हिंदी साहित्येतिहास लेखन की परम्परा

 हिंदी साहित्येतिहास लेखन की परम्परा:-

अतीत की घटनाओं के कालक्रम में संयोजित इतिवृत्त को इतिहास माना जाता है। किंतु इतिहास निर्जीव तथ्यों का संकलन मात्र नहीं है। वस्तुतः इतिहास माननीय विकास की जीवन्त प्रक्रिया है। इसमें दो तत्वों समाहित रहते हैं, एक ओर वर्तमान के बिंदु पर स्थित इतिहासकार होता है, दूसरी ओर अतीत के विस्तार में फैले हुए तथ्यों या घटनाओं का समूह होता है।ई.एच.कार ने  इतिहास की व्याख्या करते हुए लिखा है कि “इतिहास, इतिहास और उसके तथ्यों की क्रिया- प्रतिक्रिया की अनवरत प्रक्रिया है, अतीत और वर्तमान के बीच एक अंतहीन संवाद है।“

भारतीय आचार्यों ने इतिहास और साहित्य के आपसी संबंधों पर विचार करते हुए साहित्येतिहास के कुछ प्रतिमान निर्धारित किए हैं ।श्री नलिन विलोचन शर्मा ने कहा है कि” साहित्येतिहास भी अन्य प्रकार के इतिहासों की तरह कुछ विशिष्ट लेखकों और उनकी कृतियों का इतिहास ना होकर युग विशेष के लेखक का समूह की कृति समष्टि का इतिहास ही हो सकता है।“ गणपतिचंद्र गुप्त का मानना है कि” वास्तविकता यह है कि सृष्टि की कोई भी वस्तु ऐसी नहीं है जिसका इतिहास से संबंध न हो। अतः साहित्य भी इतिहास से असम्बद्ध नहीं है। साहित्य के इतिहास में हम प्राकृतिक घटनाओं व मानवीय क्रियाकलापों के स्थान पर साहित्यिक रचनाओं का अध्ययन ऐतिहासिक दृष्टि से करते हैं।“

हिंदी साहित्येतिहास लेखन का समारंभ किस ग्रंथ से माना जाए- यह विवाद का विषय है। कुछ विद्वान हिंदी साहित्येतिहास परंपरा का वास्तविक प्रारंभ 19वीं शताब्दी से ही मानते हैं। लेकिन इसकाल से पूर्व हिंदी में अनेक कवियों और लेखकों द्वारा अपने पूर्ववर्ती कवि और स्वयं के बारे में स्फुट संकेत के उदाहरण- ‘चौरासी वैष्णवन की वार्ता’  दो सौ बावन वैष्णव की वार्ता’ ‘भक्तमाल’ ‘कविमाला’ कालिदास हजारा आदि ग्रंथों में मिलते हैं। इनसे विभिन्न कवियों के जीवनवृत्त एवं कृतित्व का परिचय प्राप्त होता है।किन्तु इन ग्रंथों में कालक्रम,सन्-संवत का सर्वथा अभाव है। हिंदी साहित्य के इतिहास लेखन की परंपरा का सूत्रपात 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में गार्सा द तासी ने “इस्त्वार द ला लितरेत्यूर ऐन्दुई ऐ ऐन्दुस्तानी” नामक ग्रंथ में किया है। इसमें अकरादि क्रम से हिंदी और उर्दू के कवियों और लेखकों का विवरण दिया गया है। तासी ने  कवियों के रचनाकाल का निर्देश तो किया है ,किंतु काल- विभाजन और युगीन प्रवृत्तियों के विवेचन की दिशा में उन्होंने कोई प्रयास नहीं किया। हिंदी के रचनाकारों के साथ ही उर्दू के लेखकों और कवियों को भी स्थान देकर भाषागत घालमेल उनके इतिहास की गंभीर त्रुटि मानी जाती है। डॉ लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय ने इस ग्रंथ के कतिपय अंशों का हिंदी अनुवाद ‘हिंदुई साहित्य का इतिहास’ शीर्षक से किया है। इस ग्रंथ में हिंदी और उर्दू के 70 कवियों का विवरण वर्ण- क्रमानुसार किया गया है। साथ ही कवियों के रचनाकाल का भी परिचय दिया गया है। कवियों के कालक्रम के स्थान पर अंग्रेजी वर्ण वर्णक्रम पद्धति से रखना, काल -विभाजन तथा युगीन प्रवृत्तियों के विवेचन पर विचार न करना ,हिंदी कवियों के साथ दूसरी भाषाओं के कवियों को घुला- मिला देने के कारण यह इतिहास कम और कविवृत संग्रह अधिक बन गया है ।डॉ नलिन विलोचन शर्मा ने तासी को पहला साहित्य इतिहास लेखक स्वीकार किया है ।गणपतिचंद्र गुप्त ने तासी का मूल्यांकन करते हुए लिखा है कि” वस्तुतः किसी भी क्षेत्र में किए गए प्रारंभिक और प्राथमिक प्रयास का महत्व प्रायः उनकी उपलब्धियों की दृष्टि से नहीं अपितु नई दिशा की ओर अग्रसर होने की दृष्टि से ही माना जाना चाहिए। यह बात तासी के प्रयास पर भी लागू होती है।

