एज ऑफ कंसेंट अधिनियम की महत्ता और बालविवाह

उन्नीसवीं सदी के सुधारवादियों के लिए बालविवाह ऐसी समस्या थी जिससे वे सम्पूर्ण शताब्दी तक टकराते रहे। इस प्रश्न पर लगभग सभी सुधारकां ने चिंतन किया। अक्षयकुमार दŸा, ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, गोपालहरि देशमुख, वी0 एम0 मालावारी, रामकृष्ण परमहंस तथा उनके शिष्य विवेकानन्द; सभी ने अपने-अपने तरीके से इस समस्या का निदान ढूढ़ने का प्रयास किया। बालविवाह को अवरुद्व करने का प्रथम प्रयास औपनिवेशिक सरकार द्वारा 1829 ई0 में किया गया जब कम उम्र की लड़कियों के साथ संभोग को बलात्कार घोषित करते हुए मौत की सजा का प्रावधान किया गया। 1846 ई0 में विधि आयोग ने सिफारिश की थी कि 10 वर्ष से कम आयु की पत्नी के साथ यौन-सम्बन्धों का निषेध किया जाना चाहिए। इस सिफारिश को 1860 ई0 में सरकार ने स्वीकार करते हुए भारतीय दण्ड संहिता की धारा 366 के तहत व्यवस्था की कि 10 वर्ष से कम आयु की पत्नी के साथ यौन सम्बन्ध बनाना आपराधिक आक्रमण माना जाएगा।
1860 ई0 में विवाह के लिए रजामंदी की उम्र 10 वर्ष निर्धारित करनेवाला कानून बनने के बाद उन्नीसवीं सदी के उŸारार्द्व में बहरामजी मालावारी द्वारा इस मुद्दे को उठाए जाने तक बालविवाह के विरोध में कोई सशक्त आन्दोलन खड़ा नहीं किया जा सका। बालविवाह के समर्थकां की दलील थी कि बालविवाह के कारण ही भारत का आध्यात्मिक एवं भौतिक पतन हो रहा है या कि बालविवाह ही भारतीय मूल की कमजोरी के लिए जिम्मेदार है। उनका मानना था कि छोटी उम्र में विवाह होने से राष्ट्र की भौतिक शक्ति का ह्नास होता है। इसके कारण राष्ट्र की प्रगति एवं विकास तो अवरूद्ध होता ही है, यह लोगों के साहस एवं ऊर्जा को भी प्रभावित करता है। कम उम्र में हुआ विवाह समूची पीढ़ी को निर्बल एवं रुग्ण बना देता है। गोपालहरि देशमुख ने कहा कि जहॉँ तक बालविवाह का प्रश्न है जिसे मैं काफी खतरनाक मानता हूँॅ, यह एक ऐसी प्रथा है जो सम्पूर्ण राष्ट्र को कमजोर बनाती है। कच्ची उम्र में विवाह होने के कारण स्त्रियों के प्रजनन अंग ठीक से विकसित नहीं होते, उनको शिशु जन्म के समय अधिक कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है, कई बार अत्यधिक कष्ट के कारण उनकी मृत्यु तक हो जाती है। लघुवय की माताओं के बच्चों के सिर जन्म के समय ही दब जाने के कारण ऐसे बच्चे समय से पूर्व ही मर जाते है या दिमागी रुप से कमजोर होकर शेष जीवन मूर्खां की तरह व्यतीत करते है।
