर्माण की भव्य प्रेरणा है। इसमें भारतेंदु का भारतप्रेम करुणा की सरिता के रूप में उमड़ चला है और आशा की किरण के रूप में झिलमिला उठा हैं।

 भारतेंदु की राष्ट्रीय भावना की अभिव्यक्ति का सुंदर रूप भारत- दुर्दशा में परिलक्षित होता है। तत्कालीन जीवन की सामाजिक, धार्मिक ,राजनैतिक ,आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन की यथार्थ प्रतिकृति उनके प्रस्तुत नाटक में मुखरित हुई है। नाटककार की मौलिक कल्पना शक्ति समकालीन जीवन को बड़े ही प्रभावशाली ढंग से भारत -दुर्दशा में व्यक्त करती है। सामयिक संगति को नाटक में खोजते हुए डॉक्टर लक्ष्मी सागर वाष्णेय लिखते हैं-“ भारत- दुर्दशा की कथा देशवत्सला और देश हितैषिता का आदर्श उदाहरण है। नवोत्थान काल में उत्पन्न होने के कारण भारतेंदु देश के अतीत गौरव की भावना से अनुप्राणित थे ही साथ ही अपने चारों ओर उसी महान देश की अधोगति देख रहे थे।“ इसी का सांकेतिक पात्रों के रूप में उल्लेख नाटककार ने भारत -दुर्दशा में किया है। भारत की दयनीय एवं दीन- हीन दशा से नाटककार की चेतना ही मानव योगी की लावनी के रूप में बरबस फूट पड़ती हैः-

“ रोअहूँ सब मिलकै आवहूँ भारत भाई। हां हां भारत दुर्दशा न देखी जाई।।“

भारत दुर्दशा में एक ओर ब्रिटिश  राज की निर्ममता, शोषण का चित्र है तो दूसरी ओर भारतवासियों की काहिली, आलस्य और अशिक्षा भी कारण रूप में विद्यमान है। यहीं कारण है कि समस्त अंतर्विरोधी स्थितियों से उबरने के लिए जरूरी था कि “सब लोग मिलकर एक चित्त  हो, विद्या की उन्नति करो,कला सीखों , जिससे वास्तविक कुछ उन्नति हो।“ भारतेंदु की इस प्रकार की आकांक्षा थी कि यदि भारतीय जनता अपनी दुरावस्था से मुक्त होना चाहती है तो पहले उन्हें अपनी दुर्बलताओं से मुक्त होना होगा। आत्मबोध को जागृत करना होगा। भारतेंदु की प्रेरणा तत्कालीन दौर के लिए मूल्यवान थी क्योंकि उनका दौर जनसंघर्षों का निर्णायक दौर नहीं था। इसीकारण नाटक का जो निराशात्मक अंत होता है जिसमें रचनाकार का जो नरमदिली रुख प्रकट होता है वह भी शाम एक दृष्टि की सीमा ही थी। तब तक वस्तुपरक  वैज्ञानिक चिंतन का इस रूप में विकास न हो सका था कि भारतेंदु सीधे संघर्ष की चुनौती देते। फिर भी अपनी यथार्थपरक दृष्टि के तहत भारतीय जन की दुर्दशा का चित्र खींचा ।उनको अपनी गौरवपूर्ण अतीत का स्मरण दिलाकर जागृत करने का ऐतिहासिक कार्य किया। तत्कालीन परिवेश में सामाजिक जागृति के लिए भारतेंदु हरिश्चंद्र ने उन्हीं प्रतीकों और बिंबों को ग्रहण किया जिससे आम जनता परिचित थी ताकि वर्णित चीजें आसानी से उनकी चेतना का अंग बन सके। यही कारण है कि प्राचीन मिथक का सहारा लेकर जनमानस की संवेदना के अनुरूप कृष्ण को ही कल्कि अवतार के रूप में दिखाया। ताकि कृष्ण से परिचित भारतवासी कल्कि के रूप में समझ सकेः-

