परमोच्च शक्ति
मुगल साम्राज्य के पतन के बाद भारत बहुत से राज्यों में विभक्त हो गया था। पलासी के युद्ध ने ब्रिटिश साम्राज्य के विस्तार का युग प्रारम्भ किया और अगली शताब्दी के मध्य तक अंग्रेजी प्रभुत्व के शिकंजे में सारी भारतीय रियासतें आ गई। भारतीय रियासतों की स्थिति में परिवर्त्तन का कारण परिस्थितियों का दबाव और इतिहास की न रूकनेवाली धाराएँ, ईस्ट इंडिया कम्पनी के अधिकारियों की नीति को प्रकृति तथा गवर्नर जनरलों के विचार थे। भारत में रियासतों की संख्या 562 की और उनके अधीन 7, 12, 508 वर्गमील का क्षेत्र था। उनमें से कुछ हैदराबाद, कश्मीर, मैसूर आदि विस्तृत राज्य थे जबकि अन्य 202 रियासतें छोटी थी। प्रायः ये राज्य भारतीय प्रायद्वीप के अल्प डर्वर और दुर्गम प्रदेशों में स्थित थी। इन भारतीय नरेश राज्यों के सम्बन्ध अंग्रेजी सरकार के साथ समय-समय पर बदलते रहे।
आरम्भ में 1740 ई0 से 1765 ई0 के मध्य तक मुगल सम्राट शाहआलम द्वारा अंग्रेज कम्पनी को बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी प्रदान किये जाने के समय तक अंग्रेज भारत में अपनी राजनीतिक सत्ता का दावा करने की स्थिति में नहीं थे। इसके विपरीत वे उन भारतीय नरेशों की प्रजा थे जिनके राज्य में उन्होंने अपनी व्यापारिक फैक्ट्रियाँ स्थापित कर ली थी। इस प्रकार 1740 ई0 से 1765 ई0 के मध्यगल में अंग्रेज भारतीय नरेशों के अधीन थे, यद्यपि वे उनसे समानता प्राप्त करने के लिए संघर्ष आवश्य कर रहे थे। 1765 ई0 के पश्चात ई0 के मध्यगल में अंग्रेज भारतीय नरेशों के अधीन थे, यद्यपि वे उनसे समानता प्राप्त करने के लिए संघर्ष आवश्यक रहे थे। 1765 ई0 के पश्चात इस स्थिति में परिवर्त्तन आया, क्योंकि बंगाल, बिहार और उड़ीसा की दीवानी को प्राप्त करने के पश्चात् अंग्रेजों ने भारत की एक राजनीतिक सत्ता होने का दावा किया।
सर विलियम ली की वार्नर ने भारतीय राज्यों के साथ अंग्रेजों के सम्बन्धों पर विस्तृत अध्ययन के पश्चात् अपनी पुस्तक ‘‘दि नेटिव स्टेट्स ऑफ इंडिया‘‘ में 1765 से लेकर 1919 के कालखंड तीन भागों में विभाजित किया -
1. रिंग फेंस की नीति अर्थात अपने सुरक्षित घेरे में रहने नीति (1757-1813)
2. अधीनस्थ पृथ्ककरण की नीति (1813-1858)
3. अधीनस्थ एकीकरण की नीति (1818 से लेकर 1919 ई0 तक)
1919 के पश्चात और 1947 के बीच के कालखंड को दो भागों में विभजित किया जा सकता है- 1919 से 1953 ई0 तक काकाल जो अधीनस्थ संघ की नीति के ही समान रहा और 1935 सें 1947 ई0 का समय , जो समान संघ की नीति का समय था।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारतीय नरेश राज्य ने के प्रति अंग्रेजो की नीति समय-समय पर परिवर्तितं होते रहें। उन्होने अपनी राजनैतिक शक्ति के विस्तार किये। उन्होने वारेन हेस्टिग्ंस के समय से भारत की सार्वभौमिक सत्ता होने का दावा किया। 1858 ई0 में कम्पनी के हाथो से सत्ता को ब्रिटिश क्राऊन को देकर उसे पूर्णता प्रदान कर दी और लार्ड लिटन के समय में दिल्ली दरबार करके 1 जनवरी 1877 ई0 को रानी विक्टोरिया को भारत की महारानी घोषित कर के कानूनी रूप से प्रदान किया। अंग्रेज 1947 ई0 भारत की स्वंत्रता प्राप्ति के समय उन्होने भारतीय नरेशों को अपनी संप्रभुता से मुक्त कर दिया।
रिंग फेंस की नीतिः- रिंग फेंस की नीति के तहत अंग्रेजो को यथा संभव प्रयत्न रहा ि कवे अपने मर्यादित घेरे मे रहे और उससे आगे वे नरेशों से परस्पर सम्बन्ध टालते रहे। कम्पनी की नीति का आधार अहस्तक्षेप और सीमित उत्तरदयित्व था। साधारणतया अंग्रेजो ने भारतीय नरेश राज्यों को स्वतंत्र मानते हुए उसके साथ व्यवहार किया और उस समय तक उनके आंतरिक और प्रशासिक मामलो में हस्तक्षेप नही किया जब तक कि उनके लिए ऐसा करना उनके हित की रक्षा के लिए आवश्यक नही बन गया। इसके पीछे कई कारण थे। राजनीतिक आवश्यकताओं के कारण कर्नाटक के राज्य को मैसूर रियासत के विरूद्ध और अवध रियासत को मराठों के विरूद्ध बफर राज्य के रूप् में रखा गया। इसके साथ ही कम्पनी के पास उस समय ने इतनी शक्ति थी और न ही इतने संसाधन उपलब्ध थे जिनके आधार पर वह भारतीय रियासतों से लड़कर उनको पराजित कर सके।
