प्रशासनिक एंव न्यायिक सुधार


भारत में सिविल सेवा की शुरूआत 1773 ई0 के रेग्यूलेटिंग एक्ट से मानी जाती है। वारेन हेस्टिंग्स के समय से कम्पनी में लोक सेवाओं का रूप नौकरशाही नुमा होने लगी। व्यापार के अतिरिक्त लोकसेवकों का कार्य राजस्व एकत्र करना, शौति और सुव्यवस्था स्थापित करना तथा भारतीयों पर राज करने का हो गया। 1772 में जिला कलक्टर का पद श्रृजित हुआ जो 1773 ई0 में ही समाप्त कर दिया गयां राल्फ शेल्डन की प्रथम जिला कलक्टर के रूप् में नियुक्ति हुई थी। 1786 में जिला राजस्व इकाई बनाया गया तथा 1787 मे राजस्व एवं उनकायक का कार्य संयुक्त करके जिला कलक्टर नियुक्त किया जाने लगां। 1784 के पिट्स इंडिया कानूसन के द्वारा कम्पनी के राजनीतिक तथा व्यापारिक कार्यकलाप अलग अलग कर दिया गये। 1833 के अधिनियम द्वारा लोक सेवाओं की अर्हता का निर्धारण किया गया। जिसमें कहा गया था कि कोई भी भारतीय केवल धर्म जन्म स्थान, वंश या वर्ग के आधार पर सरकारी सेवा के लिए अयोग्य नहीं समझा जाएगा।
    भारत में सिविल सेंवा का जन्मादाता कार्नवालिस को माना जाता है। वह प्रशासन को स्वच्छ बनाने के लिए दृढं संकल्प का उसने जिला कलक्टर का वेतन बढ़कर 1500 रूपया प्रतिमाह कर दिया। इसके अतिरिक्त उसे अपने जिले की कुल वसूल की गई रकम का एक प्रतिशत दिया जाता तय किया कार्नवालिस ने यह भी निर्धारित किया कि नागरिक सेवा में पदोलति वरिष्ठता के आधार परा होगी जिससे उसमें सदस्य बाहरी प्रभाव से मुक्त रहें। लार्ड वेलेस्ली ने सिविल सेवा के सदस्यों के प्रशिक्षण के लिए कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज खोला। यह कारर्वाही कम्पनी के निदेशकों को पसंद नही आई। फलतः 1806 ई0 में उन्होने कलकता के कालेज की जगह इंगलैंड हेलीव्री में ईस्ट इंडिया कॉलेज में प्रशिक्षण को कार्य आरम्भ किया। कम्पनी के अधिकारियाँ हेतु 3 वर्षीय प्रशिक्षण नवम्बर 1800 ई0 में प्रारम्भ हुआ जिसमे भारतीय भाषाओं के अध्ययन को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया था। हैलबरी में कम्पनी के अधिकारियों को प्रशिक्षण दिया जाता था ये सभी अधिकारी कंपनी के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स द्वारा नामित किये जाते थे।
    1833 के अधिनियम द्वारा सिविल सेवा भर्त्ती की आधुनिक योग्यता प्रणाली लागू की गई।  लन्दन स्थित सिविल सर्विस कमीशन 1855 से प्रवेंश परीक्षा आयोजित करने लगा। आयु सीमा 19 से 22 वर्ष रखी गई थी। इसके बाद हैलबारी कॉलेज समाप्त करके सिविल सेवा प्रशिक्षण ब्रिटिश विश्व विद्यालयों में दिया जानें लगा तत्पश्चात अधिकारियों कें परीविक्षा के आधार पर भारत मेंं नियुक्ति होती थी। 1864 में पहली बार सत्येन्द्रनाथ टैगोर ने सिविल सेवा परीक्षा उर्तीर्ण की थी।
    1857 की क्रांति के बाद 1858 ई0 में एक्ट फॉर दी बेटर गवर्नमेंट ऑफ इंडिया पारित किया। गया जिसके अधीन लोकसेवा की शर्तो के निर्धारण का अधिकार राज्य सचिव को दे दिया गया और लोक सेवाओं में विकेन्द्रीकरण करने की ओर प्रयास किए गये। 1886-87 में स्थीसन आयोग की रिपोर्ट पर कावनेटडे सिविल प्रोविन्सियल सिविल सर्विस तथा सब ओर्डिनेट सिविल सर्विस की प्रोविन्सियल सिविल सार्विस तथा राव ओर्डिनेट सिविल सर्विस की शुरूआत की गई प्रान्तों मे सांविधानिक लोक सेवा को समाप्त कर दिया गया तथा नई प्रोविन्सियल सिविल सर्विस कें अधिकरियों को इम्पनीरिल सिविल सर्विस में पदोन्नति दी जाने लगी।
                    भारतीयों द्वारा भारत और लंदन में एक साथ सिविल परीक्षा आयोजित करने की मांग उठाने पर 1917ई0 में इलिंग्सटन आयोग का गठन किया गया। आयोग ने इस मांग को स्वीकार करते हुए इम्पीरियल सिविल सर्विस में 25 प्रतिशत पद भारतीयों के लिए सुरिंक्षत रखने की सिफारिश भी की। आयोग का मानना था कि कुछ पद सीधी भर्ती द्वारा तथा कुछ पद प्रान्तीय लोक सेवा द्वारा भरे जाने चाहिए। 1919 में सेक्रेटेरिएट प्रोसीजर कमेटी गठित की गई जिसने यह अनुशंसा की कि एक सेन्ट्रल स्टॉफ बोर्ड बनाया जाए जो इम्पीरियल सचिवालय के सभी विभागों के लिए र्क्लक पद भर सके। इस अनुशंसा को स्वीकार करते हुए सरकार ने एक अध्यक्ष तथा एक-एक सदस्य गृह और शिक्षा विभाग से लेकर सेन्ट्रल ऑफ बोर्ड बनाया गया जो इम्पीरियल सेक्रेटेरिएट सर्विस हेतु लिपिकों की भर्ती करने का कार्य 1926 तक करता रहा। 1919 ई0 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा लोकसेवाओं का स्पष्ट वर्गीकरण किया गया जो विभाग और सेवाएँ केन्द्रीय सरकार के अंतर्गत थे, उनकी सेवायें केन्द्रीय सेवायें मानी गई जिसमें रेलवे, कस्टम तथा एकांउट्स आदि आते थे कुछ अन्य भारतीय सेवाओं को अखिल भारतीय सेवाओं का नाम दिया गया जिसमें इण्डियन सिविल सर्विस, इण्डियन पुलिस, इंडिया सर्विस ऑफ इंजीनियर्स तथा इंडिया एजूकेशन सर्विस समि्ॅमलित की गई। प्रान्तीय सेवाओं का नाम प्रान्तों के नाम पर कर दिया गया। लोक सेवाओं में सुधार हेतु। 1923 में वाई काउंट ली की आयोग की अध्यक्षता में एक रॉयल कमीशन नियुक्ति किया गया। इस आयोग की अनुशंसा पर केन्द्रीय लोकसेवा आयोग। 1926 में स्थापित की गई। 1 अक्टूबर 1926 से कार्य प्रारम्भ करने वाले इस आयोग एक अध्यक्ष के अलावा चार सदस्यों की नियुक्ति की गई थी। सर रॉफ बार्कर इसके पहले अध्यक्ष बनाये गये। आयोग सिविल सेवाओं तथा इम्पीरियल सेक्रेटेरिएट सर्विस में कर्मिकों की भर्ती तथा अनुशासनालक प्रकरणों में सरकार को परामर्श देने का कार्य करने लगा। 1935 में इसका नाम बदलकर संघीय लोक सेवा आयोग।(थ्मकमतंस चनइसपब ेमतअपबम बवउउपेपवद) कर दिया गया।
