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संसार दुःखमुलक है;कर्मफल ही जन्म और मृत्यु का कारण है - जैनधर्म l

जैनधर्म में संसार है;जो वास्तविक है किन्तु इसकी सृष्टि का कारण ईश्वर नहीं है।संसार दुःखमुलक है;कर्मफल ही जन्म और मृत्यु का कारण है।निर्वाण जीव का अंतिम लख्य होता है।कर्मफल के नाश तक आत्मा से भौतिक तत्व को हटाने से निर्वाण सम्भव है।जैनधर्म में निर्वाण का मार्ग सभी जाती और वर्गों के लिए खुला था।कर्म को ही वर्ण और जाति  का आधार माना गया है।जैनधर्म ने वेद की प्रामाणिकता को नहीं माना तथा यज्ञीय कर्मकाण्ड को कोई स्थान नहीं दिया।ब्राह्मण धर्म की जाति व्यवस्था की आलोचना की गयी है।नैतिकता और आचरण की शुद्धता पर अधिक बल दिया गया है।सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य को अणुव्रत कहा गया है।जैनधर्म के कायाक्लेश के अंतर्गत उपवास द्वारा शरीर के अंत का विधान है। स्यादवाद जैनधर्म का एक प्रमुख सिद्धांत है,इसे अनेकान्तवाद भी कहा जाता है;इसके संस्थापक महावीर थे।स्याद का अर्थ शायद होता है जिसके सात प्रकार बताये गए है।1.है 2.नहीं है 3.है भी,नहीं भी है 4.अव्यक्त 5.है तथा अव्यक्त है 6.नहीं है और अव्यक्त है 7.है,नहीं है और अव्यक्त है।यह संसार छः द्रव्यों जिनको आजीव कहा जाता है,से निर्मित है।ये द्रव्

संसार की सभी वस्तुएँ प्रकृति में परिवर्तन के फलस्वरूप पैदा होती है।"सांख्य मत

सांख्य दर्शन सभी दर्शनों से प्राचीन है।इसके जन्मदाता कपिल है।सांख्य दर्शन जैन धर्म से संबंधित है। इस दर्शन के अनुसार "! संसार की सभी वस्तुएँ प्रकृति में परिवर्तन के फलस्वरूप पैदा होती है।प्रकृति सब वस्तुओं का मूल है;किन्तु प्रकृति का कोई मूल नहीं है।"सांख्य मत की।आत्मा अक्रिय है,वह उपनिषदों की आत्मा के समान नहीं है।फलतः संसार का कारण प्रकृति है।प्रकृति और पुरुष दो ही मूल और अनादि तत्व है।इसके अनुसार पुरुष प्रकृति का पच्चीसवाँ तत्व है।इस दर्शन को सत्कार्यवाद कहते है।सांख्य दर्शन में बाद में ईश्वरवाद को भी जोड़ दिया गया।सांख्य दर्शन में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और पाँच कर्मेन्द्रियाँ होती है।पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ है-श्रुति,स्पर्श,दृष्टि,स्वाद तथा गंध।जबकि पांच कर्मेन्द्रियों में वाक्,धारणा,गति,उत्सर्जन और प्रजनन आते है।सांख्य दर्शन के त्रिगुण सिद्धांत में सदाचार,वासना और जाडय की उत्पत्ति होती है।पंचशिखाचार्य का पुष्टितंत्र इस दर्शन का प्रामाणिक और प्राचीन ग्रंथ है।तत्वकौमुदी (वाचस्पति),सांख्य प्रवचन (विज्ञान भिक्षु),मठारवृत्ति (मठार)और गौण्डपाद का भाष्य इस दर्शन के प्रमुख ग्रंथ है।

