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Showing posts from February, 2015

हड़प्पा सभ्यता का भौगोलिक विस्तार

      भारत एवं पाकिस्तान के जिस क्षेत्र में कालान्तर में सिन्धु सभ्यता विकसित हुयी उसके आस-पास के क्षेत्रो में ताम्रपाषणकालीन संस्कृतियों के पुरातात्विक साक्ष्य मिलते है .कालक्रम की दृष्टि से ये संस्कृतियां सिधु सभ्यता की पूर्ववर्ती एवं अंशतः समकालीन थी.इन ग्रामीण संस्कृतियों को पाकिस्तानी विद्द्वान रफीक मुग़ल आरम्भिक हड़प्पा संस्कृति का नाम देते है .दक्षिणी अफगानिस्तान ,पाकिस्तान के बलूचिस्तान ,पूजब का पूरा इलाका ,सिंध,उत्तरी राजस्थान ,इस संस्कृति के आगोश में समाहित था.आरम्भिक हड़प्पा के प्रमुख स्थलों में मुंडीगाक (अफगानिस्तान),किली गुल्मुहम्मद ,कुली,मेही,डम्ब-सद्दात ,हड़प्पा (पाकिस्तान)और कोटदिजी ,कालीबंगन,बनवली,राखिगढ़ी(भारत)है.मृदभांडो और क्षेत्रीय विविधताओं के आधार पर प्राक-सैन्धव संस्कृति को कई संस्कृतियों में विभाजित किया गया है -जैसे क्वेटा संस्कृति,आमरी-नाल संस्कृति ,कुली संस्कृति ,जॉब संस्कृति और सोती संस्कृति आदि .           हड़प्पा सभ्यता के बारे में पहली बार चार्ल्स मैसन ने 1826 ई.में उल्लेख किया था.तत्पश्चात,1831 ई.एलेक्जेंडर बर्न्स ने यहाँ नगर के नदी वाले किनारे पर किले के ख

भारत में आदिम मानव भाग -3

ताम्रपाषण कालीन संस्कृतियों का जन्म पत्थर एवं ताम्बे के उपकरणों के साथ-साथ प्रयोग करने के कारण हुआ था.तकनिकी दृष्टि से ताम्रपाषण अवस्था हड़प्पा की कास्ययुगीन संस्कृति से पहले की है,पर कालक्रमानुसार भारत में हड़प्पा की कांस्य संस्कृति पहले आती है और अधिकांश ताम्रपाषण संस्कृतिया बाद में.भारत में ताम्रपाषण कालीन बस्तियां दक्षिण-पूर्वी राजस्थान ,मध्यप्रदेश के पश्चिमी भाग ,पश्चिमी महाराष्ट्र और दक्षिणी-पूर्वी भारत में पाई गयी है .दक्षिण-पूर्वी राजस्थान में प्रमुख खुदाई वाले स्थल है-गिलुण्ड एवं आहार .गिलुण्ड इस संस्कृति का स्थानीय केंद्र है.यहाँ ताम्बे के टुकड़े प्रचुर मात्र में मिले है .आहार जिसे तम्बावती भी कहा जाता है,के लोग शुरू से है धातु कर्म जानते थे.गणेश्वर (राजस्थान)से मिली कुछ ताम्बे की वस्तुएं सिन्धु स्थल से मिले वस्तुओं की आकृतिओं से मिलते -जुलते है .मिटटी की एक ऐसी पिण्डिका मिली है जो सिन्धु टाइप से मिलाती-जुलती है .गणेश्वर मुख्यतः हड़प्पा के लोगो को ताम्बे की वस्तुओं की आपूर्ति करता था   मध्यप्रदेश के पश्चिमी भाग के मालवा एवं कायथा की खुदाई हुयी है.मालवा मृदभांड को ताम्रपाषण संस्

भारत में आदिम मानव का विकास भाग -2

विश्व परिदृश्य में नवपाषण काल का उद्भव 9000 ई.पूर्व में हुआ था ,जबकि भारतीय महाद्वीप  के सन्दर्भ में नवपाषण काल का आरम्भ  7000 ई.पूर्व से माना जाता है .इस काल का प्राचीनतम पुरास्थल बलूचिस्तान स्थित मेहरगढ़ है .5000 ई. पूर्व के पहले यहाँ के लोग मृदभांड का प्रयोग नहीं करते थे .विन्ध्य क्षेत्र में नवपाषण कालीन बस्तियाँ 5000 ई.पूर्व तथा दक्षिण भारत में यह 2500 ई. पूर्व की है .इस युग के लोग पत्थर के औजार एवं हथियारों का प्रयोग करते थे खासकर पट्ठे की कुल्हाडियों का .कश्मीर से प्राप्त नवपाषण कालीन स्थलों में बुर्झोम एवं गुफ्फ्कराल विशेष रूप से उल्लेखनीय है.बुर्जहोम नामक पुरास्थल की खोज 1935 ई. में डी.टेरा एवं पीटरसन ने की थी .जबकि गुफ्फ्करल की खोज बाद के काल में 1981 ई.ए .के. शर्मा ने करवाई थी .कश्मीरी नवपाषण कालीन संस्कृति की कई विशेषताएं है;जैसे गर्त्तावास (गड्ढे में घर बनाकर रहना ),मृदभांड की विविधता ,तथा पत्थर एवं हड्डी के औजार .बुर्जहोम के लोग जमीन के नीचे घर बनाकर रहते थे तथा शिकार एवं मछली पर जीते थे.गुफ्फकराल ,जिसे कुम्हारों की गुहा भी कहा जाता है,के लोग कृषि एवं पशुपालन करते थे .बुर्