             इस प्रकार भारतीय सिविल सेवा धीरे-धीरे विश्व की एक अत्यंत कुशल और शक्तिशाली सेवा के रूप में विकसित हो गई। उसके सदस्यों को काफी अधिकार प्रदान किए गये थे। और बहुधा वे नीति-निर्माण के कार्य में भाग लेते थे। उन्होंने स्वतंत्रता, ईमानदारी और कठिन परिश्रम की परम्पराएँ विकसित की। भारतीय नागरिक सेवा को बहुधा‘ इस्पात का चौखटा‘ कहा गया है जिसने  भारत में ब्रिटिश शासन का पोषण किया और स्थायित्व प्रदान किया। लोकसेवाओं में राजपत्रित तथा अराजपत्रित का भेद, योग्यता आधारित भर्ती, चार वर्गों में कार्मिकों का वर्गीकरण, वार्षिक गोपनीय रिर्पाट, उच्च अधिकारी को अधिक वेतन तथा सुविधायें एवं उच्च लोकसेवाओं में शहरी तथा उच्च जातियों को प्रमुखता इत्यादि ब्रिटिश परम्पराओं का परिणाम हैं। उच्च अधिकारियों की आवासीय कॉलोनी आम जनता के आवासों से दूर सिविल लाईन्स के रूप में बसाने की परम्परा स्थापित की गई।
            प्रशासनिक कृत्यों को संचालित करने के लिए कानूनों, नियमों तथा प्रक्रियाओं की कठोर कार्य प्रणाली और फाइल-व्यवस्था की शुरूआत की गई। अं्रग्रेज अधिकारी अधिकतर आम भारतीयों को झूठा, गवॉर तथा जाहिल व्यक्ति कहकर प्रताड़ित करते थे, अतः प्रत्येक प्रशासनिक कार्य में लम्बे चौडे़ फॉर्म, शपथि पत्र चरित्र प्रमाण पत्र, राजपत्रित अधिकारी से प्रमाण पत्र लेने की प्रक्रियाएँ निर्धारित की गई।
पुलिस प्रशासन
पुलिस ब्रिटिश शासन का तीसरा स्तंभ मानी जाती थी। इस संस्था का प्रारम्भ कार्नवालिस के समय में हुआ। उसने जमींदारों को पुलिस कार्यां से मुक्त कर दिया और कानून तथा व्यवस्था बनाये रखने के लिए एक नियमित पुलिस दल का गठन किया। इससे पूर्व सारे देश के भीतर पुलिस कार्यां के लिए नायक नाजिम जिम्मेदार था और यही उसकी देखभाल करता था। अप्रैल 1731 ई0 में वारेन हेस्टिंग्स ने ब्रिटिश जजों को गिरफ्तारी और हवालत में बंद करने में बंद करने के अधिकार दे दिया। 1782 के पश्चात् बने पुलिस नियमों के अनुसार न्यायाधीशों की यदि शांति और व्यवस्था कायम रखने में इसकी आवश्यकता हो तो थानेदार नियुक्ति करने का अधिकार दे दिया गया। पुलिस को पुर्नगठित करने के ये समस्त कार्य लाभदायक नहीं हुए। कार्नवालिस के पुलिस सम्बन्धी सुधार कुछ परिवर्त्तनों के बाद पुलिस संगठन की आधारशिला बन गये। 7 दिसम्बर 1792 को प्रकाशित पुलिस नियमों के अनुसार जमींदारों को इस बात के लिए मजबूर किया गया कि अपने हथियार बंद रक्षकों को समाप्त कर दें। इसी वर्ष एक नये पुलिस दल का गठन किया गया। इस दल को अंग्रेज न्यायाधीशों के अधिकार में रखा गया। यह जिले में पुलिस संगठन का प्रधान हो गया। यह प्रावधान 1808 ई0 तक पूर्ण किया जा चूका था।
 कार्नवालिस ने पुलिस प्रशासन का विकेन्द्रीकरण करते हुए थानों की स्थापना की। शांति और व्यवस्था बनाये रखने के लिए प्रत्येक जिले को विभिन्न थानों में विभाजित कर दिया गया। प्रत्येक थाने का प्रमुख एक दारोगा बनाया गया। वह न्यायाधीश द्वारा नियुक्त किया जाता था। दरोगा की सहायता के लिए कुछ पुलिस सिपाही होते थे। गॉवों में पुलिस की जिम्मेदारियों को चौकीदार निभाते थे जिनका भरण पोषक गॉव करते थे। कार्नवालिस ने पुलिस का उत्साह बढ़ाने के लिए प्रोत्साहन राशि देने की व्यवस्था की। यदि दरोगा चोरी की गई वस्तु का पता चलता था तो उसे मूल्य का 10 प्रतिशत कमिशन के रूप में दिया जाता था। इसके साथ ही पुलिस को अपने कार्य क्षेत्र में किये गये गैर कानूनी कार्यों के लिए उत्तरदायी बनाया गया। पुलिस धीरे-धीरे डकैती जैसे प्रमुख अपराधों को कम करने में सफल हो गई। पुलिस ने विदेशी नियंत्रण के विरूद्ध बड़े पैमाने पर षड्यंत्रों को भी रोका और जब राष्ट्रीय स्वतंत्रता आन्दोलन प्रारम्भ हुआ तब पुलिस का व्यापक इस्तेमाल उसे दबाने में किया गया। लोगों के साथ व्यवहार में भारतीय पुलिस ने असहानुभूति पूर्ण रूख अपनाया। 1813 ई0 में एक संसदीय समिति की रिपोर्ट में बताया गया कि पुलिस ने शांति प्रिय निवासियों को उसी तरह लूटा-मारा जैसे डकैत करते थें जबकि डकैतों को दबाने के लिए उसका निर्माण किया गया है। 1860 के पुलिस आयोग की अनुशंसा पर पुलिस अधिनियम 1861 पारित हुआ। इस तहत सेना एवं पुलिस के कार्यों को पृथक् करते हुए पुलिस अधीक्षक को जिला कलक्टर के अधीन पदस्थापित कर पुलिस महानिरीक्षक (प्ळच्) का उच्च पद सृजित किया।
सेना प्रशासन
    भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को स्थायित्व प्रदान करने में प्रमुख योगदान सेना का था। उसने चार महत्वपूर्ण कार्य किए। वह भारतीयों को जीतने के लिए हथियार बनी। उसने विदेशी प्रतिद्वद्वियों से भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा की और एशिया तथा अफ्रीका में ब्रिटिश साम्राज्य के प्रसार का कार्य किया। कम्पनी के अंतर्गत अधिकांश सेना भारतीय सिपाहियों की थी जिन्हें मुख्य रूप में उन क्षेत्रों में भर्त्ती किया गया था, जो उत्तरप्रदेश और बिहार का इलाका था। 1857 में विद्रोह के समय भारत में कम्पनी की फौज में 3 लाख 11 हजार 400 सैनिक थे जिनमें से 2 लाख, 65 हजार 900 भारतीय थे तथा मात्र 40 हजार यूरोपीयन थे। लेकिन सेना के अधिकारी कार्नवालिस के समय से केवल अंग्र्रेज ही होते थे। 1856 में सेना में केवल 3 ऐसे भारतीय थे जिनको 300 रूपये प्रतिमाह वेतन मिलता था और सबसे उच्चा भारतीय अफसर एक सूबेदार था। बड़ी संख्या में भारतीय सैनिकों को काम में लगाना पड़ता था, क्योंकि ब्रिटिश सैनिक अपेक्षाकृत अधिक खचींले होते थे। सेना में संतुलन स्थापित करने के लिए सारे अफसर अंग्रेज रखे जाते थे और भारतीय सैनिकों को नियंत्रण में रखने के लिए ब्रिटिश सैनिकों को नियंत्रण में रखने के लिए ब्रिटिश सैनिकों एक निश्चित संख्या में रखा जाता जिनका अनुपात कम से कम 1ः7 होता था। वर्ष 1858 के बाद सेना का सावधानी के साथ पुनर्गठन किया गया जिसका प्रमुख उद्देश्य एक और विद्रोहन होने देना था। शासकों ने देखा कि उनकी सेना ही शसन को एकमात्र सुरक्षित रख सकती है। सेना पर यूरोपीय सैनिकों का वर्चस्व सावधानी के साथ सुनिश्चित किया गया। सेना में भारतीयों के मुकाबले यूरोपीयों का भाग बढ़ा दिया गया। बंगाल की सेना में अब यह अनुपात 1ः2 का तथा मद्रास और मुम्बई में 2ः5 का कर दिया गया। इसके अतिरिक्त भौगोलिक एवं सामरिक महत्व के स्थानों पर यूरोपीयों सेनाओं को तैनात किया गया। तोपखाने और बख्तर बंद गाडियों जैसे सेना के महत्वपूर्ण विभाग पूरी तरह यूरोपीयों के हाथों में रखे गये। अधिकारी वर्ग में भारतीयों को रखने की पुरानी नीति का सख्ती से पालन किया गया। 1914 ई0 तक कोई भी भारतीय कभी भी सूबेदार के पद से ऊपर नहीं उठ सकता।
   स्ेना के भारतीय अंग का संगठन संतुलन और जबावी संतुलन तथा बाँटों और राजकरों की नीति के आधार पर किया गया ताकि किसी ब्रिटिश विरोधी विद्रोह के लिए एकजूट होने का अवसर उन्हें न मिल सके। सेना की भर्त्ती में जाति, क्षेत्र और धर्म के आधार पर किया जाने लगा। भारतीयों का लड़ाकू और गैर लड़ाकू जातियों में विभक्त कर दिया गया। 1857 के विद्रोह में भाग लेने के कारण अवध बिहार, मध्यप्रांत और दक्षिण भारत के सैनिकों को गैर लड़ाकू घोषित कर दिया गया जबकि विद्रोह को दबाने में सहायता करने वाले गोरखों, पंजाबियों और पठानों को लड़ाकू जातियाँ घोषित कर उन्हें बड़ी संख्या में सेना में भर्त्ती की गई। 1857 तक ब्रिटिश भारत की सेना में आधे भाग पंजाबियों का था। भारतीय रेजीमेंटों को सभी जातियों और वर्गों का मिश्रण बना दिया गया ताकि वे एक दूसरे को संतुलित और नियंत्रित करती रहे। इसके अतिरिक्त सैनिकों की साम्प्रदायिक जातिगत, कबिलाई तथा क्षेत्रीय निष्ठाओं को प्रोत्साहित कर उनके बीच राष्ट्रवाद की भावना फैलने से रोका गया। अनेक रेजीमेंटों में जातियों और सम्प्रदायों के आधार पर कंपनियाँ निर्मित की गई ताकि चार्ल्स वुड के अनुसार एक रेजीमेंट दूसरी रेजीमेंट से इतनी कटी होने चाहिए कि विद्रोह के समय में एक-दूसरे पर गोली चलाने के लिए सदैव तैयार रहे। सेना को बाकी जनता के जीवन और विचारों से भी अलग रखने के प्रयास किए गये। समाचार पत्रों, पत्रिकाओं तथा राष्ट्रवादी प्रकाशनों को सैनिकों तक पहुँचने से रोका गया।
    भारतीय सेना बहुत खर्चीली सैनिक शक्ति बन गई थी। 1904 में भारतीय राजस्व का लगभग 52 प्रतिशत सेना पर किया जाता था। उस समय सबसें महत्वपूर्ण उपनिवेश होने के कारण भारत की रूसी, फ्रांसीसी और जर्मन साम्राज्यवादियों से लगातार रक्षा करना पड़ती थी। इससे भारतीय सैनिकों की संख्या मे काफी वृद्धि हुई। भारतीय सेना एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश सत्ता औंर शासन को फैलाने और मजबूत बनाने का प्रमुख साधन  थी। इसके अतिरिक्त भारतीय सेना का ब्रिटिश भाग में कब्जा बनाये प्रमुख कार्य था। लेकिन इसका खर्च भारतीय राजकोष को उठाना पड़ा था यह भारत पर बहुत बडा़ आर्थिक बोझा सावित हो रहा था।
न्यायिक व्यवस्था
ब्रिटिश भारत में अंग्रेजों ने न्यायिक व्यवस्था की स्थापना करने में काफी दिलचस्पी दिखाई। वारेन हेस्टिग्स से पूर्व न्याय व्यवस्था में जो भी परिवहन किये वे के बाल लगान बढ़ाने के उद्देश्य से किए गये थे। 1765 से 1772 ई0 के मध्य बंगाल में दोनों प्रकार की न्याय व्यवस्थायें सामान्य रूप् से प्रचलित थी मुगल कालीन पद्धति में काजी अथवा मुक्ति कानूनों की व्याख्या कर अपराधियों को दण्ड दिया करते थे। अंग्रेजी विधि प्रणाली के अंतगर्त कलकत्ता में ईस्ट इंडिया सरकार द्धारा प्रदत्त अधिकारों पर आधारित था तथा कुछ न्यायालय कम्पनी को जमींदारो क्षेत्र में स्थापित थे जिन्हें कम्पनी द्वारा अधिकार प्रदान किये गये थे।
