ब्रह्मराक्षस

 ‘अंधेरे में’ के बाद ‘ब्रह्मराक्षस’ मुक्तिबोध की दूसरी सबसे महत्वपूर्ण लंबी कविता मानी गई है। आकार में यह कविता अपेक्षाकृत छोटी है, परंतु अपने स्वरूप में यह एक लंबी कविता की बानगी लिए हुए हैं ।शास्त्रों के अनुसार पापकर्म करने वाले ब्राह्मणों को मरने के बाद प्रेत योनि प्राप्त होती है और वही ब्रह्मराक्षस बनता है। मुक्तिबोध ने कविता में इसी मान्यता का भरपूर प्रयोग किया है और उसे एक फेंटेसी के रूप में निर्मित किया है। ब्रह्मराक्षस एक प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी की प्रेतात्मा है। यह इससे भी सिद्ध होता है कि वह काफी पढ़ा लिखा है। न केवल संस्कृत को जानता है बल्कि अनेक विधाओं की जानकारी उसे है। ऐसे बुद्धिजीवी या ब्राम्हण को प्रेत- योनि क्यों मिली? उसने कौन सा पाप किया था? इस कविता में मुक्तिबोध ने यही समझाने की कोशिश की है।

ब्रह्मराक्षस जब मनुष्य के रूप में था, तो एक शोधक था, सत्य का अन्वेषक था. अपनी खोज को लेकर वह बहुत परेशान था, जैसे गणित की विकट समस्याओं में उलझा हुआ हो।वह उन समस्याओं का निदान नहीं ढ़ूढ सका और अंततः उन्हीं में  घुट कर मर गया । उसकी समस्त चिंताओं के साथ मुक्तिबोध ने उसकी मृत्यु का वर्णन इस प्रकार किया है:-

“ सितारे आसमानी छोड़ से फैले हुए/ अनगिनत दशमलव से/ दशमलव- बिंदुओं के सर्वतः फैले हुए उलझे गणित मैदान में/ मारा गया, वह काम आया, और वह पसरा पड़ा है /वह बाहें खुली फैली/ एक शोधक  की।“

शोधक का मस्तिष्क आसमान औ तरह था ,जिसमें चारों ओर तारे बिखरे पड़े थे । वेव वस्तुतः दशमलव बिंदु थे। वह उसमें इस कदर उलझा की उनसे निकल नहीं सका। अब वह उन्हीं के बीच मृत पड़ा हुआ है । ‘अंधेरे में’ कविता में भी मुक्तिबोध ने काव्य नायक की मानसिक परेशानी का वर्णन किया है ।

शोधक की समस्या यह थी कि वह पूंजीवाद और समाजवाद में से समाजवाद को अंगीकार कर उसके अनुरूप अपने आदर्श व्यक्तित्व का निर्माण करना चाहता था। सामंती मूल्यों के विरुद्ध पूंजीवादी मूल्यों को स्वीकार करना अपेक्षाकृत सरल है ,कठिन है पूंजीवादी व्यक्तित्व को छोड़कर समाजवादी व्यक्तित्व की उपलब्धि ,क्योंकि समाजवाद के आदर्श पूंजीवाद की तुलना ऊंचे हैं। इसके अलावा वह कार्य जटिल भी है, क्योंकि उस व्यक्तित्व को, जो सामंतविरोधी पूंजीवाद की देन है, पूरा नहीं छोड़ा जा सकता। वह न संभव है, न अपेक्षित।स्वभावतः इस प्रयास में सफलता कम मिलती है, यद्यपि महान उद्देश्य से प्रेरित  प्रयास का फल होने के कारण वह आंशिक सफलता भी महत्वपूर्ण होती है और असफलता अधिक। यही बात मुक्तिबोध ने इन पंक्तियों में कही है:-

“ बुरे- अच्छे -बीच के संघर्ष/ से भी उग्रतर अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर/ गहन किन्चित सफलता अति भव्य असफलता।“

