ब्रह्मराक्षस कविता का शिल्प

 ब्रह्मराक्षस का शिल्प

ब्रह्मराक्षस, मुक्तिबोध की, अंधेरे के बाद; एक लंबी कविता है वह भी एक फैंटेसी के रूप में। फैंटेसी का इस्तेमाल पूराकथाओं, लोककथाओं और साहित्य में भी काफी मात्रा में हुआ है। ऐसी स्थिति में मुक्तिबोध ने अपनी कविताओं में धीरे-धीरे फेंटेसी के सहारे लिखना शुरू किया, जिसका आलोचकों ने काफी विरोध किया। अपनी कविता में उन्होंने फैंटेसी का इस्तेमाल कई रूपों में किया है। कहीं उसका स्पर्श हल्का है, कहीं बहुत गहरा। कभी कोई कविता पूरी फैंटेसी में होती है  तो उसके अंत में कवि उस पर फेंटेसी की एक कूची फेर देता है। ब्रह्मराक्षस और अंधेरे में इन दोनों कविताओं में फैन्टेसी के दो रूप देखने को मिलते हैं, अपने अनोखे अंदाज में। फेंटेसी वह तर्कहीन कल्पना है, जो सबसे ज्यादा स्वप्न से मिलती है। अंधेरे में की फैंटेसी ऐसी ही है।उसमें कविता की घटनाएं व्यवहारिक तर्क से परे जाकर घटती है, जिससे सब कुछ जादुई- जादुई सा लगता है, यद्यपि गहराई में उसमें विचार और तर्क की पद्धति बहुत सजग रूप से क्रियाशील रहती है ।यह सृजनात्मक फैंटेसी की विशेषता है। ‘ब्रह्मराक्षस’ की फैंटेसी बहुत कुछ है रूपात्मक है। इसमें  एक प्रगतिशील मध्यवर्गीय बुद्धिजीवी को ब्रह्मराक्षस का रूप में दिया है और अंत तक उसका निर्वाह किया है। स्वभावतः इससे इसे समझना सरल हो गया है। इसके पहले खंड में ब्रह्मराक्षस के प्रेतोचित व्यवहार का वर्णन है और दूसरे खंड में उसकी ट्रैजेडी का। इससे कविता में घटनाओं की अप्रत्याशित मोड़ नहीं आते और उसका वातावरण उतना स्वप्निल नहीं बन पाता, जितना स्वप्निल मुक्तिबोध की अन्य लंबी कविताओं यथा भविष्यधारा, चंबल की घाटी में या फिर अंधेरे में का वातावरण है।

ब्रह्मराक्षस शीर्षक यह कविता आकार में अपेक्षाकृत छोटी होते हुए भी प्रकार में लंबी कविता ही है। मुक्तिबोध ने लिखा है कि जो कविता आवेशमुलक होती है, वह एक बार अपने को प्रकट करके समाप्त हो जाती है, लेकिन जिसमें कवि आवेश के कारण और फिर उस कारण के कारण की तलाश करने लगता है, वह उस तरह से समाप्त नहीं होती बल्कि उसे समाप्त करना कवि के लिए एक समस्या होती है। मुक्तिबोध की कविताएँ इस कारण लंबी हो जाती थी कि उसमें वे कार्य -कारण की पूरी श्रृंखला को प्रस्तुत करना चाहते थे। ब्रह्मराक्षस में पहले ब्रह्मराक्षस के व्यवहार का वर्णन है,फिर उसके उस पाप का जिसके कारण उसे प्रेत योनि प्राप्त हुई। इस क्रम में उन्होंने यह भी बतलाया है कि पाप का भागी वह किस कारण से बना । फिर उस कारण के कारण और उसके भी कारण की ओर संकेत है। अंत में कवि यह भी बतलाता है कि वह उस ब्रह्मराक्षस का शिष्य को बनना चाहता है।स्पष्टतः इसी कार्य- कारण- संबंध को उपस्थित करने के क्रम में यह कविता बढ़ती चली गई है। लेकिन यह संबंध तर्कशास्त्र का ठोस हेतुवाद नहीं, क्योंकि अंततः यह बहुत कुछ भावात्मक या अमूर्त रूप में प्रस्तुत किया गया है। मुक्तिबोध के शब्दों में इस कविता के कथातत्व को भी ‘ भाव का इतिहास’ कहना ही उचित होगा।