भारतीय संविधान का दर्शन

भारतीय संविधान का दर्शन 22 जनवरी 1947 ई. को जवाहरलाल नेहरु द्वारा संविधान सभा में प्रस्तुत उद्देश्य संकल्प में निहित है ,जिसे भारतीय संविधान की प्रस्तावना में रखा गया है.प्रस्तावना को न्यायलय के द्वारा लागु नहीं कराया जा सकता है.सर्वोच्च न्यायलय ने अपने अनेक निर्णयों में प्रस्तावना के महत्त्व एवं उपयोगिता पर प्रकाश डाला है विश्व के लगभग सभी लिखित संविधानों की प्रस्तावना में वे उद्देश्य लिखे जाते है ,जिसको देश में लागू करने के लिए संविधान की रचना की जाती है .प्रस्तवना को संविधान का आइना कहा जाता है .जहा सविधान की भाषा संदिग्ध होती है वहां प्रस्तावना ही संविधान के सम्यक निर्वचन में सहायता कराती है . संविधान की प्रस्तावना दो उद्देश्यों की सिद्धि करते है प्रथम;यह बताती है कि सविधान निर्माण के मुख्य स्रोत कौन-कौन से है द्वितीय ;सविधान किन उद्द्र्शयों से परिचालित है.      भारतीय संविधान की प्रस्तावना में 1976 ई. में 42वां संविधान संशोधन द्वारा उद्देश्यों में कुछ और तत्वों का समावेश किया गया . जो संविधान की प्रस्तावना अभी संविधान का अंग है ,वह इसप्रकार है-  हम भारत के लोग ,भारत को एक सम्पू

भारत में आदिम मानव

पृथ्वी को 400 करोड़ पुराना माना जाता है .इसकी चार अवस्थाएं हैं.अंतिम चौथी अवस्था को दो भागों - अतिनूतन [10लाख से 10 हजार वर्ष पूर्व तक ]तथा अद्यतन [10 हजार वर्ष से अब तक].मानव धरती पर अतिनूतन (प्लासटोसीन)काल के आरम्भ में पैदा हुआ था.इसी समय गाय,हाथी,घोडा भी पैदा हुए थे .संभवतः यह घटना अफ्रीका में 26 लाख वर्ष पूर्व हुयी होगी .आदिम मानव के जीवाश्म भारत में नहीं मिले है .मानव के प्राचीनतम अस्तित्व का संकेत द्वितीय हिमावर्तन काल के बताये गए संचयों में मिले है .इसका काल 2.5 लाख वर्ष रखा जा सकता है .लेकिन भारत के बोरी (महाराष्ट्र )नामक स्थल की खुदाई से प्राप्त नवीनतम जानकारी के अनुसार मानव का अस्तित्व 14लाख वर्ष पहले से माना जा सकता है.भारत में आदिम मानव ,जो वास्तव में नियेंडथल मानव की प्रजाति का था पत्थर के अनगढ़ और अपरिष्कृत औजारों का इस्तेमाल करता था .ऐसे औजार सिन्धु ,गंगा और यमुना के कछारी मैदानों का छोड़कर सरे भारत में पाए गए है .इस काल का मानव अपनी खाद्य समस्याओं को मुश्किल से ही सुलझा पाता था .खाद्य संग्रह सबसे प्रमुख तरीका शिकार था.                    अध्ययन की सुविधा के अनुसार प्रागै

स्वामी दयानंद सरस्वती

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                                                                    साभार :गूगल (केवल चित्र ) स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 को गुजरात प्रान्त के मौर्वी तहशील में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था . इनके पिता वेदों के प्रकांड विद्वान् थे .इन्होने शुरुआती दिनों में अपने पिता से ही शिक्षा प्राप्त की थी .समय से आगे की सोच रखनेवाले मूलशंकर की  हिन्दू धर्म की मूर्तिपूजा से विश्वास तब डिगा ,जब उन्होंने एक चूहे को भगवन पर चढ़े हुए अक्षत को खाते हुए देखा.21वर्ष की अवस्था में मूलशंकर ने अपना घर छोड़कर 1845 ई.में चल पड़े .1848 ई. में भ्रमण के क्रम में उनकी मुलाकात स्वामी पूर्णानंद से हुयी ,जिन्होंने उनका प्रसिद्द नाम दयानंद सरस्वती दिया.1861 ई. में मथुरा 15 वर्षों तक भटकने के बाद पहुचे ,जहा उनकी भेंट स्वामी सहजानंद से हुई. स्वामीजी ने दयानंद को वेदों की वास्तविक शिक्षा प्रदान की.उन्होंने अपने गुरु को वचन दिया की वे पुरे भारत में वैदिक धर्म और संस्कृति का प्रचार-प्रसार करेंगे .इसी क्रम में उन्होंने हरिद्वार में कुम्भ के अवसर पाखंड  खंडिनी  पताका फहरायी .वैदिक धर्म के उत्थान के लिए हरिद