क्या सूर श्रंगार के श्रेष्ठ कवि हैं? भ्रमरगीत के आधार पर सुरदास के विरह श्रृंगार के विशिष्ट्य को निरूपित कीजिए।

 वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान। जो कवि संयोग से भी ज्यादा वियोग में रमने और डुबकी लगाने का ढूंढने का जोखिम उठाता है ;जो बिछोह की टीस और कचोट को तन्मयता के साथ वाणी  देता है, वही श्रृंगार का रससिद्ध कवि हो सकता है। सुर श्रृंगार के क्षेत्र में इसलिए आद्वितीय हैं कि उन्होंने वियोग की गरिमा की रक्षा करते हुए उसके हर पहलू को, हर दिशा को, हर त्रासद अनुभव को वाणी दी है। आचार्य शुक्ल जी कहते हैं “ वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्रों का जितना उद्घाटन सूर ने अपनी बंद आंखों से किया है, उतना किसी और कवि ने नहीं। रसों के प्रवर्तक रतिभाव के भीतर की जितनी मानसिक वृतियों और दशाओं का अनुभव और प्रत्यक्षीकरण सूर कर सके, उतना और कोई नहीं। हिंदी साहित्य में श्रृंगार का रसराजत्व यदि किसी ने पूर्ण रूप से दिखाया है तो सुर ने दिखाया है।“

 सुर की रचनाओं में वर्जनाओं से मुक्त स्वतंत्र नारी की छवि अंकित है। वियोग श्रृंगार में वह नारी समर्पण,एकनिष्ठता एवं स्वाभिमान से दीप्त होकर पहली बार पूरे भक्तिकाव्य में एक अलग पहचान बनाती है ।कृष्ण की याद में गोपियां तिल- तिल कर टूटती है, मरती है, पर अपनी प्रतिष्ठा दांव पर लगाकर गोकुल नहीं आने वाले कृष्ण से मिलने मथुरा नहीं जाती है। यह माननीय नारियां सामंती व्यवस्था में नारी अस्मिता को बनाये रखती है। गोपियों के प्रेमभाव की गंभीरता आगे चलकर उद्धव का ज्ञानगर्व मिटाते दिखाई पड़ती है। वह भक्ति की एकांत साधना का आदर्श प्रतिष्ठित करती हुई जान पड़ती है, लोकधर्म के किसी अंश का नहीं। सूरदास सच्चे प्रेममार्ग से त्याग और पवित्रता को ज्ञान मार्ग के त्याग और पवित्रता के समकक्ष रखने में खूब समर्थ हुए हैं, साथ ही उस त्याग को रागात्मिकता वृत्ति द्वारा  प्रेरित दिखाकर भक्तिमार्ग या प्रेम मार्ग की सुगमता भी प्रतिपादित की है।

संपूर्ण भक्ति काल के दौरान ज्ञान, योग और भक्ति का अद्भुत त्रिकोणात्मक संघर्ष चल रहा था। ज्ञानमार्गी और भक्तिमार्गी कवियों के इस संघर्ष में सूर ने भ्रमरगीत में उद्धव को ज्ञान और योग का प्रतीक मानते हुए गोपियों को प्रेम और भक्ति का प्रतीक माना है। भ्रमरगीत में उद्धव ज्ञान और योग का पक्ष प्रस्तुत करते हैं तो गोपियां प्रेम एवं भक्ति का। गोपियों का मन कृष्ण से लगा रहा है ।उनके प्रेम ने हर स्तर पर धैर्य की परीक्षा ली है। और वह खरा उतरा है,उनकी एकनिष्ठता भी अचूक है।उद्धव आते हैं तो गोपियों को फिर एक परीक्षा देनी पड़ती है।उद्धव गोपियों का सीधा सच्चा प्रेम लेकर योग देना चाहते हैं। गोपियां अदला-बदली के व्यापार से भलीभांति परिचित हैं। वे’योग ठगौरी ब्रज न बिकैहै’ कह कर इस प्रकार का व्यापार करने से अपने को बचा लेती है। पर उद्धव प्रेम को खोटा और योग को खरा बताते हुए उसे बेचने पर उतारू है। वे पुनः उद्धव के योग जाल को विछिन्न करने के लिए प्रेम की एकनिष्ठता का सहारा लेती है और कहती हैं:

“ उधो मन न भए दस बीस /एक हुतो सो गयो श्याम संग/ को अवराधै ईस।“

गोपियों के मन में हरिदर्शन की लालसा है और इधर उद्धव उपदेश देकर उसे शांत करना चाहते हैं। प्रेम की भूख को ज्ञान से मिटाना चाहते हैं। गोपियों का चित्त तो कृष्ण चुरा ले गए।अब वे किस चित्त का निरोध करें और किसे योग में लगाएं: “अखियां हरि दरसन को भूखी /कैसे रहे रूप रस रांची/ ये बतियाँ सुन रूखी ।“

