भारतीय वास्तुकला के विकास में मुगलों का योगदान

1526 ई० में हुए पानीपत के द्वितीय युद्द के पश्चात् मुगलो का उतरी भारत पर अधिपत्य स्थापित हुआ। आधुनिक ऐतिहासिक शोधों में बाबर से औरंगजेब के शासन तक के काल के भवन निर्माण की विशेषता, विविधता और सौंदर्य की तुलना गुप्तकालीन भवनों से की जा रही है।मुग़ल बादशाहो में अकबर ने आर्थिक और धार्मिक रूप से साम्राज्य के सुदृढ़ीकरण की रिप्रेख्या तैयार की ,जिसके चलते उसके और उसके ुअत्तराधिकारियो के शासनकाल में काफी बड़ी मात्रा में सत्ता और संसाधनों का केन्द्रीकरण हुआ ,जो इसके पहले कभी दिखाई नहीं पड़ा था। फलतः बादशाह की शक्ति में वृद्धि हुईऔर उस शक्ति की दृश्य अभिव्यक्ति के नए साधनो और बड़े माध्यमों की खोज प्रारम्भ हुई। सत्ता का केन्द्रीकरण राज्य द्वारा संगीत-नृत्य,चित्रकला,वास्तुकला आदि को दिए गए संरक्षण में दिखाई पड़ा। परिणामस्वरूप,मुग़ल शासको की व्यक्तिगत पसंद और रूचि ने भवन निर्माण कला को काफी प्रभावित किया। अकबर ,जहांगीर और शाहजहां काल में कला की अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न शैलियों में हुयी।लेकिन इन सभी शैलियों क एकीकृत रूप में मुग़ल स्थापत्य शैली ,इंडो पर्शियन स्थापत्य शैली या इंडो सारसेनिक स्थापत्य शैली के नाम से पहचाना जा सकता है।
बड़े पैमाने पर भवनों का निर्माण मुगलकालीन वास्तुकला की सर्वप्रथम और प्रमुख विशेषता है। भवन निर्माण की योजनाए बड़े पैमाने पर तैयार की जाती थी जिसमे लौकिक उपयोग के भवनों से लेकर धार्मिक प्रयोजन के लिए निर्मित किये गए भवन शामिल है। धन और संसाधनों के अभूतपूर्व उपलब्धता के कारण अधिक विशाल भवनों का निर्माण किया और निर्माण में श्रेष्ठतम सामग्री का इस्तेमाल किया गया जो सल्तनत कल के शासको और अन्य क्षेत्रीय शासको के काल में संभव नहीं था।प्रारम्भ में बलुआ पत्थर बाद में संगमरमर के विशाल भवन बनाये गए। इस काल में भवन निर्माण में आयोजन को प्रमुखता मिलने लगी। अकबर और शाहजहाँ के काल में भवनों का व्योरेवार खाका तैयार किया जाता थाऔर छोटी-छोटी बातो की और पूरा ध्यान दिया जाता था। अकबर के संरक्षण में तैयार किये गए चित्रों में अकबर को फतेहपुर सीकरी,आगरे का किला आदि के निर्माण का सवन निरीक्षण करते हुए दिखाया गया है। 300 वर्षो के प्रयोग के बाद भवन निर्माण प्राद्यौगिकी स्पष्ट योजनावद्ध रूप से विकसित हुई.इस विकास और प्रगति की आरंभिक क्रमवद्ध परिणति शाहजहाँ के शाहजहानाबाद नगर के निर्माण में दिखाई देती है। यह कहा जा सकता है कि मुग़ल कल से पूर्व के भवन निर्माण में प्रबंधन और आयोजन का इतना विकास नहीं हुआ था ,क्योंकि इससे पूर्व संसाधन काफी सीमित थे।
बाबर के आगमन के पश्चात् भारत का सांस्कृतिक सम्बन्ध  एक बार फिर मध्य एशिया से स्थापित हो गया।मुग़ल शासको ने भारतीय संस्कृति को ईरान की संस्कृति के स्तर  पर लाने की चेष्टा की मुग़ल दरबार में समरकंद ,ईरान ,इटली ,फ्रांस आदि देशो के शिल्पकारों को प्रश्रय दिया गया।