1883 ई. में ‘शिव सिंह सरोज’ नामक ग्रंथ लिख कर  शिव सिंह सेंगर ने तासी के कार्य को आगे बढ़ाया। इस ग्रंथ में 1000 कवियों के जीवन चरित्र, उनका कविता काल तथा कवियों के नाम के साथ ही कविताओं के उद्धरण भी प्रस्तुत किए गए हैं। प्रस्तुत ग्रंथ का कृतियों की साहित्यिक विवेचना करने के प्रयास की दृष्टि से काफी महत्व है, जिसके कारण बहुत दिनों तक वह परवर्ती इतिहासकारों के लिए आधार ग्रंथ बना। इस ग्रंथ की कुछ अपनी सीमाएं हैं।

‘शिवसिंह सरोज’ को आधार बनाकर सन 1889 ई. में जॉर्ज ग्रियर्सन ने ‘दी मॉडर्न वर्नाकुलर लिटरेचर ऑफ हिंदुस्तान’ नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ को #हिंदी साहित्य का प्रथम इतिहास’शीर्षक से डॉक्टर किशोरी लाल गुप्त ने हिंदी में अनुवाद किया है ।ग्रियर्सन ने अपने ग्रंथ में कवियों और लेखकों का काल- क्रमानुसार वर्गीकरण करते हुए युगीन प्रवृत्तियों को भी स्पष्ट करने का प्रयास किया है। उन्होंने सामाजिक परिस्थितियों और काल विशेष की साहित्यिक विशेषताओं का उद्घाटन करते हुए हिंदी साहित्य का काल- विभाजन करने का सर्वप्रथम प्रयास किया। ग्रियर्सन ने पहली बार भाषा संबंधी अपनी धारणाओं को स्पष्ट करते हुए हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य के स्वरूप एवं विकास में वैज्ञानिक दृष्टिकोण का परिचय दिया। ग्रियर्सन के इतिहास की विशेषता ,काल- विभाजन है। हिंदी साहित्येतिहास में यह पहला ग्रंथ है जिसमें काल- विभाजन प्राप्त होता है। दूसरी उल्लेखनीय विशेषता यह है कि उन्होंने हिंदी साहित्य का भाषा की दृष्टि से क्षेत्र निर्धारित करते हुए संस्कृत, प्राकृत और उर्दू की रचनाओं को अपने ग्रंथ में स्थान दिया है।