“ जय सत युग थापन करन,

 नासन म्लेच्छ आचार।

 कठिन धार तरवार कर 

कृष्ण कल्कि अवतार।।“

नाटक का प्रारंभ युग नैराश्य के रूप में मुखरित हुआ है और यही निराशा आद्योपान्त नाटक में परिव्याप्त है। नाटककार ने बड़े ही व्यापक धरातल पर गहन नैराश्य, तमस का मार्मिक रूप में चित्रण किया है। इसी सघन नैराश्य को उपस्थित कर भारतेंदु शुद्ध भारतीय चेतना को मानो आंदोलित करना चाहते हैं। प्रमाद एवं जनता से जनमानस को जागृत करने के लिए उन्होंने भारत की दीन -हीन आर्त्त स्थिति का कारूणिक चित्र खींचा है, जिससे सुप्त भावनाएं जागृत होकर आत्मोत्थान की प्रेरणा पा सके। जागरण के लिए भारतेंदु यह आवश्यक समझते हैं कि भारत के गौरवमय अतीत का गान किया जाए ।जड़ हुई भारतीयता को उन्होंने अतीत के वैभव से उदबोधित करने का उपक्रमम नाटक के पहले अंक से ही किया हैः-

“सबके पहिले ईश्वर यही धनबल दीनो। सबके पहिले जेहि सभ्य  विधाता कीनो ।सबके पहिले जो रूप रूप रस भीनो। सबके पहिले विद्या फल जिन गहि लीनो।।“

इसीप्रकार नाटककार ने अतीत के शौर्य का गाना भी जोगी के माध्यम से व्यक्त किया है। शाक्य ,हरिश्चंद्र, नहुष, ययाति, राम ,युधिष्ठिर वासुदेव, सूर्याति, भीम ,अर्जुन की महिमा का गान कर नवसंदेश दिया है ।भारतेंदु का इस प्रकार से चित्रण करना मनोवैज्ञानिक भी है। जनमानस को प्रेरित करने के लिए उसके हृदय में अतीत एवं शौर्य को जागृत करने से ही उसे प्रबुद्ध किया जा सकता है।

दूसरे अंक में श्मशान, टूटे-फूटे मंदिर ,कौवा, कुत्ता, सियार घूमते हुए, इधर-उधर पड़ी हुई है- आदि का " अवतरण कर के नाटककार ने निराशा के वतावरण को और भयावह बना दिया है। इस स्थिति में असहाय भारत आर्त्त क्रंदन करता हुआ ,आत्मरक्षा के लिए याचना करता है। और अतीत की महिमा एवं शौर्य का किस प्रकार से अवसान हो रहा है उसका परिचय देता है ।नाटक में भारत ‘भारत ‘का प्रतीक है ।उनकी दीन- हीन स्थिति का वर्णन तथा उसकी चारित्रिक दोष, भीरूता, निर्बलता अशक्तता, शोक एवं व्यथाग्रस्ता ,कायरता आदि- वस्तुतः भारतीय जन के ही चारित्रिक दोष है। उसे स्वयं पर विश्वास नहीं है। और वह दुखी होकर प्रलाप करता है ‘कोउ नहीं पकरत मेरो हाथ।‘ ‘भारत’ नामक पात्र के माध्यम से भारतेंदु ने उस समय के भारतीयों की जड़ता, निष्क्रियता, निर्बलता एवं उत्साहहीनता का यथार्थ चित्रण किया है। भारत की नितांत दयनीय स्थिति आदि से अंत तक नाटक में छाई हुई है। कारण यह है कि नाटककार की चेतना में तत्कालीन जीवन में व्याप्त दुर्बलताएँ समाहित थी। उन्हीं का आकलन करने के लिए सुप्त जन- चेतना के जागरण के लिए भारतेंदु ने भारत की प्रतीक रूप में सशक्त श्रष्टि की है।

भारत सौभाग्य के माध्यम से नाटककार ने भारत की पतीत दशा  से उत्थान की भावना रखने वाले हृदयों को वाणी दी है। भारत दुर्दैव को आसुरी तथा तामसिक शक्तियों से भारत की रक्षा करने की जिनके मन में तीव्र इच्छा है वह भारत सौभाग्य ही है। सैद्धांतिक रूप में से’ ‘भारत भाग्य’ भारत का प्राचीन सौभाग्य है। इसी सौभाग्य की प्रशंसा भारतेंदु जी ने गाई है –“भारत के भुजबल जग रच्छित। भारत विद्या लहि जग सिच्छित।“

भारत सौभाग्य भारत को जड़ता से प्रबोधित करने के लिए कृत संकल्प है ।वह भारत को प्रमाद की निद्रा से जागृत करने के लिए गाता हुआ रंगमंच पर उपस्थित होता है और कहता हैः-“ जागो जागो रे भाई, सोवत निसि वैस गवांई। जागो जागो रे भाई। अबहूँ चेति पकरि राखो किन जो कुछ बची बढाई।  जागो जागो रे भाई।।“

