सन्थाल विद्रोह: सशस्त्र सेना के खिलाफ विश्वास और परम्परा की लड़ाई

संथाल विद्रोह :- आदिवासियों के विद्रोहों में संथालों का विद्रोह सबसे जबरदस्त था। भागलपुर से राजमहल के बीच का क्षेत्र ‘दामन-ए-कोह‘ के नाम से जाना जाता था। यह संथाल बहुल क्षेत्र था। इसके अतिरिक्त इसका फैलाव वीरभूमि, बाकुरा, सिंहभूमि, हजारीबाग और मुंगेर के जिलों तक था। यहाँ हजारों संथालों ने संगठित विद्रोह किया। विद्रोहियों ने गैर आदिवासियों को भगाने एवं उसकी सत्ता समाप्त कर अपनी सत्ता स्थापित करने के लिए जोरदार संघर्ष छेड़ा। संथाल विद्रोह को भड़काने में औपनिवेशिक शासन स्वरूप की अहम भूमिका थी। उत्तरी और पूर्वी भारत में कुछ ऐसे जमींदार और सुदखारों की चर्चा मिलती है जो आदिवासियों को पूरी तरह अपने चंगुल में दबाकर रखते थे। ये सूदखोर 50 से 500 प्रतिशत की दर पर पैसा उधार दिया करते थे। इसके लिए साहूकार दो तरीके अपनाते थे। एक तरफ ‘बड़ा बान‘ उनसे सामान लेने के लिए और दूसरी तरफ ‘छोटा बान‘ अपने सामान को देने के लिए। वे संथालों की जमीन भी हड़प लेते थे। जमींदारों के बिचौलिए भी निर्दयता से आदिवासियों का शोषण करते थे। यहाँ तक कि बंधुआ मजदूरी और रेललाइनों पर काम कर रही महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाने का भी उदाहरण मिलता है। इतना ही नहीं ये लोग संथालों से बेगार कराते थे। चोरी करना, झूठ बोलना और शराब पीना इनकी आदत सी बन गई थी।
    1854 तक आते-आते आदिवासियों में इन सबके विरूद्ध असंतोष की भावना पैदा होने लगी। इनके नेता (मुखिया) मजलिस और परिगणित बैठके करने लगे और बाहरी लोगों के विरूद्ध विद्रोह करने की तैयारियाँ शुरू हो गई। जमींदारों और सूदखोरों को लूटने की घटनाये कभी-कभार होने लगी। आदिवासियों ने खुलेआम यह घोषणा की कि उनके नये भगवान ने यह आदेश दिया है कि वे हर एक भैसवाले हल के लिए दो आना और हर एक गायवाले हल के लिए आधा आना की दर से सरकार को लगान दे। उन्होंने सूद की दर भी कम कर दी जो काफी कम थी। महाजनों पर हुए गुप्त हमलों के लिए संथालों को सजा दी जाने ल गी और उनके शोषकों पर भी किसी तरह का अंकुश नहीं लगाया गया। ऐसी स्थिति में 30 जून 1855 को भगनीडीह में 400 आदिवासी गाँवों के करीब छह हजार आदिवासी प्रतिनिधि इकट्ठे हुए और सभा की। एक स्वर से बाहरी लोगों को भगाने, विदेशियों का राज्य खत्म कर सतयुग का राज्य न्याय और धर्म का अपना राज्य स्थापित करने का निर्णय किया गया।
    संथालों का विश्वास था कि भगवान उनके साथ है। सीदो और कानू ने घोषणा की कि ठाकुर जी ने उन्हें निर्देश दिया है कि आजादी के लिए अब हथियार उठा लो। ठाकुर जी स्वयं हमारी तरफ से लड़ेंगे और सिपाही हमसे नहीं ठाकुर जी से लड़ेंगे। इन आदिवासियों ने ढ़ोल और नगाड़े के साथ जुलूस निकालकर पुरुषों एवं महिलाओं से संघर्ष का आह्वान करने लगे। इनके नेता हाथी, घोड़े और पालकी पर चलते थे। शीघ्र ही इन्होंने 60 हजार हथियारबंद संथालों को इकट्ठा कर लिया तथा हजारों को तैयार रहने के लिए कहा गया। नगाड़े की आवाज के साथ ही विद्रोहियों ने महाजनों और जमींदारों पर हमला करना शुरू कर दिया। उनके मकान जला डाले। पुलिस स्टेशन, रेलवे स्टेशन और डाक ढ़ोनेवाली गाड़ियों में आग लगा दी गई। इन्होंने लगभग उन सभी चीजों पर हमला किया जो दिकू और उपनिवेशवादी सत्ता के शोषण के माध्यम बने थे।
    आदिवासियों के संगठित विद्रोह को कुचलने के लिए सेना का सहारा लिया गया तथा मेजर जनरल के नेतृत्व में सेना की 10 टुकड़ियाँ भेजी गई। उपद्रवग्रस्त इलाकों में मार्शल लॉ लगा दिया गया और विद्रोही नेताओं को पकड़ने के लिए 10 हजार रुपये का इनाम घोषित किया गया। इन कार्यवाहियों में 15 हजार के लगभग संथाल मारे गये। अगस्त 1855 तक सिद्धों पकड़कर मार डाला गया। कान्हू को फरवरी 1886 तक ही पकड़ा जा सका। इस प्रकार, मुख्य रूप से यह विद्रोह महाजनों एवं व्यापारियों के खिलाफ था परन्तु बाद में पुलिस, अंग्रेज काश्तकार, रेलवे अभियंता और अधिकारियों के खिलाफ हो गया।

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