नई कविता :द्वंद्व और तनाव की कविता है।
नई कविता वैविध्यपूर्ण जीवन के प्रति आत्मचेतस् व्यक्ति की प्रतिक्रिया है। मुक्तिबोध के इस परिभाषा से स्पष्ट है कि नई कविता में जीवन का कोई भी विषय अकाव्योचित नहीं माना जाता। उसमें मानव जीवन के यथार्थ को उकेरने का सीधा प्रयत्न प्रबल आग्रह के साथ हुआ है। अशोक बाजपेई कहते हैं कि संभवतः नई कविता के पहले कभी मानवीय संबंधों को इतना गौरव नहीं मिला था और न ही उसमें निहित करूणा, तनाव, अकेलापन, आतंक ,सुख और अहलाद- संक्षेप में मानवीय संबंधों की ट्रेजडी और कॉमेडी दोनों ही इतने सीधे ढंग से काव्य में अवतरित हुए थे जितने की नई कविता ने हुए हैं। स्पष्ट है कि नई कविता अपने समय- संदर्भों में मानवीय उपस्थिति और लगाव की कविता है। डॉक्टर जगदीश चंद्र गुप्त द्वारा दी गई परिभाषा नई कविता की मूल स्थापनाओ को और भी स्पष्ट करती है। नई कविता प्रगतिवादी यथार्थ की आघात से उत्पन्न छायावाद के स्वप्न भंग के बाद की कविता है, जिसमें व्यक्त भावनाएं कुहासे के बीच पनपनेवाले तंद्रालस से युक्त न होकर दिन की तेज रोशनी के बीच विषमताओं से धिरे जागृत मनुष्य की भावनाएं। इस परिभाषा से गुजरने पर नई कविता के प्रारंभ को लेकर डॉक्टर गुप्त से मतभेद हो सकता है, पर नई कविता के पाठक का इस बिंदु पर मतभेद नहीं हो सकता कि वह बहुआयामी जीवन की सच्चाईयों को बिना लाग- लपेट के रूपायित करती है। वह मताग्रही या मतवादी दृष्टिकोण की भी कायल नहीं। उसमें छायावादी कल्पनाशीलता का नामोनिशान ढूंढना भी कठिन है। दरअसल वह अपने जीवन की बहुपक्षी अनुभूतियों को कलमबंद करने की एक जटिल यथार्थवादी प्रक्रिया है।
नई कविता का सारा दृष्टिकोण आधुनिक है। आधुनिक दृष्टिकोण का अर्थ- नए मूल्यों के लिए विकलता और संवेदना से हैं। इसी दृष्टिकोण के तहत नया कवि आज के तनावों,सार्वभौम संकट, मनुष्य की पीड़ा एवं उसकी नगण्य एवं गरिमा से जुड़ता है और इस संपृक्ति के दबाव में अभिव्यक्ति और संप्रेषण के माध्यमों को पुनराविकृत करता है। यह दृष्टिकोण अज्ञेय, मुक्तिबोध ,शमशेर ,केदारनाथ अग्रवाल जैसे ख्यातिप्राप्त लेखकों के पास भी है और केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल, त्रिलोचन ,कमलेश, सौमित्र मोहन, धूमिल, राजकमल चौधरी, लीलाधर जगूड़ी, ज्ञानेंद्रपति जैसे कम प्रौढ़ एवं युवा कवियों के पास भी।नई कविता में किसी एक मतवाद का आग्रह नहीं है। यही कारण है कि उसके कुछ कवि गांधीवादी हैं, कुछ अस्तित्ववादी, कुछ साम्यवादी और कुछ अति यथार्थवादी ।कुछ का स्वर राजनीति से प्रभावित है ,तो कुछ का देहनीति से।