बालविवाह विरोधी आन्दोलन में ब्रह्यसमाजियों ने काफी दिलचस्पी दिखाई। बालविवाह का विरोध करते समय अक्षयकुमार दŸा ने अपनी बात के पक्ष में अतीत का हवाला देने या धार्मिक स्वीकृति की कोई खास परवाह नहीं की। उन्होंने जो तर्क प्रस्तुत किए वे मुख्यतया इस बात पर आधारित थे कि इन बातों का समाज पर क्या असर पड़ रहा है या पडे़गा। धर्मग्रंथों में दी गई व्यवस्थाओं का हवाला देने के बजाय उन्होंने बालविवाह के नुकसान के बारे में चिकित्सा विज्ञान के निष्कर्ष सामने रखे। विवाह एवं परिवार के बारे में उन्हांने बहुत ही आधुनिक विचारों को प्रस्तुत किया। उनके अनुसार विवाह से पूर्व लड़का-लड़की को एक-दूसरे से मिलने-जूलने की इजाजत हो, वैवाहिक जीवन का आधार पति- पत्नी की बराबरी और साझेदारी हो तथा तलाक कानूनी एवं परम्परागत दोनां तरीकों से हो।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने बालविवाह पर 1850 ई0 में अपना पहला निबन्ध ’बाल विवाहेर दोष‘ लिखा था। इसमें सिर्फ धर्मग्रंथों के उद्वरणों को सिलसिलेवार रखा गया है। इस निबंध में बालविवाह, जाति-बिरादरी द्वारा अल्प आयु में तय विवाह, वैवाहिक उत्पीड़न, शिक्षित महिलाआें के प्रति द्वेष एवं सामाजिक निषेध तथा आत्मसंयमित विधवापन के डरावने और विभत्स रूप पर तल्ख टिप्पणियाँॅ की गई है। बंगाल में प्रचलित विवाह संस्कार को उन्हांने प्रणय विवाह के विपरित माना। उनके अनुसार आदर्श विवाह वहीं हो सकता है जो वयस्क मस्तिष्क एवं शरीर के सम्मिलन पर आधारित हो। बालविवाह पर प्रतिबंध लगाने के लिए 1872 ई0 में नेटिव मैरिज अधिनियम पारित किया गया, यह एक बहुत बड़ा क्रांतिकारी कदम था। इसमें बहुविवाह पर प्रतिबंध, विवाहविच्छेद या तलाक को मान्यता और विवाह की उम्र बढ़ाये जाने की बात कही गई थी। यह अधिनियम सिर्फ ब्रह्यसमाजियों पर लागू होता था इसकी न्याय की सीमा में हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई एवं बौद्व नहीं आते थे। इसने विवाह के लिए जाति और धर्म की सीमाओं को सिरे से नकार दिया और विवाह की उम्र 10 से 12 वर्ष कर दी।23 इस अधिनियम के पारित होने के बाद हिन्दू धर्म में प्रचलित बालविवाह और पति की मृत्यु के बाद महिलाओं पर अंकुश लगाये जाने को लेकर भारत भर में बहसों का सिलसिला चल पड़ा। इस बहस में बहरामजी मालावारी के लेख ‘नोट्स ऑन इन्फैट मैरेज एण्ड इन्फोर्स्ड विडोहूड‘ से और तेजी आई जिसमें महिलाओं के सहवास की उम्र बढ़ाने के लिए एक संशोधन विधेयक लाने की वकालत की गई थी।24 1887 ई0 में इस बहस को और हवा मिली जब एक शिक्षित मराठी लड़की रूकमाबाई जो बढ़ई जाति से सम्बन्धित थी, अपने तपेदिकग्रस्त बीमार पति दादाजी के साथ जाने से इंकार कर दिया।25े
बी0 एम0 मालावारी ने बाल विवाह के प्रश्न को आर्थिक विषय बताते हुए इस विषय पर सरकार से जनता को संबोधित करने की अपील की थी। उनके अनुसार बालविवाह के कारण जनसंख्या में निरंतर वृद्वि हो रही है जो आिर्र्थक संवृद्वि दर को कम करते हुए आंतरिक संसाधनों को चट कर रही है। जिससे दरिद्रता को बढ़ावा मिला है। बालविवाह को आर्थिक पतन से जोड़ते हुए एम0 जी0 राणाडे ने इस प्रथा पर अविलम्ब रोक लगाने की याचना की थी। उनका मानना था कि बालविवाह से कमजोर नस्ल एवं प्रजाति के बालक पैदा