उन्नींसवीं शताब्दी के समाज सुधारकों का महिलाओं की स्थिति में सुधार के प्रति दृष्टिकोण

 स्त्रियों की दासता और दोयम दर्जे की सामाजिक स्थिति का प्राचीन काल में साहसिक एवं तर्कपूर्ण प्रतिवाद किया गया था। मध्यकाल की शताब्दियों के लम्बे गतिरोध के दौर में स्त्री मुक्ति की वैचारिक पीठिका तैयार करने की दिशा में उद्यम लगभग रुके रहे और प्रतिरोध की धारा भी अत्यंत क्षीण रही। आधुनिक विश्व - इतिहास की ब्रह्मवेला में पुनर्जागरण काल के मानवतावाद और धर्मसुधार आन्दोलनों ने पितृसŸात्मकता की दारुण दासता के विरुद्ध स्त्री समुदाय में भी नई चेतना के बीज बोये जिनका प्रस्फुटन प्रबोधन काल में हुआ। जो देश औपनिवेशिक गुलामी के नीचे दबे होने के कारण मानवतावाद और तर्क बुद्धिवाद के नवोन्मेष से अप्रभावित रहे और  जहाँ इतिहास की गति कुछ विलम्बित रही, वहॉँ भी राष्ट्रीय जागरण और मुक्ति संघर्ष के काल में स्त्री समुदाय में अपनी मुक्ति की नई चेतना संचारित हुई। हालाँकि उनकी अपनी इतिहासजनित विशिष्ट कमजोरियाँॅ थीं जो आज भी बनी हुई है और इन उŸार औपनिवेशिक समाजों में स्त्री आन्दोलन के वैचारिक सबलता और व्यापक आधार देने का काम किसी एक प्रबल वेगवाही सामाजिक झंझावात को आमंत्रण देने के दौरान ही पूरा किया जा सकता है। दो शताब्दी पूर्व जब प्रबोधनकालीन आदर्शों से प्रभावित तथा बुर्जुआवादी क्रांतियों की पूर्ववेला में जनान्दोलनों में सक्रिय महिलाओं ने मनुष्य के प्राकृतिक अधिकार और स्वतंत्रता, समानता एवं भ्रातृत्व की घोषणाओं को स्त्रियों के लिए भी लागू करने की माँग उठाई तब से स्त्री मुक्ति के चिंतन और वैचारिक संघर्षां की शुरुआत व्यापक पैमाने पर हुई।

     भारत में 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से कुछ पुरुष सुधारकों ने स्त्रियों की दारुण - बर्बर स्थिति में सुधार की माँग करने की शुरुआत की और शताब्दी के अंतिम दशकों में कुछ जागरूक स्त्रियों ने भी परिवŸार्न की पुरजोर आवाज उठाई। परम्परा, नैतिकता, धर्म, आचार और प्राकृतिक न्याय को लेकर बहसें चली, पर कहीं - कहीं विमर्श और सुधार आन्दोलनों का यह पूरा परिदृश्य ही औपनिवेशिक सामाजिक, एवं आर्थिक परिस्थिति से अनुकूलित था। यह एक बड़ी सीमा तक उपनिवेश काल के एक तुलनात्मक सभ्यताई संवाद का परिणाम था। भारत सम्बन्धी उपनिवेशवादी संवाद बहुत पहले से ही लैगिक रंग मे रंगे हुए थे, क्योंकि उपनिवेशी समाज को स्त्री समान बतलाया गया और उपनिवेशक के पुरुषत्व के मुकाबले भारतीय समाज के स्त्री चरित्र को उसकी स्वाधीनता की समाप्ति के लिए जिम्मेदार ठहराया गया।1 इन संवादों में स्त्री प्रश्न प्रमुखता से उठाये गये जैसा कि जेम्स मिल जैसे प्रवर्तकों, मिशनरियों, सिविलियनों एवं सैनिक अफसरों ने भारत की एक सभ्यता -केन्द्रित समालोचना प्रस्तुत करने के क्रम में किया है जिसमें स्त्रियों की पतित दशा को सभ्यताओं के श्रेष्ठताक्रम में भारत की हीन स्थिति का सूचक माना गया है। इसीलिए पढ़े-लिखे भारतीय बुद्धिजीवियों ने भी भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति में सुधार की पैरवी और समर्थन करके इस सभ्यताई समालोचना का करारा जबाव दिया। पश्चिम की निन्दामूलक आलोचना के जबाव में उन्हांने एक स्वर्णिम अतीत की कल्पना की जिसमें स्त्रियों को आदर और सम्मान दिया जाता था। उन्हांने उन प्रथाओं में सुधार का आग्रह किया जिनकां वे विकृतियाँ या भटकाव मानते थे। दूसरा, एक और प्रत्युŸार बुद्धिवाद एवं तर्कवाद के आलोक में हिन्दू धर्म का अंदर से सुधार करना था। इस सांस्कृतिक आन्दोलन में बुनियादी तौर पर भारत के अतीत में बुद्धिवाद की खोज की जाती रही और इस तरह से उसकी धार्मिक और दार्शनिक परम्पराओं को बुद्धि के आलोचना जगत में पुनर्स्थापित किया जाता रहा।
      सुधार आन्दोलनों ने मूलतः हिन्दू सामाजिक संगठन और आचार- विचार में अंदर से बदलाव लाने के प्रयास किए। सुधारवाद के दूसरे पक्ष ने हिन्दू पुनरुत्थानवाद को जन्म दिया, क्योंकि अनेक भारतीयों को सुधार जिसे अक्सर उपनिवेशवादी सरकार का समर्थन प्राप्त रहता था, पश्चिमी आलोचकों और आयातीत बुद्धिवादी विचारों का एक अपर्याप्त प्रतिउŸार बल्कि उनके सामने आत्म समर्पण भी लगता था। राष्ट्रवाद और सुधारवाद परस्पर विरोधी विचार लगते थे और इसके कारण हर भारतीय में गर्व की भावना पर आधारित सुधारवाद विरोध का जन्म हुआ। कभी - कभी तो तात्कालिक महत्व के समाज सुधारों का भी मुखर विरोध किया जाता था। उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षां में सुधारवादी प्रवृŸायाँॅ मजबूत हुई। लेकिन यह पुनरुत्थानवाद निरा पोंगापंथ नहीं था, इसका एक जोरदार राजनीतिक स्वर था, जो एक आधुनिक भारतीय राष्ट्र की रचना की ऐतिहासिक आवश्यकता से प्रेरित था ।