उसकी आत्मा अपने परम हितैषी भारत की शोचनीय स्थिति से आहत होकर आर्त्तनाद कर उठती है-“’ हाय’! भारत को आज क्या हो गया है? क्या निसंदेह परमेश्वर इससे ऐसा ही रूठा है। हाय! क्या भारत के फिर भी दिन ना आएंगे ? हाय! यह वही भारत है जो किसी समय सारी पृथ्वी का शिरोमणि गीना जाता था। भारत के प्रति उसके हृदय में इतना अपनत्व है कि वह बार-बार चेष्टा करके वह उसका कल्याण करना चाहता है, किंतु विफल उपाय होने पर वह रो उठता है। यही चरित्र की उदात्तता है। भारत सौभाग्य का रोना मानो उस हर भारतीय का रुदन है जो भारत को श्रीसंपन्न देखना चाहता है। उस समय के समाज सुधारक और जागरूक साहित्यसेवी ही हैं। वे हर उपाय से भारत को जागृत करना चाहता है कि किसी भी तरह मर्माहत होकर उसका सुप्त और लुप्त स्वाभिमान जाग जाए।

विचारक शंभूनाथ ने भारतेंदु के साहित्य को 1858-85 के बीच के साहित्य के ऐतिहासिक काल की उपज के रूप में देखते हुए लिखा है कि “भारतेन्दु उस काल की परंपरा अभिन्न विचारधाराओं की संधि पर खड़े थे -एक द्वैध में थे या हिंदी प्रदेश की अनगिनत सामाजिक रुकावटों के बीच खोखले सुधारवाद की आलोचना करते हुए वस्तुतः बड़ी तेजी से उस समग्र राजनीतिक मुक्ति की विचारधारा की ओर बढ़ रहे थे ,जो 19वीं शताब्दी के सांस्कृतिक- वैचारिक संघर्ष का एक श्रेष्ठ निष्कर्ष थी।“

भारतेंदु भारतीय नवजागरण के उस विचार धारा के प्रवर्तक थे जो न अतीतवादी थी,न आधुनिकता विरोधी,  बल्कि उन्होंने ढोंग, अंधविश्वास, रूढ़ियों का विरोध करते हुए आधुनिकता के स्वस्थ और चेतन रूप को अपने प्रहसन, व्यंग्य नाटकों में लिखा है।“ भारतेंदु भारत- दुर्दशा में मात्र सुधारवाद का कार्य नहीं करते ‘न मात्र यथार्थवाद के आधार पर यथार्थ चित्रण मात्र करके मुक्त होते हैं बल्कि उन्होंने एक आस्था और आशावादी दृष्टिकोण के साथ आलस्य और मोहग्रस्त, रुढ़िग्रस्त और आपसी फूट से खंडित प्रसुप्त देशवासियों को जागृत करके करने का काम किया है। जाहिर है यह जगाना और सचेत करना भारत- दुर्दशा में व्यापक स्तर पर है और वर्तमान तथा भविष्य से जुड़ा है और मुक्ति का सवाल ही नहीं उठाता, मुक्ति की मानसिकता तैयार करता है। उसमें जनमानस की क्रांतिकारी चेतना भी है और उसके लिए व्याकुलता भी,भले हास्य- व्यंग के आवरण में छिपी लेकिन उसे जनता को एक आधार अवश्य मिलता है। श्री शंभूनाथ के शब्दों में “उनकी सुधार की चेतना एक परिवर्तन ढूंढती थी। इसी दबाव में उन्होंने अंग्रेजी राज के दमन चक्र को देखते हुए सहज मिथकीय संकेतों तथा प्रहसनात्मक फंतासियों का मार्ग अपनाया।“  जिस स्वत्व की बात भारतेंदु ने कही है कि स्वत्व निज भारत  गहै और जिसे प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह ने ‘अस्मिता’ मानते हुए ‘आलोचना’ के संपादकीय में लिखा है कि यह ‘स्वत्व’ वही है जिसे आजकल ‘अस्मिता’ कहते हैं ।राजनीतिक स्वाधीनता इस स्वत्व  प्राप्ति की पहली शर्त है।



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