नई कविता आधुनिक संवेदना के साथ मानवीय परिवेश के संपूर्ण वैविध्य को नए शिल्प में अभिव्यक्त करनेवाली हिंदी की नवीनतम काव्यधारा है। प्रयोग एवं सिद्धांत के स्तर पर उसका संबंध प्रगतिवाद से भी है और प्रयोगवाद से भी ।यहां कवि वादों की सीमाएं लांध कर कला और जीवन के क्षेत्र में कुछ नया रचने के लिए उत्सुक नजर आते हैं। उसमें मनुष्य के बाहर और भीतर के संघर्ष और उससे उत्पन्न सच्चाईयों को वाणी देने की आतुरता है ।इसप्रकार नई कविता की सबसे बड़ी विशेषता है- कथ्य की व्यापकता। इसका कारण है कि कोई वाद नहीं है, बल्कि व्यापक जीवन दृष्टि है ।कथ्य कहाँ नहीं है? प्रगतिवाद एवं प्रयोगवाद ने कथ्यों को बांट लिया था। किंतु नई कविता ने मानव को उसको समग्र परिवेश में सही रूप में अंकित करना चाहा है ।नई कविता की दृष्टि मानवतावादी है, किंतु यह मानवतावाद मिथ्या आदर्शों की परिकल्पनाओं पर आधारित नहीं है। यथार्थ की तीखी चेतना, परिवेश के जुड़ाव, चिंतन एवं संवेदना के उलझे हुए अनेकानेक स्तर उसकी आधार है। इसलिए छोटे- बड़े का भेद नहीं रखा, छोटी-बड़ी अनुभूतियों, व्यक्तित्वों एवं क्षणों का बनावटी अंतर नहीं स्थापित किया।
नई कविता में अनगिनत नए संबंधों को खोजा और चरितार्थ किया गया। इस सिलसिले में अज्ञेय अभिजात्य संस्कार एवं बोधवाले अकेलेपन के कवि। मुक्तिबोध में एक गहन निजी संघर्ष हमारे समय के राजनीतिक, सामाजिक वैषम्य के साथ अनिवार्य रूप से जुड़ जाता है। रघुवीर सहाय पहले तो जीने के कर्म को उद्घाटित करते हैं और बाद में समकालीन राजनीति से सीधे जुड़ते हैं। उनकी दृष्टि में ‘कविता हर दिन मनुष्य से एक दर्जा नीचे रहने के कर्म का नाम का बखान है।“ श्रीकांत वर्मा का काव्य संसार एक तरह का आधुनिक नरक है, ‘जहां किसी के न होने से कुछ नहीं होता।‘ केदारनाथ सिंह की ‘अपनी बच्ची के लिए एक नाम ‘रघुवीर सहाय की ‘शक्ति दो पिता’ सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की ‘अपनी बिटिया के नाम लिए दो कविताएं’ विजयदेव नारायण साही का ‘एक अर्धविस्मृत मित्र के नाम’ और ‘अलविदा’ धूमिल की ‘मोचीराम’ नागार्जुन की ‘अकाल के बाद’ इत्यादि कविताएं ऐसी है जिसमें जाने- पहचानने की संबंधों को उनकी पूरी जटिलता में चरितार्थ किया गया है ।यह कहना निराधार नहीं होगा कि नई कविता में पहली बार मनुष्य पर पड़ने वाले दबाव और मानसिक तनाव को इतनी व्यापक स्तर पर पहचानने का प्रयास किया गया है ।
क्षणवाद :- नई कविता की जीवन के प्रति गहरी आस्था है। जीवन के प्रति आस्था का अर्थ है जीवन के संपूर्ण उपभोग में आगाज विश्वास। आज की क्षणवादी और लघु मानववादी दृष्टि जीवन के मूल्यों के प्रति नकारात्मक नहीं स्वीकारात्मक दृष्टि है।मनोविज्ञान द्वारा उद्घाटित सत्यों ने यह प्रमाणित किया है कि हम क्षणों में जीते हैं। जो व्यक्ति इन क्षणों को जितनी सच्चाई से अनुभूत बनाकर जिएगा, उतना ही संपूर्ण जीवन जीएगा।क्षणों को सत्य मान लेने का अर्थ है- जीवन की एक-एक अनुभूति को,एक-एक व्यथा को,एक-एक सुख को सत्य मानकर जीवन को उसके वास्तविक रूप में स्वीकार करना।
