छठी शताब्दी ई.पूर्व के धार्मिक आंदोलनों की पृष्ठभूमि

सामाजिक और आर्थिक जीवन के बदलते हुए रूप,जैसे नगरों का ,शिल्पी समुदाय का विस्तार,वाणिज्य एवं व्यापार का तीब्र प्रगति धर्म और दार्शनिक चिंतन में होनेवाले परिवर्तनों से घनिष्ठ रूप से सम्बद्ध थे।स्थापित रूढ़िवादिता और नागरिक केंद्रों में उभरते नये गुटों की आकांक्षाओं में होनेवाले संघर्ष ने इस प्रतिक्रिया को और तेज किया होगा,जिससे चिंतन के क्षेत्र में ऐसी अद्भुत सम्पन्नता और शक्ति का आविर्भाव हुआ,जो आगामी शताब्दियों में बेजोड़ रही।ईसा पूर्व छठी शताब्दी में उत्तर भारत की मध्य गंगा घाटी क्षेत्र में अनेक धार्मिक संप्रदायों का उदय हुआ जिनकी संख्या करीब 62 बतायी जाती है।
उत्तरवैदिक काल में यज्ञप्रधान वैदिक धर्म अपने मूल कुरु-पांचाल प्रदेश से उत्तर पूर्व की ऒर फैलने लगा तो उन्हें 40 सेमी.वर्षावाले भूभागों में घने जंगलों का सामना करना पड़ा।यह मात्र धर्म प्रसार नहीं था वरन एक नई उत्पादन तकनीक का प्रसार तथा विकास था।यज्ञ अग्नि के माध्यम से जंगल जलाकर वैदिक लोग आगे बढ़े।यह वस्तुतःजंगल जलाकर तथा पेड़ों को काटकर भूमि को कृषियोग्य बनाने की एक प्रक्रिया थी।नई तकनीक के तौर पर लोहे के उपकरणों एवं हथियारों का प्रयोग जंगल की कटाई में होने लगा।गहरी जुताई के लिए लोहे के फाल अधिक उपयुक्त सिद्ध हुए,कम श्रम से अधिक उत्पादन की क्षमता बढ़ी।कृषि कौशल में वृद्धि के साथ-साथ पौधे के बारे में लोगों की जानकारी बढ़ती गई,पैदावार के अनुसार उनका वर्गीकरण किया जाने लगा।इसप्रकार लौह तकनीक पर आधारित नवीन कृषि प्रणाली के कारण अधिक उत्पादन अधिशेष प्राप्त होने लगा जिससे नगरों की वृद्धि में काफी मदद मिली।उत्तर भारत में इस काल में अनेक नगर खड़े हो चुके थे,इस समय संपूर्ण प्रदेश में लगभग 60 नगर थे।श्रावस्ती की तरह के नगरों की संख्या 20 थी।नगरीकरण की यह प्रक्रिया इस बात की द्योतक थी कि इस समय एक असाधारण शहरी जीवन का सूत्रपात हो चुका था।
उत्तर-पश्चिम भारत और पश्चिमी एशिया के बीच के व्यापार की संभावनाओं ने नगरों के विकास को और अधिक प्रोत्साहन दिया।इसके अतिरिक्त,प्रायद्वीप में दक्षिण की तरफ जानेवाले मार्गों की कारण उत्तरी व्यापार के लिए एक नया मार्ग मिल रहा था।उत्तरी दक्कन के कई स्थलों से गंगा उपत्यका के मिट्टी के बर्तन मिले है जिससे ज्ञात होता है कि इस युग में उस क्षेत्र के साथ उत्तरी भारत नित्यप्रति का संपर्क था।फिर भी व्यापार के मुख्य मार्ग गंगा के किनारे-किनारे राजगृह से कोशाम्बी तक और फिर उज्जैन होकर भड़ौच तक थे जो पश्चिम के साथ समुद्रपारीय व्यापार के लिए प्रमुख बंदरगाह था।कोशाम्बी से गंगा के बेसिन से होता हुआ एक और मार्ग तक्षशिला तक जाता था जो पश्चिम के साथ स्थल व्यापार के निर्गम द्वार था।पूर्व में व्यापार गंगा डेल्टा से बर्मा के ऊपरी तट तक तथा दक्षिण में भारत के पूर्वी तटों से होता था।।