मुक्तिबोध ने यहाँ स्पष्ट शब्दों में सामंतवाद, पूंजीवाद और समाजवाद का उल्लेख तो नहीं किया है, लेकिन उनका आशय स्पष्ट है। यह वस्तुतः किन्चित भिन्न रूप में व्यक्तित्व निर्माण अथवा व्यक्तित्वान्तरण की समस्या है जो इससे पूर्व अंधेरे में कविता में भी एक महत्वपूर्ण समस्या के रूप में उभर कर सामने आई थी। शोधक की प्रतिक्रिया आर्थिक -सामाजिक व्यक्तिवाद यानी पूंजीवाद के विरुद्ध मानव मुक्ति और मानव गरिमा की भावना यानी समाजवाद से संचालित थी।उसी के अनुरूप वह अपने व्यक्तित्व को बदलना चाहता था और उसी के लिए अपने भीतर संघर्ष भी कर रहा था।उस संघर्ष में शोधक को सफलता नहीं मिली। उसने बहुत प्रयास किया कि उसके भाव और व्यवहार तथा विचार और कार्य के बीच सामंजस्य स्थापित जाय, उसका स्वप्न साकार हो जाए,  उसकी आकांक्षा फलीभूत हो, लेकिन वह हुआ नहीं ।मुक्तिबोध ने उसके व्यक्तित्व की कल्पना कोमल स्फटिकों से निर्मित एक प्रासाद के रूप में की है, जिसमें ऊंची सुनसान और खतरनाक सीढियां थी ।उसका आत्मसंघर्ष उन सीढिय़ों पर चढ़ने- उतरने की तरह था, जो कि एक मुश्किल और श्रमसाध्य काम था। लेकिन जिसे करने के लिए अभिशप्त भी था। वह चाहता था कि अपने चिंतन और कर्म के बीच गणित जैसा समीकरण स्थापित कर ले ,लेकिन वह अपने उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सका। मार्ग- निर्देश के लिए उसने गुरु की भी तलाश की, अनेक पंडित चिंतकों के पास भी मारा मारा फिरा, लेकिन उसे उसका अभीष्ट नहीं मिल सका ।

“उस भाव- तर्क व कार्य -सामंजस्य- योजन- शोध में/ सब पंडितों, सब चिंतकों के पास /वह गुरु प्राप्त करने के लिए भटका।।“

शोधक को कोई गुरु अथवा मार्ग निर्देशक इसलिए नहीं प्राप्त हो सका कि अब पहले वाला युग में नहीं रह गया था। मुक्तिबोध ने पूँजीवाद के विकास के साथ ज्ञान को पण्यवस्तु बनते देखा था ।अब गुरु लोग ज्ञान- दान नहीं करते थे। अपनी कृति की का व्यवसाय करते थे ।अब समाज में लाभ लोभ की सत्ता स्थापित हो गई थी। जिससे धन की वृद्धि हुई थी और उस धन ने, हृदय, मन और अंतःकरण सबको अभिभूत कर लिया था। धन से अभिभूत, अंतःकरण पैसे की ही महिमा बखानता था ।कहता था, वही सत्य है, लेकिन वह सत्य की झाईं यानी धोखा था। धन की चमक नहीं उसकी मरीचिका है। यह पंक्तियां बहुत ही ग्रंथिल है और मुक्तिबोध की ग्रंथिल व्यक्तित्व का उदाहरण उपस्थित करती है।

नए व्यक्तित्व के निर्माण में शोधक की असफलता का कारण उसकी गलत समझ थी। उसके भीतर अपने व्यक्तित्व का जो बोध था, उसे पूर्णतः छोड़कर वह हर तरह से सार्वजनिन व्यक्तित्व प्राप्त करना चाहता था। व्यक्तित्वान्तरण का मतलब व्यक्ति का व्यक्तित्व का विकास है, उसका परित्याग नहीं, लेकिन उसकी कोशिश आत्मचेतना को बिल्कुल झाडकर विश्व चेतना से युक्त होने की थी ।वह अपनी लघुता को महता के चरणों में एकदम से न्योछावर कर देना चाहता था। संभवतः वह एक गलत किस्म के द्वन्द में पड़ रहा था। प्राणमय अनबन यानी तीखा द्वन्द। इसी तरह बे-बनाव का मतलब है बिगाड़ यानी युद्ध! शोधक का अपनी आत्मचेतना से जो युद्ध चल रहा था ,वह विश्व चेतस्  होने की आकांक्षा के कारण। इसलिए शोधक के द्वन्द्व को गलत ठहराते हुए वे कहते हैं 

“मेरा उसी से उन दिनों होता मिलन यदि/ तो व्यथा उसकी स्वयं जीकर/ बताता मैं उसे उसका स्वयं का मूल्य/ उसकी महत्ता! व उस महत्ता का हम सरीखों के लिए उपयोग/ उस आंतरिकता का बताता मैं महत्व।“