लघु मानवतावाद :- नई कविता में लघु मानव का अर्थ है क्षुद्र मानव नहीं है, जो पाप या घृणा या आतुरता की मूर्ति हो, लघु मानव का अर्थ है वह सामान्य मनुष्य जो अपनी सारी संवेदना, भूख- प्यास मानसिक आँच को लिए- दिए उपेक्षित था। उसका लघु मानव किसी दर्शन, संप्रदाय या राजनीतिक दल के प्रति प्रतिवद्ध नहीं है ।उसकी प्रतिवद्धता सहज मानवीय संवेदना के प्रति है या उन सभी वर्गों के प्रति है जो उधार का नहीं, अपना जीवन जीते हैं। यह लघु मानव हर स्थिति में अपने अहं का पोषक और रक्षक है।
द्वंद्व एवं तनावः- लघु मानव द्वारा एक-एक क्षण को जीने और भागने की मजबूरी है उसके लिए दिक्कत और तनाव का संसार बनाती है और तनाव को भी काव्य- मूल्य की तरह उपस्थित करती है।' एक अटका हुआ आंसू" और 'पतझड़ का जरा अटका हुआ पता' शमशेर की काव्योनुभूति के तनाव के प्रतीक है।तनाव की दृष्टि से 'माया दर्पण' के श्रीकांत वर्मा और 'आत्महत्या के विरुद्ध' के कवि रघुवीर सहाय की कविताएं उल्लेखनीय है। बहिश्त ककेमुकाबले में अपने जहन्नुम में जाने की घोषणा न निर्वेद की मनःस्थिति है, ना उपरांत की।" तुम जाओ अपने बहिश्त में ,मैं जाता हूं ,अपने जहन्नुम में।"' एक अधेड़ भारतीय आत्मा में 'रघुवीर सहाय 'कहने' और 'फिर भी कुछ है न होने 'के तनाव को व्यंजित करते हैं ।कोई सुने या ना सुने, लेकिन अपनी बात कहने का हौसला मरा नहीं है ।भले ही कह कर बैठ जाना पड़े।' आत्महत्या के विरुद्ध 'कविता संग्रह के आरम्भिक वक्तव्य में कहते है उस दुनिया को देखे जिसमें हमें पहले से ज्यादा रहना पड़ रहा है ,लेकिन जिससे हम न लगाव साध पा रहे हैं और ना अलगाव ।लगाव और अलगाव का यह तनाव कवि के अपने सर्जनात्मक तनाव का प्रतीक है। अज्ञेय जैसा मानसिक तनाव को प्रमुखता देते हैं,वह जीवन की विविधता से विभाजित और शीथिल होता है, जबकि मुक्तिबोध का तनाव द्वि-स्तरीय है। एक और अपने परिवेश के साथ, दूसरी ओर स्वयं अपने अंदर ।किन्तु अंततः ये दोनों तनाव परस्पर संबंधित है।
अनुभूति की जटिलता और प्रमाणिकता :- नई कविता जीने की जटिल प्रक्रिया की अभिव्यक्ति है ।अनुभूति की जटिलता का संबंध, संदर्भ से उत्पन्न होने वाले भाव- बोध की प्रकृति से है।'हरी घास पर क्षण भर में' प्रेमियों को बाहरी और भीतरी अनेक बाधाओं का पूरा बोध है। बाहरी बाधा के रूप में 'माली चौकीदार के समय का खटका' और भीतरी बाधा के रूप में और न सहसा चोर कहा उठे मन में।' हरी घास पर क्षणभर का संदर्भ अधिक व्यापक, यथार्थ और सघन है। संदर्भ के अनुकूल ही इस कविता में अनुभूति की जटिलता है । नई कविता का कवि उस अनुभव को कविता में पिरोता है, जिसे उसने जीने के दौरान प्राप्त किया है । क्षणभोग से उभरने वाला उसका निजी सुख-दुःख, चाहे कितना ही लघु और उपेक्षित हो किंतु प्रमाणिक तो है ही। अनुभूतिशून्य ,व्यथारहित इतिहास असत्य है ,निरर्थक है। इसलिए नई कविता अनुभूतिपूर्ण, गहरे क्षण,प्रसंग, व्यापार या किसी भी सत्य को उसके साथ पकड़ लेना चाहती है ।नई कविता संगत और असंगत बिम्बों के माध्यम से क्षणों की परिधि में ,पनपते जीवन की संलिष्टता को मूर्तिमान कर देती है। ये कविताएं आकार में छोटी है ,किंतु अनुभव की प्राथमिकता के कारण प्रभाव में बहुत ही तीव्र होती है।