बौद्ध धर्म में आर्यसत्य

बौद्ध साहित्य में चार आर्यसत्य बताये गए है।1.दुःख 2.दुःख की उत्पत्ति के कारण 3.दुःख निवारण 4.दुःख निवारण के मार्ग।गौतम ने अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए कहा था कि सभी संघातिक वस्तुओं का विनाश होता है,अपनी मुक्ति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयत्न करो।उनके अनुसार,मनुष्य पाँच मनोदैहिक तत्वों का योग है -शरीर, भाव ,ज्ञान, मनःस्थिति और चेतना।गौतम बुद्ध ने शील ,समाधि और प्रज्ञा को दुःख निरोध का उपाय बतलाया है।शील का अर्थ सम्यक् आचरण, समाधि का सम्यक् ध्यान और प्रज्ञा का सम्यक् ज्ञान होता है।प्रज्ञा,शील और समाधि के अंतर्गत ही अष्टांगिक मार्ग अपनाये जाते है। प्रज्ञा के अंतर्गत -सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक् शील के अंतर्गत - सम्यक् कर्मांत,सम्यक् आजीव समाधि के अंतर्गत-सम्यक् स्मृति,सम्यक् व्यायाम, सम्यक् समाधि रखे गए है।अष्टांगिक मार्ग निम्नलिखित है:- 1.सम्यक् दृष्टि -   वास्तविक स्वरूप का ध्यान। 2.सम्यक् संकल्प - आसक्ति,द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार। 3.सम्यक् वाक्  -  अप्रिय वचनों का सर्वथा त्याग । 4.सम्यक् कर्मांत -  दया, दान, सत्य ,अहिंसा आदि का अनुकरण। 5.सम्यक् आजीव - सदाचार

गौतम बुद्ध (GAUTAM BUDDHA)

गौतम बुद्ध का जन्म 563 ई.पूर्व में नेपाल की तराई के लुम्बिनी वन (आधुनिक रुमिन्देइ)में हुआ था।पिता शुद्धोधन,शाक्य गण के प्रधान और माता मायादेवी कोलिय गणराज्य की कन्या थी।गौतम को देखकर कालदेव तथा कौण्डिन्य ने भविष्यवाणी की थी कि बालक या तो चक्रवर्ती राजा होगा या सन्यासी। यशोधरा उनकी पत्नी थी जो बिम्बा,गोपा,भद्रकच्छाना आदि नामों से जानी जाती थी।बुद्ध ने 29 वर्ष की अवस्था में गृहत्याग किया था।बौद्ध ग्रंथों में इसे महाभिनिष्क्रमण कहा गया है।इस कार्य के लिए जो घोड़ा उपयोग में लाया गया वह गौतम का प्रिय अश्व कंथक था।वैशाली निवासी अलारकलाम बुद्ध के पहले गुरु हुए,फिर वे राजगृह चले गए जहाँ उन्होंने रुद्रक रामपुत्र को अपना गुरु बनाया।35 वर्ष की आयु में बैशाख पूर्णिमा की रात में पीपल के वृक्ष के नीचे उरुवेला (बोधगया)में ज्ञान प्राप्त हुआ।इसके बाद ही उन्हे बुद्ध की उपाधि प्राप्त हुई।बुद्ध का अर्थ होता है प्रकाशमान अथवा जाग्रत।जो अनित्य,अनंत और आतमविहीन है।संबोधि में गौतम को प्रतीत्यसमुत्पाद के सिद्धांत का बोध हुआ था।इस सिद्धांत की व्याख्या प्रतित्यसमुत्पाद नामक ग्रंथ में  की गयी है। ऋषिपतनम् (सारना

POLICY OF RING FENCE ( रिंग फेंस की नीति )

रिंग फेंस की नीतिः- रिंग फेंस की नीति के तहत अंग्रेजो को यथा संभव प्रयत्न रहा कि  वे अपने मर्यादित घेरे मे रहे और उससे आगे वे नरेशों से परस्पर सम्बन्ध टालते रहे। कम्पनी की नीति का आधार अहस्तक्षेप और सीमित उत्तरदयित्व था। साधारणतया अंग्रेजो ने भारतीय नरेश राज्यों को स्वतंत्र मानते हुए उसके साथ व्यवहार किया और उस समय तक उनके आंतरिक और प्रशासिक मामलो में हस्तक्षेप नही किया जब तक कि उनके लिए ऐसा करना उनके हित की रक्षा के लिए आवश्यक नही बन गया। इसके पीछे कई कारण थे। राजनीतिक आवश्यकताओं के कारण कर्नाटक के राज्य को मैसूर रियासत के विरूद्ध और अवध रियासत को मराठों के विरूद्ध बफर राज्य के रूप् में रखा गया। इसके साथ ही कम्पनी के पास उस समय ने इतनी शक्ति थी और न ही इतने संसाधन उपलब्ध थे जिनके आधार पर वह भारतीय रियासतों से लड़कर उनको पराजित कर सके।     लेकिन अहस्तक्षेप की नीति का कठोरता से अनुशरण नहीं किया गया। तात्कालिक आवश्यकताओं  के अनुसार और गवर्नर जनरलों की वृत्तियों के अनुसार इस नीति में संशोधन किए गये। वारेन हेंस्टिग्स जो रिंग फेंस की नीति का निर्माता था, ने इस नीति का अनुशासन नही किया। बना