    बंगाल के प्रथम गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिग्ंस ने न्याय व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्त्तन किए। न्याय के लिए जिलों को इकाई माना गया। और प्रत्येक जिले में दीवानी एवं फौजदाररो न्यायलय स्थापित किये गये। प्रत्येक जिले में स्थापित दीवानी अदालतों में कलक्टकर न्यायिक अधिकारी था। इन अदालतों में 500 रूपये तक के विवादों का निर्णय किया जाता था। ऐसे न्यायालयों में शादी विवाह, जाति प्रथा, कर्ज, लगान, साझेदारी एवं उत्तराधिकारी से सम्बन्धि तमामले निथादित किये जाते थे। दीवानी अदालत के ऊपर कलकता में सदर दीवानी अदालत के निर्माण किया गया। पटना , ढाका और मुशिर्दबाद की राजस्व कौसिल समस्त बंगाल, बिहार तथा उडीसा क्षेत्र के लिए सर्वोच्च दीवानी अदालत थी। जिसमें गवर्नर तथा उसकी परिषद के दो सदस्य न्यायाधीश का काय्र करते थे। गवर्नर की अनुपस्थिति में उसकी परिषद का तीसरा सदस्य न्यायाधीश का काय्र करने के लिए कम से कम तीन न्यायाधीयों की उपस्थिति अनिवार्य थी। 24 अक्टूबर 1780 में गवर्नर जनरल एवं परिषद द्वारा नियुक्त न्यायाधीश ही इन न्यायालयों में कार्य करने के लिए अधिकृत किए गये। जिला दीवानी अदालातों का कार्यभार संभालने के लिए आ  मिल नियुक्त किए गये। न्यायिक शक्तियों जो पहले 6 प्रांतीय कौसिलों को प्राप्त थी, दीवानी अदालत के 6 न्यायालयों को दे दी गइ्र। प्रत्येक न्यायालय का प्रधान कम्पनी की कोबेंनेटेड सर्विस का सदस्य होता था। बाद में इन न्यायालयों की संख्या बढ़कार 18 कर दी गई।
    जिला फौजदारी अदालत का प्रधान एवं भारतीय अधिकारी होता  था। वह काजियॉ और मुफ्तियों की सहायता से मुकदमों का निर्णय करना था। कलक्टर एक यूरोपीयन होता था, को  फौजदारी अदालत पर कुछ नियंत्रण और निरीक्षण का अधिकार प्राप्त था। उसका कार्य था कि वह यह देखे कि साक्ष्य प्रमाण भली प्रकार प्रस्तुत किए गये है कि नहीं तथा निर्णय भय-मुक्त, निस्पक्ष और खुली अदालत में दिया गया हो। फौजदारी अदालतों में मुस्लिम कानून का अनुशरण किया जाता था। मृत्यु दतु अथवा  सम्पति की जब्ती के दण्ड का पुष्टि करण सदर निजामत अदालत मे किया जाता था। जिसका प्रधान दरोगा था। दूसरी सहायता के लिए एक प्रधान काजी, एक प्रधान मुक्ति तथा तीन मौलनी होते थे। प्रेसीडेंट कौसिंल इस न्यायालय की कार्य वाहियों का निरीक्षण करते थे। दीवनी न्याय-व्यवस्था की भाँति फौजदारी न्याय- व्यवस्था में व्यापक सुधार किए गये। सदर निजामत अदालत जिसका प्रधान नायक ना जिम होता था को मुर्शिदाबाद  से कलकता लाया गया। अपराधियों पर शीघ्र मुकदमा चलाने तथा उनको नियंत्रण में रखने के लिए प्रत्येंक जिले मं एक फौजदार की नियुक्ति की गई। कुछ समय बाद फौजदार की सम्पूर्ण शक्तियाँ और अधिकार जिला न्यायालयों के न्यायाधीशों को दे दिए गये। फौजदारी मामलों  में कम्पनी हस्ताक्षेप नही करना चाहती थी। इसलिए फौजदारी न्याय-व्यवस्था भारतीय अधिकारियों पर छोड़ा दिया गया इस क्षेत्र मे हस्तक्षेप केवल अराजकता के स्थिति में या कानून व्यवस्था बनाये रखने के उद्देश्य से किया जाने लगा।
    कलकता के यूरोपीयनों के लिए मेयर अदालत की व्यवस्था थी। यह न्यायालय यूरोपीयन नागरिकों और कम्पनी केक मध्य विवादों का निपटारा करता था। इसके आदेश कलकता के बाहर के निवासियों पर लागू नही हो सकता था। इसके न्यायाधीश कम्पनी के स्थानीय अध्यक्ष द्वारा पदच्यूत किये जा सकते थे। अतः इसका न्याय निस्पक्ष और स्वंतत्र नही होता था। इन दोषी को सुधारने के लिए 1773 के रेग्युलेटिंग एक्ट के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय का गठन 1774 ई0 मे कलकता में ब्रिटिश सम्राट द्वारा किया गयां इनमें एक प्रधान न्यायाधीश और तीन जज थे। इसका कार्यक्षेत्र केवल ब्रिटिश प्रजाजनों तक ही सीमित था, व्यवहार में इसके कारण अनेक समस्याये उपस्थित हुई। इसके वास्तव में सभी व्यक्तियों पर अपने कार्य  क्षेत्र काप प्रयोग भी किया। सेलेवट कमिटी ने कहा कि यह न्यायालय देशवासियों के लिए साधारणत भयानक  ही रहा तथा कम्पनी की सरकार को विभ्रान्त किया है। इस प्रकार बंगाल के सर्वोच्च कार्यपालक ओर सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों  के बीच विवाद शुरू हो गया। वारेन हेस्टिग्ंस ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश के बीच विवाद शुरू हो गया। वारेन हेस्टिंग्स ने सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश चार्ल्स इम्पे को उच्च वेतन प्रदान कर सदर दीवानी अदालत का अध्यक्ष बना दिया। सुप्रीम कोर्ट की स्थापना का मुख्य उद्देश्य कम्पनी के नौकरों की शिकायत का निर्णय स्वंतत्र न्यायालय से करवाना तथा कम्पनी के कर्मचारियों