मूल्यों की परीक्षा :- नई कविता ने किसी मुल्य को फार्मूले के रूप में स्वीकार नहीं किया है। एक सत्य होता है व्यक्ति का, एक होता है समाज का। कभी- कभी दोनों समान और कभी दोनों विषम होते हैं। मानव मूल्यों के प्रति आस्थावान व्यक्ति अपने व्यक्तिगत विकल्पों को सामाजिक संकल्प के सामने विसर्जित कर देता है। लंका युद्ध करने से पहले युद्ध के विषय में राम के मन में संशय की रात्रि उमड़- घूमड़ रही है।ये व्यक्तिगत रूप से युद्ध के विरुद्ध है, लेकिन युद्ध सामाजिक हित में है, अनिवार्य है। समाज का निर्णय युद्ध के पक्ष में होता है।राम उसे स्वीकार करते हैं।
नई कविता ने धर्म, दर्शन, नीति, आचार सभी प्रकार के मूल्यों को चुनौती दी है, यदि वे जीवन की नवीन अनुभूति, चिंतन और गति के रास्ते में आते हैं या ऊपर से ओढ़े गए हैं।कुंवर नारायण ने के आत्मजयी का नचिकेता बाप द्वारा सौपें हुए मुल्यों को अस्वीकार करता हुआ यातनाएं सहता है। और उस यातनाओं में से ही उसे सही जीवन दृष्टि और शक्ति प्राप्त होती है। नई कविता में पीड़ा यातना या सुनने को एक बस तू इसमें मानकर उसे जीवन का रचनात्मकता से जुड़ा है नई कवियों के लिए पीड़ा एक सर्जनात्मक शक्ति है।
एक रोचक और आश्चर्यजनक तथ्य है कि नई कविता के कवियों ने रामायण की तुलना में महाभारत को अपने काव्य संसार के लिए अधिक प्रसंगानुकूल पाया है। धर्मवीर भारती की काव्य नाटक ‘अंधा युग’ में मूल्यों का संकट शुरू से अंत तक बना हुआ है जिसके आधार पर महाभारत के बाद की निरर्थक एवं दूसरे महायुद्ध के बाद की भयानक निरर्थकता को एक नाटकीय तादात्म्य दिया है। कुंवर नारायण नचिकेता में नचिकेता के पुराने चरित्र के माध्यम से जीवन का परम अर्थ ढूंढने की कोशिश करते हैं। अज्ञेय असाध्य वीणा में एक बोद्ध -कथा के माध्यम से आत्मदान और आत्मुक्ति को चरितार्थ करते हैं। यह सब देखते हुए ऐसा लगता है कि समकालीन अव्यवस्था को ठोस और गहरे रंग से समझने और वाणी देने के लिए नए कवियों ने पुराकथाओं और मिथकों का भरपूर इस्तेमाल किया है। इलियट ने इसे ही ‘वर्तमान का अस्तित्व और अतीत की वर्तमानतता कहा है।
परिवेश:-- नई कविता के कवियों पर या आरोप लगाया जाता है कि उसने विदेशी कविता और दर्शन से बहुत कुछ उधार लिया है। उसमें टी एस इलियट ,डी एच लॉरेंस ,एजरा पाउंड ,वादलेयर की कविताओं में चित्रित युद्धोंपरांत पीड़ा, अनाथा, बिखराव ,अकेलापन ,अराजकता एवं मूल्यहीनता की छाया एवं प्रभाव ग्रहण किया गया है। यह आरोप पूर्णतः सत्य नहीं है ,क्योंकि नई कविता में निराशा एवं मरणधार्मिता के साथ जिजीविषा और आस्था भी है, दूसरे यह कि निराशा और मरण धर्मिता की उत्पत्ति अपने ही समाज के विशेष परिवेश से हुई है। यहां निराशावाद के बाद एक आश्वासन है। नई कविता जीवन को अनुभूति के क्षणों में पकड़ने की पक्षपाती है ।अनुभूति प्राप्त करने वाला स्रष्टा अपने परिवेश की उपज होता है।
