अंग्रेजी शासन के दौरान स्त्री शिक्षा का सम्यक अवलोकन

   मध्यकालीन विचार-सारणी और जीवन-पद्धति में स्त्रियों को केवल गृहकार्य की जिम्मेदारी दी गई थी। लड़कों के लिए ‘टोल‘ एवं ‘चतुष्पाठी‘ जैसे शिक्षण स्थल थे, लेकिन लड़कियों के लिए कहीं कोई शिक्षा का प्रबंध नहीं था। लड़कियों के लिए प्रायः घर के भीतर ही शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। उच्चवर्गीय महिलायें अपने महलों में ही संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करती थी। रामचन्द्र शास्त्री को पेशवा राजा ने महल में आकर अपनी पत्नी को संस्कृत की शिक्षा देने के लिए नियुक्त किया था। राजपूतों में सम्पन्न वर्ग की लड़कियों को किसी न किसी प्रकार की प्रारम्भिक शिक्षा मिलती थी। इसी प्रकार बंगाल में वैष्णव सम्प्रदाय में भी लड़कियों को शिक्षा देने की प्रवृत्ति  किसी हद तक थी जिससे कि वह धर्मग्रंथ पढ़ सके। संस्कृत साहित्य महिलाओं तक कविताओं के रुप में पहुँचता था। वह कथा - कहानियों तक सीमित था, उन्हें पवित्र कर्मकाण्डों व अनुष्ठानों से नहीं जोड़ा जाता था। द हाई कास्ट हिन्दू वीमेन में पंडिता रमाबाई कहती है कि यहाँ तक कि स्त्रियों के मुद्दे पर काफी उदार समझे जाने वाले अनन्तशास्त्री ने भी पवित्र पुस्तकों को अपनी पत्नी और पुत्रियों से दूर रखा था। वे आगे लिखती है कि ‘‘19वीं शताब्दी तक मनुसंहिता के चुने हुए सूत्र जिन्हें पवित्र मानकर स्त्रियों को निरंतर उच्चारित करने का आदेश मिलता है, भारत में कुछ ही ऐसी स्त्रियाँ होगी, जिन्होंने उन्हें अपनी आँखों से देखा हो।कलकत्ता में अपनी सार्वजनिक पहचान बन जाने के बाद ही पंडिता रमाबाई मनुसंहिता देख पाई थी।

          1881 की जनगणना के सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 1 लाख 76 हजार 784 महिलायें सरकारी स्कूलों, मिशन स्कूलों, भारतीय निवासियों एवं निजी संस्थानों द्वारा संचालित स्कूलों तथा जनाना मिशनरीज एजेन्सी की छात्रायें थी। 8 से 10 वर्ष की लड़कियों को स्कूलों से निकालकर उसकी शादी करा दी जाती थी। इसके पश्चात् वह लिखाई - पढ़ाई से बिल्कुल अलग कर दी जाती थी, क्योंकि किसी युवा स्त्री या लड़की का पढ़ना या उसके हाथ में पुस्तक या कागज होना या अपने पति के घर के अन्य लोगों की उपस्थिति में पढ़ना  - लिखना शर्मनाक माना जाता था। ऊँची जाति की महिलाओं के बीच यह धारणा प्रचलित थी कि अगर वे पढ़ेगी या कलम पकड़ लेगी तो उसके पति की मृत्यु हो जाएगी। राससुन्दरी देवी कहती है कि ’’यह परम्परागत शिक्षा व्यवस्था का सबसे बूरा पहलू था कि लड़कियाँ नहीं पढ़ती थी। लोग औरतों का पढ़ना पसंद नहीं करते थे। वास्तव में घर की बूढ़ी औरतें जवान महिलाओं के हाथ में कागज का एक टुकड़ा भी देख लेती थी तो उसे बूरा मान जाती थी। लेकिन मैं इसे कैसे स्वीकार कर सकती थी?’’