ऐतिहासिक अनुसंधानों से स्पष्ट है कि इन समस्त परियोजना में स्त्रियों को कभी शामिल नहीं किया गया। सुधारवादी उनको अपने आधुनिकीकरण के कार्यक्रम का विषय समझते थे, उन्हें अपने बराबर की चेतनासम्पन्न प्राणी नहीं समझते थे, जो अपने स्वयं के मुक्ति के साधन बन सके। इन सुधारों ने सुधारकां के अपने वर्गों के कुछेक स्त्रियों को ही प्रभावित किया और वह भी बहुत सीमित पैमाने पर, क्योंकि ये स्त्रियाँ भी पुरुषों का संरक्षण पाती रही और अपने ही इतिहास में एक सजग विषयवस्तु के रुप में इन सुधारवादी परियोजनाओं से कभी नहीं जूड़ी। उन्नीसवी शताब्दी के आरम्भिक वर्षां में इस सार्वजनिक संवाद का सीमित प्रभाव पड़ा बल्कि यह संवाद स्त्रियों के लिए आरक्षित निजी क्षेत्र या घरेलू क्षेत्र पर भी शिक्षित भारतीय पुरुषों के नियंत्रण का सूचक था।2 शताब्दी के अतिम दशक में एज ऑफ कंसेंट बिल पर बहस से स्पष्ट हो गया कि पत्नी पर उसके पति के द्वारा दाम्पत्य अधिकारां पर सीमा लगाने का प्रयास करके इस प्रस्तावित सुधार ने उस क्षेत्र का अतिक्रमण किया जिसे अभी तक देशी पुरुष के लिए अकेला शेष बचा स्वायŸा क्षेत्र माना जा रहा था। इसलिए बालिका वधू हिन्दू गरीमा का प्रतीक बन गई, उस पर नियंत्रण रखना देशी पुरुष का एक ऐसा विशेषाधिकार था जिससे छेड़ -छाड़ की इज़ाज़त एक विजातीय राजसŸा को नहीं दी जा सकती थी। इस तरह उन्नीसवीं सदी का समापन आधुनिकीकरण की इस योजना की जगह स्त्रियों के संसार पर पुरुषों के नियंत्रण के बारें में एक हिन्दू रुढ़िवादी एलान के साथ यह दावा अब राष्ट्रवाद के एजेण्डे का एक बुनियादी अंग बन गया था।
    उन्नीसवीं शताब्दी के अधिकांश अवधि में खुद महिलाआें का नेतृत्व सर्वथा अनुपलब्ध रहा। परिणामस्वरुप नारी दुर्दशा के वास्तविक स्वरुप एवं उसकी सीमा का कभी भी यथोचित अंदाजा नहीं लगाया जा सका। जिन थोड़े से पुरुष सुधारकों ने नारी उद्धार की बात की उनका दृष्टिकोण भी संचुकित ही रहा। उन्होंने महिलाओं को एक सीमित दायरे मे रखकर तथा एक खास सीमा तक ही उनकी स्थिति में सुधार लाने की बात की। दूसरे, चूँकि बहुसंख्यक सुधारक ऊँची जातियों के थे, अतः सुधार हेतु उन्होंने जिन मुद्दों पर पहल की उनमें से अधिकतर का सम्बन्ध ऊँची जाति की महिलाओं से ही था। बहुसंख्यक निम्न जाति की महिलाआें को इन प्रथाओं के समाप्त होने से कोई फायदा नहीं हुआ। सतीप्रथा का अंत, विधवा पुनर्विवाह, तलाक जैसे सुधारां की मांग उच्च वर्णों के सदस्यों के संदर्भ में आवश्यक आवश्यकता थी। लेकिन निम्न जाति के लोगों के पास सम्पिŸा नाम की कोई चीज नही थी, इसलिए वे विधवा पुनर्विवाह कर सकते थे, दायभाग के तहत सतीप्रथा के माध्यम से दावेदार विधवाओं को उनके लिए हटाने की कोई आवश्यकता नही थीं। शारीरिक श्रम की अधिकता और पेट की भूख से वह बहुपत्नी प्रथा का शिकार नहीं हो सकते तथा तलाक उनके यहाँ सामान्य घटना थी। यहीं कारण है कि निम्न श्रेणियों की सामाजिक प्रथाओं की ओर सुधारवादियों द्वारा अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा सका तथा वे अशिक्षा, यौन - शोषण एवं उत्पीड़न की शिकार बनी रही। दूसरी तरफ महाराष्ट्र को छोड़कर देश के अन्य भागों में महिलाओं ने इन आन्दोलनों का हिस्सा नहीं बनना चाहा। बंगाल में पुनर्जागरण काल के सुधारों के स्वतः स्फूर्त संघर्षो के हर चरण में परिवार के अंदर या बाहर के सम्बन्धों को बदलने के लिए महिलाओं में खुद के प्रयास का बुनियादी तौर पर अभाव था। बंगाली उच्चवर्गीय महिलाओं की भौतिक आजादी में वृद्धि, शिक्षा और गैर घरेलू कार्यां में सीमित प्रवेश के कारण महिलाओं पर कई नाकारात्मक प्रभाव पडे़। मसलन, उनकी स्वायतŸा में कटौती हुई तथा परिवारिक तौर पर उनकी शक्ति का काफी ह्रास हुआ, जिसकी अनदेखी सुधारवादियों ने की थी। यहीं स्थिति कमोवेश भारत के दूसरे क्षेत्रों में भी पाई जाती है। लेकिन यह कहना आसान नहीं होगा कि महिलाएँ इन सुधारों की मूकदर्शक थी बल्कि यह भी स्पष्ट है कि इस दौरान महिलाओं की स्वयं की स्थिति के बारे में सोच- विचार से उनके किसी स्वतंत्र दृष्टिकोण का विकास नहीं हो सका था।
      उन्नीसवीं शताब्दी का महिला सुधार आन्दोलन एक संकीर्ण सामाजिक क्षेत्र तक ही सीमित था। बंगाल में सुधार की भावना एक छोटे से कुलीन वर्ग भद्रलोक तक सीमित थी। ब्रह्म आन्दोलन को ब्राह्मणों, कायस्थों एवं वैद्यों का समर्थन प्राप्त था। भले ही यह आन्दोलन कलकŸा जैसे बड़े शहरों से लेकर छोटे कस्बों एवं दूसरे प्रान्तों तक फैला हुआ था फिर भी यह जनता से कटा ही रहा। सुधारकों ने सुधार प्रयासों को जनता तक ले जाने की कभी कोशिश नहीं की तथा सुधार की भाषा गद्य की ठेठ संस्कृतमय शैली या अंग्रेजी, अशिक्षित किसानों या दस्तकारों की समझ से परे ही रहे। राजा राममोहन राय ने सतीप्रथा की समाप्ति के लिए आन्दोलन करते समय भारत के प्राचीनतम समय में सतीप्रथा की अनुपस्थिति को साबित करने के लिए अनेक मूल पाठों को एकत्रित किया। लेकिन केवल