इन पंक्तियों में शोधक विश्व की ही महत्ता मानता है, जबकि मुक्तिबोध व्यक्ति की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं। व्यक्तित्व का प्रत्येक व्यक्ति के लिए महत्व है, एक अच्छे समाजवादी के लिए शायद और अधिक। क्योंकि उसके अभाव में वह दुनिया को बदलने का काम नहीं कर सकता ।जैसा कि व्यक्तित्व का, निजस्वता का और आंतरिकता का आग्रह व्यक्तिवाद का आग्रह नहीं है। मुक्तिबोध के व्यक्तिवाद को समाजवादविरोधी कवियों का व्यक्तिवाद नहीं कहा जा सकता ।संकीर्णतावादी प्रगतिशील दौर में व्यक्तित्व विरोध नहीं मानते, बल्कि दोनों को एक दूसरे का सहायक माना जाता है।शोधक की ट्रैजिडी यही थी कि वह भीतर और बाहर के आत्म और विश्व के, संबंध को न समझकर उसके बीच के गलत संघर्ष में पिसता रहा:-“ पिस गया वह भीतरी औ बाहरी दो कठिन पाटों के बीच। ऐसी ट्रेजिडी है नीच।“

एक प्रकार से देखा जाए तो मुक्तिबोध ने ब्रह्मराक्षस कविता को दो खंडों में विभाजित किया है ।पहले खंड में कवि ने ब्रह्मराक्षस के प्रेतोचित व्यवहार का चित्रण किया है और दूसरे खंड में अपने पाठकों को उसकी ट्रैजिडी से परिचित कराया है। भूत- प्रेत के बारे में मान्यता है कि वे या तो वीरान जगहों में रहते हैं किसी पुराने वृक्ष पर या फिर किसी परित्यक्त तालाब या मकान में। ब्रह्मराक्षस का निवास स्थान शहर के बाहर के खंडहर की तरफ स्थित एक परित्यक्त तालाब है जिसके मुंडेर बंधी हुई है, यद्यपि वह एकाध जगह से टूटी पड़ी है ।उसी तालाब के वर्णन के साथ कविता का आरंभ होता है। तालाब बहुत गहरा है। उसकी अनेक सीढियां ठहरे हुए जल में डूबी हुई है। जल की थाह नहीं ली जा सकती, लेकिन उसे देखकर ऐसा लगता है कि वह अथाह है। कभी-कभी कोई बात समझ में नहीं आती, लेकिन इसका आभास मिल जाता है कि वह बहुत गहरी होगी। तालाब के जल के साथ भी कुछ ऐसा ही है। तालाब के चारों ओर गूलर के पेड़ है, चुपचाप निःशब्द खड़े हुए। उसके डालों से उल्लूओं के भूरे रंग के और गोलाकार घोंसलें यत्र -तत्र लटके दिख रहे हैं। जैसे तालाब परित्यक्त है, वैसे ही ये घोंसलें भी परित्यक्त ही जान पड़ते हैं। इस तरह वहां का वातावरण बहुत डरावना जान पड़ता है। मुक्तिबोध की कविताओं में ऐसे वातावरण का वर्णन प्रायः मिलता है।

 उस तालाब के इर्द-गिर्द एक बहुत और कच्ची गंध आ रही है। जंगली, हरी और कच्ची, पिछले सौ पुण्यों के आभास की तरह। उससे यह संदेह होता है कि वह कोई अज्ञात श्रेष्ठता न हो, जो अतीत की वस्तु बन चुकी है, लेकिन जिसे दिल भुला नहीं पाता, उसमें वह हमेशा एक खटके की तरह लगी रहती है।मुक्तिबोध की विशेषता यह है कि वह संघर्ष और तनाव से भरी हुई उनकी कविता के बीच -बीच में सुन्दर और मधुर स्थलों का भी निर्माण करते हैं ,जो उसके आकर्षण को बढ़ा देते हैं:- 