,जहा प्रत्येक ने अपनी शैली को प्रस्तुत  करमुग़ल स्थापत्य के विकास में अमूल्य सहयोग दिया। हैवेल के अनुसार मुग़ल स्थापत्य कला भारतीय स्थापत्य कला के आदर्शो की पुनरावृति है। क्योकि तैमूर भारत के आक्रमण के समय बहुत से शिल्पकारों को समरकंद ले गया और वेबबार के आगमन के फलस्वरूप भारत वापिस चले आये। इसप्रकार उनके स्थापत्य सैली में विदेशी प्रभाव का भी बड़ा सुन्दर समन्वय हुआ। फर्ग्युसन के अनुसार स्वाभाविकता, मोहकता,तथा भव्यता इसकी प्रमुख विशेषताएँ है।स्मिथ इसको इंडो -पर्शियन शैली की संज्ञा से विभूषित करते है। उनके अनुसार इसका उदगम पाश्चात्य संस्कृति से हुआ है। लेकिन इस विचार से कत्तई इत्तिफ़ाक़ नहीं रखा जा सकता ,क्योंकि ताजमहल की भांति नाटो समकालीन इटली में और न तो ईरान में हिओ कोई इमारत दिखाई पड़ती। इससे यह स्पस्ट होता कि स्थापत्यकाला के विदेशी तत्वों को स्वीकार तो किया गया है,किन्तु उनको भारतीय स्थापत्य कला में स्थान प्रदान करने के पूर्व यह के पर्यावरण में ढालकर उनको भारतीयता का स्वरूप प्रदान करने की कोशिश की गयी है।
यदि मुग़ल काल से पूर्व की वास्तुकला की विशेषता का वर्णन किया जाये तो यह कहा जा सकता है। कि वः पारम्परिक,अमूर्त तथा अनुकरणात्मक थी और उसमे बहुधा बार-बार एक ही प्रकार की सामग्री और डिजायन का प्रयोग किया गया है। दूसरी और मुगलकालीन वास्तुकला में विविधता है।और उसमे संरचनात्मक सिद्धांतो और डिजायनों की सम्भावनाओ की ओर ध्यान दिया गया है। मिगलो ने पहली बार आकर और डिजायन के विविधता के सम्बन्ध में प्रयोग किया तथा  सामग्री के रूप में पत्थर के अतिरिक्त पलस्तर और गच्चीकारी की ओर विशेष ध्यान दिया। विभिन्न प्रकार के निर्माण सामग्री के अतिरिक्त भवनों के अलंकरण के के कार्य में अधिक नियंत्रण देखने को मिलता है। इस सन्दर्भ में संगमरमर के पत्थर पर जवाहरात से की गयी जड़ावट पित्राड्यूरा (Pietra dura )विशेष उल्लेखनीय है,जो सुव्यवस्थित अनुपात पर आधारित है। अकबर और शाहजहाँ के काल में संगमरमर और बलुआ पत्थर पर इस प्रकार की जड़ावट ,पच्चीकारी और अलंकरण विशेष रूप से देखने को मिलता है,जो पूर्व के काल में देखने को नहीं मिलता है।
मुगलकालीन निर्माणों में स्थान के उपयोग पर आधारित विधि के बजाय सामंजस्य एवं खली और निर्मित स्थान के बीच संतुलन कायम करने की ओर विशेष ध्यान दिया गया है। मुग़ल शासन काल में बनाये गए नगर और किले देखने में बड़े और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बनाये गए। सामंजस्य एवं संतुलन की दृष्टि से यह उल्लेखनीय है कि मुग़लकालीन भवनों का प्राकृतिक परिवेश से पूर्ण सामंजस्य है। निःसंदेह ,तुगलककालीन भवनों में यह विशेषता पहले से ही देखने को मिलती है,लेकिन इस विशेषता का चरमोत्कर्ष मुग़ल काल में ही हुआ है। निर्मित किये गए भवनों के समतल धरातल का प्राकृतिक परिवेश से सामंजस्य स्थापित करने का सचेष्ट प्रयत्न किया गया हैऔर इस सामंजस्य को उजागर करने के लिए कोने पर बनाये मीनारों और पश्तो का उर्ध्वाधर निर्माण किया गया है। मुग़ल भवनों की यह प्रमुख विशेषता है। समतल निर्माण को महत्व देने केलिए बहुतलीय भवनों का निर्माण नहीं कित्या गया है और मीनार आदि उर्ध्वमुखी मीनारों को कम से कम रखा गया है।