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जायसी और पद्मावत

 पद्मावत जायसी का सर्वप्रमुख एवं उच्चकोटि का महाकाव्य है। हिंदी साहित्य जगत में उनकी अक्षय कृति का आधार पद्मावत ही है। जायसी की पद्मावत तक हिंदी प्रेम काव्य परंपरा काफी प्रौढ़ हो गई थी ।जायसी ने सूफ़ी सिद्धांतों को भारतीय कथा में पिरोया और हिंदू हृदय को आकर्षित किया ।अब तक के सूफी कवियों की रचनाएं केवल कल्पना पर आधारित थी। जायसी ने  कल्पना के साथ-साथ ऐतिहासिक घटनाओं का समावेश भी किया है, चित्तौड़ के साथ अलाउद्दीन का संघर्ष होने के कारण पद्मावत का यथेष्ट प्रचार हुआ है। इस ग्रंथ की की रचना बाबर के शासनकाल में हिजरी संवत 947 में हुई थी, जैसा कि कहां गया है,_  सन नौ सौ सैंतालीस अहा।  कथा आरंभ बैन कवि कहा ।। इसमें तत्कालीन विषय, देश ,स्थिति के साथ ही सहिष्णुता, समन्वयात्मकता, साग्रह्य बुद्धि ,उदारता एवं सहानुभूतिशीलता का परिचय भी मिलता है  कवि ने इसमें सुदीर्घ काल से चली आ रही दो परस्पर विरोधी संस्कृतियों को मिटाकर सामाजिक  एकता पर बल दिया है। पद्मावत का कथानक तत्कालीन प्रचलित लोक कथा पर आधारित है। इसमें यत्र तत्र कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का समावेश भी किया गया है। पद...

सूर की आलंकारिक योजना

   उपमा कालिदासस्य संस्कृत में एक प्रचलित उक्ति है, लेकिन हिंदी में इस उक्ति को सूरदास जी ने हु-ब- हू चरितार्थ किया है, यह कहने में कहीं किसी को कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वास्तव में जहां सांगरुपकों के प्रयोग में गोस्वामी तुलसीदास, श्लेष के प्रयोग में सेनापति,अन्योक्ति के प्रयोग में दीनदयाल गिरि, परिसंख्या के प्रयोग में केशवदास का विशेष उल्लेख किया जाता है, वही उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकारों उनके प्रयोग में सुरदास की कुशलता की गणना बड़े गौरव के साथ की जा सकती है। सुरदास रस और ध्वनि के सिद्ध कवि है। अलंकार उनकी कविता में झूठे चमत्कार प्रदर्शन के लिए नहीं आए हैं।अपितु भाव की प्रभाववृद्धि के रूप में अलंकार का प्रयोग हुआ है। सूर्य अपने अलंकारों के उपमान प्रकृति से लिए हैं- मानव और मानवेत्तर  दोनों व्यापारों को वे प्राकृतिक उपमानों से ही सामने लाते हैं । भाव को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने के लिए सूर ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा और रूपकातिश्योक्ति जैसे अलंकारों का अधिक प्रयोग किया है। वस्तुतः सूर ने रूप- चित्रण के अंतर्गत अधिकतर उपमा, उत्प्रेक्षा और संदेह अलंकारों का प्रयोग किया...