      1836 ई0 में विलियम एडम्स ने बंगाल का शैक्षणिक प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए इसी बात को उद्धृत किया है कि हिन्दू परिवार के बहुसंख्यक लोगों में खासकर पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में यह अंधविश्वास फैला हुआ था कि यदि लड़कियाँ पढ़ाई लिखाई करेगी तो वह शादी के बाद विधवा हो जाएगी। वह आगे लिखता है कि इस भय औेर सिहरन के बावजूद भी हिन्दू एवं मुस्लिम महिलाओं में अक्षर - ज्ञान के  प्रति तीव्र उत्कंठा थी; फिर  भी वह ऐसा नहीं कर सकती थी। क्योंकि हिन्दू औेरतें सामाजिक जीवन में अपने पिता, फिर पति ओैर बुढापे में अपने बच्चों पर आश्रित थी, वे ईश्वर से उनके दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करती थी ओैर कई तरह से अपने आराध्य की पूजा - अर्चना करती थी। उनका मानना था कि अगर अक्षरज्ञान उसके पति की मृत्यु का कारण बनता है तो वह पढ़ाई उसके लिए आत्महत्या के समान होगी। लिंग आधारित विश्व में पुरुष एवं स्त्री के लिए अलग -अलग कार्य और स्थान निश्चित है। यह अवधारणा महिलाओं को शिक्षा के प्रति आकृष्ट होने में रुकावट पैदा करती थी। बहुत सी औरतें जिन्होंने 1870 ई0 के पूर्व पढ़ना - लिखना जान गई थी वे कहती है कि उन्होंने ऐसा छुपकर या अपने घर से दूर किसी अन्य के घर जाकर ही शिक्षा प्राप्त कर सकी हैं। यहाँ तक कि अगर पितृगृह में माँ अपनी पुत्री के प्रति ममतामयी है या ससुराल में उसकी सास औेर अन्य ओैरतें उसके प्रति सहृदय हैं तो भी वह ऐसा नहीं कर सकती थी। पितृसत्तात्मक समाज में प्रचलित विधि-विधानों को महिलायें चुनौती नहीं दे सकती थी, उनका भला इस बात में था कि वह यथास्थिति बनाये रखे। जिन महिलाओं में पढ़ने की ललक होती थी वे अपने पुरुषों का ही मुँह ताक सकती थी, क्योंकि उनके जीवन पर पुरुषों का ही अधिकार सुरक्षित था।
            परम्परागत तौर पर शिक्षा का तात्पर्य धार्मिक साहित्य को पढ़ने के ज्ञान से सम्बन्धित था। हिन्दुओं, खासकर पुजारी वर्ग के ब्राह्यणों में धार्मिक साहित्य के सभी अंगों को पढ़ाया जाता था, जिसमें इतिहास, पुराण, स्मृति, अर्थशास्त्र नीतिशास्त्र, छंद, निरुक्त, व्याकरण आदि प्रमुख होते थे। जबकि दूसरे द्विज जातियों, क्षत्रियों एवं वैश्यों को व्यावहारिक कौशल के विकास से सम्बन्धित अन्य पहलुओं की जानकारी दी जाती थी। शूद्र और ओैरतें धार्मिक पुस्तकों को नहीं पढ़ सकती थी जबकि कुछ ऐसी महिलाओं के दृष्टांत मिलते है जिन्होंने न केवल अक्षर ज्ञान हासिल किया अपितु साहित्य जगत में अपना नाम भी रौशन किया।
        मुसलमान लड़कियों से कुरान पढने एवं व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने की अपेक्षा की जाती थी। उच्चवर्गीय मुसलमान परिवार की लड़कियों को विद्यालय जाने की मनाही थी। वे घर पर ही अपने परिवार के किसी सदस्य से या किसी निजी शिक्षक से जो अधिकतर मौलवी होते थे, शिक्षा ग्रहण करती थी। 