उद्धव -गोपी प्रसंग में लाक्षणिक वक्रता की सफलता का राज माना गया है। गोपिया हजार बहानों से उद्धव को समझाना चाहती है, दुख की लकीरे खींच- खींचकर प्रेम का प्रकाशन करना चाहती है ।

सूर के विरह वर्णन में घटनाओं की विविधता नहीं है।कथ्य एकांगी है, किंतु कथन भंगिमा में वैविध्य लाने की कला में सूर अपराजेय है ।कृष्ण मथुरा गए और नहीं आए वह आज इतनी सी बात को शुरू गोपियों के मुख से राई का पहाड़ बनाकर पेश करते हैं उनकी गोपियां कभी' निसि दिन बरसत नैन हमारे 'कहती है और आंखों पर पावस ऋतु के उतर जाने का संकेत देती है ;तो कभी अश्रुवर्षा से पत्र के भींग जाने से के अंदेशे के कारण उसे न पढ़ पाने की असमर्थता जाहिर करती है। मानवीय अनुभूतियों को प्रकृति  में स्पंदित होते हुए भी दिखाने की काव्य रूढ़ि सी रही है। मनुष्य को लगता रहा है कि प्रकृति उसके सुख - दुख में रुचि लेती है ,सुख में हंसती और दुख में रोती है ।पश्चिमी आलोचक इसे पैथेटिक फैलेसी का नाम देते हैं ।अपनी कल्पना शक्ति का उपयोग करते हुए सूर एक ही प्रकृति में गोपियों की मनोदशाओं के अनुरूप भिन्न-भिन्न अर्थ आरोपित करते हुए चलते हैं ।एक समय वर्षा ऋतु में गोपियों को बादल बड़े भयावह लगते थे 'पिया बिनु सापिन काली रात और अब देखियत चहुँ दिसि ते घनघोरे/  मानौ मत्त मदन के हथियन/बल करि बंधन तोरे। यही बादल आगे चलकर जीवनदाई ही नजर आते हैं -

"बरु ये बदराऊ बरसन आए/तृण किए हरित,हरषि बेली मिली दादुर मृतक जिवाए।"

शुक्ला जी कहते हैं कि 'सुरदास जी का विरहा स्थल जिस प्रकार घर की चहारदीवारी के भीतर तक ही न रहकर यमुना के हरे- भरे कछारोंं, करील के कुंजों और वनस्थलि़यों तक फैला है उसीप्रकार उनका विरह वर्णन भी बैरन भाई रतियाँँ और सांपिन भई सेजिया 'तक ही सीमित न रहकर प्रकृति के खुले क्षेत्र के बीच दूर-दूर तक पहुंचता है। सुर काव्य में गोपियों की विरह की दो अवस्थाएं मिलती है -एक  प्रतीक्षा की और दूसरी निराशा की ।उद्धव के व्रज आगमन से पूर्व की अवस्था प्रतीक्षा की है और उसके बाद निराशा की। निराश विरह में ही गोपियां उद्धव की को जली कटी सुनाती है, कृष्ण को उलाहना देती है और कुबरी को कोसती है । उपालंभ विरह की एक सशक्त अभिव्यक्ति है। और तो और गोपियां कृष्ण की मुरली को भी अपने उपालंभ का विषय बना डालती है। कृष्ण पर भी संदेह करती हुई वे कहती है "ब्याहौं लाख धरौं दस कुबरी, अंत ही कान्हु  हमारौ।"यही विश्वास वियोग की रसात्मक अनुभूति  की सृष्टि करता है ,उपालंभ को एक नई ऊंचाई पर ले जाता है।

संयोग के दिनों की स्मृतियां ,गोपियों के लिए एक आश्वासन की तरह हैं। गोपियां जब यह जान जाती है कि कृष्ण अब शायद ही गोकुल आएंगे, तो वे अब मात्र यह चाहती है कि कृष्ण उन्हें याद करते रहे। टूटे हुए प्रेमी हृदय के संतोष का यह अत्यंत दृढ़ आधार है। जब गोपियाँँ कहती है कि' एक बास की लाज निबहियो, तब उनकी निरीहता छुपाए नहीं छुपती । वे कृष्ण के सनेह एवं सहानुभूति को जगाने के लिए साहचर्य के दिनों की याद दिलाती है। जब इससे भी उन्हें यह विश्वास नहीं होता है कि कृष्ण उन्हें स्मरण करेंगे तो ये उद्धव को नंद ,यशोदा और गायों की दयनीय अवस्था के संबंध में बताने लगती है ।दोनों का उद्देश्य एक ही है-" तुम कहियौ जैसे गोकुल आवै/ धेनु विकल अति चरति नहीं तृण, बच्छ न पीवन धावौ।"