साक्ष्यों को क्रमवद्ध उपस्थित कर देने मात्र से ही सतीप्रथा का उन्मूलन नहीं हो जाता, इसके लिए सामाजिक और सैद्धान्तिक दोनों कार्यवाहियों की आवश्यकता थी। ऐसी सामाजिक संरचना को बदलना आवश्यक था जिसमें स्त्रियाँ और निम्न जातियाँॅ एक ही श्रेणी में पंक्तिबद्ध थी। इसके अतिरिक्त उन्होंंने मूल पाठों की व्याख्या एवं पुनर्व्याख्या के क्रम में कुछ ऐसे अंशों को चुन लिया और उन पर ही ध्यान केन्द्रित किया जो उनकी दलीलों का समर्थन करते थे। इससे श्रमिक, किसान, मध्यवर्ग, बुद्धिजीवी सभी चमत्कृत और दिग्भ्रमित हो गये। ऐेसा करते समय उन्होंने विभिन्न युगों एवं क्षेत्रों में पाई गई प्रमुख प्रवृŸायों को पहचानने की परवाह नहीं की।
       पश्चिमी भारत के प्रार्थना समाज के सदस्य पश्चिमी शिक्षाप्राप्त चिŸापावन और सारस्वत ब्राह्मण, कुछ गुजराती सौदागर और पारसी समुदाय के कुछ लोग थे। मद्रास प्रेसीडेंसी में सुधार के प्रयास और देर से आए। यही कारण है कि एक व्यापक सामाजिक आधार के अभाव में उन्नीसवीं शताब्दी के आरम्भिक सुधारकों ने उपनिवेशी शासन की कृपाकारी प्रवृŸा में एक सहज विश्वास का परिचय दिया और ऊपर से सुधारों के आरोपण के लिए कानूनों पर भरोसा किया। आधारभूत स्तर पर एक सुधारवादी सामाजिक चेतना पैदा करने की कोई खास कोशिश नहीं की गई जिससे आगे चलकर धार्मिक पुनरुत्थानवाद को उपजाऊँ भूमि इसी स्तर पर मिली। यह कहना कठिन है कि यह सब कुछ ऐसे शिक्षित भारतीयों ने किया जिनका अपने समाज में इतना असर नही था कि वे आपेक्षित सुधार करा सके। इसलिए उन्होंने विवश होकर याचिका आदि भेजने जैसे असामान्य कदम उठाए। इसकी प्रतिक्रिया यह हुई कि पुरातनपंथी, कट्टरपंथी तथा राष्ट्रवादी पुनरुत्थानवादी काफी क्षुब्ध हुए और सुधार प्रयासों की असफलता के लिए कार्यक्रम और सिद्धान्त गढ़ने लगे। इस प्रकार यह सुधारवादी परियोजना उनके खर्च और शक्ति के बाहर चली गई थी या यूॅँ कहे कि इन सुधारकों में इतनी सामर्थ्य एवं शक्ति नहीं थी कि सरकार और समाज दोनों को एक साथ इन परियोजनाओं से जोड़ सके।
       महिला सुधार आन्दोलन की नीतियाँॅं और कार्यक्रम एक महत्वपूर्ण अर्थ में उपनिवेशी सोच और उनके नीति - निर्माताओं के द्वैधभाव को प्रतिबिम्बित करते थे। इस समय की अहम उपनिवेशी मान्यता थी कि धर्म भारतीय समाज का आधार है और यह धर्मगं्रथों में सूत्रबद्ध है। इस औपनिवेशिक दर्शन ने यह पूरी तरह मान लिया था कि देशी समाज धर्मग्रंथों के आदेशों के आगे नतमस्तक हो जाता है। सामाजिक बुराईयों को स्वार्थी व्यक्तियों के हाथों ग्रंथों की विकृति का परिणाम माना गया इसमें शामिल लोग ब्राह्मण पुरोहित थे, जिनका पोप और पादरियों के समान ही इन ग्रंथों के ज्ञान पर एकाधिकार था। इस तरह उपनिवेशी शासन के सभ्यताकारी लक्ष्य को इस बात में निहित मान लिया गया कि उसने देशी लोगां को उनके अपने शास्त्रां की सच्चाईयाँॅ वापस लौटाई जिसे कम ही  पढ़ा और समझा जाता था। सती सम्बन्धी पूरी बहस का आधार शास्त्रों में था, उपनिवेशी शासन ने उस पर प्रतिबंध लगाने का निर्णय तभी लिया जब उसे विश्वास हो गया कि यह प्रथा शास्त्रसम्मत् नहीं है। चूँॅकि उपनिवेशी शासक सबसे अधिक महत्व ग्रंथों को देते थे, इसलिए भारतीय सुधारकों एवं उसके निन्दकों ने भी अपने-अपने पक्ष के समर्थन में प्राचीन धर्मग्रंथों के हवाले दिए। इस प्रथा की निर्ममता या अनौचित्य या सुधार जिनके लिए थे, उन्हीं स्त्रियों की दशा जैसे प्रश्न, उस विवाद के लिए कम ही महत्वपूर्ण थे, जो परम्परा के निरुपण पर अधिक केन्द्रित हो गए थे। स्त्रियाँॅ न तो विषयी थी न विषय बल्कि सती सम्बन्धी पूरे संवाद का आधार बन गई थी। यही बात विधवा पुनर्विवाह और बालविवाह के संदर्भ में भी कही जा सकती है। इसप्रकार, प्राच्यवादियों द्वारा समर्थित इन धर्मग्रंथों ने सामाजिक सुधारों को वैधता प्रदान की तथा स्त्रियों को अपनी स्वयं की मुक्ति में निमिŸाकरण भी नहीं माना।
          सुधारकों के रुख में नजर आनेवाला द्वैध - भाव स्पष्टतः एक उपनिवेशी संदर्भ की उपज था। उपनिवेशी संवादों के सर्व - समावेशी प्रभाव के दावों के विपरीत कोई भी वर्चस्व कभी इतना निरपेक्ष नहीं होता कि स्वतंत्रता के लिए कोई जगह ही न बचे। भारत के आधुनिकतावादी हालाँकि समर्थन और मार्गदर्शन के लिए उपनिवेशी राजसŸा की ओर देखते थे और उनकी सोचे प्रबोधनकाल के बाद के बुद्धिवाद से निर्धारित हुई, फिर भी वे न तो अपनी परम्परा को छोड़ सकते थे, न अपनी भारतीय पहचान भूल सकते थे। इसलिए भारत के आधुनिकीकरण की परियोजना हमेशा ऐसी आधुनिकता के निर्माण की मजबूरी महसूस करती रही जिसकी जड़े भारतीय संस्कृति में हो। उन्हांंने अपने समाज और उसके धार्मिक तौर - तरीकां के सुधार का काम हिन्दू परम्परा के मूल को सुरक्षित रखते हुए उनको पश्चिमी आधुनिकता के अनुसार ढाँॅलने के लिए हाथ में लिया।3 भारतीय बुद्धिजीवियों ने भारतीय राष्ट्रीयता के सांस्कृतिक उत्स की उपनिवेशवादी पश्चिम से उसके अंतर की कल्पना धीरे - धीरे इसी माध्यम से की थी। लेकिन इस सांस्कृतिक उद्यम में निहित द्वैध- भाव या तनावों ने ही उसे आगे चलकर कमजोर बनाया और उसे उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षां में परम्परा के और भी हमलावर घोषणा के आगे असहाय बना दिया। कालान्तर में चले सांस्कृतिक आन्दोलन भी एक ही समय में भारतीय परम्परा की उपनिवेशी प्रस्तुतियों पर संदेह करने और उनसे तालमेल बिठाने की एक पेचीदा बौद्धिक परियोजना में शामिल थे।