शहरीकरण एवं शिल्प और कलाओं के विकास ने व्यापारिक गतिविधियों मौद्रिककरण कर दिया।इस युग व्यापार और व्यवसाय को मौद्रिक अर्थव्यवस्था से पूरी तरह जोड़ दिया गया।बौद्धग्रंथों में धोबियों,रंगरेजों,चित्रकारों,नाइयों,दर्जियों,बुनकरों और रसोइयों के अतिरिक्त भी कई प्रकार के कारीगरों का वर्णन मिलता है।कारिगरों की दूसरी पीढ़ी में सरकंडे की चीजें बनानेवाले,मिट्टी के बर्तन बनानेवाले,वाहन बनानेवाले,सिलाई का काम करनेवाले,स्वर्णाभूषण बनानेवाले,धातु गलानेवाले,लकड़ी तथा हाथीदाँत की चीजें बनानेवाले,फूलमालाएँ बनानेवाले तथा रेशमीवस्त्र बनानेवाले आदि शामिल थे।अनेक प्रकार के शिल्प-उद्योग के अस्तित्व से सिद्ध होता है कि उपभोक्ता वस्तुओं के उत्पादन के क्षेत्र में विशिष्टीकरण का बोलबाला था।
कारीगर या दस्तकार अक्सर शिल्प संघों या श्रेणियों के अंतर्गत संगठित रहते थे।परवर्ती बौद्ध ग्रंथों में राजगृह में 18 शिल्पीसंघो के अस्तित्व का उल्लेख है,हालाँकि लकड़हारों,धातुकर्मियों,चर्मकारों और चित्रकारों के चार शिल्पसंघों के नाम ही स्पस्ट रूप से गिनाये गये है।प्रत्येक शिल्पीसंघ के सदस्य नगर के एक विशेष भाग में रहते थे।इससे दस्तकारियों एवं उद्योगों का क्षेत्रीयकर्ण तो हुआ ही, साथ ही साथ उद्योग-धंधों के क्षेत्र में पिता को पुत्र को मिलनेवाली वंश परंपरा चल पड़ी।इसप्रकार शिल्प वंशानुगत होने लगे।शिल्पसंघ की अध्यक्षता मुखिया करता था।व्यापार और उफ्योग सेट्ठियों के हाथों में थे और वे कई बार शिल्पी संघों के प्रधान भी होते थे।साधारणतः वे नगरों में रहते थे,लेकिन राजा की ओर से निर्वाह के लिए गावों का राजस्व प्रदान किया जाता था, वे गांवों से जुड़े रहते थे।सेट्ठी या श्रेष्ठ एक प्रकार का बैंकर या महाजन होता था और कभी-कभी वह व्यापार संघ की भी अध्यक्षता करता था।इन शिल्पी संघों ने अपने-अपने सिक्के चलाये।स्वभावतः सिक्के के प्रचलन से व्यापार और वाणिज्य का काफी विस्तार हुआ जिससे वैश्यों के महत्व में बढ़ोत्तरी हुई।ब्राह्मण समाज में वैश्यों का स्थान तृतीय कोटि का था।स्वभावतः वे ऐसे किसी धर्म की खोज में थे जहाँ उनकी सामाजिक स्थिति सुधरे।वैश्यों ने महावीर और बुद्ध की उदारतपूर्ण सहायता की।इसके पीछे कारण यह था कि दोनों धर्मों में वर्ण व्यवस्था को कोई तरजीह नहीं दी गयी थी।दूसरे, वे अहिंसा का उपदेश देते थे जिससे विभिन्न राजाओं के बीच होनेवाले युद्धयों का अंत हो सकता था।जिसके परिणामस्वरूप व्यापार-वाणिज्य में उन्नति आवश्यम्भावी थी।तीसरे,ब्राह्मणों की क़ानून सम्बन्धी पुस्तकों में,जो धर्मशास्त्र कहलाती थी,सूद पर धन लगाने के कारोबार की निंदा की गयी है और सूद पर ज़िंदा रहनेवालों को अधम कहा गया है।अतः जो वैश्य व्यापार-वाणिज्य में वृद्धि होने के कारण महाजनी करते थे,वे आदर नहीं पाते थे।ये वहीं लोग थे जिन्होंने सामाजिक प्रतिष्ठा की चाह में इन असनातनी धर्मों काफी तरजीह दी।
