सूर की आलंकारिक योजना
उपमा कालिदासस्य संस्कृत में एक प्रचलित उक्ति है, लेकिन हिंदी में इस उक्ति को सूरदास जी ने हु-ब- हू चरितार्थ किया है, यह कहने में कहीं किसी को कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। वास्तव में जहां सांगरुपकों के प्रयोग में गोस्वामी तुलसीदास, श्लेष के प्रयोग में सेनापति,अन्योक्ति के प्रयोग में दीनदयाल गिरि, परिसंख्या के प्रयोग में केशवदास का विशेष उल्लेख किया जाता है, वही उपमा और उत्प्रेक्षा अलंकारों उनके प्रयोग में सुरदास की कुशलता की गणना बड़े गौरव के साथ की जा सकती है। सुरदास रस और ध्वनि के सिद्ध कवि है। अलंकार उनकी कविता में झूठे चमत्कार प्रदर्शन के लिए नहीं आए हैं।अपितु भाव की प्रभाववृद्धि के रूप में अलंकार का प्रयोग हुआ है। सूर्य अपने अलंकारों के उपमान प्रकृति से लिए हैं- मानव और मानवेत्तर दोनों व्यापारों को वे प्राकृतिक उपमानों से ही सामने लाते हैं । भाव को प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत करने के लिए सूर ने उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा और रूपकातिश्योक्ति जैसे अलंकारों का अधिक प्रयोग किया है। वस्तुतः सूर ने रूप- चित्रण के अंतर्गत अधिकतर उपमा, उत्प्रेक्षा और संदेह अलंकारों का प्रयोग किया है। ऐसा लगता