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उन्नींसवीं शताब्दी के समाज सुधारकों का महिलाओं की स्थिति में सुधार के प्रति दृष्टिकोण

 स्त्रियों की दासता और दोयम दर्जे की सामाजिक स्थिति का प्राचीन काल में साहसिक एवं तर्कपूर्ण प्रतिवाद किया गया था। मध्यकाल की शताब्दियों के लम्बे गतिरोध के दौर में स्त्री मुक्ति की वैचारिक पीठिका तैयार करने की दिशा में उद्यम लगभग रुके रहे और प्रतिरोध की धारा भी अत्यंत क्षीण रही। आधुनिक विश्व - इतिहास की ब्रह्मवेला में पुनर्जागरण काल के मानवतावाद और धर्मसुधार आन्दोलनों ने पितृसŸात्मकता की दारुण दासता के विरुद्ध स्त्री समुदाय में भी नई चेतना के बीज बोये जिनका प्रस्फुटन प्रबोधन काल में हुआ। जो देश औपनिवेशिक गुलामी के नीचे दबे होने के कारण मानवतावाद और तर्क बुद्धिवाद के नवोन्मेष से अप्रभावित रहे और  जहाँ इतिहास की गति कुछ विलम्बित रही, वहॉँ भी राष्ट्रीय जागरण और मुक्ति संघर्ष के काल में स्त्री समुदाय में अपनी मुक्ति की नई चेतना संचारित हुई। हालाँकि उनकी अपनी इतिहासजनित विशिष्ट कमजोरियाँॅ थीं जो आज भी बनी हुई है और इन उŸार औपनिवेशिक समाजों में स्त्री आन्दोलन के वैचारिक सबलता और व्यापक आधार देने का काम किसी एक प्रबल वेगवाही सामाजिक झंझावात को आमंत्रण देने के दौरान ही पूरा किया जा सकता है। दो

अंग्रेजी शासन के दौरान स्त्री शिक्षा का सम्यक अवलोकन

   मध्यकालीन विचार-सारणी और जीवन-पद्धति में स्त्रियों को केवल गृहकार्य की जिम्मेदारी दी गई थी। लड़कों के लिए ‘टोल‘ एवं ‘चतुष्पाठी‘ जैसे शिक्षण स्थल थे, लेकिन लड़कियों के लिए कहीं कोई शिक्षा का प्रबंध नहीं था। लड़कियों के लिए प्रायः घर के भीतर ही शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। उच्चवर्गीय महिलायें अपने महलों में ही संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करती थी। रामचन्द्र शास्त्री को पेशवा राजा ने महल में आकर अपनी पत्नी को संस्कृत की शिक्षा देने के लिए नियुक्त किया था। राजपूतों में सम्पन्न वर्ग की लड़कियों को किसी न किसी प्रकार की प्रारम्भिक शिक्षा मिलती थी। इसी प्रकार बंगाल में वैष्णव सम्प्रदाय में भी लड़कियों को शिक्षा देने की प्रवृत्ति  किसी हद तक थी जिससे कि वह धर्मग्रंथ पढ़ सके। संस्कृत साहित्य महिलाओं तक कविताओं के रुप में पहुँचता था। वह कथा - कहानियों तक सीमित था, उन्हें पवित्र कर्मकाण्डों व अनुष्ठानों से नहीं जोड़ा जाता था। द हाई कास्ट हिन्दू वीमेन में पंडिता रमाबाई कहती है कि यहाँ तक कि स्त्रियों के मुद्दे पर काफी उदार समझे जाने वाले अनन्तशास्त्री ने भी पवित्र पुस्तकों को अपनी पत्नी और पुत्रियों से

