जायसी और पद्मावत
पद्मावत जायसी का सर्वप्रमुख एवं उच्चकोटि का महाकाव्य है। हिंदी साहित्य जगत में उनकी अक्षय कृति का आधार पद्मावत ही है। जायसी की पद्मावत तक हिंदी प्रेम काव्य परंपरा काफी प्रौढ़ हो गई थी ।जायसी ने सूफ़ी सिद्धांतों को भारतीय कथा में पिरोया और हिंदू हृदय को आकर्षित किया ।अब तक के सूफी कवियों की रचनाएं केवल कल्पना पर आधारित थी। जायसी ने कल्पना के साथ-साथ ऐतिहासिक घटनाओं का समावेश भी किया है, चित्तौड़ के साथ अलाउद्दीन का संघर्ष होने के कारण पद्मावत का यथेष्ट प्रचार हुआ है।
इस ग्रंथ की की रचना बाबर के शासनकाल में हिजरी संवत 947 में हुई थी, जैसा कि कहां गया है,_
सन नौ सौ सैंतालीस अहा।
कथा आरंभ बैन कवि कहा ।।
इसमें तत्कालीन विषय, देश ,स्थिति के साथ ही सहिष्णुता, समन्वयात्मकता, साग्रह्य बुद्धि ,उदारता एवं सहानुभूतिशीलता का परिचय भी मिलता है कवि ने इसमें सुदीर्घ काल से चली आ रही दो परस्पर विरोधी संस्कृतियों को मिटाकर सामाजिक एकता पर बल दिया है।
पद्मावत का कथानक तत्कालीन प्रचलित लोक कथा पर आधारित है। इसमें यत्र तत्र कुछ ऐतिहासिक तथ्यों का समावेश भी किया गया है। पद्मावत के संपूर्ण कथानक को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है ,एक पूर्वार्ध और दूसरा उतरार्द विवाह की कथा पूर्वार्ध में रखी जा सकती है जो पूर्णरूपेण कल्पित है। उत्तरार्द्ध में अलाउद्दीन के साथ संघर्ष आता है जिसका एक ऐतिहासिक आधार बनता है। लोक पक्ष के अतिरिक्त कथा का अध्यात्म पक्ष भी है । अध्यात्म पक्ष की दृष्टि से राजा भक्त हैं ,रानी पद्मावती ईश्वर है ,जिसकी प्राप्ति हेतु वह घर द्वार त्याग कष्ट सहन करता हुआ निकल पड़ता है। इसमें सुग्गा हिरामन गुरु का प्रतीक है ।इस भांति अध्यात्म पक्ष को लेकर कवि ने उनका सुंदर विकास किया है । अध्यात्म की सुंदर व्याख्या इन पंक्तियों में की है :
मैं एही अरथ पंडितन्ह बुझा ।
कहाकि हम्ह किछु और न सूझा।।
कथा अनुभूति प्रधान है अध्यात्म पक्ष के कारण कथा संगठन को कहीं-कहीं आघात भी पहुंचा है तथा उसमें अस्वाभाविकता भी आ गई है ।परंतु कौतूहल और रासात्मकता में किसी प्रकार की कमी नहीं आने पाई है ।प्रधान कथा रत्नसेन और पद्मावती की है। पद्मावती की कथा चरित्र प्रधान न होकर घटना प्रधान है।
मलिक मोहम्मद जायसी ने भारतीय कथा के द्वारा अध्यात्मिक अभिव्यंजना को और सूफी सिद्धांतों को एक साथ रुपायित किया है। रत्न सेन और पद्मावती के घोर श्रृंगार चित्रण से आध्यात्मिकता को आघात भी पहुंचा है। पद्मावत के पात्र सत और असत दो प्रकार के है। रतनसेन का प्रेम आदर्श है और नागमती तथा पद्मावती नारीत्व की आदर्श है ।गोरा बादल आदर्श वीर है। अलाउद्दीन राघव और चेतन आदि तामसी प्रकृति के पात्र हैं। रचनाकार ने अंत में पुण्य की विजय दिखाई है रानियों के सती होने से कथा अत्यंत दुखांत कही जा सकती है परंतु सूफ़ी मतानुसार मरण के पश्चात ही प्रियतम से वास्तविक मिलन संभव है ।पद्मावती की भाषा बोलचाल की अवधी है। भाषा में मुहावरों और कथा, कहावतों का भी कहीं-कहीं प्रयोग हुआ है। परंतु वे अत्यंत स्वभाविक रुप में आए हैं। भाषा पर फारसी का प्रभाव बहुत ही कम पड़ा है ।भाषा पूर्णतः देसी सांचे में ढली प्रतीत होती है ।उसमें स्वाभाविक माधुर्य एवं अनूठापन है। कवि ने दोहा ,चौपाई, छंद का प्रयोग किया है। प्रेम मार्गी सूफी कवियों की कथाओं से पृथक एक प्रेम कहानी प्रस्तुत करने में जायसी की अपने निजी विशेषता मानी जा सकती है। उसमें उनकी धार्मिक सहिष्णुता का भी परिचय मिलता है। जायसी सभी धर्मों को समान दृष्टि से देखने और कबीर की भांति लोक व्यवस्था का तिरस्कार और निरादर भी करते हैं ।मलिक मोहम्मद जायसी ने अपने मुस्लिम स्वरूप का बिल्कुल भी परित्याग नहीं किया है । जायसी ने पद्मावत की रचना फारसी की मसनवी शैली में की है ।कथा खंडों में विभाजित है - प्रारंभ में ईश्वर की स्तुति, हजरत साहब की स्तुति ,तत्कालीन शासक शेरशाह की वंदना ,आत्मपरिचय, छोटी-छोटी बातों का विस्तृत वर्णन , विरह वर्णन में वीभत्सता आदि बातें मनसवी शैली से ग्रहण की गई है। साथ ही उन्होंने षडऋतु वर्णन ,बारामासा, रस ,अलंकार की दृष्टि से भारतीय परंपरा का अनुकरण किया है। लेकिन प्राकृतिक दृश्य का स्वतंत्र चित्रण प्रबंधककार ने नहीं किया है जैसा कि तुलसीदास ने रामचरितमानस में किया है। प्रकृति से मानवीय भावनाओं का जहां तक संबंध है वहीं तक उनका ध्यान गया है। कष्ट और भय के विचार से ही उन्होंने अमराईयों का चित्रण किया होगा।
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