सूर के वियोग वर्णन की पूर्णता की चर्चा करते हुए आचार्य शुक्ल ने कहा है कि" वियोग की जितनी भी अंतर्दशाएँ हो सकती है, जितने ढंगों से उन दशाओं का साहित्य में वर्णन हुआ है और सामान्यतः हो सकता है, वे सब उनके भीतर मौजूद है।" रीति आचार्यों ने विरह की ग्यारह अवस्थाओं की चर्चा की है ।सुर ने लगभग सभी अवस्थाओं का वर्णन किया है, लेकिन इन्हें रूढि़ मानकर नहीं ।सुर कालजई इसलिए हैं कि उनकी विरह श्रृंगार संबंधी रचनाएं ,दुख की अंतरंग अनुभूति से अच्छादित है वे पाठक के हृदय को उदात्त बनाते  समय कोई सीमा नहीं मानती।

शास्त्रीय दृष्टि से हृदय पक्ष और कला पक्ष के योग से ही कोई रचना महान बनती है ।इस दृष्टि से भी सूर काफी आगे बढ़ गए हैं। उनमें जयदेव और विद्यापति की गीतात्मकथा भी समन्वित रूप में उपस्थित हैं। उन्होंने अपने हर पद में सुर और लय की संगति का ख्याल रखा है ।संगीत की तमाम राग-रागिनियाँ उनके पदों में देखी जा सकती है। सूर ने रसराज श्रृंगार को गरीमा दी है तो अलंकारों को भी सौंदर्य की एक नई अर्थवत्ता दी है। उनके अलंकार, काव्य और चमत्कार को और बढ़ाते हैं ।सूर ने विप्रलम्भ श्रृंगार को उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आदि सादृश्यमूलक अलंकारों से रसासिक्त कर दिया है। पुराने उपमानों को कल्पना द्वारा किस तरह नए अर्थ भरे जा सकते हैं -यह सूर अच्छी तरह से जानते थे ।आलंकारिक कौतूहल और उपमानों के द्वारा कही उन्होंने अद्भुत और अनुपम बाग सजाया है, तो कहीं सारी उपमाओं को ही व्यर्थ करार दे दिया है।

 गोपियां इसी प्रकार वियोग से कुढ़ कर एक स्थान पर कृष्ण के अंगों के उपमानों को लेकर उपमा को न्यायसंगत ठहराया है।और दूसरी जगह"उधौ,अब यह समुझि भई /नंन्दनंदन के अंग-अंग प्रति उपमा न्याय दई।" श्रृंगार को रसराज माना गया है क्योंकि उसमें सुख-दुख के दोनों पक्ष हैं ।इसके द्वारा जीवन के पूर्ण अभिव्यक्ति संभव है। आचार्य शुक्ल श्रृंगार के सर्वश्रेष्ठ कवि के रूप में सुर की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हैं उनके अनुसार गोपियों का वियोग खाली बैठे का कोई काम सा दिखाई पड़ता है ।उसमें उपस्थिति की गंभीरता का अभाव है। लेकिन ध्यातव्य है कि गोपियां गाय दुहते समय ,मक्खन बिलोते समय ,दही बेचते हुए कृष्ण को स्मरण करती रहती हैं ।उनका प्रेम लोक- संस्कृत की  अपनी चीज है ,जिसमें समर्पण है तो मान -सम्मान भी है ।वे मथुरा नहीं जाती, इसलिए  नहीं कि वहां कृष्ण ने 16000 सौतों को पाल रखा है। कृष्ण कह कर नहीं आए यह भी उनके क्षोभ का बहुत बड़ा कारण है। भक्ति आंदोलन में सूर ऐसे कवि हैं जो बराबरी के प्रेम को अर्थ की एक नई जमीन देते हैं। उनकी राधा यदि कृष्ण प्रेम में बावली है तो गोकुल की अन्य गोपियाँ भी उसी धरातल पर प्रेम विह्वल हैं।  भ्रमरगीत में गोपियां नायिका है ,मात्र राधा नहीं ।इसके जरिए सूर ने पूरे नारी समूह को वह सम्मान और इज्जत प्रदान की जो सम्पूर्ण भक्ति काव्य में दृष्टिगोचर नहीं होता।जिन महिला सशक्तिकरण के पैरवीकारोंं ने एक -दो उद्धरणों के साथ पूरे भक्ति काल को कठघरे में खड़ा कर महिला उत्पीड़न का दौर बताया है उन्हें सूर के साहित्य का अवलोकन एक बार पुनः करने की आवश्यकता है।

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