उन्नींसवीं शताब्दी के समाज सुधारकों का महिलाओं की स्थिति में सुधार के प्रति दृष्टिकोण
स्त्रियों की दासता और दोयम दर्जे की सामाजिक स्थिति का प्राचीन काल में साहसिक एवं तर्कपूर्ण प्रतिवाद किया गया था। मध्यकाल की शताब्दियों के लम्बे गतिरोध के दौर में स्त्री मुक्ति की वैचारिक पीठिका तैयार करने की दिशा में उद्यम लगभग रुके रहे और प्रतिरोध की धारा भी अत्यंत क्षीण रही। आधुनिक विश्व - इतिहास की ब्रह्मवेला में पुनर्जागरण काल के मानवतावाद और धर्मसुधार आन्दोलनों ने पितृसŸात्मकता की दारुण दासता के विरुद्ध स्त्री समुदाय में भी नई चेतना के बीज बोये जिनका प्रस्फुटन प्रबोधन काल में हुआ। जो देश औपनिवेशिक गुलामी के नीचे दबे होने के कारण मानवतावाद और तर्क बुद्धिवाद के नवोन्मेष से अप्रभावित रहे और जहाँ इतिहास की गति कुछ विलम्बित रही, वहॉँ भी राष्ट्रीय जागरण और मुक्ति संघर्ष के काल में स्त्री समुदाय में अपनी मुक्ति की नई चेतना संचारित हुई। हालाँकि उनकी अपनी इतिहासजनित विशिष्ट कमजोरियाँॅ थीं जो आज भी बनी हुई है और इन उŸार औपनिवेशिक समाजों में स्त्री आन्दोलन के वैचारिक सबलता और व्यापक आधार देने का काम किसी एक प्रबल वेगवाही सामाजिक झंझावात को आमंत्रण देने के दौरान ही पूरा किया जा सकता है। दो