“बावड़ी की इन मुंडेरों पर 

मनोहरी हरी कुहनी टेक

 बैठी है टगर

ले पुष्प तारे श्वेत।“

हरी टहनियों और सफेद फूलों वाले टगर का युवती के रूप में एक संश्लिष्ट चित्र है। लेकिन यह दृश्य तालाब की भयोत्पादक निर्जनता  को बढ़ाता ही है, कम नहीं करता। टगर के पास ही कनेर के लाल फूलों का एक लहकता हुआ गुच्छा लटक रहा है। वह भी मन को बहुत आकर्षित करता है ,लेकिन उधर खतरा है, मुंडेर टूटी हुई है। उससे तालाब का मुंह खुल गया है, वह आसमान की तरफ ताक रहा है। इस स्थिति में कनेर के लाल फूलों का गुच्छा खतरे का सिग्नल बन जाता है। इस प्रकार मुक्तिबोध का चित्र एक तरफ सुन्दर है तो दूसरी तरफ भय उत्पन्न करनेवाला  है। यही सब देखकर एक आलोचक ने उनकी कविता को “भयानक खबर की कविता “कहा है।

तालाब के गहरे जल में पैठकर ब्रह्मराक्षस स्नान करता रहता है, वह डुबकी लगाता है, जिससे भीतर जल गूंज उठता है। बाहर उसकी अनुगूंज सुनाई पड़ती है ।उसके साथ बड़बड़ाहट के शब्द भी कानों में पड़ते हैं ,जैसे कोई पागल बोल रहा हो। ब्रह्मराक्षस को भ्रम है कि  उसका शरीर  गंदा है। उसी को साफ करने के लिए वह लगातार रात -दिन तालाब में अपनी देह रगड़ता रहता है ।उसके हाथ के पंजे पानी में छपा- छप करते हुए उसकी बांहों, छाती और मुंह को साफ करने के लिए चलते रहते हैं, लेकिन उसे लगता है कि उसका मैं छुटा नहीं है । मुक्तिबोध के अनुसार वह अपनी पाप-छाया दूर करने के लिए स्थान करता है ।यह देखकर डॉ रामविलास शर्मा ने यह घोषित कर दिया उन पर अस्तित्ववाद का प्रभाव था। कहते हैं ,"शहर से दूर खंडहर की तरफ परित्यक्त सूनी बावड़ी में एक ब्रह्मराक्षस रहता है। भीतर पागल की सी बड़बड़ाहट गूँजती रहती है ।तन की मलिनता और पाप की छाया दूर करने के लिए वह हाथ के पंजे, देह पर दिन-रात घिसता है ,फिर भी मैंल दूर नहीं होता। अस्तित्ववाद के पितामह पूर्व कीर्केगार्ड ने मनुष्य की भूलों, अपराध -भावना ,पाप संबंधी चेतना ,आत्म परिष्कार की तड़प ,आत्म संघर्ष द्वारा मुक्ति और ईश्वर प्राप्ति की संभावना पर बड़ा बल दिया है. इस प्रसंग में ध्यातव्य है कि पाप अनैतिक शब्द होते हुए भी मुक्तिबोध के लिए एक सामाजिक अर्थ देने वाला शब्द है ,जिसका प्रयोग उन्होंने अपनी कविताओं में ही नहीं, अपनी कहानियों में भी भरपूर किया है।