       राष्ट्रवादी-पुनरुत्थानवादियों के इस विचार को समर्थन प्रदान करना थोड़ा असहज लगता है कि उपनिवेशपूर्व भारत में महिलाओं की स्थिति अच्छी थी। वास्तव में प्राचीन भारत में स्त्रियों की स्थिति कभी जड़ या समरस नहीं रही। पर्याप्त अधिकार और स्वतंत्रता की स्थिति से लेकर उतनी ही अधिकता की स्थिति तक उसमें व्यापक परिवŸार्न आते रहे।4 कृषक समाजों के विकास और राज्यों के जन्म के साथ उनकी हालत में निर्णायक गिरावट आने लगी। हिन्दू समाज में जाति सोपान नाम का केन्द्रीय संगठनकारी सिद्धान्त पुरुष प्रधानता की विचारधारा से अभिन्न रुप से जुड़ गया शूद्रों और स्त्रियों दोनों को वैदिक अनुष्ठानों से वंचित कर दिया गया। सार्वजनिक जीवन जब पुरुषों का कर्मक्षेत्र बन गया तो स्त्रियाँॅ घरों तक सीमित होकर रह गई और उस पर स्थाई निर्भरता लाद दी गई। नारी पण्य के रूप में देखी जाने लगी तथा पारम्परिक कलाओं और अभिलेखों की सूचना के अनुसार वह देवी या दासी के बीच में लटकती हुई दिखाई पड़ी। व्यक्तिगत तौर पर कुछ ही महिलायें शास्त्रार्थ में पारंगत थी, जिस आदर्श के आधार पर पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को उच्चŸार स्थिति में रखने की कोशिश की गई है, वह वस्तुतः प्राचीन सामाजिक दर्शन में सबसे कमजोर प्रवृŸा है।
      मौखिक प्रसारणों, जो प्रवचनों आदि में पुरुषवादी मानसिकता के चलते स्त्री का सामाजिक दखल नकारात्मक ही अधिक था। उदारमना गौतमबुद्ध ने कर्म की महŸा पर बल देते हुए संघ के दरवाजे सभी के लिए खोल दिए, लेकिन वे स्त्रियों को वह स्थान नहीं दे पाए। ऐसा नहीं था कि बुद्ध को मातृसŸात्मक प्रणाली का ज्ञान नहीं था, वे कौसलों और शाक्यों के मातृसŸात्मक परम्पराओं से भलीभाँॅति परिचित थे, फिर भी स्त्रियों के प्रति पुरुषों के मनोवृŸा का परिचय देते हुए स्त्रियों के शीघ्र प्रबुद्ध होने पर शंका व्यक्त की थी। सामंती समाज में भूमि एवं स्त्री जीतने, आधिपत्य करने या हारने - खोने की वस्तुएँॅ थी। सभ्यता के व्यापक कालखण्ड में स्त्री की अतिवादी छवियॉँ ही गढ़ी जाती रही और वह देवी, दासी, विदुषी, वेश्या के बीच ही सिमटकर रह गई। शकुन्तला और सीता दोनों को ही सिद्ध करना था कि दुष्यन्त ने उसे अंगीकार किया था या रावण की लंका में रहकर भी उसका शील भंग नहीं हुआ था। महिलायें सदैव ही परीक्षार्थी बनी रही, कभी परीक्षक नहीं बन पाई। स्त्री की इस छवि पर नए विचारों और बौद्धिक उन्मेष ने प्रहार किया तथा मुद्रण प्रणाली के विकास और जन-संचार के आधुनिक माध्यमों के उदय ने उसके इस रुप को ध्वस्त कर बिल्कुल नये मानवी चित्र का निर्माण किया।
    स्त्रियों पर ऐसे प्रतिबंध मुस्लिम समाज ने भी लगाये थे। उन्नीसवीं सदी में भारतीय मुसलमानां के बीच भी सुधारवादी आन्दोलन चले। एक, पुनरूत्थानवादी आन्दोलन था जिसका नेतृत्व उल्लेमा वर्ग कर रहा था तो दूसरा, आधुनिकीकरण का अभियान था जिसका नेतृत्व शिक्षित मध्यम वर्ग कर रहा था। इन दोनों आन्दोलनों ने लगभग एक निजी व्यवस्था के रूप में शरीफ संस्कृति का निर्माण किया जिसमें पूरे मुस्लिम समाज की प्रगति के सूचक के रूप में स्त्रियाँॅ केन्द्रीय तत्व थी।5 इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि बंगाल के शरीफ मुसलमान अपनी स्त्रियों द्वारा पर्दे के नियमों के अतिक्रमण की बात सोचकर ही कॉँप उठते थे।6 हिन्दू और मुस्लिम दोनों धर्मों की स्त्रियां के लिए परदे के रूपक का अर्थ केवल बुरके या जनानखाने की दीवारों के पीछे का भौतिक अलगाव ही नहीं था बल्कि इसका तात्पर्य ऐसे पेचीदा सामाजिक व्यवस्था की बहुलता से है जो तब स्त्री - पुरुषों के बीच केवल भौतिक ही नहीं सामाजिक दूरी को बनाए रखती है और इससे जूड़ी होती है एक सर्व - समावेशी विचारधारा एवं स्त्री की निर्बलता पर आधारित एक आचार - संहिता, जो स्त्रियों के जीवन का निर्धारण करती है।7 दूसरे शब्दों, में जब वह अपने घरों से बाहर निकलती थी तो उनके चाल - चलन का इन्हीं नियमां के अधीन होना आवश्यक था। उन्नीसवीं सदी तक हिन्दू और मुस्लिम समुदायों के शरीफ तथा अजलाफ दोनों के लिए पर्दा का आदर्श सार्वभौम बन चूका था हालाँॅकि विभिन्न समूहों के लिए उसके व्यावहारिक निहितार्थ अलग - अलग थे। इस्लाम में पर्दे के बारे में ’ला इकरा फाद्ीन’ लिखा गया है अर्थात् कोई बंधन नहीं। मुस्लिम महिलायें हमेशा दबाव में या अपनी धार्मिक पहचान बनायें रखने के लिए बुर्का या पर्दे का इस्तेमाल करती थी। लेकिन जब कोई मुस्लिम महिला आंतरिक तौर पर बुर्के को अपनी धार्मिक निष्ठा का प्रतीक मान लेती है तो बुर्का महज संकेत भर न होकर उसके व्यक्तित्व में शामिल हो जाता है।