प्राचीन भारतीय इतिहास में विधवा महिलाओं का स्थान

   आरम्भिक वैदिक काल में चूॅँकि आर्य अपनी प्रजनन क्षमता को व्यर्थ नहीं कर सकते थे, साम्राज्य विस्तार हेतु परिवार में वृद्धि आवश्यक थी।इसलिए विद्वानों ने वैदिक काल में विधवा विवाह पर सहमति व्यक्त की है। ऋग्वेद के दसवें मंडल के अध्याय 40 का दूसरा एवं 18वें अध्याय का आठवाँॅ श्लोक विधवा विवाह से सम्बन्धित है। वैदिक काल में पूर्व पति की चिता से उठाकर जो भी पुरुष स्त्री को ले जाता था तथा तोस - भरोस देने में सक्षम होता था उससे उसका विवाह वैध माने जाने के संकेत है। ऋग्वेद संहिता में वेण राजा पृथु का उल्लेख है जिसके बारें में मनु ने स्पष्ट लिखा है कि उसने विधवाओं का पुनर्विवाह जबरदस्ती करवाया था। ऋग्वेद संहिता में एक विधवा स्त्री को संबोधित करते हुए कहा गया है कि तुम मृत पति को छोड़कर भावी पति को प्राप्त करो। उत्तरवैदिक काल में विधवा विवाह की संख्या में गिरावट आने लगी क्योंकि कन्याएँ दूसरा विवाह करके अपने स्वाभिमान के साथ समझौता करने में अपनी प्रतिष्ठा का भंग होना मानती थी। फिर भी विधवा विवाह हेय नहीं माना जाता था बल्कि यह प्रशंसा का प्रतीक था।           अथर्ववेद में नारी के द्वितीय विवाह का उल्

असाध्य वीणा : कथ्य और शिल्प

 'असाध्य वीणा ' कई दृष्टिकोण से अज्ञेय की प्रतिनिधि काव्य रचना मानी  जाती है। यह रचना सर्वप्रथम 1961 में उनकी कविता संग्रह 'आँगन के पर द्वार 'में प्रकाशित हुयी थी। यह एक लम्बी रहस्यवादी कविता है जिस पर जापान  में प्रचलित बौद्धों की एक  शाखा जेन संप्रदाय का प्रभाव परिलक्षित होता है। डॉक्टर राम स्वरूप चतुर्वेदी ने लिखा है कि  असाध्य वीणा  एक जापानी लोककथा पर आधारित है ,परन्तु इस कविता का परिवेश भारतीय है ,इसमें आने वाले दो पत्रों के नाम भी भारतीय ही है,यथा वज्रकीर्ति और प्रियंवद केशकंबली। संभव है कि वज्रकीर्ति महायानी दार्शनिक धर्मकीर्ति के अनुकरण पर गढ़ा गया एक नाम हो,इस कविता का केशकम्बली एक तरह से काल्पनिक चरित्र है ,क्योंकि ऐतिहासिक केशकम्बली के विपरीत  महायानी दार्शनिक के अनुयायी के रूप में हमारे सामने आता है। हो सकता है कि इस कविता के चरित्र यथार्थ न   होकर बहुत दूर तक कवि  की कला सृष्टि है.पर यह सम्पूर्ण रचना क्रम में उतना ही गौण हैं जितना यह पता  लगाना की निराला ने 'राम की शक्तिपूजा 'का मूल वृत्त कृत्तिवास से लिया था कि रामचरित मानस से या वाल्मीकि रामायण से

हैंदव धर्मधारक छत्रपति शिवाजी महाराज

17वीं शताब्दी की शुरुआत में पश्चिमी भारत में  एक नए योद्धा वर्ग का उदय हुआ ,इस नए उदीयमान योद्धा मराठों को  छत्रपति शिवाजी महाराज  (1630-1680 ई.)का कुशल नेतृत्व मिल रहा था.शिवाजी इस समय  भारत   के एक महान राजा एवं रणनीतिकार के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे. जिन्होंने 1974   ई. में पश्चिम भारत में मराठा साम्राज्य   की नींव रखी। उन्होंने कई वर्ष  तक औरंगजेब  के मुगल सम्राज्य   से संघर्ष किया। सन् 1674 में रायगढ़   में उनका राज्यभिषेक हुआ और वह "छत्रपति" बने।छत्रपती शिवाजी महाराज ने अपनी अनुशासित सेना एवं सुसंगठित प्रशासनिक इकाइयों कि सहायता से एक योग्य एवं प्रगतिशील प्रशासन प्रदान किया। उन्होंने समर-विद्द्या  में अनेक नवाचार किये तथा छापामार   (Gorilla War) की नयी शैली (शिवसूत्र  ) विकसित की। उन्होंने प्राचीन हिन्दू  राजनीतिक प्रथाओं तथा दरबारी शिष्टाचारों को पुनर्जीवित किया और  फारसी   के स्थान पर मराठी  एवं सस्कृत   को राजकाज की भाषा बनाया। शिवाजी महाराज का जन्म 19 फरवरी, 1630 में शिवनेरी दुर्ग  में हुआ था। शाहजी भोसले की पत्नी जीजाबाई  (राजमाता जिजाऊ) की कोख से शिवाजी