सन्थाल विद्रोह: सशस्त्र सेना के खिलाफ विश्वास और परम्परा की लड़ाई

संथाल विद्रोह :- आदिवासियों के विद्रोहों में संथालों का विद्रोह सबसे जबरदस्त था। भागलपुर से राजमहल के बीच का क्षेत्र ‘दामन-ए-कोह‘ के नाम से जाना जाता था। यह संथाल बहुल क्षेत्र था। इसके अतिरिक्त इसका फैलाव वीरभूमि, बाकुरा, सिंहभूमि, हजारीबाग और मुंगेर के जिलों तक था। यहाँ हजारों संथालों ने संगठित विद्रोह किया। विद्रोहियों ने गैर आदिवासियों को भगाने एवं उसकी सत्ता समाप्त कर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए जोरदार संघर्ष छेड़ा। संथाल विद्रोह को भड़काने में औपनिवेशिक शासन स्वरूप की अहम भूमिका थी। उत्तरी और पूर्वी भारत में कुछ ऐसे जमींदार और सुदखारों की चर्चा मिलती है जो आदिवासियों को पूरी तरह अपने चंगुल में दबाकर रखते थे। ये सूदखोर 50 से 500 प्रतिशत की दर पर पैसा उधार दिया करते थे। इसके लिए साहूकार दो तरीके अपनाते थे। एक तरफ ‘बड़ा बान‘ उनसे सामान लेने के लिए और दूसरी तरफ ‘छोटा बान‘ अपने सामान को देने के लिए। वे संथालों की जमीन भी हड़प लेते थे। जमींदारों के बिचौलिए भी निर्दयता से आदिवासियों का शोषण करते थे। यहाँ तक कि बंधुआ मजदूरी और रेललाइनों पर काम कर रही महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाने का

ब्लैकहोल की कहानी (STORY OF BLACK HOLE)

ब्लैकहोल की घटना बहुत ही रोचक और अदभुत है.ब्लैकहोल कहानी के रचयिता जे0 जेड हॉलवेल माने जाते है जो शेष जीवित 23 प्राप्तियों में से एक थे। इनके अनुसार युद्ध की आमप्रणाली के अनुसार अंग्रेजों बंदियों को जिसमें स्त्रियाँ और बच्चे भी शामिल थे, एक कहा में बंद कहा में बंद कर दिया गया। 118 फूट लम्बे और 14 फीट 10 इंच चौडे़ कक्ष में 146 कैदी बंद थे। 20 जून 1756 की रात्रि को ये बंद किए गये थे तथा अगले प्रातः उनमें से केवल 23 व्यक्ति ही जीवित बच पाये थे। शेष उस जून की गर्मी, घुटन तथा एक दूसरे से कुचले जाने से मर गये थे। इतिहासकारों द्वारा इस घटना को विशेष महत्व नहीं दिया गया है तथा समकालीन इतिहासकार गुलाम हुसैन ने अपनी पुस्तक सियार-उल-मुत्खैसि में इनका कोई उल्लेख नहीं किया है। परन्तु ईस्ट इंडिया कम्पनी ने इस घटना को नवाब की विरूद्ध लगभग 7 वर्ष तक चलते रहनेवाले आक्रामक युद्ध के लिए प्रचार का कारण बनाए रखा तथा अंग्रेजी जनता का समर्थन प्राप्त करने में सफल रहे। यह घटना इसके पश्चात होनेवाले प्रतिकार के लिए विशेष महत्व रखती है।