      महिला सुधार आन्दोलन की शुरुआत उदारवादी पाश्चात्य संस्कृति में दीक्षित नये प्रबुद्ध वर्गों द्वारा किया गया। उन्होंने सामाजिक संस्थाओं, धार्मिक दृष्टिकोणों एवं परम्परागत नैतिक धारणाओं में क्रांतिकारी परिवर्तन की चेष्टा की। इन सुधार आन्दोलनों में भारतीय जनता के जागरुक एवं प्रगतिशील वर्गां की नई सामाजिक आवश्यकताओं के परिप्रेक्ष्य में पुराने धार्मिक दृष्टिकोणों के परिमार्जन और सामाजिक संस्थाओं के प्रजातंत्रीकरण का प्रतिफलन हुआ। दूसरी तरफ औपनिवेशिक सरकार द्वारा भी समाज सुधारों की एक श्रृंखला शुरु की गई जो पूर्णतः आरोपित थी। ये सुधार मुख्यतः कागज पर ही बने रहे क्योंकि इनके पक्ष में आधुनिक सामाजिक चेतना विकसित करने की कोशिश नहीं की गई। मसलन 1803 में लार्ड वेलेज्ली ने बंगाल की खाड़ी के सागर द्वीप में शिशु बलि की धार्मिक प्रथा पर रोक लगा दी। यह अनुष्ठान भले ही रुक गया लेकिन पश्चिमी एवं उŸार भारत में नन्ही बालिकाओं की हत्या की अल्पगोचर सामाजिक प्रथा बदस्तूर जारी रही। अंग्रेज आधिकारियों द्वारा इस प्रथा को दूर करने के लिए कभी समझाने, कभी धमकाने तथा कभी बल प्रयोग की नीति अपनाई गई, पर कोई खास परिमाण सामने नहीं आया। एक कानूनी प्रतिबंध की बात 1857 के विद्रोह के कारण रुक गई और इसे 1870 ई0 तक इसे टाले रखा गया। आखिरकार वायसराय की कांसिल ने बालिका हत्या पर एक कानून पारित किया। लेकिन उसके बाद भी जनगणना अधिकारी बालिकाओं की घोर उपेक्षा की खबरें देते रहे। इसका परिणाम उनकी ऊँची मृत्यु दर थी जिसे न तो कानून तब पकड़ सकता था और न अब रोक पाया है। लिंगानुपात में अन्तर बदस्तूर जारी है जिसे सामाजिक तौर पर बालिकाओं के प्रति उपेक्षाभाव को दूर कर ही रोका जा सकता है।
         लार्ड विलियम बेंटिक को ब्रिटिश इतिहासकारों ने जिस सबसे बड़ी उपलब्धि का श्रेय दिया है वह है सतीप्रथा का उन्मूलन। बेंटिक ने एक सरकारी आदेश के द्वारा 1829 ई0 में सती पर पूर्णतः प्रतिबंध लगा दिया जिसे उन्मूलन विरोधी धर्मसभा द्वारा 1830 में प्रिवी कौंसिल में दायर एक हिन्दू याचिका भी रद्द नहीं करा सकी। लेकिन इस प्रतिबंध के लगभग 10 वर्षां के अंदर ही 1839 ई0 में पंजाब में रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद चार महिलायें उनके शव के साथ जल गई। 1840 ई0 में खड़क सिंह की मृत्यु के बाद एक महिला सती हुई थी। इसी तरह नौनिहाल सिंह की दो पत्नियों ने सतीधर्म को अपनाते हुए स्वयं को चिता के हवाले कर दिया। बीसवीं शताब्दी में भी सती की घटनायें घटित होती रहीं लेकिन इस प्रतिबंध के बावजूद सती की घटनाओं में जहॉँ धीरे - धीरे कमी आई वहीं पश्चिमी शिक्षाप्राप्त मध्यमवर्ग की आधुनिकतावादी समालोचना और औपनिवेशिक प्रशासन के सुधार के उत्साह के बावजूद लोकमानस में सती के विचार और मिथक की जगह कायम रही। काव्यों, लोकगीतों और लोक-कथाओं तथा जगह-जगह बने सती मंदिरों के कारण इस विचार को लगातार बल मिलता रहा और आखिरकार सामान्य जीवन में कुछेक सतीकांड की घटनाएँॅ घटित होती रहीं लेकिन ये सतीकांड की घटनायें गरीबी के कारण जीवन संघर्ष में असफल होने के भय से या परिजनों कुटुम्बियों या सामाजिक बंधनों के भारी दबाव से या एक आदर्श सती के रूप में प्रसिद्धि प्राप्त कर संसार में अपने नाम की अमिट छाप छोड़े जाने की ललक के कारण की गई आत्महत्यायें थी। इसके पीछे सदियों से चली आ रही मान्यताएँॅ या दर्शन कार्य नहीं कर रहे थे, अपितु कुछ सिरफिरे एवं चालाक लोगों की युक्तियॉँ कार्यरत थी। सामान्य स्त्रियॉँ इन सतियों की प्रतिमाओं की पूजा करके ही संतुष्ट हो जाया करती है तथा इन सतियों से सिर्फ पातिव्रत्य धर्म के प्रति अडिग रहने की ही सीख लेती है।
           इससे भी अधिक नाकाम उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य का वह सुधार आन्दोलन था जो विधवाओं के  पुनर्विवाह को बढ़ावा देना चाहता था। इसके प्रमुख प्रचारक ईश्वरचन्द्र विद्यासागर अपने अग्रगामी राममोहन राय की तरह एक कानून बनवाने के लिए अंग्रेजों के मुखापेक्षी बने रहे। 1856 का हिन्दू विधवा पुनर्विवाह कानून जिसने ऐसे विवाहों को कानूनसम्मत बनाया, लेकिन उन्हें सामाजिक मान्यता नहीं दिला पाया। बुनियादी तौर पर यह कानून निषेधात्मक प्रकृति का था जिसने सिर्फ पवित्र साध्वी विधवाओं को पुरस्कृत करने के ब्राह्मणवादी नियम का अनुमोदन किया। इस आन्दोलन का अंत उस चीज पर हुआ जिसे विद्यासागर के जीवनी लेखक अशोक सेन ने एक अपारिहार्य पराजय घोषित किया है। वे अनेक विधवाओं को पुनर्विवाहित होते नहीं देख सके क्योंकि इसके लिए सामाजिक सहमति की आवश्यकता थी, जिसे उपनिवेशी सŸा पैदा नहीं कर सकी। इसके कारण बंगाल के शिक्षित वर्गों में न सिर्फ विधवा पुनर्विवाह की प्रथा दुर्लभ रही बल्कि अगले कुछ दशकों में प्रतिबंध और भी र्सावभौम हो गया।8
