वफ़ादार बीबी की महबुबाना पेशकश - हुमायूं का मकबरा
सौजन्य :गूगल
दिल्ली स्थित हुमायु का मकबरा केवल भारत की भवन निर्माण कला का सुन्दर उदाहरण ही प्रस्तुत नहीं करता ,वरन मुग़ल स्थापत्यकला के विकास का परिचय भी प्रदान करता है। इसका निर्माण हुमायु की पत्नी हाजी बेगम की देखरेख में हुआ जबकि भवन के आयोजन को अकबर का समर्थन भी प्राप्त था। हाजी बेगम शेरशाह सूरी द्वारा भगाये जाने के बाद हुमायु के साथ शरण लेने फारस गयी थी और जिसने फारसी वास्तुकला के आदर्शो को आत्मसात किया था। मुग़ल बादशाह के प्रवास के परिणामस्वरूप फ़ारसी आदर्शो का भारतीय परिस्तिति में अंतरण हुआ। दोनों देशो की वास्तुकला की महँ परम्पराओ के मिलन के परिणामस्वरूप इस्लामी भारत की एक एक उल्लेखनीय इमारत का निर्माण हुआ। इसने आगे चलकर ,एक शताब्दी बाद तक शाहजहाँ के काल मे भी मुग़ल वास्तुकला को प्रभावित किया।
हुमायु के मकबरे का सर्वाधिक उल्लेखनीय पक्ष उसका भवन नहीं वर्ण सम्पूर्ण विशाल परिषर का खाका है। यह मकबरा पहले की मकबरो की भांति भूमि के एक बंजर टुकड़े पर नहीं खड़ा है अपितु उसके चारो और एक चारबाग की रचना की गयी है। इससे पूर्व भारत में उद्यान की कल्पना बहते पानी,और वृक्षों के रूप में की गयी थी। पहली बार इस मकबरे के चारो ओर मानव निर्मित ज्यामितीय चतुर्भुज आकर का उद्यान है जिसको चार चतुर्भुजों में विभाजित किया गया है। वृक्षों के कुञ्ज इसप्रकार बनाये गए है कि वृक्ष विशिष्ट स्थानों पर प्रहरी की भांति खड़े दिखाई देते है। इमारत के मुख्य अक्ष से बहती हुई पानी की नालियां बनाई गयी है जिनके बिच में बराबर दुरी पर फव्वारे लगे है तथा पक्की पगडंडियों के किनारे फूलो की क्यारिया है। जो घास के चतुर्भुज किनारो के सामान दीखती है। मकबरे के चारो ओर बहती पानी की चार नहरे बहिश्त की चार नदियों का सांकेतिक रूप है और इस उद्यान के मकबरा बहिश्त के भवन के सामान दिखाई देता है। पूर्व के लोदी काल के बने मकबरे शासको के लौकिक प[डी के सूचक थे ,लेकिन इसप्रकार के उद्यानों में बने मकबरो का आयोजन प्रतीकात्मक रूप में किया गया हैऔर मकबरों में दफ़नाए गए व्यक्तियों के दैवी स्वरूप की ओर संकेत किया गया है। इस प्रकार के भवनों की परंपरा में पहला भवन हुमायु का मकबरा है। इसपरम्परा की परिणति ताजमहल में हुई जो विश्व के आश्चर्यो में से एक है।
इस मकबरे का खाका हाजी बेगम के मुख्य वास्तुकार फरास के मिराक मिर्जा गयास ने बनाया जिसमे परंपरा के अनुसार एक कक्ष नहीं है। वर्ण एकाधिक अष्टभुजीय हाल हैजिसके बीच में एक हाल और चारो ओर चार कक्ष है। इस रचना की प्रेरणा फ़ारसी मॉडलों से ली गयी है। लेकिन साथ ही साथ यहाँ हिन्दू वास्तुकला की पंचरथ रैना से प्रेरणा ग्रहण करती दिखाई पड़ती है। बाहर चारो ओर दीवारों में छायादार तोरणिकाएँ और समतल स्थान है। सफ़ेद संगमरमर से बनाई गयी गुम्बद को पारम्परिक हिन्दू वास्तुकला के अनुसार कलश की शक्ल का नहीं बनाया गया हैअपितु शिखर को धातु स्तूपिका का रूप दिया गया है। पूरी ईमारत एक उद्यान के बीच एक उंच्चे चबूतरे पर बनायीं गयी है।ऐसा लगता है कि यह प्रेणना बिहार के सासाराम सहित शेरशाह के मकबरे से ली गयी है।मकबरा तराशे गए लाल पत्थर से बनाया गया हैजिसमे विपरीत रंग के सफद संगमरमर की नक्काशी की गयी है। इसमें किसी हदफ़ तक खिलजी और तुगलक तकनीक का प्रयोग किया गया है। प्राचीर के छज्जे और छतरिया शुद्द्तः भारतीय है है। इस प्रकार पुरे परिसर में फारसी और भारतीय परम्पराओं का सम्मिश्रण दिखाई देता है। जैसे-जैसे इस सम्मिश्रण का विकास भारतीय परिवेश में हुआ वैसे-वैसे यह शैली परिपक़्व होती गयी और एक सौ वर्ष के भीतर उसकी परिणति ताज में हुई।