ब्रह्मराक्षस एक बुद्धिजीवी का प्रेत है ।इसलिए वह जब स्नान कर रहा होता है तो विचित्र प्रकार के स्त्रोत और मंत्र का पाठ करता होता है, कुछ क्रुद्ध होकर कई मंत्र उच्चारित करता है और मुंह से शुद्ध संस्कृत में धाराप्रवाह गालियां बकता है। कुछ सिद्धांतों को तोड़कर नए सिद्धांतों को का व्याख्यान करने लगता है ।सभी के सिद्धांतों का नया व्याख्यान करता, वह यहां सिद्धांतों को सिद्ध- अंतो को तोड़कर सिद्धांतों का व्यवहार किया गया है ।शब्दों के साथ ऐसा भी घटित होता है कि कभी-कभी निरंतर के प्रयोग से वह एक हद तक अपना अर्थगत पैनापन खो बैठते हैं,  शायद इसी आशय से कवि ने सिद्धांतों को अलग तरह से इस्तेमाल किया है। सिद्ध-अंतो का प्रयोग के निहितार्थ को पकड़ने के लिए एक नई किस्म के शब्द रूप से साक्षात्कार करवाने का लेखक का प्रयत्न  है ।उसके अर्थ को ग्रहण करने के लिए मुक्तिबोध का यह भी  अभीष्ट है कि पाठकों को कविता के द्वारा ब्रह्मराक्षस के वास्तविक स्वरूप से अवगत कराया जाए। लेकिन ब्रह्मराक्षस जब विभिन्न चिंतकों के सिद्धांतों की नई व्याख्या करता है तो उसके एकदम बदले व्यक्तित्व से साक्षात्कार होता है। उसके ललाट की रेखाओं को देखकर लगता है कि वह आलोचना की चमकती हुई रेखाएं हैं। वह अत्यंत क्षुब्ध , जैसे ढेर सारी चीजों की आलोचना करना चाहता है ।वह चूँँकि सामान्य मनुष्य नहीं है, इसलिए तालाब से निकलता नहीं, उसमें लगातार नहाता ही रहता है। वह कोई उज्जवल भावनाओं और सुंदर संवेदनावाला प्राणी नहीं है। उसके प्राण में संवेदना है ,स्याह।।“ मृत्यु के बाद प्रेत- योनि प्राप्त होने पर पूर्वोक्त साधक की यह स्वाभाविक परिणति है।वह असामान्य है , विकृत है, वह प्रेत या पिशाच है ।इसी से वह विचित्रतापूर्ण व्यवहार करता है। जब सूरज की किरण तालाब के जल में डूबी दीवार पर तिरछे गिरती है और उसके तल तक पहुंचती है,तो उसे लगता है कि सूर्य ने उसकी श्रेष्ठता स्वीकार कर उसे नमस्कार किया है । इसी तरह कभी चांदनी अपना रास्ता भूल कर तालाब की दीवार से टकराती है ,तो वह समझता है उसने भी उसे गुरु मानकर उसके आगे सिर झुकाया है।इस सबसे अत्यंत प्रसन्न वह आकाश को भी अपने चरणों पर विनत महसूस करता है ।मुक्तिबोध में वस्तुतः स्वतंत्र रूप से प्रकृति के चित्र नहीं आते ,लेकिन प्रसांगिक रूप में ही आते हैं तो अपनी पूरी शक्ति और सुंदरता के साथ।

अपनी महानता के प्रति आश्वस्त हो जाने के बाद ब्रह्मराक्षस और वेग से उस काले और पुराने तालाब के गहरे और एकांत जल में डुबकियां लगा लगाकर स्नान करने लगता है .उस क्रम में वह सुमेरी और बेबिलोनी जन कथाओं से लेकर ,वैदिक ऋचाओं तक की ,उस समय से लेकर आज तक  के सूत्रों, छंदों ,मंत्रों ,प्रमेयों की तथा मार्क्स, एंगेल्स, रसेल और टायएन्वी क से लेकर हाइडेगर, स्पेंग्लर, सार्त्र और गांधी तक के सिद्धांतों की नई यानी मनमानी व्याख्या करता है। वह ब्रह्मराक्षस जिसने इतिहास, लोक साहित्य, वेद पुराण ,शास्त्र, साहित्य, गणित ,दर्शन और राजनीति शास्त्र सब कुछ पढ़ा था।

ब्रह्मराक्षस द्वारा तालाब में लगातार नहाने और हिलकोरा मारने से तालाब उद्विग्न और विक्षुब्ध हो उठा था। उसकी विक्षुब्धता बहुत कुछ ब्रह्मराक्षस की मानसिक स्थिति का सूचक था:-

" ये गरजती, गुँजती ,आंदोलिता 

गहराइयों से उठ रही ध्वनियाँ, अतः 

उद्भ्रांत शब्दों को नए आवर्त में 

हर शब्द निज प्रतिशब्द को भी काटता ,

वह रूप अपने बिम्ब से ही जूझ

विकृताकार कृति है/ बन रहा ।

ध्वनि लड़ रही अपनी प्रतिध्वनि से यहां।“ 

गरजती ,गूँँजती और आंदोलिता जल की गहराइयों के ये विशेषण वर्ण्य वस्तु का बहुत ही सजीव चित्र उपस्थित करते हैं। टकराने से वे और विकृत हो जाते हैं। इस तरह ध्वनि के अपनी प्रतिध्वनि से लड़ने से वहां एक विचित्र कोलाहल उत्पन्न हो रहा ।