    पश्चिमी भारत में भी स्थिति कोई खास भिन्न नहीं थी जहॉँ कुछ स्वनामधन्य मराठी खासकर चितपावनों ने अपने लेखों एवं तकरीरों के माध्यम से बाल विधवाओं के पुनर्विवाह की पैरवी की। उनकी यौन पिपासा को नियंत्रित करने और उनकी संतानोत्पिŸा की क्षमता को सामाजिक दृष्टि से उपयोगी बनाने के एक कदम के रुप में देखा, लेकिन कुल मिलाकर इसका अंत निराशाजनक ही हुआ। क्योंकि इसप्रकार के विवाहों की असफलता के पीछे सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व उन व्यक्तियों का धार्मिक एवं सामाजिक वहिष्कार था जिन्होंने क्षणिक प्रमादवश ऐसे विवाह किए थे। उन्हें अपने जातीय सुरक्षा से वंचित होने के साथ आर्थिक स्वार्थ की सिद्धि भी नहीं हुई, अतः वे इन विवाहों से असंतुष्ट हो गये। अब विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबंध और भी व्यापक हो गया तथा निचली जातियों को भी अपनी आगोश में ले लिया।
         भारतीय समाज पर उपनिवेशी सुधार कानूनों का बहुत ही असमान प्रभाव पड़ा। विद्यासागर ने विधवा पुनर्विवाह आन्दोलन के पहले बहुपत्नी प्रथा औेर फिर बालविवाहों के खिलाफ आन्दोलन चलाकर 1860 ई0 में विवाह की आयु का एक कानून पारित करवाया जिसमें स्त्रियों के लिए विवाह की परिणति की आयु 10 वर्ष तय की गई थी। 1891 में एक अन्य कानून बनाकर इसे 12 वर्ष कर दिया गया। लेकिन जनगणना के आँॅकड़ों से पता चलता है कि ऊपरी और निचली दोनों ही जातियों में बीसवीं सदी में भी बहुत बाद तक बालविवाह की प्रथा व्यापक स्तर पर प्रचलित रही और हरियाणा की खाँॅप पंचायत और ओमप्रकाश चौटाला की माने तो आये दिन बढ़ रही बलात्कार की घटनाओं से निजात पाने का यह एक सार्वभौम तरीका हो सकता है जब बालिकाओं की शादी 15 वर्ष से कम उम्र में ही कर दी जाय।9
  एज ऑफ कंसेंट एक्ट 1891 पर हिन्दू रुढ़िवादियों ने कड़ी प्रतिक्रिया जताई, जिनके पास सुधार आन्दोलनों से कही अधिक व्यापक जनाधार था। अब रुढ़िवादी भावनाएॅँ राष्ट्रवादी तर्क के साथ जोड़ दी गई थी कि विदेशी शासकां को भारतवासियों के सामाजिक और धार्मिक प्रथाओं में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है। लेकिन मामला केवल सरकारी हस्तक्षेप तक ही सीमित नहीं था, क्योंकि उसी समय की बात है जब रुकमाबाई के मामले में अपने अधिकारों का दावा करने के लिए हिन्दू रुढ़िवादियों ने ब्रिटिश विधि - व्यवस्था का उपयोग किया था। तर्क दिया गया कि यह प्रस्तावित हस्तक्षेप हिन्दुओं के पवित्र आंतरिक जगत में घर और परिवार में सरकारी अतिक्रमण था जिसको हिन्दू समाज ने हमेशा अभेद्य एवं अनुलंघनीय माना था। लेकिन अब हिन्दू पुरुष अपने इस अंतिम स्वतंत्रता के एकांकी क्षेत्र को भी खोने के कगार पर है।10 पुनरुत्थानवादियों का नेतृत्व करनेवाले तिलक, जो अक्सर हिन्दुओं, ब्राह्मणों औेर मराठों के गौरव को रेखांकित किया करते थे; के अनुसार इस बुराई का सबसे वैध तरीका कानून नहीं अपितु शिक्षा है। किसी भी सामाजिक संस्था के टिप्पणीकार को इस बात से कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए कि यह वहीं तत्व है जिसने सामाजिक मनोवृŸा को पूरी तरह बदल दिया और आधुनिक समाज में बालविवाह दूर की चीज साबित हो रहा है।
       पश्चिमी सुधारवाद और बुद्धिवाद के इस प्रतिरोध में बालिका वधुओं के दुःखों और आँॅसुओं को पूरी तरह भूला दिया गया। यह तथ्य स्पष्ट है कि समाजसुधार पर उन्नीसवीं सदी के आरम्भ की बहसों की तरह विवाह आयु- सम्बन्धी बहस में भी तमाम परम्परा विरोधी रूख एक तरफ आकर मिल जाते थे, सुधारक, निन्दक और उपनिवेशी शासन सब इस बात पर सहमत थे कि बालविवाह और उसकी  परिणति का प्रश्न धार्मिक प्रश्न है जिसे लम्बे समय से देशी पुरुषत्व के लिए स्वायŸा क्षेत्र माना जाता रहा है। वास्तव में इंगलैण्ड के पुरुषों की चिन्ताओं ने भी सुधारवादियों के लिए समर्थन जुटाया, लेकिन भारत की सरकार ने फिर भी अपने समय की खास मजबूरियों के चलते एक सुधार समर्थक हस्तक्षेपवादी रूख अपनाने का निर्णय लिया।11 कानून पास होने के तुरन्त बाद ही सुधारकों एवं प्रतिपक्षियों को इस बात का आभास हो गया कि इसका प्रभाव शायद ही शैक्षिक प्रभाव से कुछ अधिक रहा हो।
