प्राचीन भारतीय इतिहास में विधवा महिलाओं का स्थान

   आरम्भिक वैदिक काल में चूॅँकि आर्य अपनी प्रजनन क्षमता को व्यर्थ नहीं कर सकते थे, साम्राज्य विस्तार हेतु परिवार में वृद्धि आवश्यक थी।इसलिए विद्वानों ने वैदिक काल में विधवा विवाह पर सहमति व्यक्त की है। ऋग्वेद के दसवें मंडल के अध्याय 40 का दूसरा एवं 18वें अध्याय का आठवाँॅ श्लोक विधवा विवाह से सम्बन्धित है। वैदिक काल में पूर्व पति की चिता से उठाकर जो भी पुरुष स्त्री को ले जाता था तथा तोस - भरोस देने में सक्षम होता था उससे उसका विवाह वैध माने जाने के संकेत है। ऋग्वेद संहिता में वेण राजा पृथु का उल्लेख है जिसके बारें में मनु ने स्पष्ट लिखा है कि उसने विधवाओं का पुनर्विवाह जबरदस्ती करवाया था। ऋग्वेद संहिता में एक विधवा स्त्री को संबोधित करते हुए कहा गया है कि तुम मृत पति को छोड़कर भावी पति को प्राप्त करो। उत्तरवैदिक काल में विधवा विवाह की संख्या में गिरावट आने लगी क्योंकि कन्याएँ दूसरा विवाह करके अपने स्वाभिमान के साथ समझौता करने में अपनी प्रतिष्ठा का भंग होना मानती थी। फिर भी विधवा विवाह हेय नहीं माना जाता था बल्कि यह प्रशंसा का प्रतीक था।