होते है जिससे लगातार मानव संसाधन का ह्नास हो रहा है। अल्पवय में शादी होने से कम उम्र में ही लड़कियाँॅ माँॅ बन जाती है मॉँ और बच्चे के स्वास्थ्य में गिरावट आती है। युवाओं का ध्यान शिक्षा से हटकर आजीविका में लग जाता है अंततः देश की जनसंख्या के एक बड़े भाग के लिए रोटी का जुगाड़ करना मुश्किल हो जाता है, जिससे वे भूखमरी का शिकार हो जाते है। उन्होंने सरकार से अपील की कि भारतीय इस विषय पर भूतकाल में लगे प्रतिबंधों के कारण अपनी सहायता करने में असमर्थ है अतः सरकार को आवश्य हस्तक्षेप करना चाहिए। प्रजाति सम्बन्धी अवधारणा को आगे बढ़ाते हुए पाथेर प्रभु सुधार समिति के अध्यक्ष डॉ0 कीर्तिकर ने अपने दिए कई व्याख्यानों में कहा कि भारतीय महिलायें सिर्फ इसलिए शिक्षा की एकमात्र उŸाराधिकारिणी है कि वह भारतीय प्रजाति की मॉँ है उन्हें स्वास्थ्य एवं स्वास्थ्यवर्धक भोग्य की जानकारी आवश्य होनी चाहिए ताकि स्वस्थ एवं मजबूत बच्चों के जन्म को बढ़ावा मिल सके।
1890 में घटित फूलमनी की घटना ने विवाह की आयु बढ़ानेवाले समर्थकां के लिए उत्प्रेरक का कार्य किया। 11 वर्षीया बंगाली लड़की फूलमनी के साथ उसके पति हरिमैती ने, जिसकी उम्र 35 वर्ष थी, जबरदस्ती संभोग करते हुए उसे मौत के घाट उतार दिया। तत्कालीन कानून के अनुसार फूलमनी 10 वर्ष की आयु पूरी कर चुकी थी, जो सहवास की उम्र थी, इसलिए हरिमैती बलात्कार का आरोपी नहीं था। यह घटना बी0 एम0 मालावारी की उम्र बढ़ाने के अभियान को विशेष बल प्रदान करती थी कि सहवास की उम्र 10 वर्ष से बढ़ाकर 12 वर्ष किए जाने की उनकी माँॅग कितनी सार्थक थी। इन सब घटनाओं ने ब्रिटिश सरकार को बाध्य किया कि लड़कियों की उम्र बढ़ाये जाने के लिए एक समिति का गठन करें। इस समिति में प्रभावशाली ब्रिटिश नागरिक और आंग्ल भारतीय व्यक्ति शामिल किये गये जिन्होंने महिलाओं के साथ सहवास की उम्र बढ़ाये जाने की सिफारिश की थी।
बी0 एम0 मालावारी ने 1891 ई0 में भारतीय अपराध प्रक्रिया कानून संशोधन अधिनियम - 10 के लिए अभियान चलाया जिसके अनुसार भारतीय दण्ड प्रक्रिया 1860 की धारा 375 एवं हिन्दू विवाह कानून 1882 में संशोधन किया जाना था, जिससे विवाहित एवं अविवाहित लड़कियों के साथ सहवास की उम्र सीमा 10 वर्ष से बढ़ाकर 12 वर्ष कर दी जानी थी। 1860 के दण्ड प्रक्रिया में विधान था कि कोई पुरुष किसी स्त्री के साथ 10 वर्ष की उम्र के बाद ही शारीरिक सम्बन्ध बना सकता था। इससे पूर्व किया गया सहवास बलात्कार की श्रेणी में अपराध माना जायेगा और वह व्यक्ति दण्ड का भागी होगा। एज ऑफ कंसेन्ट बिल को 9 जनवरी 1891 ई0 को भारतीय गवर्नर जनरल की तरफ से आन्द्रे स्कोवेल ने कलकता में विधायिका सभा में प्रस्तुत किया था तथा इसी दिन इस बिल पर बहस भी शुरु हो गई। रमेशचन्द्र मित्र ने इस बहस में भाग लेते हुए हिन्दू परम्परा में हस्तक्षेप के आधार पर इसका कड़ा विरोध किया जबकि विधायिका सभा के एक अन्य सदस्य बम्बई के बहादुर कृष्णजी लक्ष्मण नलकर और महिला सामाजिक संस्थान के अध्यक्ष का सर्मथन इस बिल को प्राप्त हुआ। इन बहस में तिलक और अन्य हिन्दू कट्टरपंथियों ने इसका विरोध किया।26