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्व्र में बंगाल में केवल 11  कुरान पढ़ानेवाले स्कूल कार्यरत थे। जिसमें नामांकित छात्रों की संख्या 142 थी। नादिर अहमद का मानना है कि मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा का प्रमुख कारण उनका अच्छी प्रकार से शिक्षित नहीं होना है। उनके अनुसार मुस्लिम बच्चों से आलीम, हाफिज, हकीम दस्तकार, बुनकर एवं अन्य दस्तकारी तथा हुनर में माहिर होने की अपेक्षा की जाती थी, वहीं लड़कियाँ अपना अधिकतर समय कहानियाँ सुनने, हुनर विकास तथा अपनी गुड़ियों के साथ खेलने में गुजार देती थी।56 मौलाना अशरफ अली थानवी की पुस्तक ‘बहिस्त ए जेवर’ में महिलाओं के लिए सम्बन्धित फ़िक के नियम, घर में सजानेवाली किताबें, खाना - बनाने से सम्बन्धित किताबें, स्वास्थ्य परिचर्या पर पुस्तकें तथा अन्य घेरलू कार्य से सम्बन्धित ज्ञान का उल्लेख मिलता है। महिलाओं के लिए कोई इतिहास एवं भूगोल की किताब नहीं है। वे केवल अपनी भाषा को समृद्ध करने, अपने धार्मिक विश्वास को मजबूती देने तथा अपने घरेलू कार्य को सुचारु ढंग से क्रियान्वित करने के लिए ज्ञान हासिल कर सकती थी। वह अपने घरेलू बजट को सही ढंग से संचालित करने के लिए लिखना सीख सकती थी। अंततः थानवी इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि ‘‘आपका लिखना आपके आबरु से अधिक बहुमूल्य नहीं है।’’
           उन्नीसवी शताब्दी के शुरुआत में पुरुष शिक्षा की तुलना में महिला शिक्षा का स्तर काफी निम्न था। 1854 ई0 में सम्पूर्ण भारत में लगभग 626 लड़कियों के स्कूल थे, बंगाल में 288, मद्रास में 256, बम्बई में 65 और उत्तरी - पश्चिमी प्रांत एवं अवध में सिर्फ 17 जिसमें कुल 21 हजार 755  छात्र थे। ग्रामीण स्कूलों का ढाँचा काफी छोटा लगभग नहीं के बराबर होता था। उस समय यह धारणा प्रचलित थी कि ‘‘ब्राह्मण सभी जातियों के गुरु है जबकि महिलाओं का गुरु सिर्फ और सिर्फ उसका पति हो सकता है।’’ एड्म्स के प्रथम शैक्षिक रिपोर्ट में कहा गया है कि यहाँ कोई देशी बालिका विद्यालय नहीं है। राजा राधकांतदेव के अनुसार केवल गरीब घर के माता - पिता ही अपने बच्चों को विद्यालय भेजते थे, जबकि सम्मानित घर की लड़कियाँ अपने माता-पिता की देख - रेख में ही अपने घरों में पढ़ती थी।  स्कूल जाना उनके लिए सिहरन पैदा करनेवाला समाचार होता था लेकिन दोनों ही स्थितियों में विवाह के बाद लड़कियों का स्कूल जाना छूट जाता था और वे विद्याध्ययन से वंचित कर दी जाती थी।
           बालविवाह की प्रथा ने उच्चवर्गीय महिलाओं में शिक्षा को असम्भव बना दिया था। परदा और अशिक्षा का गहरा सम्बन्ध था। संभ्रान्त परिवार अपनी महिलाओं को घर में परदे में रखता था इसलिए वे सरकार द्वारा स्थापित सरकारी प्राथमिक विद्यालयों का लाभ नहीं उठा सकी। अधिकतर सरकारी विद्यालय गरीब बस्तियों में खोले जाते थे। 1881 - 1882 में शिक्षा पर गठित हंटर कमीशन ने पाया कि 1865 - 66 में सम्पूर्ण भारत में सरकारी नियंत्रण में 1029 बालिका विद्यालय कार्य कर रहे थे, वहीं 1881 - 82 में उनमें से 317 स्कूलों का पतन हो गया था। पंजाब में महिला शिक्षा की स्थिति कुछ बेहतर दिखाई देती है। पंजाब एडुकेशन रिपोर्ट के अनुसार हिन्दुओं औेर मुसलमानों दोनों ही समुदायों में महिला शिक्षा को स्वीकृति मिली हुई थी, वे धर्मग्रंथों को पढ़ सकती थी। 1869 - 70 में डिप्टी कमिश्नर मेजर बर्च ने अमृतसर से भेजे अपने शैक्षिक प्रतिवेदन में कहा था कि यहाँ 96 बालिका विद्यालय है जिसमें 2300 छात्रायें पढ़ती है। 1869 - 70 के शिक्षा से सम्बन्धित सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 1868 में पूरे पंजाब में 2539 बालिका विद्यालय स्थापित थे जिसकी संख्या घटकर 1869 - 70 में मात्र 2084 रह गई है, इसके पीछे सबसे महत्वर्पूण कारण प्रबंधकीय क्षमता का अभाव है।