भ्रमरगीत :एक उपालम्भ काव्य

 उपालंभ का शाब्दिक अर्थ होता है उलाहना देना । काव्य शास्त्र में आचार्यों ने उपालंभ को परिभाषित करते हुए लिखा है कि नायक को उलाहना देकर  नायिका के मनोनुकूल करना ही उपालंभ है। किंतु यह परिभाषा काव्य की अभिव्यक्ति  की दृष्टि से अत्यंत संकुचित है ।वास्तव में उपालंभ हमारी विशेष भाव स्थिति का परिणाम है .जो केवल श्रृंगार की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। इसका मुख्य  आधार नायक की शिकायतें है पर उसके मूल में प्रेमिका की अपनी सुखद कल्पनाएँ एवं स्मृतियाँ अंतर्निहित रहती है। उपालंभ में सच्ची न शिकायतें रहती है और ना प्रेमी के प्रति निंदा भाव। जैसा कि उपालंभ काव्य में आभासित होता है। इसका आधार गहरी आत्मीयता और प्रेम होता है। विरह की स्थिति में प्रेमी या प्रेमिका जब किसी सहचर या सहचरी को माध्यम बनाकर प्रेमिका या प्रेमी को अपनी शिकायतें सुनाता है तो यही उपालंभ की स्थिति बन जाती है। इस क्रम में प्रेम पात्र के प्रेम के विविध पक्ष सामने आते रहते हैं। उपालंभ के मूल में केंद्रीय भावना है मिलन की आशा अभिलाषा। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार” श्रृंगार रस का ऐसा सुंदर उपालंभ का भी दूसरा नह...

क्या सूर श्रंगार के श्रेष्ठ कवि हैं? भ्रमरगीत के आधार पर सुरदास के विरह श्रृंगार के विशिष्ट्य को निरूपित कीजिए।

 वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान। जो कवि संयोग से भी ज्यादा वियोग में रमने और डुबकी लगाने का ढूंढने का जोखिम उठाता है ;जो बिछोह की टीस और कचोट को तन्मयता के साथ वाणी  देता है, वही श्रृंगार का रससिद्ध कवि हो सकता है। सुर श्रृंगार के क्षेत्र में इसलिए आद्वितीय हैं कि उन्होंने वियोग की गरिमा की रक्षा करते हुए उसके हर पहलू को, हर दिशा को, हर त्रासद अनुभव को वाणी दी है। आचार्य शुक्ल जी कहते हैं “ वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्रों का जितना उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आंखों से किया है, उतना किसी और कवि ने नहीं। रसों के प्रवर्तक रतिभाव के भीतर की जितनी मानसिक वृतियों और दशाओं का अनुभव और प्रत्यक्षीकरण सूर कर सके, उतना और कोई नहीं। हिंदी साहित्य में श्रृंगार का रसराजत्व यदि किसी ने पूर्ण रूप से दिखाया है तो सुर ने दिखाया है।“  सुर की रचनाओं में वर्जनाओं से मुक्त स्वतंत्र नारी की छवि अंकित है। वियोग श्रृंगार में वह नारी समर्पण,एकनिष्ठता एवं स्वाभिमान से दीप्त होकर पहली बार पूरे भक्तिकाव्य में एक अलग पहचान बनाती है ।कृष्ण की याद में गोपियां तिल- तिल कर टूटती है, मरती है, पर अपन...

ब्रह्मराक्षस कविता का शिल्प

 ब्रह्मराक्षस का शिल्प ब्रह्मराक्षस, मुक्तिबोध की, अंधेरे के बाद; एक लंबी कविता है वह भी एक फैंटेसी के रूप में। फैंटेसी का इस्तेमाल पूराकथाओं, लोककथाओं और साहित्य में भी काफी मात्रा में हुआ है। ऐसी स्थिति में मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में धीरे-धीरे फेंटेसी के सहारे लिखना शुरू किया, जिसका आलोचकों ने काफी विरोध किया। अपनी कविता में उन्होंने फैंटेसी का इस्तेमाल कई रूपों में किया है। कहीं उसका स्पर्श हल्का है, कहीं बहुत गहरा। कभी कोई कविता पूरी फैंटेसी में होती है  तो उसके अंत में कवि उस पर फेंटेसी की एक कूची फेर देता है। ब्रह्मराक्षस और अंधेरे में इन दोनों कविताओं में फैन्टेसी के दो रूप देखने को मिलते हैं, अपने अनोखे अंदाज में। फेंटेसी वह तर्कहीन कल्पना है, जो सबसे ज्यादा स्वप्न से मिलती है। अंधेरे में की फैंटेसी ऐसी ही है।उसमें कविता की घटनाएं व्यवहारिक तर्क से परे जाकर घटती है, जिससे सब कुछ जादुई- जादुई सा लगता है, यद्यपि गहराई में उसमें विचार और तर्क की पद्धति बहुत सजग रूप से क्रियाशील रहती है ।यह सृजनात्मक फैंटेसी की विशेषता है। ‘ब्रह्मराक्षस’ की फैंटेसी बहुत कुछ है रूपात्मक ...