लेकिन अहस्तक्षेप की नीति का कठोरता से अनुशरण नहीं किया गया। तात्कालिक आवश्यकताओं के अनुसार और गवर्नर जनरलों की वृत्तियों के अनुसार इस नीति में संशोधन किए गये। वारेन हेंस्टिग्स जो रिंग फेंस की नीति का निर्माता था, ने इस नीति का अनुशासन नही किया। बनारस के राजा चेत सिंह और अवध की बेंगमों के प्रति उसकी मांगों और रूहेलों तथा रामपुर के फैजुल्ला खाँ के प्रति उसका व्यवहार उसके राज्यों में हस्तक्षेप के प्रमुख कारण है। वारेन हेस्टिंग्स और लर्ड कार्नवालिस ने भारतीय नरेशों के साथ समानता के आधार पर सम्बन्ध स्थापित किये। अवध के साथ बनारस की संधि, रूहेला युद्ध, प्रथम मराठा युद्ध तक द्वितीय एवं तृतीय मैसूर युद्ध इसके उदाहरण थें यह नीति ब्रिटेन की लोकसभा द्वारा 1784 ई0 में स्वीकार किये गये और बोर्ड ऑफ डायरेर्क्टस द्वारा माने जाये एक प्रस्ताव के अनुकूल भी था जिसके द्वारा यह विचार प्रकर किया गया था कि भारत में विजय ओर साम्राज्य विस्तार की नीति का अपनाया जाना ब्रिटिश राष्ट्र की इच्छा, सम्मान ओर नीति के विपरीत है।
1798 ई0 में लार्ड वेलेजली के गवर्नर जनरल बनने के पश्चात् इस नीति में परिवर्तन आया वह सम्राज्यवादी था। उसने कम्पनी को भारत की सर्वश्रेष्ठ कम्पनी बनाने का निर्णया लिया और इस लक्ष्य की पूर्त्ति के लिए उसने भारतीय नरेश राज्यों को अंग्रेजो के राजनीतिक ओर सैनिक संरक्षण में लाने का प्रयत्न किया। चतुर्थ आंग्ल -मैसूर युद्ध, द्वितीय मराठा युद्ध और विभिन्न राज्यों से की गई सहायक संधियों ने उसके इस लक्ष्य की पूर्त्ति में सहायता प्रदान की 1803 ई0 में जार्ज बार्लो द्वारा यह लिखने से उसका उद्देश्य स्पष्ट हो गया कि भारत में एक भी राज्य ऐसा नही चाहिए जो अंग्रेजो की शक्ति पर निर्भर न करता हो अथवा जिसका राजनीतिक व्यवहार अंग्रेजो के पूर्ण अधिकार में न हो। वेलेजली को अपने लक्ष्य मे ंसफलता मिली। उसने अंग्रेज कम्पनी को भारत की सर्वश्रेष्ठ शक्ति बना दिया नहीं किया। इसकाल में पारस्परिक सम्बन्धों पर दृष्टिपात करने से स्पष्ट होता है कि मैसूर राज्य के अतिरिक्त अन्य सभी भारतीय नरेशों के साथ जो संधियों की गई वे समानता और पारस्परिक लेन‘- देन के आधार पर की गई और यह पूर्णतया स्पष्ट किया गया। था कि आंतरिक मामलोक में भारतीय नरेश पूर्णतया संप्रभू रहेगे और अंग्रेजों द्वारा उनमें हस्तक्षेप नही किया जायगे। जिन भारतीय नरेशों ने सहायक संधि स्वीकार भी किया वे भी कानूनी रूप् से आंतरिक मामलों मे ंपूर्णतया स्वंतत्र रहे यद्यपि व्यवहारिक रूप से आंतरिक मामलों में अंग्रेजो ने अपने रेजीडेन्टों के माध्यम से हस्तक्षेप किया। इसके अतिरिक्त रणजीत सिंह जैसे शासकों ने जिसने 1809 ई0 में अग्रेजो से अमृतसर की संधि की पूर्णता अंग्रेजो सें समानता के आधार पर संधि की।
अधीनस्थ अलगावकी नीतिः- वेलेजली के युद्धों ओर सहायक संधि पर ने अधिकाश भारतीय नरेश राज्यों को अंग्रेजो की अधीनता की स्थिति में पहुँचा दिया। इस कारण, उसके बाद के समय में अंग्रेज भारतीय नरेशों से अपने अधिकारों की अपेक्षा करने लगे। इसका आधार उसकी बढ़ती हुई शक्ति थी। इस समय ब्रिटेन ने यूरोप में नेपोलिय की शक्ति को नष्ट करने में प्रमुख भाग लिया। इससे विश्व में एक सैनिक शक्ति के रूप् में भी उसके सम्मान मे वृद्धि हुई। उसके फलस्वरूप भारत में भी अंग्रेजो के व्यवहार मे परिर्वतन हो गया। इसके अतिरिक्त लार्ड हेटिग्ंस के सफल युद्धों और मुख्यतया तृतीय मराठा युद्ध मे मराठों की शक्ति के विनाश से अंग्रेज वस्तुतः भारत की सर्वश्रेष्ठ शक्ति बन गये। अंग्रेजो ने इस कारण अपने आपकों भारत का संप्रभु मानना आरम्भ कर दिया। लार्ड हेस्टिंग्स ने अंग्रेजो की नवीन नीति को स्पष्ट करते हुए कहा कि हमारा व्यवहार भारत की संप्रभु शक्ति के भॉति होना चाहिए। सभी भारतीय राज्यों को अपने अधीन राज्यों की भाँति मानना चाहिए।
लार्ड हेस्टिग्स चाहता था कि अंग्रेज भारतीय नरेशों की सीमाओं की सुरक्षा का आश्वासन इस शर्त्त पर दें कि वे जागीरदारों के दे मुख्य उत्तरदायित्वों की पुर्त्ति करेंगे अर्थात् प्रथम वे आवश्यकता होने पर अंग्रेजो को पूर्ण सैनिक सहायता प्रदान करेंगे ओैर द्वितीय, उन्हें अपने पारस्परिक झगड़ों का निबटारा बिना एक दूसर के राज्यों की सीमाओं पर मराठो ओर राजपूतों के प्रति व्यवहार करते हुए अपने इस नीति को व्यावहरिक रूप् से स्पष्ट किया। जो संधियों इन राज्यों ने अंग्रेजो से की उनसे उनकी वस्तुतः स्थिति अंग्रेजो के अधीन सामंतो की भाँति हो गई। इसके अतिरिक्त लार्ड हेस्टिग्ंस ने मुगल बादशाह से व्यवहार करते हुए भी यह सिद्ध किया कि वें उसे संप्रभु मानने को तैयार न थे। उससे पहले दिल्ली का अंग्रेज रेजीडेंट कुछ विशेष अवसरों पर अंग्रेज गवर्नर करता था और गवर्नर जनरल की मुहर पर यह अंकित होता था कि वह मुगल बादशाह के अधनी है। लार्ड हैस्टिग्स ने इन दोनों प्रथाओं को मुगल कर दिया। उसने 1815 ई0 में वह उसके निकट के प्रदेशों का ही दौरा कर रहा था। इस प्रकार संप्रभु की भाँति व्यवहार करना आरंभ का दिया इससे मुगल बादशाह और अन्य भारतीय नरेशों के प्रति अंग्रेजो की नीति में महत्वपूर्ण परिर्वन हो गये। अंग्रेजो ने मुगल बादशाह के भारत का संप्रभु मानने से इंकार कर दिया। अंग्रेज मुगल बादशाह से दरबार में मिलते हुए जिन रीति-रिवाजों का पालन किया करते थे, वह अब छोड़ दिये गये और 1827 ई0 में जब लार्ड हर्स्ट दिल्ली के लाल किले के दीवान-ए-खास में मुगल बादशाह, अकबर द्वितीय से मिला तब समानता के आधार पर मिला। 