कुरु-पांचाल जैसे कुछ प्रदेशों में विकसित कृषि व्यवस्था के वावजूद मांसाहार के लिए पशुओं का वध जारी था।यज्ञ विधान की परंपरा के कारण भी पशु-वध विशेष रूप से जारी था।किंतु नवीन कृषि प्रणाली में कृषिकार्य के लिए अधिकाधिक पशुओं की आवश्यकता पड़ने लगी।लोग पशुओं की सुरक्षा की आवश्यकता अनुभव करने लगे।पशु-वध चाहे वैदिक यज्ञों में हो या उत्तर-पूर्व के जनजातीय लोगों में अब यह एक आवश्यक रूढ़ि बन गयी थी।वैदिक ग्रंथों विशेषकर उपनिषदों में पशु-वध की निंदा की गयी है और अहिंसा के उपदेश गये गये है।किंतु ये उपदेश उतने प्रबल नहीं है जितने बौद्ध ग्रंथों में उद्धघृत है।फलतः इन नवीन धर्मों को बढ़ावा मिला।ब्राह्मण ग्रंथों और उपनिषदों से ज्ञात होता है कि वैदिक मन्त्र देववाक्य माने जाते थे।उन्हें कोई परिवर्तित नहीं कर सकता था।लोगों में यह विश्वास प्रचलित था कि किसी यज्ञ या अनुष्ठान में मंत्रोच्चार की थोड़ी त्रुटि होने पर भयंकर परिणाम हो सकते है।ऐसे सांस्कृतिक परिवेश में यह स्वाभाविक ही है कि पुरोहितों का अत्यधिक महत्व होता।किन्तु उनकी धन लोलुपता समाज के लिए कष्टकारक होने लगी औए साथ ही यज्ञ तथा कर्मकांड भी नीरस,जटिल और दीर्घकालिक यज्ञों में पशु-वध तथा पुरोहितों को दी जानेवाली बहुमूल्य दक्षिणा के कारण धन और पशु की हानि हो रही थी।फलतः उत्तरी-पूर्वी भारत की ओर प्रसार होने के वावजूद भी इस क्षेत्र में यज्ञमूलक वैदिक संस्कृति डैमेज में पूर्णरूप से स्वीकृत नहीं हो सकी।कर्मप्रधान वैदिक संस्कृति का प्रवृतिमार्गी धर्म,उपनिषद के ज्ञानमार्ग तथा श्रवण परंपरा के निवृतिमार्गी संन्यासप्रधान धर्म के विपरीत था।वैदिक काल में तो कर्म के अनुसार वर्ण निर्धारित होता था,किन्तु इस समय जन्म से ही वर्ण निश्चित होने लगा।समाज में ब्राह्मण या क्षत्रिय वरणोंकी श्रेष्ठता स्थापित हो चुकी थी।अपने निर्धारित कर्मों से च्युत होने पर भी इन वर्णों के लोग समाज में सम्मान की।अपेक्षा करते थे।वर्णव्यवस्था उत्तर-पूर्व भारत में भी प्रचलित थी।जो नई उत्पादन-प्रणाली में सम्मिलित होते थे,वे धीरे-धीरे अपनी हैसियत और क्षमता के अनुरूप किसी न किसी वर्ण से सदस्य के रूप में सामाजिक दर्जा प्राप्त करते थे।नवीन उत्पादन-प्रणाली के कारण जनसंख्या में काफी वृद्धि होने लगी और वर्ण के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण की प्रक्रिया इस काल में और भी तेज हो गयी।