       प्रगति की रफ्तार चाहे जितनी कम रही हो सदी के परिवर्तन तक मध्यवर्गीय भारतीय घरानों की अनेक स्त्रियाँॅ औपचारिक या अनौपचारिक ढंग से शिक्षित हो चुकी थी पर इससे उनके सामाजिक अस्तित्व की दशाओं में कोई बहुल्लेखनीय सुधार नहीं आया; स्त्रियों की मुक्ति कभी इस शिक्षा का उद्देश्य नहीं रही जो होनी चाहिए थी। उपनिवेशी सरकार इसलिए स्त्री शिक्षा के पक्ष में थी, क्योंकि वह चाहती थी कि भारतीय असैनिक कर्मचारियों की पत्नियाँॅ शिक्षित हो ताकि उन्हेंं एक खंडित परिवार का मनोवैज्ञानिक आधात न झेलना पड़े, इसके अलावा अंग्रेजी पढ़ी - लिखी माताओं से वफादार प्रजा जनने की अपेक्षा की जाती थी। दूसरी ओर, भारत के शिक्षित पुरुष विक्टोरियाई आदर्शोंवाली सहचरी के सपने देखते थे, क्योंकि बंगाल में शिक्षित भद्र महिला प्रबुद्ध हिन्दू भद्रलोक पुरुष की आदर्श सहचरी समझी जाती थी। स्त्रीत्व की यह नई धारणा आत्मविसर्जन करने वाली हिन्दू पत्नी और विक्टोरियाई सहायिका का एक सुन्दर समन्वय था। इस प्रकार शिक्षा ने स्त्रियों को सुपत्नी एवं सुमाता की आदर्शमंडित घरेलू भूमिकाओं तक ही सीमित कर दिया।
          उन्नीसवीं शताब्दी में अगर जाहिल एवं अनपढ़ स्त्रियों को प्रगति और आधुनिकीकरण में बाधक या परिवार, संतान, समुदाय, और राष्ट्र के कल्याण के लिए बूरा माना जाता था तो घरेलू कामकाज की उपेक्षा करनेवाली गलत शिक्षा प्राप्त या अतिशिक्षा प्राप्त या पश्चिमी रंग में पली- बढ़ी स्त्रियों को वांछित नैतिक व्यवस्था के लिए खतरा समझा जाता था। आधुनिक समीक्षक भी इस बात से पूरी तरह सहमत होंगे कि शिक्षा महिलाओं के विकास के लिए ही नहीं बल्कि पूरे समाज के लिए बेहद जरुरी है। अगर किसी समाज को आगे बढ़ाना है तो सबसे पहले उनकी महिलाओं को शिक्षित करना होगा। शिक्षा केवल महिलाओं को किताबी ज्ञान प्रदान नहीं करती, बल्कि उनके अंदर आत्मविश्वास भी पैदा करती है। महिलाओं का आत्मविश्वास ही समाज की ताकत है। शिक्षा से न केवल व्यक्तियों की अभिवृŸायाँॅ विश्वास, आदर्श एवं विचारधाराएँॅ बदलती है बल्कि इसने व्यक्तिवादिता की भावना को भी उत्पन्न किया है तथा रोजगारपरक शिक्षा के प्रति स्त्रियों के झुकाव ने उसे आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान की है। आर्थिक परावलम्बन की समाप्ति से उनमें आत्मविश्वास जगा है वह अपने ऊपर किसी का भी प्रभुत्व स्वीकार करने से इन्कार करती है। यही वह दर्शन है जिसे रमाबाई को छोड़कर अधिकांश सुधारक नजरअंदाज करते रहे। रमाबाई ने जिस शिक्षा, स्त्री अध्यापिका एवं आत्मनिर्भरता को स्त्री पराधीनता के लौह दीवारों को तोड़ने के लिए एक मजबूत उपकरण माना उसे सिरे से नजरअंदाज कर दिया गया तथा इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं हुआ है।12 ऐतिहासिक परिस्थितियों में पति की आर्थिक एवं सामाजिक भूमिकाएॅँ ही उसे स्वमेव श्रेष्ठता प्रदान करती थी। पत्नी की निर्भरता के कारण ही हीन भावना का शिकार बनना पड़ता था, वह अविश्वास की प्रतिमूŸार् लगती थी। आज भी परिवार पति सŸामूलक बने हुए है फिर भी पति - पत्नी के रिश्तों में व्यापक बदलाव आया है। वह अपनी पत्नी को किसी भी अर्थ में हीन नहीं समझता। इसलिए वह न केवल उसकी सलाह लेता है बल्कि गंभीर हालात में उस पर भरोसा भी करता है। अधिक आयु में विवाह होने के कारण वह अपनी इच्छा को जताने एवं पति पर अपने दावे को दृढ़ता से कहने में सक्षम है, क्योंकि वह केवल शिक्षित ही नहीं गुणवŸापूर्ण शिक्षा के स्तर को भी पार कर रही है।
        मुस्लिम स्त्रियों के शिक्षकों का उद्देश्य भी उनको बेहतर पत्नियाँॅ, बेहतर माताएॅँ और बेहतर मुसलमान बनाना था। ऐसी रुढ़ सार्वजनिक छवियों के निर्माण के खिलाफ भारतीय स्त्रियों के बीच से विरोध के छिट - फूट स्वर सुनाई पड़ते रहे। ताराबाई शिन्दे आदर्श विद्रोहिणी साबित नहीं हुई, उन्होनें भारतीय स्त्रियों के लिए कोई दावा किया तो एक सुखी परिवार में और अधिक सम्मान व आदर का तथा उस प्रबोध का जिसका उपनिवेशी राजसŸा ने कथित रूप से वादा किया था।13 पर दूसरी और भी विद्रोहिणी स्त्रियॉँ थी जैसे  पंडिता रमाबाई, जिन्हांने शिक्षित मगर आज्ञाकारिणी पत्नी की नई आदर्श  भूमिका को और भी प्रत्यक्ष ढंग से चुनौती दी। इन दोनों को छोड़कर अधिकांश शिक्षित स्त्रियाँॅ अपनी सीमाओं को अच्छी तरह जानती और उसका ध्यान रखती थी। कारण कि अगर विक्टोरियाई इंगलैण्ड की मध्यवर्गीय लैंगिक विचारधारा से जूड़े देशी कुलीनवर्ग स्त्रियों के कर्मक्षेत्र को सीमाबद्ध कर रहे थे, तो उपनिवेशी राजसŸा भी स्त्रियों को घरेलू संसार तक सीमित रखना चाहती थी, क्योंकि वे तभी जाकर अपने आप के लिए भी सुरक्षित होती और राजसŸा के लिए भी। अदालतों ने जिन परम्परागत हिन्दू और मुस्लिम विधानों को मान्यता दी थी और राज्य ने जो नये कानून जारी किए थे, दोनों ही पितृसŸावादी परिवार के अधिकारों को मान्यता देते थे और स्त्रियों के लिए चयन की स्वतंत्रता को सीमित करते थे। उपनिवेशी राजसŸा और राष्ट्रवादी कुलीन पुरुषों के बीच एक व्यापक आधारवाली सहमति इसी क्षेत्र में बनी।