कविता के पहले खंड के अंत में मुक्तिबोध कहते हैं कि उस कोलाहल को मुंडेर पर अपनी कुहनी टेके टगर के फूल सुन रहेहै, करौंदी के फूल सुन रहे हैं, पुराना गूलर का पेड़ सुन रहा है। वह कोलाहल, वह ध्वनि- प्रतिध्वनि और उसका आपस में टकराव, वस्तुतः प्रतीकात्मक उपादान है। जिसके माध्यम से एक पागल, जिसका संबंध है उस पुराने तालाब से है, अपनी ट्रेजेडी बयान कर रहा है ।कविता के दूसरे खंड में भी उन्होंने कहा है कि” बावड़ी में वह स्वयं /पागल प्रतीकों में निरंतर कह रहा--------।“

कविता के दूसरे खंड में उक्त ट्रेजेडी का ही वर्णन है। ब्रह्मराक्षस जब मनुष्य योनि में था, शोधक के रूप में, तब वह बहुत परेशान था। सर्वप्रथम यहीं पर कवि ने उसके व्यक्तित्व की कल्पना एक प्रासाद के रूप में की है, जिसमें ऊंची और अंधेरी सीढियां थी। शोधक उन सीढ़ियों पर चढ़ता था और उतरता था, पुनः चढ़ता था और लुढ़क जाता था, जिससे उसके पैरों में मोच आ गई जाती थी और छाती पर अनेक घाव बन जाते थे। उसके भीतर चलने वाला तर्क- वितर्क था ,जिसमें वह क्षत- विक्षत हो जाता था। मुक्तिबोध ने रूपात्मक ढंग से इसका बहुत ही जीवंत वर्णन किया है:-

“ खूब ऊचा एक जीना सावला उसकी अंधेरी सीढ़ियाँ……..

वे एक अभ्यंतर निराले निराले लोक की /एक चढ़ना ’औ’ उतरना/ पुनः चढ़ना औ लुढ़कना/ मोच पैरों में/ व छाती पर अनेकों घाव।“

पूँजीवादी व्यक्तित्व को पूर्णतः छोड़कर ‘आदर्श समाजवादी’ व्यक्तित्व प्राप्त करने के संघर्ष में थोड़ी सफलता और अधिक असफलता मिलना अनिवार्य था, क्योंकि शोधक के आदर्श अतिरेकवादी थे। वह चाहता था कि नैतिकता के भव्य और सूक्ष्म प्रतिमान उतने सुनिश्चित हो, जितनी ज्यामिति शास्त्र की संगतियां और गणित की बातें। यह संभव न था, क्योंकि वे प्रतिमान किसी हद तक आत्मचेतन अर्थात मनोगत भी होते हैं, जिससे विज्ञान जैसी वस्तुपरकता उसमें नहीं आ सकती। लेकिन मनुष्य यदि वैसे प्रतिमान प्राप्त करने के लिए अपने भीतर संघर्ष कर रहा है, तो भले उस संघर्ष में सफलता पाना आसान ना हो, उसमें मिलनेवाली पीड़ा का निश्चित रूप से महत्व है। मुक्तिबोध ने इस संघर्ष -गाथा को मानवी अंतर्कथाएँ कहा हैं।ध्यान देने योग्य बात यह है कि शोधक के संघर्ष को गलत मानते हुए भी मुक्तिबोध उसके संघर्ष की सराहना करते हैं, और कहते हैं कि इसी तरह के संघर्ष की यह गाथा उसे प्रिय प्रतीत होती है। मानवी अंतर्कथाएँ बहुत प्यारी हैं। शोधक का संघर्ष विकट था। उसे एक पल चैन नहीं था। सूर्योदय उसे ऐसा लगता था, जैसे चिंता की रक्तधारा प्रवाहित हो उठी हो ।चंद्रमा उसे राहत देता था, जैसे वह उसके जख्मों पर सफेद पट्टियां बांध देता है। 

शोधक के संघर्ष के प्रति मुक्तिबोध प्रशंसा का भाव रखते हैं और उसके अतिरेकवादी होने ,आत्म और विश्व तथा भीतर और बाहर के संबंध की गलत समझ रखने या तथा व्यवहार क्षेत्र से दूर रहने के बावजूद उसका उपहास नहीं करते, बहुत ममता और पीड़ा के साथ उसकी मृत्यु पर कहते हैं:-

“ वह सघन झाड़ी के कंटीले/ तम विवर में/ मरे पक्षी सा/ विदा ही हो गया/ वह ज्योति अनजानी सदा को सो गई।“