सम्भवतः यह भी एक कारण रहा होगा जिससे समाज में वर्ण सम्बन्धी अव्यवस्था फ़ैल रही थी।दूसरे,क्षत्रिय वर्ग को ही शस्त्र-धारण करने का अधिकारी माना जाने लगा था,वहीं प्रजा से कर वसूल करता था और कृषकों से उपज का अधिशेष भी।इसी नये क्षत्रियवर्ग पर एक प्रकार से राज्य की नींव टिकी हुई थी।शासकों तथा नये क्षत्रिय वर्ग का अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रति सजग होना स्वाभाविक था।फलतः क्षत्रिय लोग,ब्राह्मणों के धर्म विषयक प्रभुत्व पर प्रबल आपत्ति करने लगे थे।ऐसा लगता है कि उन्होंने वर्णव्यवस्था को जन्ममूलक मानने के विरुद्ध एक प्रकार का आंदोलन खड़ा कर दिया।विविध विशेषाधिकारों का दावा करनेवाले पुरोहितों या ब्राह्मणों की श्रेष्ठता के विरुद्ध क्षत्रियों का खड़ा होना नये धर्मों के उद्भव का अन्यतम कारण साबित हुआ।
इसके अतिरिक्त तरह-तरह के निजी संपत्ति के संचय के विरुद्ध भी कड़ी प्रतिक्रिया थी।पुराने विचार के लोग,जो सिक्कों को, जो सोने,चाँदी और ताँबे के थे;इस्तेमाल में लाना या जमा करना पसंद नहीं करते थे।वे लोग नए-नए ढंग के निवासों और परिधानों से परहेज करते थे तथा युद्ध एवं हिंसा से घृणा करते थे।संपत्ति के नए-नए प्रकारों से समाज में असमानता पनपती थी और आम जनता को कष्ट होता था।इसलिए सामान्य लोग कामना करते थे कि आदिम जीवन लौट आये।वे फिर संन्यास के आदर्श की और लौटना चाहते थे जिसमें संपत्ति के नए-नए प्रकारों और जीवन की नई पद्धति के लिए कोई जगह नहीं थी। बौद्ध और जैन दोनों संप्रदाय सरल,शुद्ध और संयमित जीवन के पक्षधर थे।बौद्ध और जैन भिक्षुओं को आदेश था कि वे जीवन में उत्कृष्ट वस्तुओं का उपभोग ना करें।उन्हें सोना और चांदी को छूना मना था।अपने दाताओं से उतना ही धन ग्रहण करना था,जितने से उनकी प्राणरक्षा हो सके।इसलिए उन्होंने गंगाघाटी के नए जीवनमे विकसित भौतिक सुख-सुविधाओं का विरोध किया।यह प्रतिक्रिया ठीक वैसी ही थी जैसी आधुनिक काल में औद्योगिक क्रान्ति से आए परिवर्तनों के विरूद्ध देखने को मिली थी।
इसप्रकार,इस भौतिक परिवर्त्तन की पृष्ठभूमि परखने पर स्पष्ट होता है कि कुरु-पांचाल क्षेत्र में प्रचलित वैदिक संस्कृति के अनेक तत्व अर्थहीन हो गए थे क्योंकि वे सामाजिक विकास में बाधक हो रहे थे।इसीप्रकार,पूर्वोक्तर भारत का प्राचीन जन-जातीय जीवन नये सामाजिक तथा आर्थिक ढाँचे के लिए उपयोगी नहीं रह गया था किंतु पश्चिमी गंगाघाटी में पल्लवित वैदिक संस्कृति के अनेक तत्व पूर्व में पहुँच चुके थे,जैसे जातिवाद,यज्ञवाद,पुरोहितों की महत्ता सम्बन्धी धारणा और वेदवाद।इसलिए उत्तर-पूर्व भारत में धार्मिक आंदोलनों ने इन्हीं तत्वों को अपना प्रहार का केंद्र बनाया।

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