के अनुचित कार्यो पर रोक लगना था। लेकिन इस उद्देश्य की पूर्ति तभी संभव थी जब गवर्नर जनरल और उसके परिषद के सदस्य सुप्रीम कोर्ट के अध्यक्ष कर समर्थन करते रहे। डायरेकटरों की आपति पर इम्पे ने 1817 ई0 में त्यागपत्र दे दिया रेग्युलंटिंग एक्ट मके ंसुप्रीम कोर्ट के अधिकार और क्षेंत्र का स्पष्टीकरण नही किया गया था। कलकता परिषद की मान्यता थी कि कम्पनी की आदलत सुप्रीम कोर्ट के अधीन नही थी। वह केवल अपील की अदालत थी। दूसरी और मुख्य न्यायधीश का कहना था कि सुप्रीम कोर्ट के सारे अंग्रेजी न्यायालायों का वह आधार या जो छोटी अदालतों में सुधार व हस्तक्षेप कर समता था। हेस्टिग्स की सहानुभूतिपूर्ण नीति उस समय तक नही रही जब उसे अपनी कौंसिलों के सदस्यों का समर्थन नही मिला था। परन्तु कौंसिल के एक सदस्य की मृत्यु के पश्चात हेस्टिग्ंस को निर्णायक मत के प्रयोग का अवसर मिल गया जिससे कौसिल में बहुमत प्राप्त करके वह अपनी नीतियों कों लागू करने में सफल होनें लगा तत्पश्चात् उसने सुप्रीम कोर्ट के प्रभुत्व करने की नीति अपनाई तथा उसकी अधिकारियों को कलकता के प्रेसीडेसी बाहर तक ही सीमित रखनें का प्रयल किया।
    1781 ई0 में बंगाल न्यायालय एक्ट द्वारा रेंग्यूलेटिंग एक्ट के दोषो को दूर करने का प्रयत्न किया गया। इस अधिनियम का उद्देश्य सुप्रीम कोर्ट के अधिकार  और शक्तियों के विषय में उत्पन्न अनिश्चितताएँ समाप्त करना था। इसके द्वारा गवर्नर जनरल और परिषद के सदस्य व्यक्तिगत रूप से सुप्रीम कोर्ट के नियंत्रण से वाटर कर दिए गये। भूराजस्व एवं उसके वसूल करने के मामले में कोई अधिकार इसमेंं नियंत्रण में नही रहे। कम्पनी के अन्य न्यायाधिकारियों के न्यायकार्य को इसमें अधिकार क्षेत्र में बाहर करने जये। इतना ही नही गवर्नर जनरल की कौंसिल को भूराजस्व से सम्बन्धित समस्त मुकदमो के सर्वोच्च अधिकार दिए गये। सुप्रीम कोर्ट का न्याय क्षेत्र कलकता के समस्त बिना स्तियों तक रखा गया। इस एक्ट ने सुप्रीम कोर्ट की तलुना में गवर्नर जनरल एवं कौंसिल की स्थिति अधिक मजबूत की गई। सदर दीवानी अदालत के दीवानी सम्बन्धी कार्यक्षेत्र को स्वीकार किया गया। और भुराजस्व से सम्बन्धित समस्त-विवादों में उसके सर्वोच्च अधिकार दिये गये। इस प्रकार दोनो न्याय प्रणालियों सुप्रीम कोर्ट तथा सदर दीवानी अदालत 1861 ई0 तक कार्य करती रही।
    कम्पनी सरकार ने न्यायाधीशों के लिए निश्चित वेतन दका प्रावधान किया तथा उनके द्वारा लिये जानेवाले नजराने एवं भेंट पर प्रतिबंध लगा दिया। न्यायालय को अपनी कार्यवाही अंकित करनी होती थी। वारेन हेस्टिंग्स द्वारा स्थापित न्याय-व्यवस्था की प्रमुख विशेषता कानून का शासन तथा न्यायपलिका को स्वतंत्रता रही। कानून के शासन का अभिप्राय था निरंकुश शक्ति के स्थान पर नियंत्रित और निश्चित विधि की सर्वोच्चता एंवद प्रधानता एवं कानून के सम्मुख सभी व्यक्तियों और वर्गों की बराबरी। स्वतत्रं न्याय का तात्पर्य न्याय व्यवस्था मे  कार्य पालिका का हस्तक्षेप न होना तथा न्यायाधीशों की सुरक्षा था। सदर दीवानी तथा सदर निजाम, अदालतों में अभियुक्त अनुभवी वकीलों की राय ले सकते थे। सर विलियम जेन्स ने 1784 में एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल की स्थापना की जिसके माध्यम से संस्कृत गं्रथों का अंग्रेजो में अनुवाद किया जाना संभव हुआ और आंगे जाकर हिन्दु न मुस्लिम कानूनों का संग्रह किया जा सका। इसक कम में मनुस्मृति का एकोड ऑफ जेन्टू लॉज के नाम से अंग्रेजों अनुवाद किया गया।
    पिटस इंडिया एक्ट 1784 के अंतर्गत बंगाल में लार्ड कार्नवालिस गवर्नर जनरल बनकर आया विधि के इतिहास में उसका कार्य काल महत्वपूर्णं रहा है, क्योंकि अपनी रचनात्मक योजनाओं द्वारा उसने एक आदर्श न्याय पद्धति लागू की। यह प्रथम गवर्नर जनरल था जिसने भारत में इस सिद्धान्त  को कार्यान्वित किया। कि प्रशासनिक व्यवस्था विधि पर आधारित होनी चाहिए। कार्नवालिस ने जिले को इकाई मानते हुए सम्पूर्ण राय को नियुक्ति की कलक्टर को शासन एवं- न्याय दोनो ही कार्यो का निष्पादन करना होता था। कलकता परिषद के परार्मश पर 1786 ई0 में संचालक समिति ने आदेश दिया कि मजिस्ट्रेंट कलक्टर और के कार्य एक ही व्यक्ति द्वारा किए जाएं। 1787 ई0 में कार्नवालिस ने इन तीनों इन तीनों पदों को एक साथ मिला दिया। कम्पनी सरकार एक मात्र उद्देश्य भारत से अधिक वसूलो करना था। और निर्धारित राजस्व के प्राप्त न होने पर प्रशासनिक व्यवस्था में प्राप्तियों को सुनिश्चित करने के लिए अंग्रेज किसी भी प्रकार के परिवर्तन को तत्पर थे। यह पद्धति 1793 तक चलती रही। स्थाई बंदोबस्त के बाद कलक्टर का कार्य प्रशासनिक व्यवस्था देखना तथा लगात एकत्र करना रह गया। अभियुक्तों को कारावास भेजने एवं राजा दिलवाने का कार्य भी कलक्टर मजिस्ट्रेट की हैसियत से सम्पादित करते थे। कार्नवालिस ने न्याय प्रशासन के संचालन के लिए कुछ नये न्यायलय स्थापित किए।