 बड़े भारी मन से मुक्तिबोध कहते हैं कि शोधक इस दुनिया से चला गया, उसे किसी ने नहीं जाना, उसके संघर्ष से कोई परिचित न हुआ, क्योंकि वह अपने कमरे से कभी बाहर ही नहीं आया। वह एक ज्योति थी, जो सदा के लिए विलीन हो गई। लेकिन इससे भी महत्वपूर्ण कविता के अंत में मुक्तिबोध ने कुछ लोगों के लिए यह और चौंकाने वाली बात कही-

“ मैं ब्रह्मराक्षस का सजल- उर शिष्य/ होना चाहता। जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य/ उसकी वेदना का स्रोत; संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक/ पहुंचा सकूं।“

कवि ब्रह्मराक्षस का शिष्य होना चाहता है, उसी की तरह करुणा से आप्लावित, क्योंकि शोधक का लक्ष्य अपने समाज के लिए पूर्णतः अर्पित कर देना था, और उसके अधूरे कार्य को युक्तिसंगत परिणति तक ले जाना चाहता था। कहना आवश्यक नहीं है कि उसका वह अधूरा कार्य था, समाजवादी आदर्शों के अनुरूप व्यक्तित्व का निर्माण। कवि समझदारी के साथ इस कार्य को पूरा करना चाहता है, अपने व्यक्तित्व को वैसा बना कर ।वह यह भी कहता है कि शोधक को अपनी गलतियों के कारण अपने उद्देश्य से जो सफलता नहीं मिली, उसका कार्य जो अधूरा रह गया, उसी से वह मरने के बाद ब्रह्मराक्षस हुआ, उसका अधूरा कार्य ही उसकी संपूर्ण वेदना का स्रोत था, जिससे मनुष्य योनि में वह बेचैन रहा करता था।

अपनी कहानी ‘ ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ में मुक्तिबोध ने ब्रह्मराक्षस बनने की कहानी को उद्धृत किया है ।ब्रह्मराक्षस का पाप यह है कि जब वह मनुष्य योनि में था, उसने अपने द्वारा अर्जित ज्ञान को अपने तक ही सीमित रखा। इसी से मरने के बाद वह प्रेत हुआ। अब अपने शिष्य से वह कहता है कि “अपने जीवन में मैंने विश्व की समस्त विद्या को मथ डाला, किंतु दुर्भाग्य से कोई योग्य शिष्य नहीं मिल पाया कि जिसे मैं समस्त ज्ञान दे पाता। इसलिए मेरी आत्मा इस संसार में अटकी रह गई और मैं ब्रह्मराक्षस के रूप में यहाँ विद्यमान रहा।“ पुनः तुमने मेरा ज्ञान प्राप्त कर मेरी आत्मा को मुक्ति दिला दी। ज्ञान का लाया हुआ उत्तरदायित्व मैंने पूरा किया। अब मेरा यह उत्तरदायित्व तुम पर आ गया है। जब तक मेरा दिया हुआ तुम किसी और को ना दे दोगे  तब तक तुम्हारी मुक्ति नहीं ।कविता में भी अपने को समाज के लिए उत्सर्ग करने की बात है, यहां भी है। वैसा न करना भी पाप है, जो मरने के बाद मनुष्य के ब्रह्मराक्षस होने का कारण है। कविता जटिल है, क्योंकि उसमें नई व्यक्तित्व की उपलब्धि से जुड़ी और भी बातें हैं। कहानी सरल है। उनके कहानी- संग्रह ‘काठ का सपना’ की भूमिका में श्रीकांत वर्मा ने कहा है कि मुक्तिबोध स्वयं ही ब्रह्मराक्षस थे और स्वयं ब्रह्मराक्षस का शिष्य भी।अपनी एक अधूरी डायरी में स्वयं मुक्तिबोध ने भी लिखा है कि” मैं ब्रह्मराक्षस हूँ।“ अनादि काल से चला आया वह ब्रह्मराक्षस,जिसने हमेशा सही करने की कोशिश की और गलती करता चला गया।“उनका ब्रह्मराक्षस और उसका शिष्य एक साथ दोनों होना और पूर्णता से  अनके तर्क- वितर्क, अंतर्द्वंद और आत्मसंघर्ष को सामने लाता है। प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवियों के तर्क- वितर्क, अंतर्द्वंद और आत्म संघर्ष के साथ।



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