1835 ई0 में कम्पनी के पुराने सिक्कों के स्थान पर नवीन सिक्कें चलाये गये जिनपर ब्रिटिश राजा का नाम और उसकी आकृति अंकित थी। लार्ड हेस्टिग्सं ने गर्वनर जनरल की तरफ से मुगल बादशाह को दिये जानेवाले उपहारों को गवर्नर- जनरल के स्थान पर अंग्रेंज रेजीडेंट की तरफ से दियें जानें दकी व्यवस्थ की। लार्ड एलनबरों ने अपने समय मे इन उपहारों को देना बाद करा दिया। लार्ड डलहौजी इससे भी आगें बढ़ गया। उसने स्वयं ही कर्नाटक के नबाव और तंजौर के राजा के पदो ंके समाप्त कर दिया और डायरेक्टरों से यह भी प्रस्ताव किया कि मुगल बादशाह, बहादूरशाह की मृत्यु के पश्चात् मुगल बादशाह के पद को समाप्त कर देना चाहिए और लालकिला को खाली करा लेना चाहिए। इस प्रकार इस साल में धीरे-धीरे अंग्र्रेजों ने भारत के संप्रभु की भांति व्यवहार करना आरम्भ कर दिया और इसमें साथ-साथ मुगल बादशाह की स्थिति को दुर्बल बनाना आरम्भ कर दिया। यह नीति 1877 ई0 में अपनी चरम सीमा पर पहुँच गई, जब विक्टोरिया को भारत की साम्राज्ञी घोषित किया गया और अंग्रेज कानूनी तरीके से भी भारत के संप्रभु बन गये।
इस काल में ब्रिटिश नीति में दूसरा महत्वपूर्ण परिवर्तन यह हुआ कि अंग्रेजो का हस्तक्षेप नरेश राज्यों के आंतरिक मामलों में निरंतर बढ़ता गया। अंग्रेजो द्वारा संप्रभु की शक्ति का प्रयोग सर्वप्रथम 1824 ई0 में अलवर राज्य में उनके हस्तक्षेप करने से सिद्ध होता है। अहमद बक्श शाहह अलबर राज्य की सेवा मे था। उसने द्वितीय मराठा युद्ध में अग्रेंजो की बहुत सेना की जिसके फलस्वरूप अंग्रेजो ने उसे अपनी संप्रभुता में फीरोपुर की जागीर प्रदान की। अलबर के राजा के उसकी हत्या का प्रयास किया, परन्तु वह असफल रहा। अंग्रेजो ने अलवर के राजा को यह आदेश दिया कि जिन व्यक्तियों ने अहम दबम्श की शाह की हत्या का प्रयत्न किया था, उनको पकड़कर दिल्ली न्याय के लिए भेज दिया जाये राजा ने उनके आदेश को स्वीकार नही किया और अलवर की सुरक्षा की व्यवस्था करना आरभ्म कर दिया। अंग्रेजो ने गंभीर परिणामों की धमकी दी ओर बाद में उसे आत्मसमर्पण करने के लिए बाध्य किया। इसी प्रकार 1825 ई0 में अंग्र्रेजो ने भरतपुर राज्य के उत्तराधिकार के प्रश्न पर हस्तक्षेप किया। उस समय दिल्ली का रेजीडेंट सर चार्ल्स मेटकॉफ ने इस आधार पर उस राज्य में हस्तक्षेप करने की मांग की कि तृतीय मराठा युद्ध के विजय के पश्चात् अंग्रेज भारत के संप्रभु बन चुके है। उसने यह विचार व्यक्त किया कि भारत के नरेश शांति स्थापित करना और शासन के कुप्रबन्ध को रोकना जिससे शांति भंग होने की आंशका बनी रहती है, उनकी नीति का प्रमुख सिद्धान्त है। इस प्रकार अंग्रेजो ने भारतीय नरेश राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के अधिकर का प्रयोग इस आधार पर किया कि भारत के संप्रभु होने के कारण उनकी सीमाओं के अंतर्गत शांति और व्यवस्था बनाये रखने का अधिकार ओर कर्त्तव्य दोनों उनका है। इस आधार पर अंग्रेजो ने अवध, मैसूर, नागपुर, उदयपुर, जैतपुर आदि राज्यों के मामलों में हस्तक्षेप कितना और किस प्रकार हुआ यह राज्य में नियुक्त हुए अंग्रेज रेजीडेंट के व्यक्तित्व पर निर्भर करता था। परन्तु यह स्पष्ट था कि अपने आंतरिक मामलों में भी भारतीय नरेशों को स्वतंत्र शासक स्वीकार नही किया गया बल्कि इस सम्बन्ध में भी उन्हें अंग्रेजो को संप्रभु स्वीकार करना पड़ता है।
तृतीय इस युग में अंग्रेजी साम्राज्यवाद अपनी चरम सीमा पर पहुँच गया। सार्वभौमिक भक्ति का व्यहारिक प्रयोग और साम्राज्य का अधिकतम विस्तार इस समय में अंग्रेजो की नीति के मुख्य आधार रहे। जिसके इस समय में प्रत्येक संभव साधन से अंग्रेजो ने अपने साम्राज्य का विस्तार किया। भारत में जो भी भूमि उनके लिये आर्थिक ओैर राजनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण थी कि उस पर उन्होंने अधिकार कर लिया। उन्होने युद्ध कुशामन और स्वंय के पुत्र तथा उतराधिकारी की अनुपस्थिति के आधार पर विभिन्न राज्यों को अपने राज्य में सम्मिलित कियां। उन्होंने राज्यों को हड़पने को इस आधार पर न्यायोचित ठहराया कि ऐसा करके वे हत्या चादी शासकों के शासन से उनकी प्रजा की रक्षा कर रहे है। परन्तु उनका यह कहना पूर्णतया गलत था। उन्होने युद्ध किया और पराजित शासकों को राज्यों को अपने राज्य मे समाहित कर लिया। इसमें उनका लक्ष्य केवल विस्तार मात्र था। जहाँ तक नरेश राज्यों के कुशासन का प्रश्न था वह कहा गया कि उसका एक प्रमुख कारण उन राज्यों के शासन मे अंग्रेजो रेजीडेटो का हस्तक्षेप थ जिसके कारण इस काल में अग्रेजो ने सिन्ध, पंजाब, असम ओर वर्मा को युद्धों द्वारा अपनें साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया। 