 इसके साथ अंकगणित की सामान्य जानकारी, जिसमें चार सामान्य नियम होते थे, ज्ञान कर पाती थी। मध्यकालीन विचार-सारणी और जीवन-पद्धति में स्त्रियों को केवल गृहकार्य की जिम्मेदारी दी गई थी। लड़कों के लिए ‘टोल‘ एवं ‘चतुष्पाठी‘ जैसे शिक्षण स्थल थे, लेकिन लड़कियों के लिए कहीं कोई शिक्षा का प्रबंध नहीं था। लड़कियों के लिए प्रायः घर के भीतर ही शिक्षा की व्यवस्था की जाती थी। उच्चवर्गीय महिलायें अपने महलों में ही संस्कृत की शिक्षा प्राप्त करती थी। रामचन्द्र शास्त्री को पेशवा राजा ने महल में आकर अपनी पत्नी को संस्कृत की शिक्षा देने के लिए नियुक्त किया था। राजपूतों में सम्पन्न वर्ग की लड़कियों को किसी न किसी प्रकार की प्रारम्भिक शिक्षा मिलती थी। इसी प्रकार बंगाल में वैष्णव सम्प्रदाय में भी लड़कियों को शिक्षा देने की प्रवृŸा किसी हद तक थी जिससे कि वह धर्मग्रंथ पढ़ सके। संस्कृत साहित्य महिलाओं तक कविताओं के रुप में पहुँचता था। वह कथा - कहानियों तक सीमित था, उन्हें पवित्र कर्मकाण्डों व अनुष्ठानों से नहीं जोड़ा जाता था। द हाई कास्ट हिन्दू वीमेन में पंडिता रमाबाई कहती है कि यहाँ तक कि स्त्रियों के मुद्दे पर काफी उदार समझे जाने वाले अनन्तशास्त्री ने भी पवित्र पुस्तकों को अपनी पत्नी और पुत्रियों से दूर रखा था। वे आगे लिखती है कि ‘‘19वीं शताब्दी तक मनुसंहिता के चुने हुए सूत्र जिन्हें पवित्र मानकर स्त्रियों को निरंतर उच्चारित करने का आदेश मिलता है, भारत में कुछ ही ऐसी स्त्रियाँ होगी, जिन्होंने उन्हें अपनी आँखों से देखा हो।‘कलकत्ता  में अपनी सार्वजनिक पहचान बन जाने के बाद ही पंडिता रमाबाई मनुसंहिता देख पाई थी।
          1881 की जनगणना के सरकारी रिपोर्ट के अनुसार 1 लाख 76 हजार 784 महिलायें सरकारी स्कूलों, मिशन स्कूलों, भारतीय निवासियों एवं निजी संस्थानों द्वारा संचालित स्कूलों तथा जनाना मिशनरीज एजेन्सी की छात्रायें थी। 8 से 10 वर्ष की लड़कियों को स्कूलों से निकालकर उसकी शादी करा दी जाती थी। इसके पश्चात् वह लिखाई - पढ़ाई से बिल्कुल अलग कर दी जाती थी, क्योंकि किसी युवा स्त्री या लड़की का पढ़ना या उसके हाथ में पुस्तक या कागज होना या अपने पति के घर के अन्य लोगों की उपस्थिति में पढ़ना  - लिखना शर्मनाक माना जाता था। ऊँची जाति की महिलाओं के बीच यह धारणा प्रचलित थी कि अगर वे पढ़ेगी या कलम पकड़ लेगी तो उसके पति की मृत्यु हो जाएगी। राससुन्दरी देवी कहती है कि ’’यह परम्परागत शिक्षा व्यवस्था का सबसे बूरा पहलू था कि लड़कियाँ नहीं पढ़ती थी। लोग औरतों का पढ़ना पसंद नहीं करते थे। वास्तव में घर की बूढ़ी औरतें जवान महिलाओं के हाथ में कागज का एक टुकड़ा भी देख लेती थी तो उसे बूरा मान जाती थी। लेकिन मैं इसे कैसे स्वीकार कर सकती थी?’’