       भारतीय स्त्रीत्व के घरेलूपन के इस महिमागान ने किसान  परिवारों की स्त्रियों तथा शहरी - औद्योगिक परिवेशों में निम्नवर्गीय स्त्रियों की दशा को भी प्रभावित किया। अक्सर ऐसा माना जाता है कि निचले वर्गों की मेहनतकश स्त्रियों की स्वतंत्रता संस्कृतिकरण के प्रभाव के अंतर्गत कम होने लगी जब निचली जातियों ने स्त्री-पुरूष सम्बन्धों के सम्मानजनक मानदंडो को अपनाना शुरु कर दिया। स्त्रियों की शुद्धता किसी जाति की स्थिति का एक सूचक बन गई, इसलिए स्त्रियों का पर्दा हमेशा एक व्यावहारिक लक्ष्य भले न रहा हो, एक अनुकरणीय आदर्श जरुर बन गया था। उदाहरण के तौर पर निचली और मझोली जातियों की अधिकाधिक संख्या अपनी स्त्रियों पर संन्यासिन समान वैधव्य लादने लगी क्योंकि यह बात बंगाल और महाराष्ट्र क्षेत्र में ऊँची स्थिति का प्रतीक या सामाजिक गतिशीलता का द्योतक बन गई थी। सांस्कृतिक क्षेत्र में सतीत्व और सुधारमय स्त्रीत्व के आदर्श ने स्त्रियों के लोक-संस्कृति के उन देशी रुपों को उनके गीतों, प्रहसनों और नाटक अभिनय को धीरे - धीरे हाशिये पर डाल दिया और फिर अंत में निकाल बाहर किया जो उनको स्वायतŸा का एक क्षेत्र प्रदान करते थे। देर से ही सही निचले दर्जे की स्त्रियों को भी एक परिवर्तित सामाजिक जगत के तर्कशास्त्र को समझना और ऊपर से लादे गए आदर्श को अपनाना पड़ा।14
         उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम वर्षों से ही सामाजिक स्तर पर गतिशील अधिकाधिक किसान परिवार अपनी स्त्रियों को घरेलू कामों तक सीमित करने लगे। जब उनको पत्नियों एवं माताओं के रूप में महिमामंडित किया गया तो उनकी घरेलू जिम्मेदारियों को पवित्र माना जाने लगा और इस तरह आर्थिक महत्व से रहित कर दिया गया। उन्नीसवीं सदी के उŸारार्द्ध में जब आधुनिक राष्ट्रवाद का विकास हुआ तो इसने भी स्त्रियों का प्रश्न घरेलूपन की इन्हीं संकुचित सीमाओं के अंदर उठाया। सुधारवाद की जगह जब राष्ट्र की विभिन्न मूŸार् समान प्रस्तुतियों ने ली तो हिन्दू स्त्री उस नैतिक व्यवस्था की आदर्श मूŸार् बन गई, जो भारत की आत्मा की प्रतीक थी और माना जाने लगा  कि वह पश्चिम के प्रदूषक प्रभाव से मुक्त थी। सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों की राष्ट्रवादी प्रस्तुति ने उनको भौतिक आध्यात्मिक द्विविभाजन के समकक्ष बना दिया। संसार अर्थात् सार्वजनिक क्षेत्र, जो खासतौर पर पुरुषों का क्षेत्र था, आधुनिकता ला रही उपनिवेशी राजसŸा से टकराव और वार्ता का क्षेत्र था,  जबकि घर प्रभुसŸा का आंतरिक क्षेत्र था, जो उपनिवेशीकरण से परे था और जहाँॅ स्त्रियों को भारत की राष्ट्रीय पहचान के आध्यात्मिक तत्व का रक्षक और पोषक समझा जाता था।15 आधुनिकीकरण के इन लिंग विशिष्ट मॉडलों में भिन्नता की इस राष्ट्रवादी प्रस्तुति ने सुधारवाद की पिछली  दुविधाओं को दूर तो कर दिया, पर स्त्री - प्रश्न का समर्थन नहीं किया। उसने वास्तव में स्त्रियों के लिए विवाद और वार्ता के नए क्षेत्र पैदा किए, क्योंकि उनमें से अनेक ने निष्क्रियता की भूमिका को स्वीकार नहीं किया और वे बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में राष्ट्रवाद की ऐतिहासिक परियोजना द्वारा निर्धारित सीमाओं का खुलकर उल्लंधन किए बिना ही सही अपने एक स्वतंत्र  कर्मक्षेत्र  को रचना के लिए निमिŸा बनने के दावें करने लगी। आगे चलकर महिलायें सुधारवादियों के इस प्राकृतिक सिद्धान्त का ख्ांडन करने के प्रति कटिबद्ध दिखी कि शारीरिक तौर पर महिला और पुरुष के समानता का पैमाना अलग है तथा महिलायें पुरुषों की बराबरी का दावा कर अप्राकृतिक तत्वों को ही बढ़ावा देगी।
           राममोहन राय, पंडिता रमाबाई एवं अन्य सुधारकों के इस तर्क से इतिफ़ाक रखते हुए भी कि आर्थिक स्वतंत्रता प्रदान कर या आत्मनिर्भर बनाकर महिलाओं को सशक्तिकरण प्रदान किया जा सकता है, कहा जा सकता है कि सिर्फ आर्थिक परिवŸार्न मात्र से ही समाज की पितृसŸात्मक सता का जड़ जमाया हुआ ढॉँचा बदल नहीं सकता। महिलाओं के दबे रहने के अनेक सामाजिक एवं सांस्कृतिक पहलू है। इसलिए आर्थिक संघर्ष के साथ ही पितृसŸात्मक मूल्यों और नैतिकताओं के विरुद्ध संघर्ष के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता। नारी सबलीकरण की दिशा में पहले कदम के रुप में उत्पीड़नकारी विचारों से मुक्ति प्रमुख है, जो समाज, धर्म, जाति, वर्ग और लिंग के आधार पर टिकी हुई असमानताओं से भरा हुआ है। इसीलिए इक्कीसवीं सदी के द्वितीय दशक में जिनका आशावाद  और जिनकी परिवŸार्नकामी सकर्मक चेतना क्षरण एवं विघटन से बची हुई है, वे सभी लोग यदि मानव मुक्ति की किसी नई परियोजना के निर्माण और क्रियान्वयन के बारे में सोचते है तो उनके एजेन्डे पर महिला सशक्तिकरण के प्रयास का प्रश्न एक अनिवार्य आधारभूत प्रश्न के तौर पर विद्यमान रहता है और उसे बराबर इस प्रश्न से टकराने के लिए मजबूर भी करता है।







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