1831 ई0 में अंग्रेजो ने कुशासन के आधार पर ही अंग्रेजो ने कछार, कुर्ग, मणीपुर, और जन्तिया के राज्यों को हमेशा के लिए अपने राज्य में सम्मिलित कर लिया। 1842 ई0 में आकलैंड ने कुर्नूल राज्य को अंग्रेजो राज्य मे सम्मिलित किया और 1843 ई0 मे लार्ड एलनबरो ने ग्वालियर राज्यों में हस्तक्षेप किया और उसे अपनी सुरक्षा म ेले लिया।डलहौजी से पहले अंग्रेजो ने गद्दी का वस्तुतः उत्तराधिकारी न होने के आधार पर 1839 ई0 में माण्डवी, 1840 ई0 मे कोलावा ओैर जालीन तथा 1842 ई0 में सुरत को अपने राज्यें में सम्मिलित कर स्थित डलहौजी व्यपगत सिद्धान्त के तहत 1848 ई0 मे ंसतारा, उदयपुर, 1853 ई0 में झाँसी ओर 1854 ई0 मेंं नागपुर को अंग्रेजी राज्य में सम्मिलित कर लिया। हैदराबाद राज्य से बरार छिन लिया गया ओर 1856 ई0 में कुशलता के आधार पर अवध को अंग्रेजो राज्य में सम्मिलित कर लिया गया।
इस प्रकार इस काल में अंग्रेजो ने अपने आर्थिक गया। राजनैतिक हितों के सिद्धि के लिए भारतीय नरेशों के प्रति संप्रभ्ुु शक्ति के सम्पूर्ण अधिकारों का प्रयोग किया। परन्तु फिर भी इस समय में ब्रिटिश संप्रभुता की व्याख्या नही की गई थी। इस कारण इसका अर्थ स्पष्ट नही हुआ था। जिसके कारण उनके सम्बन्ध भारतीय नरेश राज्यों से स्पष्ट ओर निश्चित नही रहे।
अधीनस्थ संघ की नीतिः- ब्रिटिश सरकार की भारतीय रियासतों के साथ 1858 ई0 के आगे की नीति को अधीस्थ संघ की नीति कहा जा सकता उनकों नजदीक लाने की नीति अपनाई गई। 1858 के बाद नीति में परिवर्तन करते हुए रियासतों को साथ अच्छे सम्बन्ध पैदा करने के प्रयत्न किये जाने लगे। बिद्रोह के समय मे कुकु नरेशों ने अंग्रेजो की बिद्रोह को दबाने में बहुत सहायता की ओर अधिकांश नरेश तटस्थ रहे। इस कारण अंग्रेजो ने इन शासकों को सम्मान, पद ओर भूमि देकर पुरस्कृत किया। 1858 ई0 में ब्रिटिश क्राउन ने अंग्रेजो कम्पनी के हाथों से भारत का शासन अपने हाथो मे ले लिया और भारतीय नरेशों तथा कम्पनी के मध्य हुए सभी समझौता तो तथा संधियो के पालन करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ले लिया उसी वर्ष रानी विक्टोरिया की एक घोषणा के द्वारा भारतीय नरेशों के दो सुविधाओं भी प्रदान की गई। भारतीय राज्यों के अंग्रेजो राज्य में सम्मिलित किये जाने की नीति त्याग दी गई। यह मान लिया गया कि भाविष्य मे कभी भी नागरिकों के विद्रोह या असंतोष प्रकट के अवसर पर भारतीय नरेश राज्यों से सहायता प्राप्त होगी। इस कारण उसके अस्तित्व की रक्षा करना ब्रिटिश सरकार द्वारा लाभदायक समझा गया और रानी विक्टोरिया की घोषणा द्वारा यह व्यक्त किया गया कि क्राउन की इच्छा भारत में साम्राज्य विस्तार का नहीं है। इसके अतिरिक्त यह भी घोषित किया गया कि प्रत्येक हिन्दू और मुसलमान शासक को अपने धर्म के अनुसार बच्चा गोद लेने का अधिकार है। भारतीय रियासतों को सनहें देने का निश्चय किया गया और 160 सनहें भी दी गई।
परन्तु भारतीय नरेशों को यह सुविधायें प्रदान करने के साथ अन्य दृष्टि से अनेक स्तर में कमी की गई। मुगल सम्राट का अंत हो गया, अब प्रत्येक दृष्टि से ब्रिटिश क्राउन भारत की संप्रभु-शक्ति बन गई। यह भी स्पष्ट कर दिया गया कि किसी भी राज्य का उत्तराधिकारी राज्य का स्वामी उस समय तक नहीं हो सकता जब तक कि उसको ब्रिटिश सरकार स्वीकार नहीं कर लेती। इस प्रकार सभी भारतीय नरेश प्रत्यक्ष रूप से ब्रिटिश क्राउन के अधीन कर लिये गये। वस्तुतः सभी नरेशों को उनके राज्य का स्वामी इस शर्त्त पर स्वीकार किया गया कि वे अंग्रेज सरकार के प्रति वफादार रहेंगे। कैनिंग ने भारतीय नरेशों को अधीन शासक और ब्रिटिश क्राउन को भारत का सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न संप्रभु कहकर पुकारा।