    नगर एंव जिला स्तर पर मुंसिफ अदालतों की स्थापना की गई। ये अदालतें 50 रूपये तक के मामलों की सुनवाई कर सकते थे। भारतीयों को ऐसे विवादों के निर्णय के अधिकार दिये गये। सामान्यतः लेन-देन एंव कर्ज के मामले इन अदालतो में प्रस्तुत किए जाने थे। मुन्सिफ एंव सदर अमीन न्यायाधीश का कार्य करते थे। ऐसे न्यायालयों की अदालतें थी जिन्हें 200 रूपये तक के मामलों में सुनवाई का अधिकार था।
    प्रत्येक जिलों में जिला दीवानी न्यायालय स्थापित किए गये तथा जिला जज की नियुक्ति की गई। केवल अंग्रेज ही रोशन जज नियुक्त किए जा सकते के जिनकी सहायता स्थानीय परामर्शदाता जो हिन्दु और मुसलमान रखे जाते थे, करते थे। मुंसिफ न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध अपील सुनने तथा फौजदारी एवं दीवानी ओर लगान सम्बन्धी मामलों के निष्पादन का अधिकार था। किन्तु इन न्यायालयों को यूरोपीयन लोगो को दीवानों मामलो की सुनवाई का अधिकार नहीं था।
    जिला अदालतों के निर्णयों के विरूद्ध लोगों का दूरास्थ प्रदेशों कलकत्ता पहुँचना आसान नही था। फलतः चार प्रान्तीय न्यायालय स्थापित किए गये। कलकत्ता, ढाका , पटना एवं मुर्शिदाबाद में निचली अदालतों की अपील की  जा सकती थी। प्रत्येक न्यायालय में तीन अंग्रेज न्यायाधीश एंव उनके परामर्श हेतु काजी और पंडितों रखे गये थे। सामान्य य विवादों की सुनवाई इ न न्यायालयों द्वारा नहीं की जाती थी।ै इन न्यायालयो को वर्ष में दो बार स्थानीय अपराधों की सुनवाई हेतु दौरा करना होता था। इन्हें भ्रमण अदालत भी कहा जाता था। प्रत्येक न्यायाधीश का क्षेत्र पहले से निर्धारित होता था। न्यायालयों को एक हजार रूपये तक के विवादों के अंतिम निर्णय का अधिकार था। जिन मामलों को छोटी अदालतों में ले जाने अपेक्षित न हो, ऐसे विवाद मुल रूप से लिए जाते थे।
    जिला एवं प्रान्तीय अदालत से अपीलें सदर दीवानी अदालत में सुनवाई हेतु आती थी। इसें भारत में अपील की सर्वोच्च अदालत कही जा सकती है। इसका अध्यक्षा गवर्नर जनरल और कौंसिल के अन्य सदस्य होते थे। एक काजी दों मुफ्ती एंव दे पंडितो को परामर्श देने हेतु नियुक्त किया जाता था। इस न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध इंगलैड की प्रिवी कौसिंल में पाँच हजार पौड से अधिक के मामलों की अपील की जा सकती थी।
फौजदारी न्यायालयोंः-फौजदारी न्यायालयों मे अभी तक मुस्लिम विधि का प्रयोग किया जाता था। फौजदारी न्यायालय नबाव के अधीन ही चल रहे थे एवं मुर्शिदाबाद स्थित सदर निजामह अदालत का अध्यक्ष मुहम्मद रजा खाँ था। निचली फौजदारी अदालातों में भी भरतीय न्यायाधीश ही निर्णय करते थे। कार्नवालिस फौजदारी अदालतों के अधिकार भी अंग्रेजो को प्रदान करना चाहता था जिसके पीछें अनेक कारण थे। मुस्लिम कानूनो में अंतर्गत किसी अन्य धर्म कें अनुयायी के गवाह पर मुसलमोनो की सजा नहीं मिल सकती थी। इसके अतिरिक्त अदालत हत्या के अपराधी को मृतकों के परिवारजनों द्वारा उसे माफ कर दिए जाने पर दण्डित नहीं कर सकती थी। दूसरे फौजदारी न्यायालयों में भारतीय ही निर्णय करते थे जिसमें अक्सर बेईमानी की शिकायतें मिलती रहती थी। फलतः उसने समस्त बड़े पदों से देशी न्यायाधीशों को हटाने का निर्णय किया। कार्नवालिस ने निजामत अदालत को कलकत्ता स्थान्तरित किया तथा मुहम्मद रजा खाँ को सेवा मुक्त कर दिया। गवर्नर जनरल एवं उसकी कौंसिल के सदस्यों को ही सदर निजामत अदालत के जज के रूप में मान्यता दी गई। निजामत मामलों में सबसे छोटी मुंसिफ की अदालत थी जिसको अपीलें सैशन जज सुनता था अर्थात् सैशन जज समान रूप से दीवानी एवं फौजदारी मामलों की सुनवाई करते थे। प्रान्तीय स्तर पर सर्किट अदालतें ढाका, पटना, कलकत्ता और मुर्शिदाबाद में दीवानी एवं फौजदारी मुकदमों की अपीलों की सुनवाई करती थी।
कार्नवालिस कोड :- न्यायिक नियमों को जानकारी देने के लिए कार्नवालिस ने नियमों को संहिताबद्ध करवाया जिसे कार्नवालिस कोड कहा जाता है। 1790-93 ई0 के मध्य नियमों का संग्रह करवाने में जार्ज बारलों एवं सर विलियम जोंस ने सहयोग किया। उसके कानूनों के संग्रह को वर्षो तक यथावत प्रयोग में लिया जाता रहा। नवीन प्रावधानों में धर्म के आधार पर गवाही देने से किसी व्यक्ति को वंचित नहीं किया जा सकता था। इस व्यवस्था में किसी वर्ग जाति एवं समुदाय का विचार किये बिना सबके लिए समान रूप से न्याय की व्यवस्था उपलब्ध थी। कठोर दंड को समाप्त करते हुए कठोर कारावास की व्यवस्था की गई। कम्पनी के अधिकारियों पर भी मुकदमा चलाया जा सकता था किन्तु ऐसे मामले की सरकार द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से आर्थिक लाभ न प्राप्त करनेवाले अंग्रेज में तेजी से विकास हुआ तथा सदर दीवानी अदालत से लाइसेंस देने का प्रावधान किया गया। सेटनकार के अनुसार - ‘‘दीवानी फौजीदारी न्याय, लगान एवं पुलिस सम्बन्धी नियम निश्चित किए गये। न्यायपालिका और कार्यपालिका को पृथक किए जाने से दोनों विभागों का कार्य सरल हो गया। कलक्टरों के अधिकार को और भी कम करने तथा उनके अत्याचार से भारतीयों को बचाने के उद्देश्य से कलक्टर एवं सरकार के सभी अफसर‘‘ अपने सरकारी कामों के लिए अदालतों के प्रति जिम्मेदार बना दिए गये।‘‘ यहाँ तक कि यदि सरकार का भी जायदाद को लेकर अपने प्रजाजनों से विवाद होने पर, अपने अधिकारों के लिए मामला इन अदालतों के समझ रखा जाता था। अदालतों को सरकार के विरूद्ध मामलों में वर्त्तमान कानूनों एवं नियमों के अंतर्गत जाँच कर वादी को राहत दिलवाये जाने के अधिकार थे।
