भारतेंदुकालीन भारत में महिलाओं की दशा एवं दिशा
परम्परागत दृष्टि से स्त्री के प्रति व्यवस्था का रवैया निश्चित मानदडों एवं आदर्शां के नियत व्यवहारों से संचालित होता रहा है, जिसमें स्त्री को तय कर दी गई भूमिका में निर्धारित आचार-संहिता के अनुसार जीना है, जिनके निर्धारण का अधिकार शताब्दियों से पुरुषों ने अपने पास सुरक्षित रखा है। समय के बदलते तापमान में, बदलते सामाजिक संदर्भां में अपनी अधीनस्थ की भूमिका, शोषण, असमानता से मुक्ति के प्रयत्न एवं दोहरे मानदण्डों के बीच अपनी बदलती सामाजिक भूमिका के बावजूद स्त्री अस्मिता का प्रश्न जटिल से जटिलतर होता गया है। उसकी अधीनता की भूमिका असमानता को जन्म देती है, और शोषण के अवसर को व्यापक बना देती है। मानव विकासक्रम में यह ऐतिहासिक तथ्य सर्वोपरि है कि आदिम युग से लेकर आधुनिक काल तक परस्पर विरोधी वर्गोंवाली सभी सामाजिक संस्थाओं के समाज और परिवार में महिलाओं की स्थिति मातहत की रही है। समाज सदैव पुरुषों का रहा है, राजनीतिक सत्ता हमेशा पुरुषों के हाथ में रही है तथा स्त्री हमेशा अलगाव में रही है। सता सम्पत्तियोंऔर संतान से च्यूत स्त्री ‘वस्तु’ मात्र बनकर रह गई है। कभी उसे दैवी शक्ति प्रदान कर स