      1836 ई0 में विलियम एडम्स ने बंगाल का शैक्षणिक प्रतिवेदन प्रस्तुत करते हुए इसी बात को उद्धृत किया है कि हिन्दू परिवार के बहुसंख्यक लोगों में खासकर पुरुषों की अपेक्षा महिलाओं में यह अंधविश्वास फैला हुआ था कि यदि लड़कियाँ पढ़ाई लिखाई करेगी तो वह शादी के बाद विधवा हो जाएगी। वह आगे लिखता है कि इस भय औेर सिहरन के बावजूद भी हिन्दू एवं मुस्लिम महिलाओं में अक्षर - ज्ञान के  प्रति तीव्र उत्कंठा थी; फिर  भी वह ऐसा नहीं कर सकती थी। क्योंकि हिन्दू औेरतें सामाजिक जीवन में अपने पिता, फिर पति ओैर बुढापे में अपने बच्चों पर आश्रित थी, वे ईश्वर से उनके दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करती थी ओैर कई तरह से अपने आराध्य की पूजा - अर्चना करती थी। उनका मानना था कि अगर अक्षरज्ञान उसके पति की मृत्यु का कारण बनता है तो वह पढ़ाई उसके लिए आत्महत्या के समान होगी। लिंग आधारित विश्व में पुरुष एवं स्त्री के लिए अलग -अलग कार्य और स्थान निश्चित है। यह अवधारणा महिलाओं को शिक्षा के प्रति आकृष्ट होने में रुकावट पैदा करती थी। बहुत सी औरतें जिन्होंने 1870 ई0 के पूर्व पढ़ना - लिखना जान गई थी वे कहती है कि उन्होंने ऐसा छुपकर या अपने घर से दूर किसी अन्य के घर जाकर ही शिक्षा प्राप्त कर सकी हैं। यहाँ तक कि अगर पितृगृह में माँ अपनी पुत्री के प्रति ममतामयी है या ससुराल में उसकी सास औेर अन्य ओैरतें उसके प्रति सहृदय हैं तो भी वह ऐसा नहीं कर सकती थी। पितृसŸात्मक समाज में प्रचलित विधि-विधानों को महिलायें चुनौती नहीं दे सकती थी, उनका भला इस बात में था कि वह यथास्थिति बनाये रखे। जिन महिलाओं में पढ़ने की ललक होती थी वे अपने पुरुषों का ही मुँह ताक सकती थी, क्योंकि उनके जीवन पर पुरुषों का ही अधिकार सुरक्षित था।
            परम्परागत तौर पर शिक्षा का तात्पर्य धार्मिक साहित्य को पढ़ने के ज्ञान से सम्बन्धित था। हिन्दुओं, खासकर पुजारी वर्ग के ब्राह्यणों में धार्मिक साहित्य के सभी अंगों को पढ़ाया जाता था, जिसमें इतिहास, पुराण, स्मृति, अर्थशास्त्र नीतिशास्त्र, छंद, निरुक्त, व्याकरण आदि प्रमुख होते थे। जबकि दूसरे द्विज जातियों, क्षत्रियों एवं वैश्यों को व्यावहारिक कौशल के विकास से सम्बन्धित अन्य पहलुओं की जानकारी दी जाती थी। शूद्र और ओैरतें धार्मिक पुस्तकों को नहीं पढ़ सकती थी जबकि कुछ ऐसी महिलाओं के दृष्टांत मिलते है जिन्होंने न केवल अक्षर ज्ञान हासिल किया अपितु साहित्य जगत में अपना नाम भी रौशन किया।
        मुसलमान लड़कियों से कुरान पढने एवं व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त करने की अपेक्षा की जाती थी। उच्चवर्गीय मुसलमान परिवार की लड़कियों को विद्यालय जाने की मनाही थी। वे घर पर ही अपने परिवार के किसी सदस्य से या किसी निजी शिक्षक से जो अधिकतर मौलवी होते थे, शिक्षा ग्रहण करती थी। 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्द्व्र में बंगाल में केवल 11  कुरान पढ़ानेवाले स्कूल कार्यरत थे। जिसमें नामांकित छात्रों की संख्या 142 थी।55 नादिर अहमद का मानना है कि मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा का प्रमुख कारण उनका अच्छी प्रकार से शिक्षित नहीं होना है। उनके अनुसार मुस्लिम बच्चों से आलीम, हाफिज, हकीम दस्तकार, बुनकर एवं अन्य दस्तकारी तथा हुनर में माहिर होने की अपेक्षा की जाती थी, वहीं लड़कियाँ अपना अधिकतर समय कहानियाँ सुनने, हुनर विकास तथा अपनी गुड़ियों के साथ खेलने में गुजार देती थी।