ब्रह्मराक्षस

 ‘अंधेरे में’ के बाद ‘ब्रह्मराक्षस’ मुक्तिबोध की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण लंबी कविता मानी गई है। आकार में यह कविता अपेक्षाकृत छोटी है, परंतु अपने स्वरूप में यह एक लंबी कविता की बानगी लिए हुए हैं ।शास्त्रों के अनुसार पापकर्म करने वाले ब्राह्मणों को मरने के बाद प्रेत योनि प्राप्त होती है और वही ब्रह्मराक्षस बनता है। मुक्तिबोध ने कविता में इसी मान्यता का भरपूर प्रयोग किया है और उसे एक फेंटेसी के रूप में निर्मित किया है। ब्रह्मराक्षस एक प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी की प्रेतात्मा है। यह इससे भी सिद्ध होता है कि वह काफी पढ़ा लिखा है। न केवल संस्कृत को जानता है बल्कि अनेक विधाओं की जानकारी उसे है। ऐसे बुद्धिजीवी या ब्राम्हण को प्रेत- योनि क्यों मिली? उसने कौन सा पाप किया था? इस कविता में मुक्तिबोध ने यही समझाने की कोशिश की है। ब्रह्मराक्षस जब मनुष्य के रूप में था, तो एक शोधक था, सत्य का अन्वेषक था. अपनी खोज को लेकर वह बहुत परेशान था, जैसे गणित की विकट समस्याओं में उलझा हुआ हो।वह उन समस्याओं का निदान नहीं ढ़ूढ सका और अंततः उन्हीं में  घुट कर मर गया । उसकी समस्त चिंताओं के साथ मुक्तिबोध...

भारत में समाचारपत्रों का इतिहास

  भारत में समाचारपत्रों का इतिहास भारत में सबसे पहले पुर्तगाली प्रेस लेकर आए थे तथा 1557 में गोवा के पादरियों ने पहली पुस्तक भारत में छपी थी। जेम्स आगस्टस हिक्की  ने 1780 ई. में पहला समाचार पत्र साप्ताहिक पत्र के रूप में बंगाल गजट या कोलकाता जनरल एडवाइजर के रूप में निकालना शुरू किया। उसके बाद इंडियन बर्ड का संपादन शुरू हुआ, जिसके संपादक डुएन थे ।1796 में मैकेनली ने टेलीग्राफ शुरू किया। 1799 देश में प्रकाशित सभी समाचारपत्रों पर सेंसर स्थापित कर दिया गया। सरकारी सहायता से प्रकाशित प्रथम पत्र 1784 इसवी में कोलकाता गजट था। बंगाल किरकारू के संपादक चार्ल्स मैक्लीन के विरुद्ध कार्यवाही की गई। 1818 में सेंसर खत्म कर दिया गया। नए नियम के अनुसार संपादक को इंग्लैंड में भारतीय अधिकारियों के आचरण पर आलोचना करने पर रोक लगा दिया गया ।कोलकाता मॉर्निंग पोस्ट (1798) आर्चीबोल्ड द्वारा प्रकाशित वेलेजली के समय में लागू समाचार पत्रों के सेंसरशिप अधिनियम का पालन करने वाला पहला समाचार पत्र था ।किसी भी भारतीय द्वारा अंग्रेजी में प्रकाशित है पहला समाचारपत्र गंगाधर भट्टाचार्य का सप्ताहिक बंगाल गजट था, ज...