अंग्रेजों ने भारतीय नरेशों के प्रति अपने संप्रभु होने के अधिकारों का प्रयोग विभिन्न प्रकार से किया। उन्होंने इस समय में भारत की राजनीतिक एकता अथवा एक उत्तर-दायित्व के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया। इसका अर्थ था कि अंग्रेज सम्पूर्ण भारत के हित का ध्यान रखते हुए स्वयं कुछ भी कर सकते थे और उसके सम्बन्ध में भारतीय नरेशों को कुछ भी करने का आदेश दे सकते थे। सम्पूर्ण भारत को तार, रेल और डाक व्यवस्था के लिए एक राज्य स्वीकार किया गया और इसके लिए नरेश राज्यों की सीमाओं को पृथक राज्यों की सीमायें स्वीकार नहीं किया गया। अंग्रेजो मुद्रा को सम्पूर्ण भारत में मान्यता प्रदान की गई। भारत में ऐसे विश्वविद्यालय स्थापित किये गये जहाँ शिक्षा प्राप्त करने के लिए कोई भी भारतीय प्रवेश कर सकता था। अंग्रेजों ने शस्त्र-निर्माण करने का एकाधिपत्य अपने हाथों में ले लिया। उच्च न्यायालय भारतीय नरेशों की न्याय-व्यवस्था के लिए आदर्श बन गये। भारतीय नरेशों को मंत्रियों, दीवानों आदि की नियुक्ति के सम्बन्ध में सहमति लेने के लिए बाध्य कर दिया गया। अल्पायु नरेशों के अभिभावक होने का अधिकार अंग्रेजी राज्य ने ले लिया। महत्वपूर्ण कानून बनाने के लिए देशी नरेश अंग्रेज सरकार की स्वीकृति लेने को बाध्य थे। अंग्रेजी क्राउन ने भारतीय नरेशों को पद देने, उनके पद के अनुसार सलामी देने आदि जैसे अधिकार भी अपने हाथ में ले लिये जो 1858 ई0 से पहले मुगल का बादशाह के हाथों में था।
अंग्रेजों ने नरेश राज्यों के शासकों को ठीक करने के आधार पर भी उनके आंतरिक शासनों में हस्तक्षेप करने के अधिकार का प्रयोग किया। 1860 ई0 में लार्ड कैनिंग ने इस आधार की स्पष्ट घोषणा कर दी थी। लार्ड मेयों ने इसे और स्पष्ट करते हुए कहा कि ‘यदि हम तुम्हें शासक बनाये रखने में सहायता प्रदान करते है तो इसके बदले में तुमसे अच्छे शासन की आशा भी करते है।‘ इसने स्पष्ट किया कि कुशासन की स्थिति में अंग्रेज सरकार को भारतीय नरेश के राज्य के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप का पूर्ण अधिकार है, यदि एक योग्य शासक के विरूद्ध उसकी प्रजा विद्रोह करती है तो अंग्रेज सरकार उसे दबायेगी और अंग्रेज सरकार किसी भी स्थिति में किसी भी नरेश राज्य में गृहयुद्ध नहीं होने देगी। अंग्रेजों ने देशी राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने के इस अधिकार का प्रयोग विभिन्न अवसरों पर किया। 1867 ई0 में टींक राज्य के नवाब को अपनी गद्दी अपने पुत्र के पक्ष में छोड़नी पड़ी। 1870 ई0 में अलवर नरेश को अपनी गद्दी अपने पुत्र के पक्ष में गद्दी छोड़ने के लिए बाध्य किया गया। 1873 ई0 में बड़ौदा के गायक 113 को गद्दी से हटाकर जेल में बन्द कर दिया गया। 1885 ई0 में कश्मीर के महाराजा को एक संरक्षक परिषद को शासन सौंपने के लिए बाध्य किया गया। 1891-92 ई0 में मणिपुर राज्य में हुए विद्रोह को अंग्रेजों ने दबाया और राजा को गद्दी से हटा दिया। 1892 में कलातके खान को शासन की कुव्यवस्था के कारण गद्दी से उत्तर दिया गया। मणिपुर और देशी राज्यों के आंतरिक मामलों में किये गये इन हस्तक्षेपों से यह स्पष्ट होता है कि अंग्रेज प्रत्येक भारतीय नरेश राज्य के उत्तराधिकार के प्रश्न में हस्तक्षेप करने का अधिकार रखते है, भारतीय नरेश के द्वारा अंग्रेजों के आदेश का पालन किया जाना विद्रोह समझा जायेगा। यदि कोई शासक या उसके राज्य का कोई भी व्यक्ति अंग्रेजों के हितों के विरूद्ध कार्य करेगा तो उसे दण्ड दने का अधिकार अंग्रेजों को होगा और भारतीय नरेश राज्यों के सम्बन्ध में अंतरराष्ट्रीय कानून लागु नहीं किये जाएगे।
लार्ड कर्जन ने अंग्रेजों की संप्रभुता के अधिकार पर और भी अधिक बल दिया। उसने नरेश राज्यों के प्रति एक संरक्षक के रूप में व्यवहार करना आरम्भ किया, यहाँ तक कि उसने उनके यूरोप घूमने जाने पर भी प्रतिबंध लगाये लेकिन बाहने, भारत में राष्ट्रीयता की भावना प्रबल हो जाने के कम अंग्रेजों द्वारा नरेशों की सद्भावना प्राप्त करने की आवश्यकता को भी समझ गया। इस कारण भारतीय नरेशों की सेनाओं को अंग्रेज सरकार की सेना का भाग समझा गया और उसके प्रशिक्षण के लिए अंग्रेज सेनाधिकारियों की नियुक्ति की गई इसके अतिरिक्त भारतीय नरेशों को पारस्परिक सम्बन्ध बनाने की सुविधा प्रदान कर दी गई। लार्ड लिटन ने सर्वप्रथम इस विचार को जन्म दिया कि अंग्रेज सरकार की सहायता के लिए नरेश राज्यों की एक सलाहकार समिति होनी चाहिए। अन्य गवर्नर जनरलों ने इस विचार का समर्थन किया। उस समय ब्रिटिश सरकार ने इस विचार को स्वीकार नहीं किया परन्तु प्रथम विश्वयुद्ध पश्चात् ब्रिटिश सरकार ने भारत की सुरक्षा के लिए नरेश राज्यों की सहायता लेना आवश्यक समझा। लार्ड हार्डिंग ने पारस्परिक सहयोग के लिए समय-समय पर नरेश राज्यों से सलाह लेने की प्रथा को आरम्भ किया। 1919 ई0 में अंततः मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में यह सुझाव दिया गया कि देशी राज्यों की एक कलाई प्रतिनिधि सभा स्थापित की जानी चाहिए। इस कारण 1921 ई0 में राजाओं की परिषद ‘नरेन्द्र मंडल‘ का निर्माण किया गया।