56 मौलाना अशरफ अली थानवी की पुस्तक ‘बहिस्त ए जेवर’ में महिलाओं के लिए सम्बन्धित फ़िक के नियम, घर में सजानेवाली किताबें, खाना - बनाने से सम्बन्धित किताबें, स्वास्थ्य परिचर्या पर पुस्तकें तथा अन्य घेरलू कार्य से सम्बन्धित ज्ञान का उल्लेख मिलता है। महिलाओं के लिए कोई इतिहास एवं भूगोल की किताब नहीं है। वे केवल अपनी भाषा को समृद्ध करने, अपने धार्मिक विश्वास को मजबूती देने तथा अपने घरेलू कार्य को सुचारु ढंग से क्रियान्वित करने के लिए ज्ञान हासिल कर सकती थी। वह अपने घरेलू बजट को सही ढंग से संचालित करने के लिए लिखना सीख सकती थी। अंततः थानवी इस निष्कर्ष पर पहुँचते है कि ‘‘आपका लिखना आपके आबरु से अधिक बहुमूल्य नहीं है।’’
           उन्नीसवी शताब्दी के शुरुआत में पुरुष शिक्षा की तुलना में महिला शिक्षा का स्तर काफी निम्न था। 1854 ई0 में सम्पूर्ण भारत में लगभग 626 लड़कियों के स्कूल थे, बंगाल में 288, मद्रास में 256, बम्बई में 65 और उत्तरी - पश्चिमी प्रांत एवं अवध में सिर्फ 17 जिसमें कुल 21 हजार 755  छात्र थे। ग्रामीण स्कूलों का ढाँचा काफी छोटा लगभग नहीं के बराबर होता था। उस समय यह धारणा प्रचलित थी कि ‘‘ब्राह्मण सभी जातियों के गुरु है जबकि महिलाओं का गुरु सिर्फ और सिर्फ उसका पति हो सकता है।’’ एड्म्स के प्रथम शैक्षिक रिपोर्ट में कहा गया है कि यहाँ कोई देशी बालिका विद्यालय नहीं है। राजा राधकांतदेव के अनुसार केवल गरीब घर के माता - पिता ही अपने बच्चों को विद्यालय भेजते थे, जबकि सम्मानित घर की लड़कियाँ अपने माता-पिता की देख - रेख में ही अपने घरों में पढ़ती थी।  स्कूल जाना उनके लिए सिहरन पैदा करनेवाला समाचार होता था लेकिन दोनों ही स्थितियों में विवाह के बाद लड़कियों का स्कूल जाना छूट जाता था और वे विद्याध्ययन से वंचित कर दी जाती थी।
           बालविवाह की प्रथा ने उच्चवर्गीय महिलाओं में शिक्षा को असम्भव बना दिया था। परदा और अशिक्षा का गहरा सम्बन्ध था। संभ्रान्त परिवार अपनी महिलाओं को घर में परदे में रखता था इसलिए वे सरकार द्वारा स्थापित सरकारी प्राथमिक विद्यालयों का लाभ नहीं उठा सकी।58 अधिकतर सरकारी विद्यालय गरीब बस्तियों में खोले जाते थे। 1881 - 1882 में शिक्षा पर गठित हंटर कमीशन ने पाया कि 1865 - 66 में सम्पूर्ण भारत में सरकारी नियंत्रण में 1029 बालिका विद्यालय कार्य कर रहे थे, वहीं 1881 - 82 में उनमें से 317 स्कूलों का पतन हो गया था। पंजाब में महिला शिक्षा की स्थिति कुछ बेहतर दिखाई देती है। पंजाब एडुकेशन रिपोर्ट के अनुसार हिन्दुओं औेर मुसलमानों दोनों ही समुदायों में महिला शिक्षा को स्वीकृति मिली हुई थी, वे धर्मग्रंथों को पढ़ सकती थी। 1869 - 70 में डिप्टी कमिश्नर मेजर बर्च ने अमृतसर से भेजे अपने शैक्षिक प्रतिवेदन में कहा था कि यहाँ 96 बालिका विद्यालय है जिसमें 2300 छात्रायें पढ़ती है। 1869 - 70 के शिक्षा से सम्बन्धित सरकारी रिपोर्ट में कहा गया है कि 1868 में पूरे पंजाब में 2539 बालिका विद्यालय स्थापित थे जिसकी संख्या घटकर 1869 - 70 में मात्र 2084 रह गई है, इसके पीछे सबसे महत्वर्पूण कारण प्रबंधकीय क्षमता का अभाव है।

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