भ्रमरगीत :एक उपालम्भ काव्य

 उपालंभ का शाब्दिक अर्थ होता है उलाहना देना । काव्य शास्त्र में आचार्यों ने उपालंभ को परिभाषित करते हुए लिखा है कि नायक को उलाहना देकर  नायिका के मनोनुकूल करना ही उपालंभ है। किंतु यह परिभाषा काव्य की अभिव्यक्ति  की दृष्टि से अत्यंत संकुचित है ।वास्तव में उपालंभ हमारी विशेष भाव स्थिति का परिणाम है .जो केवल श्रृंगार की सीमाओं में नहीं बांधा जा सकता। इसका मुख्य  आधार नायक की शिकायतें है पर उसके मूल में प्रेमिका की अपनी सुखद कल्पनाएँ एवं स्मृतियाँ अंतर्निहित रहती है। उपालंभ में सच्ची न शिकायतें रहती है और ना प्रेमी के प्रति निंदा भाव। जैसा कि उपालंभ काव्य में आभासित होता है। इसका आधार गहरी आत्मीयता और प्रेम होता है। विरह की स्थिति में प्रेमी या प्रेमिका जब किसी सहचर या सहचरी को माध्यम बनाकर प्रेमिका या प्रेमी को अपनी शिकायतें सुनाता है तो यही उपालंभ की स्थिति बन जाती है। इस क्रम में प्रेम पात्र के प्रेम के विविध पक्ष सामने आते रहते हैं। उपालंभ के मूल में केंद्रीय भावना है मिलन की आशा अभिलाषा।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार” श्रृंगार रस का ऐसा सुंदर उपालंभ का भी दूसरा नहीं है”। एक पद में गोपियां कहती हैं कि वे मधुबन के सभी लोग बुरे हैं और उन्हीं की संगति में कृष्ण ने दुख देनेवाला योग सीख लिया है। उद्धव यही योग लेकर ब्रिज आए हैं। आसन, ध्यान एवं आंख बंद करने की शिक्षा देते हैं। ऐसा करने से क्या गोपियों का दुख दूर हो जाएगा ?

सब खोटे मधुबन के लोग/ जिनके संग स्याम सुंदर सखि, सीखे हैं अपयोग।

एक दूसरे पद में गोपियां उलाहना देते हुए कहती हैं की मधुबन के लोगों पर कौन विश्वास करें ? उनके मुंह में कुछ और, हृदय में कुछ और है तथा पत्र में एक तीसरी बात लिख कर भेज देते हैं। गोपियां मथुरा के लोग और कृष्ण की उपमा कोयल और कौवे से देती है। कोयल के बच्चे को भाव ,भक्ति और भोजन कराकर कौवा पोसता है, किंतु बसंत ऋतु आते ही वह कूँ- कू कूँ करता हुआ, कौवे का साथ छोड़ कर चला जाता है और कोयलों की जमात में जाकर शामिल हो जाता है। रस का लोभी भंवरा एक कमल का रसपान करने के बाद दूसरे पर बैठ जाता है और पहले की सलामती का हाल भी नहीं पूछता। गोपियाँ कहती है कि जो सांवले शरीरवाले होते हैं उन से संबंध रखने में खतरा ही खतरा है ।

“मधुबन लोगनि को पतियाह

 मुख और अंतरगति औरे/ पतियां लिखि पठवत जुवनाई।“

 गोपियाँ कृष्ण को तो उलाहना का विषय बनाती ही है, उद्धव और संपूर्ण मथुरा को भी बनाती है।यह उपालंभ कृष्ण के प्रति उनके अथाह प्रेम का सूचक है। एक जगह कहती है कि कृष्ण हमारे मन को चुराने वाले हैं। उन्होंने अपने चंचल आंखों के किनारों को दबाकर मेरा मन चुरा लिया है। हृदय के अंदर प्रेम के बल पर उन्हें रोक रखा था, किंतु मुस्कुराहट की एक हल्की सी लकीर देकर बंधनों को छुड़ाकर मुक्त हो गए।

मधुकर स्याम हमारे चोर/ मन हरि लियो तनिक चितवन में/ चंचल नैन की ।

 ‘निर्गुण कौन देस को वासी,’ में गोपियां केवल निर्गुण के प्रति अपनी अनभिज्ञता ही प्रकट नहीं करती बल्कि उद्धव और उनके निर्गुण को उपहास का विषय बना देती है। इसी पद में यह कहकर कि हम लोग वास्तव में सही बात जानना चाहती हैं, हंसी मजाक नहीं, वे मजाक को और चुटीला बना देती है। सूर के उपालंभ में उद्धव के प्रति गोपियों का व्यंग या परिहास मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करता और इसी कारण वह इतना सरल एवं मधुर बन जाता है ।उपालंभ काव्य में हास्य का भी समुचित समावेश होता है।सूर के हास्य में एक शालीनता है। गोपियां करती हैं

“ आये जोग सिखावन पांडे।

 परमारथ पुराननि लावै, ज्यौ बनजारे टांडे।“

उद्धव और योग पर व्यंग करते हुए गोपियां कहती हैं कि उन्हें पंडों के समान ब्रज में योग सिखाने आए हैं। बंजारे, व्यापारियों के माल की तरह अध्यात्म आदि पुराणों का बोझ उठा रखा है ।योग उन नारियों को सिखाएं जिनके पति नहीं है, हमारे तो कमलनाथ श्री कृष्ण ही पति है और हमारे सहारे हैं। हम किसी अन्य का ध्यान नहीं कर सकते है। मधुकर, तुम ही कहो एक म्यान में दो तलवारें कैसे रह सकती हैं ? हम कृष्ण का ध्यान करने के साथ-साथ निर्गुण ब्रह्म को नहीं भज सकती. कोई भूखा व्यक्ति भी दूध, चावल आदि ना खा कर केवल हवा का पान करके कैसे रह सकता है?गोपियाँ कहती है कि जिस तरह खाली हुई नदी में नाव चलाना व्यर्थ है, वैसे ही प्रेम मार्ग द्वारा अनुभूत कृष्ण सुख वाली गोपियों को ब्रह्म का उपदेश देना व्यर्थ का भ्रम है। अपनी वास्तविकता बताएंगे तो हमें विश्वास होगा। आप करोड़ यत्न करके हमें योग और ध्यान की विधि समझाओ,पर हमें उस पर विश्वास नहीं होता। वह कहती हैं –“ वह मथुरा काजर की कोठरि जे आवहिं ते कारे /तुम कारे,सुफलख सूत कारे, कारे मधुप भँवारे।“



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