समानसंघ की नीति :- राजाओं की परिषद के निर्माण से नरेश राज्यों को दो लाभ प्राप्त हुए। प्रथम, नरेशों के पारस्परिक हितों के सम्बन्ध में एक दूसरे से वार्तालाप करने की सुविधा प्राप्त हो गई। द्वितीय, यह निर्णय लिया गया कि सम्पूर्ण भारत के विषय में कोई भी निर्णय लेने के अवसर पर अंग्रेजी सरकार नरेशों से विचार-विमर्श करेगी। परन्तु इस सुविधाओं से नरेश राज्यों पर अंग्रेजी संप्रभुता के अधिकार पर कोई बाधा नहीं आई। 1926 ई0 में लार्ड रीडिंग ने एक पत्र द्वारा हैदराबाद के निजाम को पूर्णतया यह स्पष्ट भी कर दिया कि उनका कोई स्वतंत्र अधिकार नहीं है और अन्य भारतीय नरेशों की भाँति वह भी अंग्रेज सरकार से कुछ स्पष्टीकरण माँगा। इसके परिणाम स्वरूप, 1938 ई0 में बटलर समिति का गठन किया गया। इस समिति ने अपनी रिपोर्ट में न केवल इस बात पर बल दिया कि ब्रिटिश सरकार सम्पूर्ण भारत की संप्रभु है बल्कि यह भी स्पष्ट किया कि भारत के आर्थिक विकास और भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के सम्बन्ध में कार्य करते हुए अंग्रेज सरकार को नरेश राज्यों के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का पूर्ण अधिकार है।
इस समय तक नरेश राज्यों को सम्मिलित करते हुए भारत में एक संघ राज्य के निर्माण का विचार परिपक्व हो चुका था। नेहरू समिति और भारतीय स्टेट्यूटरी कमीशन ने इसकी सिफारिश की थी। गोलमेज परिषदों में नरेश राज्यों के प्रतिनिधयाँ ने भी भाग लिया और संघ राज्य का समर्थन किया। इस कारण 1935 ई0 के भारत सरकार अधिनियम में संघ के निर्माण की रूपरेखा प्रस्तुत की गई थी जिसमें नरेश राज्यों को भी शामिल लिया गया था लेकिन यह उनकी मर्जी पर छोड़ दिया। 1937 ई0 के प्रांतीय चुनावों के समय तक भी इस संघ का निर्माण नहीं हो सका। इस योजना के क्रियान्वित नहीं होने का मुख्य कारण 1939 ई0 में द्वितीय विश्वयुद्ध का आरम्भ हो जाना भी था। अखिल भारतीय कांग्रेस ने युद्ध में अंग्रेज सरकार के साथ सहयोग प्राप्त करने से इन्कार कर दिया। तब भी अंग्रेज सरकार भारतीयों का सहयोग प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील रही और उसने समय-समय पर इन सुधारों के लिये विभिन्न योजनायें प्रस्तुत की जैसे-क्रिप्टन मिशन योजना, वैवेल योजना, और कैबिनेट मिशन योजना 13 जून 1947 ई0 को माउण्ट बेटन योजना में कहा गया था कि भारत के स्वतंत्र होते ही नरेश राज्यों से ब्रिटिश संप्रभुता समाप्त हो जायेगी औरये राज्य भारत या पाकिस्तान में से किसी के साथ भी मिलने के लिए स्वतंत्र होंगे। तत्पश्चात् 15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्रता अधिनियम लागू होने के साथ ही भारतीय देशी राज्यों से ब्रिटिश सम्प्रभुता समाप्त हो गई और वे राज्य भारत अथवा पाकिस्तान में से किसी के भी साथ मिलने के लिए स्वतंत्र हो गये।
सहायक सन्धि प्रणाली
वेलेज्ली ने भारतीय राज्यों को अंग्रेजों प्रभुसत्ता के अधीन करने के लिए सहायक संधि प्रणाली का प्रयोग किया। इस प्रणाली ने भारत में अंग्रेजों सत्ता के विस्तार में महत्वपूण भूमिका निभाई और एक विस्तृत क्षेत्र अंग्रेजो सामाज्य के अंगर्तग समाहित कर लिया गया। इस नीति की समीक्षा करते हुए आल्फ्रेंड लायक ने अंग्रेजो द्वारा युद्ध में भाग लेने की चार अवस्थाएँ वतलाई हैः-1. कम्पनी ने भारतीय मित्र राजाओं को उनके युद्धों में सहायता के लिए अपनी सेना किराये पर दी जैसा कि 1768 ई0 निजाम की संधि में किया गया। 2.कम्पनी ने ंस्वयं अपने मित्रों की सहायता से युद्धों भाग लिया। 3. इस अवस्था मे भारतीय मित्र राजाओं ने सैनिकों के स्थान पर धन दिया और उस धन की सहायता से कम्पनी नेद अंग्रेजो अफसरों की देख रेख में सेना भरती कर उन्हें प्रशिक्षण और साज-सज्जा इत्यादि देकर लिया।
4.यह अंतिम और प्राकृतिक अवस्था थी। इसमें कम्पनी ने अपने मित्र राजाओं की सीमाओं की रक्षा का भार अपने ऊपर लिया ओर इस उद्देश्य से अपनी एक सहायक सेना उस राज्य में रख दी। इसके बदलें में भारतीय मित्रों को धन इनी अपितु अपने प्रदेश का एक भाग कम्पनी को देना होता था। इस प्रकार की संधि 1800 ई0 में हैदराबाद के निजाम के साथ ही गई।