          अथर्ववेद में नारी के द्वितीय विवाह का उल्लेख है। यास्क ने निरुक्त में देवर शब्द का अर्थ द्वितीय वर किया है जिससे स्पष्ट है कि प्रथम पति के कालग्रस्त हो जाने पर द्वितीय विवाह की प्रथा थी। गौतम, बौधायन और बशिष्ठ ने नियोग का समर्थन किया है परन्तु मनु विधवा विवाह और नियोग दोनों का विरोध करते है। विवाह सम्बन्धी मंत्रों में कहीं भी नियोग की अनुमति नहीं दी गई है और न दूसरे पुरुष से विवाह की चर्चा हुई हैं। याज्ञवल्क्य सदाचार की बात करते हुए कहते है कि सदाचारिणी स्त्रियों का दूसरा पति नहीं होता। मनु सगोत्रिय बालक को गोद लेने की आज्ञा देते है; विधवा विवाह का नहीं। विधवाओं के उत्पीड़न और अत्याचार की नींव यहाँ गहरी होती है। परिवार से बाहर द्वितीय विवाह करने पर स्त्री के सम्पत्ति  से वंचित होने का उल्लेख मिलता है। पूर्व में विधवा की स्थिति के साथ संभव है कि कलंक न जुड़ा हो किन्तु यौन-पावित्र्य और स्त्री के सम्पत्ति  समझे जाने , विधवा की स्थिति को कलंक से जोड़ा। आर्षग्रंथों में वैधव्य की कठिनाईयों और असुविधाओं के संकेत भी मिलते है जहाँ विधवा की स्थिति की तुलना कॉँपती हुई धरती से की गई है। हिन्दू समाज मे पत्नी को पति की अर्द्धांगिनी माना गया है तो कैसे संभव है कि आधे अंग की मृत्यु के बाद आधा अंग पुनर्विवाह कर ले। यहाँ विवाह का अविच्छेद बंधन था जिसे मृत्यु भी नहीं तोड़ सकती थी। विवाह एक संस्कार है जो केवल एक बार ही संभव है क्योंकि कन्यादान की प्रथा दुबारा सम्पन्न नहीं की जा सकती थी। जिन श्लोकों के आधार पर उपर्युक्त संदर्भ पुनर्विवाह की प्रतीति देते है, वे नियोग के ही अधिकारिणी थी। परन्तु नियोग कर्त्तव्य भावना  प्रेरित था। पुत्र प्राप्ति के बाद स्त्री का संभोगरत्त होना अवांछनीय था। इस अल्पकालीन व्यवस्था को पुनर्विवाह कदापि नहीं कहा जा सकता।
             अग्निपुराण, नारद और पराशर ने ऋग्वेद के उस मंत्र (10.8.18) के आधार पर विधवाविवाह को शस्त्रविहित बताया जिसमें कहा गया था कि उठो स्त्री तुम उस पुरुष के साथ रह रही हो जिसका जीवन समाप्त हो गया है, अपने पति से दूर जीवितो की दुनियाँ में जाओ और उस पुरुष की पत्नी हो जाओ जो तुम्हारा हाथ पकड़ने और तुम से विवाह करने को तैयार हो जाए। नारद और पराशर स्मृतियों के अनुसार विधवा विवाह पति के लापता होने पर मृत्यु होने पर नपुंसक होने या जातिवहिष्कृत होने पर संभव था। किन्तु मेघातीथि (8/225) ने विधवाविवाह के विरुद्ध मत व्यक्त किया है। कालान्तर में विधवा पुनर्विवाह असम्मानजनक और निष्ठाहीनता का कार्य समझा जाने लगा था। यदि पति की मृत्यु के बाद कोई स्त्री विधवा का जीवन बिताने के बजाय पुनर्विवाह करना चाहती थी तो उसकी अपनी जाति का कोई पुरुष उससे विवाह न करना चाहता था और समाज में उस स्त्री को अपवित्र माना जाता था। बदायूँनी के अनुसार हिन्दू स्त्रियों की सबसे बड़ी विपत्ति  उसके पति की मृत्यु थी। निम्न वर्ग के लोगों को छोड़कर हिन्दू विधवाओं को पुनर्विवाह की अनुमति नही थी।
           मनुस्मृति में विधवा पुनर्विवाह का कोई विधान नहीं है। मनु विधवा को कठोर तपश्चर्या का जीवन जीने का आदेश देकर उनसे अविरल पवित्र आचरण की उम्मीद करते थे। मनु विधि संहिता के अनुसार पति के मर जाने के बाद स्त्री पवित्र पुष्प, कंद और फल के आहार से शरीर को क्षीण कर तथा व्याभिचार की भावना से दूसरे पुरुष का नाम भी न ले। एक पतिव्रता अनुधर्म चाहनेवाली स्त्री जीवनपर्यन्त क्षमायुक्त नियम से रहने वाली तथा मदिरा, मांस एवं मधु को छोड़कर ब्रह्मचर्य से रहने वाली बने। पति के मरने के बाद ब्रह्मचारिणी रहती हुई पतिव्रता स्वर्ग को जाती है। मन, वचन, कर्म से संयत स्त्री के साथ स्वर्ग आदि शुभ लोको को प्राप्त करती है।
           विधवाओं को संयम और मिताहार का जीवन व्यतीत करना पड़ता था। उच्चवर्गों में इस नियम का कड़ाई से पालन किया जाता था हिन्दू समाज में विश्वास रहा है कि कर्म से विधवा अपना पूरा प्रायश्चित नहीं कर पाती और न उच्च वर्ग की विधवा कर्मां से छुटकारा पाने की इच्छा ही रखती है। वह धार्मिकता के साथ कर्मों का पालन करती है और विचारों एवं प्रथाओं में जकड़ी रहने के कारण पुनर्विवाह के किसी प्रस्ताव का पूरी दृढ़ता के साथ विरोध करती है। किसी विधवा के साथ उसके परिवार के लोग अशोभनीय व्यवहार करते थे और जिस घर में वह अपने पति की जीवितावस्था में मालकिन होकर रहती थी, वहाँ उसे अब एक दासी से भी अधिक बूरी दशा में रहना पड़ता था। विधवा अपने बच्चों के अतिरिक्त और सभी के द्वारा अशुभ मानी जाती थी। उसकी उपस्थिति से उसके चारों ओर उदासी छा जाती थी। वह पारिवारिक सामारोहों में शामिल नहीं हो सकती थी। ऐेसा इस गलत धारणा के वशीभूत होकर किया जाता था कि विधवा सभी उपस्थित लोगों के लिए दुर्भाग्य उपस्थित करती है। वह अभी भी अपने पति के परिवार की सदस्य होती थी। पर अपने माता-पिता के घर लौट नहीं सकती थी। उस पर अपने स्वर्गीय पति के माता-पिता और सम्बन्धियों की निगाह बराबर लगी रहती थी कि कहीं वह अपनी प्रतिज्ञा भंग न कर दे जिससे स्वर्गीय पति का आध्यात्मिक कल्याण खतरे में न पड़ जाय। उसे घर के नौकर तक भाग्यहीन मानते थे। ऐसी स्थिति में उनका जीवन आवश्य ही दयनीय हो जाता होगा।
               सामाजिक तौर पर विधवा कड़वे से कड़वे तानों एवं व्यंग्योक्तियों का शिकार होती थी।उसे बिना किसी पारिश्रमिक के परिवार के सभी कार्य निपटाने होते थे। उसे इतना भाग्यहीन समझा जाता था कि व्यापार या अन्य कार्य से निकलने पर उससे मुलाकात अपशकून माना जाता था तथा वह वापस लौट जाता था एवं इस अशुभ से रक्षा  के लिए कुछ प्रार्थना करके पुनः वापस जाता था। इतना ही नहीं इन विधवाओं को भ्रष्टाचार का पूँज समझा जाता था। जब वे शुद्ध जीवन व्यतीत करने का धैर्य खो देती थी तो वह अनैतिक कार्य करने लग जाती था। क्योंकि अधिकत्तर विधवाए कम उम्र की लड़कियॉँ या नवयौवनाएँ ही होती थी जिनसे सादगीपूर्ण एवं आडम्बरहीन जीवन अपनाने की आशा की जाती थी, जो सर्वथा अव्यावहारिक था। वे छिपे-छिपे विशेषतः अन्य राष्ट्रों एवं धर्मों के व्यक्तियों अथवा जो भी पुरुष सुलभ होता था उसके साथ अनैतिक सम्बन्ध स्थापित कर लेती थी बशर्तें कि उसे गुप्त रखा जा सके। कभी-कभी निराशोन्मŸाता की स्थिति में वे ईसाई या इस्लाम धर्म भी अपना लेती थी।
         

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