बौद्ध धर्म में आर्यसत्य
बौद्ध साहित्य में चार आर्यसत्य बताये गए है।1.दुःख 2.दुःख की उत्पत्ति के कारण 3.दुःख निवारण 4.दुःख निवारण के मार्ग।गौतम ने अपने शिष्यों को संबोधित करते हुए कहा था कि सभी संघातिक वस्तुओं का विनाश होता है,अपनी मुक्ति के लिए उत्साहपूर्वक प्रयत्न करो।उनके अनुसार,मनुष्य पाँच मनोदैहिक तत्वों का योग है -शरीर, भाव ,ज्ञान, मनःस्थिति और चेतना।गौतम बुद्ध ने शील ,समाधि और प्रज्ञा को दुःख निरोध का उपाय बतलाया है।शील का अर्थ सम्यक् आचरण, समाधि का सम्यक् ध्यान और प्रज्ञा का सम्यक् ज्ञान होता है।प्रज्ञा,शील और समाधि के अंतर्गत ही अष्टांगिक मार्ग अपनाये जाते है।
प्रज्ञा के अंतर्गत -सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्
शील के अंतर्गत - सम्यक् कर्मांत,सम्यक् आजीव
समाधि के अंतर्गत-सम्यक् स्मृति,सम्यक् व्यायाम, सम्यक् समाधि रखे गए है।अष्टांगिक मार्ग निम्नलिखित है:-
1.सम्यक् दृष्टि - वास्तविक स्वरूप का ध्यान।
2.सम्यक् संकल्प - आसक्ति,द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार।
3.सम्यक् वाक् - अप्रिय वचनों का सर्वथा त्याग ।
4.सम्यक् कर्मांत - दया, दान, सत्य ,अहिंसा आदि का अनुकरण।
5.सम्यक् आजीव - सदाचारसहित आजीविका का अनुशरण।
6.सम्यक् व्यायाम - नैतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए सतत प्रयत्न करते रहना।
7.सम्यक् स्मृति - मिथ्या धारणाओं का त्यागकर सच्ची धारणा ग्रहण करना।
8.सम्यक् समाधि - मन या चित की एकाग्रता।
बुद्ध ने मध्यमप्रतिपदा(तथागत मार्ग) अर्थात मध्यममार्ग अपनाने की शिक्षा दी थी।उन्होंने निर्वाण प्राप्ति के लिए सदाचार तथा नैतिकता पर आधारित दस शीलों पर सर्वाधिक बल दिया है।दस शील है:-1.अहिंसा 2.सत्य 3.अस्तेय 4.अपरिग्रह 5.ब्रह्मचर्य 6.व्याभिचार नहीं करना 7.मद्यनिषेध 8.असमय भोजन नहीं करना 9.सुखप्रद विस्तर पर नहीं सोना 10.स्त्रियों का संसर्ग नहीं करना।
बौद्ध धर्म साधना और कायाकलेशआत्मा में विश्वास नहीं करता।इच्छा द्वारा किया गया कार्य कर्म है।सशरीर मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है।बुद्ध के अनुसार मनुष्य पाँच मनोदैहिक तत्वों का योग है;शरीर,भाव ,ज्ञान ,मनःस्थिति एवं चेतना।जीवन विभिन्न अवस्थाओं की संतति है,जो एक दूसरे पर निर्भर करती है।किसी अवस्था की उत्पत्ति उसकी पूर्ववर्ती अवस्था से होती है।बुद्ध के अनुसार सभी दृश्यमान वस्तुएँ वास्तविक तथा शून्यता के बीच स्थित है।बौद्ध धर्म अस्तित्व को नहीं केवल रूप को स्वीकार करता है।यह वेदों की अपौरूषता एवं आत्मा की अमरता में विश्वास नहीं करता है।पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत में विश्वास करता है।बुद्ध द्वारा वैदिक अनुष्ठान,यज्ञीय कर्मकाण्ड,पशुबलि का जबरदस्त विरोध किया गया।उनकी दृष्टि में ज्ञान और नैतिकता दोनों आवश्यक थे।बुद्ध ने मध्यमप्रतिपदा (तथागत मार्ग) अर्थात मध्यमार्ग अपनाने की शिक्षा दी थी;जिसके अनुसार न तो अधिक विलास उचित है और न ही अधिक संयम।