महाराष्ट्र और बंगाल के बुद्विजीवियों ने इस बिल का तगड़ा विरोध किया। हिन्दू कट्टरपंथी और परम्परावादियों के अनुसार यह अधिनियम शक्तिशाली हिन्दू जनता को उद्वेलित करनेवाली थी। महाराष्ट्र में इस अधिनियम के विरोधियों का नेतृत्व बाल गंगाधर तिलक कर रहे थे जिन्हें पूना र्सावजनिक सभा के माध्यम से पुनरुत्थानवादियों का भरपूर सहयोग मिल रहा था।27 ये लोग हिन्दू ब्राह्यण और महाराष्ट्र के गौरव की बात कर रहे थे तथा जनता को इसके विरुद्व प्रदर्शन के लिए उकसा रहे थे। तिलक अधिनियम का विरोध इस आधार पर कर रहे थे कि यह हिन्दुओं का आंतरिक मामला है, अंग्रेजों का मामला नहीं है इसे हिन्दुओं को ही सुलझाना चाहिए। ’उन्हें हमारे धर्म, परम्परा एवं रीति-रिवाजों में दखल देने का कोई अधिकार नहीं है।’ इस अधिनियम का बंगाल में भी काफी विरोध हुआ तथा इसने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को विस्तार देने में महत्वर्पूण भूमिका निभाई।28
एज ऑफ कंसेंट बिल को महाराष्ट्र की नारीवादियों का अभूतपूर्व समर्थन प्राप्त हुआ। 1890 ई0 में बम्बई की महिलाओं द्वारा प्रथम मेमोरियल समारोह आयोजित किया गया जिसमें ब्रिटिश नारीवादियों की भी प्रमुख भागीदारी रही थी। इस समय इस बिल के समर्थन में महिलाओं की एक समिति कार्य कर रही थी जिसमें ब्रिटेन एवं महाराष्ट्र की प्रभावशाली महिलायें शामिल थी। ब्रिटिश सदस्यों में लेडी रे, डॉ0 पेचे फिप्सन तथा भारतीय सदस्यों में डॉ0 रुकमाबाई, पंडिता रमाबाई, रमाबाई रानाडे और रुकमाबाई मोदक प्रमुख थी। लंदन की नारीवादी संगठन ’मिलिसैंट फाउसेट इंडियन नेशनल एसोसियेशन’ लगातार सरकार पर दबाव बनाये हुए थी कि वह बिल को पारित कराने के पक्ष में निर्णय ले।
भारतीय महिलाओं के हस्ताक्षरयुक्त प्रथम स्मारपत्र 30 दिसम्बर 1890 को प्रस्तुत किया गया। लेकिन प्रथम स्मारपत्र का उŸार नहीं मिलने पर रुकमाबाई मंडोक एवं धावलीबाई सुकथांकेर जैसी महिलाओं के मन में विचार आया कि इसमें सहवास की उम्र 14 वर्ष रखने के कारण ही शायद ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा विचार नहीं किया गया है। अतः जब दूसरा स्मारपत्र भेजा गया तो उसमें सहवास की न्यूनतम आयु घटाकर 12 वर्ष कर दी गई थी। इसी प्रकार का एक स्मारपत्र आर्य महिला समिति की ओर से भी भेजा गया जिसपर 88 महिलाओं के हस्ताक्षर थे जिसमें 65 हिन्दू थी। पूणे के पारसी एवं एंग्लो इंडियन महिलाओं ने इस विषय पर एक अलग याचिका ब्रिटिश सरकार को सांपी थी। 