कार्नवालिस शासन की बातों से भारतीयों से वास्तविक सत्ता या उत्तरदायित्व हटा लेने का सिद्धान्त अपनाया। फौजदारी न्याय के शासन में जिस पर पहले उनका सर्वोच्च एवं पूर्ण नियंत्रण था, उसने उसे अलग कर दिया। अब जमींदारों को उनके अपने कार्यक्षेत्र में शांति रक्षा की शक्ति और उत्तरदायित्व से वंचित कर दिया गया तथा उनके कर्त्तव्य हर जिले में दरोगा को सुपूर्द कर दिए गये।
इस प्रकार इन सुधारों ने न्याय की प्रणाली को इतना जटिल बना दिया कि मुकदमों को शीघ्र निष्पादन संभव नहीं था। भूमि को उत्तराधिकारियों में बँटवारें की वस्तु बनाकर मुकदमेंबाजी को प्रोत्साहित किया गया। उसकी व्यवस्था की महान त्रुटि यह थी कि वह न्याय को न्यायालयों तक ही सीमित रखना चाहता था। एक ऐसे देश में जहाँ अभी तक कानून अस्पष्ट और अनजान स्थिति में था। हिन्दुस्तानियों के लिए उसकी नई शासन व्यवस्था और अदालतों में बना न्याय लाभप्रद सिद्ध नहीं हुआ। सरकार ने अधिकांश कनिष्ट स्तर के अधिकारियों को न्याय कार्य सौंप दिया जो अनुभव विहिन होने के साथ-साथ स्थानीय भाषा के ज्ञान से भी अनभिज्ञ थे। वे अक्सर परामर्श दाताओं द्वारा गुमराह कर दिये जाते थे। कानून हिन्दू या मुस्लिम था तथा कानून व्यवस्था अंग्रेजी थी और न्याय की प्रक्रिया लम्बी होने के कारण उन्हें वकीलों की शरण में जाना पड़ता था। साधारण लोगों के लिए नये कानूनों को समझ सकना कठिन था। झुठे गवाह या साक्ष्य खड़े किये जाते थे। मद्रास प्रेसीडेंसी में टॉमस मुनरों ने कार्नवालिस प्रणाली को यथावत लागू नहीं किया। ग्रामीण पंचायतों के पास छोटे दीवानी एवं फौजदारी मामलों के निर्णय का अधिकार बनाये रखा। प्रान्तको जिलों में विभक्त किया गया तथा प्रत्येक जिला तालुक्कों में विभाजित कर दिया गया। पहले जिला जज को भी मजिस्ट्रेट सम्बन्धी एवं पुलिस सम्बन्धी अधिकार प्राप्त थे, किन्तु ये कृत्य शीघ्र ही बदलकर कलक्टर को दे दिए गये। धीरे-धीरे कलक्टर का पद महत्वपूर्ण हो गया।
अंग्रेजों का संरक्षण शीघ्र ही भ्रांतिपूर्ण सिद्ध हुआ कानूनी मुकदमें इतनी तेजी से बढ़े कि अदालतें उनका सामना करने में असमर्थ हो गई। कानून का विलम्ब इतना गंभीर हुआ कि न्याय व्यवहारतः अलभ्य हो गया क्योंकि साधारणतया मनुष्य के जीवनकाल में किसी मुकदमें का निर्णय नहीं हो सकता था। अपराध बहुत बढ़ गये तथा जीवन और सम्पत्ति की सुरक्षा दूर की वस्तु सिद्ध हो गई। 1819 के सप्तम नियम ने विविध श्रेणियों के आसामियों के अधिकार स्पष्टतया निर्धारित किए गये। कानूनी मुकदमों में हुई अत्यधिक वृद्धि का सामना करने के लिए जिला जजों की संख्या बढ़ा दी गई, निचली कचहरियों की संख्या एवं शक्तियों में वृद्धि की गई तथा निश्चित सीमा के भीतर दीवानी मुकदमें देखने के लिए भारतीय मुंसिफों और सदर अमीनों की नियुक्ति की गई। मुंसिफों को 1793 की अपेक्षा अधिक अधिकार दिये गये। सदर दीवानी अदालत पुनर्जीवित की गई। गवर्नर जनरल और कौंसिल के बदले तीन जज रखे गये तथा उनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ाकर पाँच कर दी गई। गवर्नर जनरल लार्ड वेलेजली ने सर्वोच्च न्यायालय के रूप में कार्य करना उचित नहीं समझा। फलतः सदर दीवानी एवं सदर फौजदारी अदालतों के लिए स्वंतत्र जजों की नियुक्ति की। 1797 ई0 में अपील की सुविधायें कम कर दी गई तथा 1795 ई0 में एक मुकदमा दायर करने के लिए स्टाम्प पेपर का प्रयोग करना आवश्यक कर दिया गया। लार्ड हेसि्ंटग्स ने बिना अधिक वित्तीय प्रभार बढ़ाये प्रत्येक थाने में एक-एक मुंसिफ को नियुक्त कर दिया। पूर्व में 50 रूप्ये तक के विवादों की सुनवाई मुसिफ करते थे, लार्ड हेस्टिंग्स ने इसे बढ़ाकर 150 रूपयें कर दिया। 1814 ई0 में मुंसिफों के अतिरिक्त जिला अदालत में सदर अमीन नियुक्त किए गये। एवं उन्हें 500 रूपयें तक के विवादों को सुनने के लिए अधिकृत कर दिया गया। रजिस्ट्रार के अधिकारों में वृद्धि कर दी गई एवं उन्हें 500 रूप्य तक के मामलों की सुनवाई का अधिकार दिया गया। 1815 ई0 में सदर दीवानी अदालत जो प्रांतीय या सर्किट न्यायालयों में प्राप्त किया गया हो, आवश्यक कर दिया गया। मजिस्ट्रेट के अधिकारों में वृद्धि करते हुए उन्हें दो वर्ष का कठोर कारावास एवं कलक्टर के अधिकारों का विलय कर एक पद बना दिया गया। अपील की सुविधा कम करते हुए एक पद बना दिया गया। अपील की सुविधा कम करते हुए एक बार अपील करने का प्रावधान रखा गया। छोटी अदालत से जिला अदालत में तथा 500 रूपये अधिक के मामलें जिला दीवानी अदालत में तथा 500 रूपये से अधिक के मुकदमें सीधे प्रान्तीय अदालतें में दायर किये जा सकते थे।