प्रज्ञा के अंतर्गत -सम्यक् दृष्टि, सम्यक् संकल्प, सम्यक् वाक्
शील के अंतर्गत - सम्यक् कर्मांत,सम्यक् आजीव
समाधि के अंतर्गत-सम्यक् स्मृति,सम्यक् व्यायाम, सम्यक् समाधि रखे गए है।अष्टांगिक मार्ग निम्नलिखित है:-
1.सम्यक् दृष्टि - वास्तविक स्वरूप का ध्यान।
2.सम्यक् संकल्प - आसक्ति,द्वेष तथा हिंसा से मुक्त विचार।
3.सम्यक् वाक् - अप्रिय वचनों का सर्वथा त्याग ।
4.सम्यक् कर्मांत - दया, दान, सत्य ,अहिंसा आदि का अनुकरण।
5.सम्यक् आजीव - सदाचारसहित आजीविका का अनुशरण।
6.सम्यक् व्यायाम - नैतिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक उन्नति के लिए सतत प्रयत्न करते रहना।
7.सम्यक् स्मृति - मिथ्या धारणाओं का त्यागकर सच्ची धारणा ग्रहण करना।
8.सम्यक् समाधि - मन या चित की एकाग्रता।
बुद्ध ने मध्यमप्रतिपदा(तथागत मार्ग) अर्थात मध्यममार्ग अपनाने की शिक्षा दी थी।उन्होंने निर्वाण प्राप्ति के लिए सदाचार तथा नैतिकता पर आधारित दस शीलों पर सर्वाधिक बल दिया है।दस शील है:-1.अहिंसा 2.सत्य 3.अस्तेय 4.अपरिग्रह 5.ब्रह्मचर्य 6.व्याभिचार नहीं करना 7.मद्यनिषेध 8.असमय भोजन नहीं करना 9.सुखप्रद विस्तर पर नहीं सोना 10.स्त्रियों का संसर्ग नहीं करना।
बौद्ध धर्म साधना और कायाकलेशआत्मा में विश्वास नहीं करता।इच्छा द्वारा किया गया कार्य कर्म है।सशरीर मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है।बुद्ध के अनुसार मनुष्य पाँच मनोदैहिक तत्वों का योग है;शरीर,भाव ,ज्ञान ,मनःस्थिति एवं चेतना।जीवन विभिन्न अवस्थाओं की संतति है,जो एक दूसरे पर निर्भर करती है।किसी अवस्था की उत्पत्ति उसकी पूर्ववर्ती अवस्था से होती है।बुद्ध के अनुसार सभी दृश्यमान वस्तुएँ वास्तविक तथा शून्यता के बीच स्थित है।बौद्ध धर्म अस्तित्व को नहीं केवल रूप को स्वीकार करता है।यह वेदों की अपौरूषता एवं आत्मा की अमरता में विश्वास नहीं करता है।पुनर्जन्म और कर्म के सिद्धांत में विश्वास करता है।बुद्ध द्वारा वैदिक अनुष्ठान,यज्ञीय कर्मकाण्ड,पशुबलि का जबरदस्त विरोध किया गया।उनकी दृष्टि में ज्ञान और नैतिकता दोनों आवश्यक थे।बुद्ध ने मध्यमप्रतिपदा (तथागत मार्ग) अर्थात मध्यमार्ग अपनाने की शिक्षा दी थी;जिसके अनुसार न तो अधिक विलास उचित है और न ही अधिक संयम।
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