निराशा और अवसाद :- आज के कवि को कई स्तरों पर नैतिक और सामाजिक वर्जनाओं का सामना करना पड़ रहा है। वह अपने आस -पास के परिस्थितियों से सामंजस्य बना कर रखना चाहता है, पर हर जगह उसे निराशा ही हाथ लगती है ।अकेलापन है ।आज का कवि निराशा की उस स्थिति का चित्रण कर रहा है, जिसमें वह न तो मर सकता है और न जीवित ही रहा पा रहा है। इलियट ने भी कुछ ऐसी ही दशा का वर्णन करते हुए लिखा है "यही आज का खंडित जीवन है, जिसमे आदमी त्रिशंकु की तरह लटका हो, उस एहसास के साथ, हमें फिर से जीने का भय सहना है, मृत्यु में ही रहना है।"
लोक सम्पृक्ति :- नई कविता ने लोक जीवन की अनुभूति, सौंदर्य -बोध ,प्रकृति और उसके प्रश्नों को एक सहज और उदार मानवीय भूमि पर ग्रहण किया। साथ ही साथ लोक जीवन के बिम्बों , प्रतीकों,शब्दों, उपमानोंं आदि को लोक जीवन के बीच से चुनकर अपने को अत्यधिक संवेदनपूर्ण और सजीव बनाया है।उसकी यह विशेषता उसके यथार्थवादी होने की पहचान है। नई कविता वस्तुपरक है। नामवर सिंह जी ने कहा है कि" छायावादी काव्य रचना की प्रक्रिया जहां भीतर से बाहर की ओर है ,वहां नई कविता की रचना प्रक्रिया बाहर से भीतर की ओर ।एक रूप में भाव का आरोपण है ,तो दूसरे में रुप का भाव में रूपांतरण है।" नई कविता की लोकसम्पृक्ति का वास्तविक प्रतिनिधि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना को कहा जा सकता है। प्रजातंत्र तथा व्यापक मानवतावाद, लोक संपृक्ति तथा नई कविता आज एक दूसरे से अनिवार्य रूप से संवद्ध है ।ये सभी आधुनिक युग की महत्वपूर्ण उपलब्धियां है। सर्वेश्वर में यह लोक सम्पृक्ति व्यक्तित्व के एक सहज गुण के रूप में विकसित हुई है। लोक सम्पृक्ति की भावना पर आधारित ये पंक्तियाँ नई कविता का घोषणापत्र कहा जा सकता है" नया वर्ष सबका हो, हर घर का, हर खेत का, हर खलिहान का, हर दिल का।"
काव्य संरचना :- संरचना में भी कुछ नए मूल्य आए। नई कविता की काव्य संरचना दो प्रकार की है प्रगीतात्मक और नाटकीय ।छोटी कविताओं की संरचना मूलतः प्रगीतात्मक है और लंबी कविताओं की रचना नाटकीय है। लेकिन सभी लंबी कविताओं की संरचना नाटकीय ही हो ,यह आवश्यक नहीं है। लंबी कविताएं भी अनुचिंंतनात्मक या आत्मापरक होती है और संरचना एक सीधी रेखा ना होकर वर्तुल होती है। नई कविता की संरचना क्रिस्टल या स्फटिक की तरह सघन संरचना के समान है ।