इस कविता का सौंदर्य उसके विचारप्रधान होने में है ।निराला की कविता ज्ञानगर्वित है। मुक्तिबोध के पास एक विचार या विचारधारा थी, जिसे वे कविता में रूपांतरित कर देते थे ,इस कौशल के साथ कि उसमें कुछ भी आरोपित नहीं प्रतीत होता था बल्कि घटना से ही विचार या विचारधारा फूटती हुई लगती थी। उन्होंने लिखा भी है कि बाहरी विचारधारा कवि के लिए कभी-कभी आत्मविस्तार के रूप में दिखाई पड़ती है। ऐसी स्थिति में यदि वह विचार को कविता का रूप देता है तो उसमेंं सब कुछ आंतरिक होता है, कुछ भी आरोपित। ब्रह्मराक्षस का प्रेतोचित व्यवहार और शोधक का आत्मसंघर्ष इन दोनों का चित्रण जिस सफलता से किया है उससे इस कविता की घटना कतई मनगढ़ंत नहीं प्रतीत होती।

निराला की कविता भी ग्रंथिल  है और मुक्तिबोध की भी। दोनों कवि थोड़े शब्दों में बहुत ज्यादा कहना चाहते हैं, जिससे उसकी अभिव्यक्ति गुढ़ हो जाती है ।दोनों में निराला की गूढ़ता प्रायः जहां शब्द सापेक्ष है ,वहां मुक्तिबोध की अर्थसापेक्ष। निराला में शब्दों का सही पारस्परिक संबंध स्थापित करने की समस्या है और मुक्तिबोध में प्रायः गहन अर्थ का सूत्र पकड़ने और जोड़ने की ।बूरे- अच्छे -बीच ,अच्छे व उससे भी अधिक अच्छे के बीच ,अतिरेकवादी पूर्णता ,ज्यामितिक संगति -गणित की दृष्टि से कृत,भाव संगत, तर्कसंगत, कार्य -सामंजस्य - योजित, समीकरणों का गणित ,घन अभिभूत अंतः करण, सत्य की झाँई, महत्ता ,आंतरिकता ,भीतरी और बाहरी पाट, कोठारी- तम -विवर ,सजल उर, अधूरा कार्य और संगत पूर्ण निष्कर्ष ,ये सब शब्द न होकर अवधारणाएं है,विचार हैं ,जिन्हें समझे बिना मुक्तिबोध की कविता को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन भी है।

मुक्तिबोध को आत्म संघर्ष का कवि कहा जाता है ।समग्र रूप से वह आत्मसंघर्ष के कवि नहीं है ,सामाजिक संघर्ष के कवि हैं और उनका आत्मसंघर्ष से मूलतः उसी की छाया प्रतीत होती है। उसमें व्यक्तित्व का आत्मसंघर्ष भी उस वर्ग के आत्मसंघर्ष को व्यक्त करता है। लेकिन प्रत्येक कविता में आत्मसंघर्ष का अलग-अलग पहलू प्रकट हुआ है ।अंधेरे में कविता में आत्मसंघर्ष मध्यवर्गीय संस्कारों और श्रमिक वर्ग  से तादात्म्य की  आकांक्षा को लेकर है ,लेकिन ब्रह्मराक्षस में अपने व्यक्तित्व को अतिरेकवादी पूर्णता देने के लिए अच्छे व उससे भी अधिक अच्छे को लेकर ,जिसमें आत्मचेतना और विश्वचेतना, भीतर और बाहर के बीच का संघर्ष में शामिल है। इसप्रकार ब्रह्मराक्षस रोमांटिक बेचैनी और तडप से भरी हुई एक विचारगर्वित कविता है, जो मुक्तिबोध की कविताओं में अंधेरे में की तरह ही क्लासिक बन चुकी है।


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