सहायक संधि प्रणाली एक यूरोपीयन प्रणाली थी जिसका प्रारम्भिक प्रयोगकर्त्ता डुप्ले था, उसने सर्वप्रथम अपनी सेनाये किराये पर भारतीयों ने की। वेलेजली ने इस प्रणाली का विकास कर अपने सर्म्पक में आने वाले सभी देश राजाओं के सम्बन्धों में इसका प्रयोग किया। 1765 ई0 में सहायक संधि अवध के नवाब के साथ ही हुई जब कम्पनी ने निश्चित धन के बदले उसकी सीमाओं की रक्षा करने का वचन दिया तथा अवध ने एक अंग्रेज रेजिडेंट लखनऊ में रखना स्वीकार किया। सर जॉन शोर ने 21 जनवरी 1798 ई0 में एक दूसरी संधि की जिसमें यह भी कहा गया था कि वह किसी यूरोपीन को अपने सेवा में न रखे। भारतीयों रियासतों द्वारा समय पर धन न देने के कारण कम्पनी ने इन सेनाओं के रख-रखाव के खर्च के लिए पूर्णतया प्रभुसत्ता मुक्त प्रदेश देने की मांग की। सहायक संधि निम्न शर्तो पर की जाती थी।
1.भारतीय राजाओं के विदेशी सम्बन्ध कम्पनी के अधीन होंगे। वे कोई युद्ध नहीं करेगें तथा अन्य राज्यों से बातचीत कम्पनी द्वारा हो होगी।
2.बड़े राज्यों को अपने यहाँ एक ऐसी सेना रखनी होगी जिसकी कमान ब्रिटिश अधिकारियों के हाथ में होगी और जिसका उद्देश्य सार्वजनिक शांति बनाये रखना होगा। इसके लिए उन्हें पूर्ण प्रभुसत्ता युक्त प्रदेश कम्पनी को देना होगा। छोटे राज्यों को कम्पनी को नकद धन देना पड़ेगा।
3.राज्यों को अपनीह राजधानी में एक अंग्रेजो रेजीडेंट रखना होता था।
4.कम्पनी राज्यों के आंतरिक मामले में हस्तक्षेप नहीं करेंगी।
5.कम्पनी राज्यों की प्रत्येंक प्रकार से शुत्रओं से रक्षा करेगी।
6.राज्यों को कम्पनी के अनुमति के बिना किसी यूरोपीयन को सेवा में नही रखना होता था।
सहायक संधि का लाभः- इस संधि से भारतीय राज्य शक्तिहीन हो गये। उन पर कम्पनी का परोक्षा नियंत्रण स्थापित हो गया। अब वे अंग्रेजो के खिलाफ किसी संघ का निर्माण कर युद्ध नही कर सकते थे क्योकिं राजधानी स्थित रेजीडेंट एक में दिए का काम करता था। इससे कम्पनी पर भारतीय रियासतों के खर्चे पर एक ऐसी सेना मिल गई जिसे विदेशी राज्य के भीतर और बाहर नियुक्त किया जा सकता था। यह सेना पूर्ण रूप् से हथियार बंद थी तथा इसे अल्प सूचना पर किसी भी दिशा में किसी भी समय लड़ने के लिए भेजा जा सकता था। कंपनी के अधिकृत क्षेत्रों की शांति व्यवस्था भंग किए बिना तथा अंग्रेंजो सरकार पर बिना अतिरिक्त बोझ दिए किसी भी भारतीय राजा के विरूद्ध इन्हें प्रयुक्त किया जा सकता था। भारतीय राजाओें के राजधानियों में कम्पनी की सेना रखने से अंग्रजो का बहुत से सामरिक महत्व के स्थानो पर नियंत्रण स्थापित हो गया। सहायक संधि से कम्पनी की सेना का विस्तार उसकी वास्तविक राजनीतिक सीमाओं से बहुत आगे तक हो गया। तथा युद्ध का भार कम्पनी के वित्तीय साधनों पर भी नही पडा। इसके साथ ही युद्धक्षेत्र भी प्रायः कम्पनी के प्रदेशों से दूर ही रहता था। इस प्रणाली का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि अंग्र्रेजो के मन से फ्रांसीसी भय जाता रहा क्योंकि संधि कें प्रवाधानो के अनुसार कोई भी यूरोपीयन कम्पनी की अनुमति के बिना किसी सम्बन्धित राज्य के सेना नही कर सकता था। कम्पनी भारतीय राज्याओं के आपसी विवादों में मध्यस्थ बन गई। क्योकि विदेशी सम्बन्ध कम्पनी के अधीन आ गया था। इन राज्यों में स्थित रेजीडेंट? अत्यंत प्रभावशाली हो गयो तथा कालान्तर में ये इन राज्यों के आतंरिक मामलों में हस्तक्षेप करने लगे। सबसे बड़ा लाभ कम्पनी को यह हुआ उसे बहुत सा पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न प्रदेश मिल गया और इसका साम्राज्य फैला। गया। निजाम ने 1792 तथा 1799 में जो प्रदेश मैसूर से प्राप्त किए थे वे सभी कम्पनी को 1800 ई0 में दे दिए। अवध ने भी 1801 ई0 में रूहेलखंड तथा दोआव के दक्षिण का भाग, जो उसके आधे राज्यों के बराबर था, कम्पनी को सौप दिया।
देशी रियासतों को होने वाली हानियाँः-1.भारतीय राज्य निरस्त्री करण से तथा विदेशी सम्बन्धों को कम्पनी के अधीन स्वीकार करने से अपनी स्वत्रंता खो बैठे। सर टॉमस मुनरो के अनुसार‘‘ राज्यों ने अपनी स्वतंत्रता, राष्ट्रीय चरित्र अथवा वह सब जो किसी देश को प्रतिष्ठित बनाते है, बेंचकर सुरक्षा मोल ले ली।
2.राजधानी स्थित ब्रिटिश रेजीडेंटो ने रियासतों के आंतरिक मामलों मे काफी हस्तक्षेप किया।
3.सहायक संधि ने दुराचारी, निर्बल और निरंकुश राजाओं की सहायता की और इस प्रकार वहाँ की जनताओं अपनी अवस्था सुधारनें के अवसर से वंचित रखा।
4.सहायक संधि स्वीकारने वाले राज्य शीघ्र ही आर्थिक तंगी के शिकार हुए। कम्पनी ने राज्य की आय का एक तिहाई हिस्सा आर्थिक सहायता के रूप में राज्यों से प्राप्त किया। यह इतना अधिक होता था जो कि लगभग सभी राज्यों पर बकाया रहा जाता था। जबधन इके बदले उससे प्रदेश मांगा जाता था तो वह वास्तविक मांग से अधिक होता था। इस प्रकार इस प्रणाली ने साधनों तथा प्रशासनों को पंगु बना दिया।
व्यपगत का सिद्धान्त