हर विषय कविता का विषय हो सकता है इसलिए कवियों ने काव्य संरचना को अधिक लचीला और समावेशी बनाया। नई कविता में संरचना के नए आविष्कृत तत्वों को पुरानो से मिलाकर कई तरह के नए और उत्तेजक संयोजन किए गए । जैसे अज्ञेय नेे पारम्परिक छंंद के एक तत्व तुक का संगीतात्मकता केे लिए और मुक्तिबोध ने व्यंग्य के लिए उपयोग किया है। नई कविता मुक्त छंद की कविता नहीं है ।बल्कि छंद मुक्ति की कविता है। नए कवि छंद को एक पूर्वाग्रह मानते हैं ।यह कहना गलत है कि नया कवि कविता में बातचीत करता है कि क्या कहना है कि नया कवि बातचीत में कविता करता है ।नये कवियोंं ने अपने काव्य संरचना के लिए फैंटेसी का भी भरपूर उपयोग किया है। इसमें मुक्तिबोध अग्रणी रहे हैं ।साथ ही श्रीकांत वर्मा और रघुवीर सहाय भी इसके प्रमुख कवि हैं, जिन्होंनेे अपनी कााव्य संरचनाओं में फैंटेसी का भरपूर प्रयोग किया है।
काव्य भाषा:- नई कविता पुरानी काव्यधारा का त्याग कर बातचीत की सामान्य भाषा का उपयोग करती है। इस लिहाज से यह गद्य के आस-पास है। किंतु कविता की भाषा एवं बातचीत की भाषा की निकटता कलात्मकता के त्याग अथवा भावना की शिथिलता के कारण यदि उत्पन्न है तो वह निःसंदेह निर्रथक है ।ऐसी कविता में सामान्य वार्तालाप की भाषा के प्रयोग का अर्थ यह नहीं होता है कि उसमें संस्कृत शब्दों का त्याग हो, न वैसा ही माना जाता है ।
नये कवियों ने अपनी भाषा को निजी प्रतीक व्यवस्था से समृद्ध किया है।हरी घास, इन्द्रधनु,सेतु, सागर, मछली ,चकति शीला आदि बीसियों प्रतीक अज्ञेय के द्वारा विकसित किए गए।ये प्रतीक अज्ञेय की कविताओं में बार-बार आते हैं। मुक्तिबोध ने अपने प्रतीक मिथीकल से या हाल के इतिहास से लिए है।विशाल वटवृक्ष, ब्रह्मराक्षस ,पागल मनुष्य ,शक्ति पुरुष और महात्मा गांधी, तिलक ,टालस्टॉय आदि इसका प्रमाण है। मां और शिशु उनके अन्य उल्लेखनीय प्रतीक है। अंधा युग, एक कंठ विषपाई, संशय की एक रात में कवियों ने मात्र पौराणिक आख्यान को से प्रतीक चुना है यह प्रतीक ही नई कविता पर लगे पाश्चात्य प्रभाव के आरोप को झूठलाते हैं।
काव्य बिम्ब :- नई कविता के दौर में काव्य बिम्ब पर काफी जोर दिया गया ।केदारनाथ सिंह ने घोषणा की कि कविता ने सबसे अधिक ध्यान देता हूँ, बिम्ब विधान पर ।बिंब विधान का संबंध जितना की विषय वस्तु से होता है, उतना ही उसके रूप से भी ।विषय को वह मूर्त एवं वाह्य बनाता है। रुप को संक्षिप्त और दीप्त । काव्य वस्तु जितनी संलिस्ट, सूक्ष्म और जटिल होती है उसे बिम्ब रूपों में अभिव्यक्त करना कवि के लिए उतना ही अनिवार्य होता है।1959का साल ऐतिहासिक दृष्टि से नई कविता के विकास का प्रायः चरमबिंदु था।इस विन्दु से एक रास्ता नई कविता की रूढियों की ओर जाता था जिसमें बिम्ब आदि विज्ञापित नुस्खा के अंधानुकरण की प्रवृति थी और दूसरा रास्ता सच्चे सृजन का था जिसमें बिम्बवादी प्रवृत्ति के बंधनों को तोड़ना आवश्यक प्रतीत हुआ।
