Blue Water Policy
16 -17 वीं शताब्दी में पुर्तगालियों ने हिंद महासागर और दक्षिणी तट पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया था। इसके पीछे दो प्रमुख कारण थे, एक, एशियाई जहाजों की तुलना में उनकी नौसैनिकों की श्रेष्ठता और दूसरा भूमि पर कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण चौकियों की स्थापना, जो उसके जहाजी बेड़ों और व्यापारिक गतिविधियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण आधार का कार्य करती थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने स्थानीय लोगों को भी जीत कर लिया था, जिससे उन्हें काफी सहायता मिलती। पुर्तगालियों के नौसैनिक एवं व्यापारिक जहाजों के चालक तथा सैनिक प्रायः स्थानीय लोग हुआ करते थे। पड़ोसी राज्यों में राजदूत तथा जासूस भारतीयों को ही बना कर भेजा जाता था । उनके द्वारा उपलब्ध सूचनाएं अति महत्वपूर्ण होती थी। जिससे किसी आक्रमण को टालने या किसी शत्रु की दुर्बलताओ का आसानी से पता लगाया जा सकता था ।
हिंद महासागर पर नियंत्रण स्थापित करने में पुर्तगालियों ने युद्ध के अतिरिक्त कुशल रणनीति तथा कड़े व्यापारी पर नियंत्रण का सहारा लिया। इसके लिए उन्होंने अन्य देशों के साथ व्यापार करने पर कड़े प्रतिबंध लगाए। पुर्तगाल तथा गोवा से जारी निर्देशों और आज्ञप्तियों में कहा गया था कि मसालों के व्यापार पर पूर्णरूपेण पुर्तगाली सम्राट एवं उसके अभिकर्ताओं का ही अधिकार है। इस नीति का उल्लंघन करने वालों के साथ कड़ा बर्ताव किया जाएगा ।इस बात का भी प्रयास किया गया कि एशिया में सम्राट के अभिकर्ताओं तक ही सीमित रहे और यूरोप भेजे जाने वाले मसाले केवल पुर्तगाली जहाजों द्वारा आशा अंतरीप के मार्ग से ही भेजे जाए। एशिया में विभिन्न स्थानों के लिए जाने वाली समुद्री यात्राओं पर पुर्तगालियों ने एकाधिकार स्थापित कर रखा था ।इसके अनुसार विशेष वर्ष में विशेष जहाज ही इन देशों की यात्रा पर जा सकता था। ऐसे जहाजों में माल रखने का स्थान या वास्तविक मूल्य से बहुत अधिक मूल्य पर बेचा जाता था। इस प्रकार अधिकांश यात्राओं में सबसे ऊंची बोली लगने वाली वस्तुओं को ही बेचा जाता था।
पुर्तगालियों ने हिंद महासागर में होने वाले व्यापार को और अधिक नियंत्रित करने के लिए कर लगाने की व्यवस्था की थी। उन्होंने इसके लिए अपनी कार्टेज-आर्मेडा काफिला व्यवस्था की स्थापना की, जिसे ' ब्लू वाटर पॉलिसी' भी कहा जाता है ।इसके द्वारा आरंभिक एशियाई व्यापार पर गहरा प्रभाव डाला गया।उसका प्रमुख साधन कार्टेज या परमिट होता था ,जिसके पीछे आर्मेडा की शक्ति काम करती थी। पुर्तगाल अपने आप को सागर का स्वामी कहते थे। इस व्यवस्था के अनुसार कोई भी भारतीय या अरबी जहाज पुर्तगाली अधिकारियों के परमिट के बिना अरब सागर में प्रवेश नहीं पा सकता था। अरबी एवं भारतीय व्यापारियों को काली मिर्च एवं गोला बारूद ले जाने की अनुमति नहीं दी गई थी। निषिद्ध व्यापर में लगे होने के संदेह पर जहाजों की तलाशी ली सकते थी, जो जहाज तलाशी देने से इनकार करते थे, उन्हें युद्ध की खुली चुनौती मिलती थी और उनके सामान को युद्ध के बाद लूट का माल समझा जाता था और या तो उन्हें डूबा दिया जाता था या उन पर कब्जा कर लिया जाता था। उन पर सवार सभी स्त्री पुरुषों को अपना गुलाम बना लिया जाता । यह व्यवस्था सभी राज्यों पर समान रूप से लागू की गई थी। यहां तक कि एक बार तो मुगल सम्राट को भी सूरत से मोरवा जाने के लिए अपने जहाजों के लिए पुर्तगालियों से परमिट लेनी पड़ी थी।
कार्टेज के लिए व्यापारियों को शुल्क देनी पड़ती थी। पुर्तगालियों की आमदनी उस चुंगी शुल्क से होती थी जो हर एक जहाज को किसी दुर्ग से गुजरने पर देनी पड़ती थी। 16 वीं शताब्दी में व्यापार को अधिक नियंत्रित करने के लिए काफिला पद्धति का भी सहारा लिया गया। इसमें स्थानीय व्यापारी जहाज छोटा सा काफिला बनाते थे। जिसकी रक्षा के लिए पुर्तगालियों का बड़ा बेड़ा साथ-साथ चलता था, जिसका मुख्य उद्देश्य उसकी सुरक्षा करना था। संरक्षक बड़े के दो महत्वपूर्ण कार्य थे,एक छोटे जहाजों की समुद्री डाकुओं से रक्षा करना तथा दूसरा,यह सुनिश्चित करना कि इनमें से कोई भी जहाज पुर्तगाली व्यवस्था के बाहर जाकर अपना व्यापार न कर सके।
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