23 फरवरी 1891 ई0 को 128 पारसी एवं 83 देशी ईसाई महिलाओं के हस्ताक्षरयुक्त एक चायिका गवर्नर जनरल को सुपूर्द की गई। इन सभी याचिकाओं की विषयवस्तु अलग - अलग थी। जहॉँ प्रथम स्मारपत्र में दंड प्रक्रिया संहिता की असंगतता एवं खामियों को उजागर किया गया था वहीं दूसरी याचिकाओं में उन समस्याओं को उठाया गया था, जो स्त्री जाति से सम्बन्धित थे। आर्य महिला समाज द्वारा प्रस्तुत दूसरी याचिका में 514 याचिकाकŸार्ओं ने बिल के विरोधी पुरुष सुधारकों से अपील की थी कि वे इस बिल का विरोध करना छोड़ दे तथा इसके पारित किए जाने में सहयोग करे। यह याचिका आर्य महिला समाज की सचिव घावलीबाई सुकथांकेर ने के0 एल0 नलकर को प्रदान किया था जिसका शीर्षक था ‘514 नैटीव का स्मारपत्र‘। इसप्रकार महिलाओं ने इस बिल के पक्ष में जिस प्रकार के तर्क, प्रदर्शन एवं सभाओं का आयोजन किया था उससे साफतौर पर साबित हो गया था कि यह एक राष्ट्रवादी या धार्मिक मुद्दा न होकर एक लैंगिक मुद्दा बन चुका है। एज ऑफ कंसेंट बिल पर द्वितीय वाचन मार्च 1891 ई0 में शुरु हुआ तथा 19 मार्च 1891 के दिन गवर्नर जनरल लांसडाउन के इस पर हस्ताक्षर होने के साथ ही ब्रिटिश भारत में लागू कर दिया गया। इस कानून को एज ऑफ कंसेंट कानून अधिनियम -10, 1891 के नाम से जाना जाता है। एक्ट के अनुसार लड़कियों के साथ सहवास की उम्र बढ़ाकर 10 वर्ष से 12 वर्ष कर दिया गया था। यह सभी अविवाहित एवं विवाहित लड़कियों पर लागू होनेवाला कानून था इस उम्र से कम आयु की लड़कियों के साथ लैंगिक व्यवहार को बलात्कार की श्रेणी में मानते हुए दंड का विधान किया गया था। यह कानून भारतीय दंड प्रक्रिया संहिता, भारतीय अपराध प्रक्रिया की धारा-375 और हिन्दू विवाह कानून 1882 में संशोधन कर बनाया गया था।
19वीं शताब्दी के ब्रिटिश भारत के सामाजिक विधायन के इतिहास में 1891 का एज ऑफ कंसेंट बिल एक मील का पत्थर है। यह लम्बे समय से चले आ रहे बहस का चरमोत्कर्ष था, जो वैवाहिक अधिकार के पुनर्स्थापन, तलाक और बालविवाह के मुद्दों पर विचार का केन्द्र बना हुआ था। इसमें सहवास की उम्र बढ़ाकर 10 से 12 वर्ष करने और इसे उल्लंघन को बलात्कार की संज्ञा देते हुए 10 वर्ष के कारावास या आजीवन देश निकाला जैसे दंड का प्रावधान इस बात का सूचक था कि बालविवाह के प्रति कडे़ कदम उठाए जा सकते है। प्रसिद्व समाजसुधारक एवं इतिहासविद् एस0 नटराजन के अनुसार यह कानून भारत में सुधार का अंतिम मापदंड था जिसने ब्रिटिश जनता की विचारधारा को काफी प्रभावित किया। यह सुधार का प्रथम कदम था जब भारतीयों ने वैचारिक तौर पर आवाज बुलन्द की, यह प्रथम अवसर था जब भारतीय नेताओं ने जनसमूह के नेतृत्व करने की क्षमता प्रदर्शित की तथा यह पहला ही अवसर था जब राजनीति और उसकी प्रतिक्रिया सफलतापूर्वक एक-दूसरे से जूड़े हुए थे।

Comments

  1. उस समय यह सुधार हर किसी धार्मिक संप्रदाय कि महिलाओं के हित में एक अच्छा कदम था।

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