संसार दुःखमुलक है;कर्मफल ही जन्म और मृत्यु का कारण है - जैनधर्म l

जैनधर्म में संसार है;जो वास्तविक है किन्तु इसकी सृष्टि का कारण ईश्वर नहीं है।संसार दुःखमुलक है;कर्मफल ही जन्म और मृत्यु का कारण है।निर्वाण जीव का अंतिम लख्य होता है।कर्मफल के नाश तक आत्मा से भौतिक तत्व को हटाने से निर्वाण सम्भव है।जैनधर्म में निर्वाण का मार्ग सभी जाती और वर्गों के लिए खुला था।कर्म को ही वर्ण और जाति  का आधार माना गया है।जैनधर्म ने वेद की प्रामाणिकता को नहीं माना तथा यज्ञीय कर्मकाण्ड को कोई स्थान नहीं दिया।ब्राह्मण धर्म की जाति व्यवस्था की आलोचना की गयी है।नैतिकता और आचरण की शुद्धता पर अधिक बल दिया गया है।सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को अणुव्रत कहा गया है।जैनधर्म के कायाक्लेश के अंतर्गत उपवास द्वारा शरीर के अंत का विधान है। स्यादवाद जैनधर्म का एक प्रमुख सिद्धांत है,इसे अनेकान्तवाद भी कहा जाता है;इसके संस्थापक महावीर थे।स्याद का अर्थ शायद होता है जिसके सात प्रकार बताये गए है।1.है 2.नहीं है 3.है भी,नहीं भी है 4.अव्यक्त 5.है तथा अव्यक्त है 6.नहीं है और अव्यक्त है 7.है,नहीं है और अव्यक्त है।यह संसार छः द्रव्यों जिनको आजीव कहा जाता है,से निर्मित है।ये द्रव्

संसार की सभी वस्तुएँ प्रकृति में परिवर्तन के फलस्वरूप पैदा होती है।"सांख्य मत

सांख्य दर्शन सभी दर्शनों से प्राचीन है।इसके जन्मदाता कपिल है।सांख्य दर्शन जैन धर्म से संबंधित है। इस दर्शन के अनुसार "! संसार की सभी वस्तुएँ प्रकृति में परिवर्तन के फलस्वरूप पैदा होती है।प्रकृति सब वस्तुओं का मूल है;किन्तु प्रकृति का कोई मूल नहीं है।"सांख्य मत की।आत्मा अक्रिय है,वह उपनिषदों की आत्मा के समान नहीं है।फलतः संसार का कारण प्रकृति है।प्रकृति और पुरुष दो ही मूल और अनादि तत्व है।इसके अनुसार पुरुष प्रकृति का पच्चीसवाँ तत्व है।इस दर्शन को सत्कार्यवाद कहते है।सांख्य दर्शन में बाद में ईश्वरवाद को भी जोड़ दिया गया।सांख्य दर्शन में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ होती है।पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ है-श्रुति,स्पर्श,दृष्टि,स्वाद तथा गंध।जबकि पांच कर्मेन्द्रियों में वाक्,धारणा,गति,उत्सर्जन और प्रजनन आते है।सांख्य दर्शन के त्रिगुण सिद्धांत में सदाचार,वासना और जाडय की उत्पत्ति होती है।पंचशिखाचार्य का पुष्टितंत्र इस दर्शन का प्रामाणिक और प्राचीन ग्रंथ है।तत्वकौमुदी (वाचस्पति),सांख्य प्रवचन (विज्ञान भिक्षु),मठारवृत्ति (मठार)और गौण्डपाद का भाष्य इस दर्शन के प्रमुख ग्रंथ है।