लार्ड विलियम बेंटिक के शासन काल में व्यापक न्यायिक परिवर्त्तन किए गये। पहली बार किसी भारतीय को सदर अमीन के पद पर नियुक्त किया गया। मजूमदार के शब्दों में परिवर्त्तन की महत्वपूर्ण विशेषता यह थी कि भारतीयों पर शासन सम्बन्धी काम का अधिक भार सौंपा जाने लगा। इसके लिए उनमें डिप्टी मजिस्ट्रेटों और डिप्टी कलक्टर बहाल किये जाने लगे। दीवानी मुकदमें सुनने के लिए प्रिंसीपल सदर अमीन का नया पद सृजित किया गया। अदालतें में फारसी के स्थान पर अपनी बोलचाल की भाषा में मुकदमें दायर करने की सुविधा प्रदान की गई तथा अदालतों के कार्यविधि को सरल बनाने का प्रयास किया गया।
रेग्युलेटिंग एक्ट के तहत निर्मित सुप्रीम कोर्ट का मुख्यालय कलकत्ता में स्थित था, लेकिन अंग्रेजी साम्राज्य के पश्चिम और दक्षिण के विस्तार के बाद भारत के लोगों का कलकत्ता पहुँचना काफी खर्चिला और श्रमसाध्य था। अतः आगरा में अपील के लिए सर्वोच्च न्यायालय की एक पी0 स्थापित की गई। इसके साथ ही 1 जनवरी 1832 ई0 में इलाहाबाद में भी सदर दीवानी एवं सदर निजामत अदालतों का गठन किया गया। इस न्यायालय का अधिकार क्षेत्र बनारस प्रांत तथा मेरठ, सहारणपुर, मुजफ्फरपुर नगर और बुन्देलखंड के जिलों तक सीमित रखा गया। जिला स्तर पर जिला जज का अलग पद सृजित किया गया और सैशन जज के फौजदारी अधिकार सिविल जज को दे दिए गये। नये उपयुक्त पदों का निर्माण करके जिला जज को उनके मजिस्ट्रेट सम्बन्धी कृत्यों से छुट्टी दे दी गई। इस प्रकार जिले का शासन जज, कलक्टर और मजिस्ट्रेटों द्वारा होने लगा। शारीरिक दंड कम करने का प्रयास किया गया। अपराधियों के कोड़े दंड लगाने की प्रथा बंद करवा दी गई। यह विचार बेंलमवादी विचारधारा पर आधारित था कि अपराधी को सजा सुधारने के लिए दी जानी चाहिए बदला लेने के लिए नहीं। कलक्टर को न्याय के अधिकार भी दिए गये।
कार्नवालिस द्वारा स्थापित सर्किट या चल अदालतों का अंत कर दिया गया। फारसी के स्थान पर देशी भाषाओं के उपयोग की सुविधा देकर अदालतों का कार्य सरल बना दिया गया। भारतीय न्यायाधीशों के वेतन और शक्ति बढ़ाकर भारतीय योग्यता को मान्यता प्रदान की गई और साथ ही पर्याप्त आर्थिक बचाव भी की गई। न्याय क्षेत्र में सुधार कार्यक्रम को लागू करने में लार्ड मैकाले ने विशेष दिलचस्पी दिखाई। 1833 के चार्टर एक्ट में यह निर्धारित किया गया कि विधि प्रणाली के दोष दूर किया जाना चाहिए। सुधार लाना इसलिए भी आवश्यक हो गया था कि इस कानून के द्वारा ब्रिटिश नागरिकों को भारत में सम्पत्ति खरीदने और बेचने के पूर्ण अधिकार दे दिये गये थे जिसकी भारत में कोई कानूनी व्यवस्था नहीं थी। इन समस्याओं का मैकाले के पास एक ही समाधान था वह था विधि का संहिताकरण करना। मैकाले ने विधि का संहिताकरण नई दण्ड संहिता का निर्माण किया। जिसमें किसी न्यायलय के फैसले के विरूद्ध सदर अदालत के स्थान पर सीधे सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने का यूरोपीय लोगों को विशेषाधिकार प्राप्त था। ऑकलैंड ने मैकाले की सलाह पर यूरोपीय लोगों को भी सदर अदालत के क्षेत्राधिकार में ला दिया। भारत में रहनेवाले अंग्रेजों एवं अन्य यूरोपीयन लोगों ने इसका विरोध किया तथा इसे काले कानून की संज्ञा दी।
1853 के चार्टर एक्ट के तहत दूसरे विधि आयोग का गठन किया गया एवं इसकी सिफारिशों के आधार पर 1859 से 1861 ई0 के मध्य दण्ड विहिन, दण्ड प्रक्रिया आदि पारित किया गया जिससे सम्पूर्ण भारत में एक विधि प्रणाली प्रचलित किए जाने का मार्ग प्रशस्त हुआ। 1861 ई0 में भारतीय उच्च न्यायालय अधिनियम पारित किया गया जिसके आधार पर पुराने सुप्रीम कोर्ट सदर अदालतों को समाप्त घोषित कर कलकत्ता, मद्रास और मुम्बई में उच्च न्यायालयों की स्थापना की गई। 1866 में आगरा में एक और उच्च न्यायालय की स्थापना की गई जिसे बाद में इलाहाबाद में स्थानान्तरित कर दिया गया। उसके बाद पटना और लाहौर में एक-एक उच्च न्यायालय की स्थापना की गई। 1935 के भारत सरकार अधिनियम द्वारा संघीय सर्वोच्च न्यायालय की स्थापना की गई जिसका अधिकार क्षेत्र सम्पूर्ण भारत पर विस्तार किया गया। इसे सर्वोच्च न्यायालय का स्थान प्रदान किया गया। इसके फैसले के विरूद्ध अपील लंदन स्थित प्रिवी काउंसिल को प्रदान किया गया।



इस प्रकार अंग्रेजों ने सारे देश में एक समान न्याय प्रणाली की स्थापना की। उन्होंने कानून बनाये और उन्हें संहिताबद्ध किया। ये कानून राज्य के सभी नागरिकों पर लागू होते थे। न्यायालयों का श्रेणीकरण किया गया। सरकार के न्यायिक अधिकारी सरकारी न्याय की व्याख्या करते थे। इस तरह देश में लोअर कोर्ट, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट, हाई कोर्ट, सुप्रीम कोर्ट और प्रिवी कौंसिल की व्यवस्था स्थापित की गई। देश में विधि की व्यवस्था लागु की गई। धर्म और जाति आधारित कानूनों को समाप्त करने की कोशिश की गई।

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