व्यपगत का सिद्धान्त डलहौजी की रियासतों को भाँतिपूर्ण विलय हो सम्बन्धित है। इसके द्वारा कुछ महत्वपूर्ण रियासतें साम्राज्य मे ंविलय कर ली गई। डलहौजी का विचार था कि रजवाड़ों और अप्रावृतिक बिचौलियों शक्तियों द्वारा प्रशासन की पुरानी पद्धतियों के संचालन से जनता की मुसीबतें बढ़ती है और यह सब गलत है। यह वह चाहता था कि मुगल संप्रभुता के झुठे आवरण को हटा दिया जाए और जो भारतीय रियासतें मुगलों के उत्तराधिकारी होने का दावा करते है, उन्हें समाप्त कर दिया गया।
लार्ड डलहौजी ने देशी रियासतों का वर्गीकरण तीन तरह से किया 1.वे रियासतों जो कभी भी अग्रेजो शासन के नियंत्रण नही रही और न ही उन्हें किसी प्रकार की कर देती थी। 2.वे रियासतें जो मुगल सम्राट या पेशवा कें स्थान दपर निर्मित की गई थी जिनपर अंग्रेजो का प्रभुत्व स्थापित हो चूका था और 3.वे रियसतो थी जिनकी निर्माण अंग्रेजो ने अपनी सबदों के माध्यम से निर्मित की थी यह उन्हें पुनजीर्वित किया था। 1854 ई0 में अपनी नीति की समीक्षा करते हुए डलहौजी ने कहा था कि प्रथम क्षेणी की रियासतों के गोद लेन के मामलों में हमे हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। दूसरी श्रेणी के रियासतों को गोद लेने के लिए हमारी अनुमति परमावश्यक हे, जिन्हे हम मना भी कर सकते है, लेकिन उन्हे अनुमति मिल जाएगी। परन्तु तृतीय श्रेणी की रियासतों को गोद लेने की आज्ञा नही दी जाएगी।
डलहौजी का मंतव्य था कि कम्पनी का कर्त्तव्य है कि पर अधिक राजस्व और प्रान्तों को प्राप्त करने का कोई भी अवसर नही चूकना चाहिए। राजाओं के निजी सम्पत्ति के उत्तराधिकार के लिए उसमें दत्तकपुत्र को अनुमति है परन्तु गद्दी पर अधिकार उन्हें प्राप्त नही होगा। उसके लिए सरकार को अनुमति आवश्यक है। सरकार दूसरी और तीसरी श्रेण्ेी के लिए गोद लिए पुत्र को गद्दी पर बैठने की अनुमति नही देगी और ऐसी रियासतें व्यपगत कर ली जाएगी।
शांतिपूर्ण विलय का सिद्धान्त की उत्पत्ति 1834 में कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के उस आदेश से होती है जिसमें कहा गया था कि पुत्र के न होने पर दत्तक पुत्र लेने का अधिकार हमारी अनुकम्पा है और एक विशेष प्रकार का अनुग्रह तथा स्वीकृति है जो एक अपवाद के रूप् में देनी चाहिए 1841 ई0 में गृहसरकार ने गवर्नर जनरल को आज्ञा दी कि कोई भी सीधा और स्पष्ट मानपूर्वक अवसर नए करों को अथवा प्रदेंशों को प्राप्त करने का नही खानो चाहिए और इसके अति रिक्त शेष सभी स्थाई अधिकारो का हमें असंदिग्ध रूप से पालन किया जाना चाहिए। इन्ही आज्ञाओं के अनुरूप् 1839 ई0 मेकं माण्डवी राज्य 1840 में कोलाना और जालौर राज्य और 1842 में सूरत की नवावी समाप्त कर दी गई। डलहौजी की धरणा थी कि इस आज्ञा का पालन अक्षरशः किया जाना चाहिए ओर कम्पनी को प्रदेशों को प्राप्त करने का कोई अवसर नही खोना चाहिए। इस सिद्धान्त के तहत निलय किये गये राज्य थेः-’ सतारा 1848 जैतपुरी और संभलपुर 1849 बधार 1850 उदयपुर 1852, झॉसी 1853 और नागपुर 1854 सतारा डलडौजी के व्यगत सिद्धान्त का पहला शिकार बना। यहॉ के राजा अपा साहब के कोई पुत्र न होने के कारण मृत्यु कें कुछ समय पुर्ण कम्पनी के बिना अनुमति के एक दन्तक पुत्र बना लिया डलहौजी सतारा को अश्रित राज्य घोषित किया तथा गोद लेने कें प्रश्न पर सतारा की गद्दी को हस्तगत कर लिया। डाइरेक्टरों ने इसे अनुमति प्रदान करते हुए कहा कि अधीनस्त राज्यों को कम्पनी की स्वीकृति के बिना दत्तक पुत्र लेने का कोई अधिकार नही है।
समलपुर का विलय 1849ई0 में पुत्र के अभाव में कर लिया गया। राज्य के राजा नारायण सिंह को कोई पुत्र नही था और न वह किसी पुत्र को गोद ही ले सका था। अतःउसका राज्य कम्पनी सम्राज्यों में मिला लिया गया। झॉसी का राज्य पहले पेशवा के अधीन था। वाजीराव रव को हार के पश्चात लार्ड हेस्टिंग्स ने झाँसी के शासक राव रामचन्द्र से एक संधि कर झाँसी का राज्य उसे, उसके पुत्र ओर उत्तराधिकारियों को अधीनस्थ सहायोग की शर्तो पर दे दिया था। 1853 ई0 में यहाँ के राजा गंगांधर राव की मृत्यु हो गई, ह बिना पुत्र के ही मरा था। मानने से इंकार कर दिया। फलतः झॉसी का विलय 1853 ई0 में कर लिया गया। नागपुर का शासक रघुजो तृतीय भी 1853 में बिना दत्तक पुत्र के ही स्वर्ग सिघार गया। जब रानी ने पुत्र गोद लेने का प्रस्तावा किया तो कम्पनी ने स्वीकार नहीं किया और राज्य का विलय कर स्थित ने गया। सबसे महत्वपुर्ण बात यह भी कि राज्य की नीति सम्पति भी यह कहकर अधिकृत कर ली गई की कि यह तो राज्य की आय से खरीदी गई थी। भोसले के महल को एक प्रकार से लूटा गया। रानियों के आभूषण और राज प्रश्न का समान बेंचकर 2 लाख पौड बनाये गये थे।
ककगह
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