मीनारों को बुर्जिओ केरूप में बनाया गया हैऔर उनकी उच्चाई अधिक नहीं राखी गयी है। उन्हें मुख्य इमारत से अलग नियमों के रूप में भिनिर्मित किया गया है। दूसरे जालीदार दिवारोका निर्माण बिना विकार नहीं किया गया है। उनका निर्माण अधिकतर अंदरूनी भागो में या ऐसे स्थानों में किया गया  है जहा उनपर प्रकाश पड़ने से एक रहस्यमय दृश्य दिखाई पड़े। उन्होंने भवनों के सौंदर्य  केलिए उड्ड्यनो के निर्माण की विशेष कला का भी विकाश किया। उनके द्वारा बनवाये गए सभी मकबरो में फ़ारसी चारबाग पद्धति के चौकोर उड्ड्यनो का सांकेतिक प्रदर्शन किया गया है। संभवतः ऐसा कर्मणे का उद्देश्य मृतक और ,इसप्रकार उसके पुरे वंश को ,दैवी दर्जा देने का प्रयत्न रहा है। इस दृष्टि से मुग़ल मकबरे पादशाहो को धार्मिक प्रभुत्व का अधिकार दिलाने में सहायक मने जा सकते है।मिश्रित राजव्यवस्था होने के कारन मुगल कल में हिन्दू और मुस्लिम संस्कृतियों तथा रिवाजो का संयोजन हुआ। उस काल के सरदारों,प्रशाशन ,धर्मो और सामाजिक प्रवृत्तियों में तथा कला में इसी मिश्रित व्यवस्था की झलक मिलती है। सल्तनत काल में भारीतय इस्लामी वास्तुकला में काफी विकास हो चूका था। खिलजियों,तुगलकों और लोदी वंश के काल में हिन्दू और इस्लामी शैलियों के मिश्रण की प्रवृति पहले ही दिखने लगी तजहि। मुगलो ने इसी प्रवृत्ति का विस्तार किया। कला शैलियों ,निर्माण तकनीक ,और अलंकरण में न केवल हिन्दू और इस्लामी शैलियों का मिश्रण हुआ अपितु,उनमे फ़ारसी और तुर्की परम्पराओ का मिश्रण  गया। मुग़ल वास्तुकला में फारस,तुर्की,मध्य एशिया ,गुजरात, बंगाल ,जौनपुर आदि सभी स्थानों की परम्पराओ का अभूतपूर्व मिश्रण हुआ।
इसप्रकार,मुग़ल स्थापत्य कला में उस प्रक्रिया का चरमोत्कर्ष हुआ जिसके अंतर्गत 13वीं शताब्दी में भारत इस्लामी वास्तुकला का आरम्भ हुआ। दिल्ली की शाही निर्माण शैली में जो प्रवृतिया उपस्थित थी उनकी तार्किक परिणति मुग़ल वास्तुकला में देखने को मिली। मुग़ल काल में जीं प्रवृत्तियों ने स्थायी रूप लिया वे वास्तुकला में संतुलन ,सामंजस्यपूर्ण आयोजन और एकीकरण की प्रवृत्तियाँ थी। इन सभी प्रवृत्तिओ में उन सभी भवन निर्माण शैलियों का संयोजन है जो मध्य एशिया,फारस से लेकर भारतीय उपमहाद्वीप के प्रांतीय राज्यों में प्रचलित थी। अंत में यह भी उल्लेखन है कि मुगलो द्वारा जिस सामग्री को भवन निर्माण के लिए चुना गया उसके प्रयोग द्वारा ही ऐसे उत्तम भवनों का निर्माण हो सका।अकबर द्वारा निर्मित भवनों में  गया लाल पत्थर सख्त और ठोस है लेकिन उसे विभिन्न आकारों में गढ़ा गया  परिणामस्वरूप वह सख्त नहीं दिखाई देता। शाहजहाँ के काल में चिकने किये गए पत्थर के प्रयोग द्वारा ऐसे आकारों का निर्माण किया गया कि जो कि स्वर्गीय और आध्यात्मिक भावनाओ की अनुभूति करते हैक्योंकि प्रयोग में  गयी सामग्री का सफ़ेद रंग ही पवित्रता और ऊंच भावनाओ का द्योतक है। इसप्रकार ,ऐसे भवन इ निर्माण के द्वारा केवल कलाकृतियों का ही निर्माण नहीं किया गया जो भौतिक होने के साथ-साथ आध्यात्मिक भी है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह गतिविधि उस वैचारिक आचार का अंग है जिसका निर्माण दरबारी समारोहों और मुग़ल सम्प्रभुता  आध्यात्मिक उच्चाई प्रदान करने वालर विचारो द्वारा  सावधानी से किया गया।      
   

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