नई कविता में बिम्ब का आग्रह इतना बढ़ा कि काव्य उपेक्षित हो गया और कविता की अच्छाई -बुराई बिम्ब पर निर्भर होने लगी। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की "वह खिड़की" शीर्षक कविता अपने सारे कथ्य के बावजूद मुख्य रूप से पाठक के मन पर दो बिंब छोड़ जाती है। धीरे-धीरे काव्य सृजन बिंब के दायरे से बाहर निकलकर खास तरह की सपाटबयानी की और भी बढ़ने लगा था ।एक अधेड़ भारतीय आत्मा के माध्यम से रघुवीर सहाय का कथन उस बदली हुई मनःस्थिति का अर्थपूर्ण संकेत है ।कविता में मैं सबसे अधिक ध्यान देता हूं बिंब विधान पर यह एक समय कहने वाले केदारनाथ सिंह बिम्ब विधान का मोह छोड़ अब सीधे- सीधे एक प्रकार के वक्तव्य देने लगे थे ।बिम्बों से मोह टूटने का एक प्रधान कारण यह था कि कवियों को यह महसूस हुआ कि बिम्ब विधान सीधे सत्य कथन के लिए बाधक है। इसे विरोधाभासी कहना चाहिए कि जब से कविता में बिम्बों की प्रवृत्ति बढ़ी, सामाजिक जीवन के सचिव चित्र दुर्लभ हो चले ।सुंदर बिम्बो के चयन की ओर कवियों की ऐसी वृत्ति हुई कि प्रस्तुत गोण हो गया और अप्रस्तुत प्रधान। इस तरह कवि की दृष्टि संकुचित नहीं हुई ,कविता का दायरा भी सिमट गया, पहले जीवन से खींचकर प्रकृति की ओर और फिर भी विशेष प्रकार के रमणीय दृश्य की ओर।
वस्तुतः इस बिम्ब मोह के टूटने का कारण सामाजिक और ऐतिहासिक है। छठे दशक के अंत में और सातवें दशक के आरंभ में सामाजिक स्थिति इतनी विषम हो उठी थी कि उसकी चुनौती के सामने बिंब विधान कविता के लिए अनावश्यक भार प्रतीत होने लगा है। जिसप्रकार सन 36 तक आते-आते स्वयं छायावादी कवियों को भी सुंदर शब्दों और चित्रों से लदी हुई कविता निःसार लगने लगी ,उसी प्रकार सन् 60 के आसपास नई कविता की बिम्ब धर्मिता की निरर्थकता का एहसास होने लगा । इसके बाद जिस प्रकार की कविता लिखी गई उसे अशोक बाजपेई ने सपाटबयानी कहा है। अशोक बाजपाई कहते हैं कि" नई कविता बिंब केंद्रित रही हैं और अक्सर कवियों में बिम्बों का ऐसा घटाटोप तैयार हुआ है कि सातवें दशक तक आते-आते कई जागरूक कवियों को यह महसूस हुआ कि कविता को बिम्ब से मुक्त करा कर ही उसे जीवंत और प्रसांगिक रखा जा सकता है ।उनके सामने बिम्बप्रधान कविता कुछ शक की चीज हो गई और सपाटबयानी की ओर कई कवि झुके,और उसे अधिक विश्वसनीय माना जाने लगा। रघुवीर सहाय, केदारनाथ सिंह और श्रीकांत वर्मा ने खास तौर पर सपाट बयानी के मूल्यों को पहचाना, लेकिन उसे अपनी बुनियादी बिम्बधर्मिता के प्रतिकूल न रखकर ,उसके साथ संयोजित किया।
कविता सिर्फ बिखरे हुए बिम्बों की श्रृंखला नहीं है ।बिम्बों से कोई कुछ नया नहीं सीखता, क्योंकि पहले से ही जो जानकारी में होता है,बिम्ब उसी को स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करने का ढंग भर है।कविता में भी बिम्ब वास्तविकता के साक्षात्कार का ही सूचक नहीं होता, प्रायः वह वास्तविकता से बचने का एक ढंग भी रहा है।
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