दिल्ली स्थित हुमायु का मकबरा केवल भारत की भवन निर्माण कला का सुन्दर उदाहरण ही प्रस्तुत नहीं करता ,वरन मुग़ल स्थापत्यकला के विकास का परिचय भी प्रदान करता है। इसका निर्माण हुमायु की पत्नी हाजी बेगम की देखरेख में हुआ जबकि भवन के आयोजन को अकबर का समर्थन भी प्राप्त था। हाजी बेगम शेरशाह सूरी द्वारा भगाये जाने के बाद हुमायु के साथ शरण लेने फारस गयी थी और जिसने फारसी वास्तुकला के आदर्शो को आत्मसात किया था। मुग़ल बादशाह के प्रवास के परिणामस्वरूप फ़ारसी आदर्शो का भारतीय परिस्तिति में अंतरण हुआ। दोनों देशो की वास्तुकला की महँ परम्पराओ के मिलन के परिणामस्वरूप इस्लामी भारत की एक एक उल्लेखनीय इमारत का निर्माण हुआ। इसने आगे चलकर ,एक शताब्दी बाद तक शाहजहाँ के काल मे भी मुग़ल वास्तुकला को प्रभावित किया।
हुमायु के मकबरे का सर्वाधिक उल्लेखनीय पक्ष उसका भवन नहीं वर्ण सम्पूर्ण विशाल परिषर का खाका है। यह मकबरा पहले की मकबरो की भांति भूमि के एक बंजर टुकड़े पर नहीं खड़ा है अपितु उसके चारो और एक चारबाग की रचना की गयी है। इससे पूर्व भारत में उद्यान की कल्पना बहते पानी,और वृक्षों के रूप में की गयी थी। पहली बार इस मकबरे के चारो ओर मानव निर्मित ज्यामितीय चतुर्भुज आकर का उद्यान है जिसको चार चतुर्भुजों में विभाजित किया गया है। वृक्षों के कुञ्ज इसप्रकार बनाये गए है कि वृक्ष विशिष्ट स्थानों पर प्रहरी की भांति खड़े दिखाई देते है। इमारत के मुख्य अक्ष से बहती हुई पानी की नालियां बनाई गयी है जिनके बिच में बराबर दुरी पर फव्वारे लगे है तथा पक्की पगडंडियों के किनारे फूलो की क्यारिया है। जो घास के चतुर्भुज किनारो के सामान दीखती है। मकबरे के चारो ओर बहती पानी की चार नहरे बहिश्त की चार नदियों का सांकेतिक रूप है और इस उद्यान के मकबरा बहिश्त के भवन के सामान दिखाई देता है। पूर्व के लोदी काल के बने मकबरे शासको के लौकिक प[डी के सूचक थे ,लेकिन इसप्रकार के उद्यानों में बने मकबरो का आयोजन प्रतीकात्मक रूप में किया गया हैऔर मकबरों में दफ़नाए गए व्यक्तियों के दैवी स्वरूप की ओर संकेत किया गया है। इस प्रकार के भवनों की परंपरा में पहला भवन हुमायु का मकबरा है। इसपरम्परा की परिणति ताजमहल में हुई जो विश्व के आश्चर्यो में से एक है।
इस मकबरे का खाका हाजी बेगम के मुख्य वास्तुकार फरास के मिराक मिर्जा गयास ने बनाया जिसमे परंपरा के अनुसार एक कक्ष नहीं है। वर्ण एकाधिक अष्टभुजीय हाल हैजिसके बीच में एक हाल और चारो ओर चार कक्ष है। इस रचना की प्रेरणा फ़ारसी मॉडलों से ली गयी है। लेकिन साथ ही साथ यहाँ हिन्दू वास्तुकला की पंचरथ रैना से प्रेरणा ग्रहण करती दिखाई पड़ती है। बाहर चारो ओर दीवारों में छायादार तोरणिकाएँ और समतल स्थान है। सफ़ेद संगमरमर से बनाई गयी गुम्बद को पारम्परिक हिन्दू वास्तुकला के अनुसार कलश की शक्ल का नहीं बनाया गया हैअपितु शिखर को धातु स्तूपिका का रूप दिया गया है। पूरी ईमारत एक उद्यान के बीच एक उंच्चे चबूतरे पर बनायीं गयी है।ऐसा लगता है कि यह प्रेणना बिहार के सासाराम सहित शेरशाह के मकबरे से ली गयी है।मकबरा तराशे गए लाल पत्थर से बनाया गया हैजिसमे विपरीत रंग के सफद संगमरमर की नक्काशी की गयी है। इसमें किसी हदफ़ तक खिलजी और तुगलक तकनीक का प्रयोग किया गया है। प्राचीर के छज्जे और छतरिया शुद्द्तः भारतीय है है। इस प्रकार पुरे परिसर में फारसी और भारतीय परम्पराओं का सम्मिश्रण दिखाई देता है। जैसे-जैसे इस सम्मिश्रण का विकास भारतीय परिवेश में हुआ वैसे-वैसे यह शैली परिपक़्व होती गयी और एक सौ वर्ष के भीतर उसकी परिणति ताज में हुई।
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