ग्रियर्सन के पश्चात इतिहास लेखन का महत्वपूर्ण कार्य मिश्रबंधुओं ने किया। इन्होंने ‘मिश्रबंधुविनोद’ नामक ग्रंथ की रचना की। यह ग्रंथ चार भागों में विभक्त है, जिसमें प्रथम तीन भाग 1913 ई. में और आधुनिक काल नाम से चौथा भाग 1934 ई. में प्रकाशित हुआ। मिश्र बंधुओं ने स्वयं स्वीकार किया है कि “पहले हम ग्रंथ का नाम हिंदी साहित्य का इतिहास रखने वाले थे, परंतु इतिहास की गंभीरता पर विचार करने से ज्ञात हुआ था कि हममें साहित्य इतिहास लिखने की क्षमता नहीं है।“ किंतु मिश्रबंधुओं ने ऐतिहासिक सामग्री का उपयोग करके एक आदर्श इतिहास लिखने का प्रयास किया है ।इस ग्रंथ में हिंदी साहित्य को आठ कालों में विभाजित करके लगभग पाँच हजार कवियों को स्थान दिया गया है। इसमें आदिकाल से लेकर तत्कालीन साहित्यकारों के जीवनवृत्त और उनकी रचनाओं का मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया है। साथ ही अनेक नए कवियों को प्रकाश में लाने का श्रेय भी मित्रबंधुओं को प्राप्त है।

अधिकांश विद्वान हिंदी साहित्य इतिहास के सम्यक सटीक लेखन रामचंद्र शुक्ल से मानते हैं ।हिंदी साहित्य का इतिहास जो 1929  मेंं अपने मूल रूप में काशी नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित ,हिंदी शब्द सागर की भूमिका' के रूप में लिखा गया था। शुक्ल की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि उन्होंने पहली बार साहित्य इतिहास की सुनिश्चित और सम्पूर्ण परिभाषा दी और उसे क्रियान्वित करते हुए एक सुनियोजित साहित्येतिहास प्रस्तुत किया । शुक्ल जी ने प्नत्येक युग की राजनीतिक ,सामाजिक, सांप्रदायिक तथा धार्मिक परिस्थितियों को उस युग की जनता की चित्तवृत्तियों का स्रोत स्वीकार किया और युगीन जनमानस को तत्कालीन साहित्य का स्रोत माना। इसप्रकार एक कारण- कार्यमूलक वैज्ञानिक दृष्टि को उन्होंने अपने इतिहास लेखन का आधार बनाया।

लेकिन आचार्य शुक्ल के इतिहास लेखन की जहां विशेषताएं हैं ,वहां सीमाएं भी है ।आधुनिक शोधों से  प्राप्त नए तथ्यों एवं निष्कर्षों के आलोक में आचार्य शुक्ल के इतिहास  का अनुशीलन करने पर अनेक भ्रांतियों के दर्शन होते हैं। वीरगाथा काल के नामकरण, सामग्री और प्रवृत्तियों के विषय में आचार्य शुक्ल की मान्यताएं निराधार सिद्ध हो चुकी है। संतमत में इस्लाम के एकेश्वरवाद का प्रभाव देखना भी दृष्टि दोष का सूचक है। प्रेमाख्यान परंपरा को सूफी मनसवियों के अनुकरण के आधार पर रचित मानना भी असंगत और  भ्रांंतिपूर्ण है ।आचार्य शुक्ल की सबसे बड़ी उपलब्धि  है  उनका काल विभाजन। उन्होंने हिंदी साहित्य के 900 वर्षों के इतिहास को चार सुस्पष्ट काल खंडों में विभक्त किया है। काल खंडों का नामकरण भी किया है -वीरगाथा काल, पूर्व मध्य काल (भक्ति काल )उत्तर मध्य काल (रीतिकाल)   तथा आधुनिक काल (गद्यकाल )।शुक्ल जी ने अपने इतिहास में इतिहास साहित्यकारों के स्थूल इत्तिवृतों के स्थान पर उनकी रचनाओं के साहित्यिक मूल्यांकन पर अधिक बल दिया है।

आचार्य शुक्ल की समकालीन लेखकों में डॉक्टर श्यामसुंदर दास ने हिंदी साहित्य का इतिहास नामक ग्रंथ द्वारा लेखन परंपरा को आगे बढ़ाया ।इनकी विशिष्टता इस बात में है कि इन्होंने कवियों की अपेक्षा विभिन्न कालों की साहित्यिक प्रवृत्तियों को स्पष्ट करने का प्रयास किया है ।साहित्य के साथ ही उन्होंने राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक परिस्थितियों पर विशेष बल दिया है तथा इन्होंने हिंदी साहित्य  की मुख्य प्रवृत्तियों को खंडित रूप में  नहीं अपितु अविछिन्न रूप मेंं दिखाने का प्रयास किया।

आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने हिंदी साहित्य का अतीत तथा वांग्मय  विमर्श में साहित्य इतिहास संबंधी अपनी मान्यताओं को उद्घाटित किया है। हिंदी साहित्य का काल विभाजन कर उसे वीर काल, भक्ति काल, श्रृंगार काल और प्रेम काल आदि नामों में विभक्त किया है। आचार्य मिश्र की अनेक मान्यताएं ,आचार्य शुक्ल के इतिहास से मेल खाती है।

शुक्लोत्तर साहित्य इतिहास लेखकों में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के ग्रंथों का महत्व निर्विवाद है। आचार्य द्विवेदी ने इतिहास लेखन परंपरा में नवीन पद्धति का श्रीगणेश किया। वह बहुत कुछ अपने मूल रूप में बाद के इतिहासकारों को भी प्रभावित करती रही ।द्विवेदी जी ने सामाजिक इतिहास प्रणाली को अपनाकर हिंदी साहित्य की भूमिका लिखकर साहित्येतिहास परंपरा में नई दृष्टि, नई सामग्री और नई व्याख्या का सूत्रपात किया। साहित्य इतिहासकरोंं, साहित्यकारों और उनकी कलाकृतियों के वैयक्तिक विवेचन का मोह छोड़कर आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने हिंदी के विराट पुरुष ,उसके सामूहिक प्रभाव और साहित्येतिहास  के माध्यम से आती हुई अबाध हिंदी जाति की विचार -सारणी और भाव -परंपरा को स्पष्ट करने का प्रयास किया है ।आचार्य द्विवेदी ने हिंदी साहित्य के सम्यक् स्वरूप को उद्घाटित कर उसको भारतीय साहित्य के सहज एवं स्वाभाविक विकास के रूप में देखा है ।हिंदी साहित्य की भूमिका के अतिरिक्त द्विवेदी जी की इतिहास विषयक दो और पुस्तकें भी प्रकाश में आई है :-पहला ,हिंदी साहित्य: उद्भव और विकास, दूसरा हिंदी साहित्य का आदिकाल ।इन ग्रंथों में आचार्य द्विवेदी के विचार व्यवस्थित और पुष्ट रूप से प्राप्त होते हैं।

इन साहित्येतिहास इ लेखकों के अतिरिक्त कई परवर्ती लेखकों ने साहित्येतिहास  लिखने का महती कार्य किया है ।जिसमें श्री कृष्णशंकर शुक्ला (आधुनिक साहित्य का  इतिहास), डॉ रामकुमार वर्मा (हिंदी साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास ),डॉ लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय-आधुनिक हिंदी साहित्य और आधुनिक  हिंदी साहित्य की भूमिका, डॉ श्रीकृष्ण लाल -आधुनिक हिंदी साहित्य का विकास ,डॉक्टर भोलानाथ- हिंदी साहित्य, डॉक्टर बच्चन सिंह का आधुनिक हिंदी साहित्य, डॉक्टर गणपतिचंद्र गुप्त का हिंदी साहित्य का वैज्ञानिक इतिहास ,डॉक्टर नगेन्द्र का हिंदी साहित्य का इतिहास,डॉक्टर हरिश्चंद्र वर्मा का हिंदी साहित्य का आदिकाल एवं हिंदी साहित्य का इतिहास ,रामस्वरूप चतुर्वेदी का हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास तथा हुकुमचंद राज्यपाल का हिंदी साहित्य का इतिहास प्रमुख है। इसके अतिरिक्त अनेक ऐसे ग्रंथों की रचना हुई है जिसमें हिंदी साहित्य के इतिहास के किसी न किसी अंग पर प्रकाश डाला गया है।  साहित्येतिहास लेखन में प्रांतीय भाषा में भी सहित्येतिहास  भी प्रकाश में आ चुके हैं ।आज साहित्येतिहास लेखन में नवीन पद्धति और दृश्य को आत्मसात् करने पर बल दिया जा रहा है ,यह एक गतिशील लेखन प्रक्रिया है।


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