साम्प्रदायिकता का उद्भव एवं विकास

साम्प्रदायिकता का उद्भव एवं विकास
    जनतांत्रिक एवं विकासशील देश के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सामाजिक सौहार्द एवं जनता में एकता कायम रखना प्रमुख प्राथमिकता में शामिल है। आधुनिक भारत के इतिहास में इस प्रकार की एकता के लिए भारतीय जनता, समाज तथा राजनीति के साम्प्रदायिकीकरण के कारण बहुत बड़ी चुनौती उठ खड़ी हुई थी। जहाँ एक ओर भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का उद्देश्य सभी भारतीयों की एकता थी, वहीं धार्मिक सम्प्रदाय, धार्मिक हितों और अंततः धार्मिक राष्ट्र की कृत्रिम सीमाएँ तैयार करके लोगों में धार्मिक आधार पर फूट डालने के लिए साम्प्रदायिकता प्रयत्नशील रही। 19वीं शताब्दी के विशिष्ट सामाजिक, आर्थिक विकास, औपनिवेशिक शासन की भूमिका, इसकी प्राथमिकताएं और उन्हें पूरा करने के लिए इसके द्वारा उठाये गये कदम, साम्प्रदायिकता विरोधी शक्तियों की कमजोरियाँ एवं सीमायें और बीसवीं शताब्दी में साम्प्रदायिक शक्तियों का उत्थान के कारण भारत का विभाजन एवं पाकिस्तान का गठन साम्प्रदायिकता की तार्किक परिणाम था।
    साम्प्रदायिकता ऐसी मान्यता है जिसके अनुसार धर्म समाज का आधार तथा समाज के विभाजन की आधारभूत ईकाई तैयार करता है। इसके अनुसार धर्म ही सभी अन्य मानवीय हितों का प्रतिपादन करता है। मनुष्य की पहचान उसके देश, क्षेत्र, लिंग, व्यवसाय, परिवार के अंतर्गत उसके अपने स्तर, धर्म, जाति आदि के आधारों पर हो सकती हे। सम्प्रदायवादी इनत माम आधारों में से केवल धार्मिक पहचान को ही चुनता है और इसे कहीं आवश्यकता से अधिक महत्व देने का प्रयास करता है। परिणामतः सामाजिक सम्बन्ध, राजनैतिक समझ तथा आर्थिक संघर्ष धार्मिक पहचान के आधार पर व्याख्यायित किये जाते है।
    कुछ ऐतिहासिक अनुसंधानों में भारत में साम्प्रदायिकता की जड़ों को मध्यकालीन भारत में तलाशने की कोशिश हुई है। कुछ विद्वानों के अनुसार साम्प्रदायिकता की जड़े हिन्दुओं और मुसलमानों द्वारा अपने मतभेद समाप्त न कर पाने तथा एकतामूलक समाज की संकल्पना न कर पाने में ढूँढ़ी जा सकती है। उनका मानना है कि भारत में धार्मिक मतभेद हमेशा से रहे हैं, भारतीय समाज और मुस्लिम समाज के रूप में दो पृथक-पृथक समाजों का अस्तित्व सदैव विद्यमान रहा, भारतीय समाज जैसी कोई चीज नहीं रही। इस विचार का प्रभावपूर्ण खंडन उन विद्वानों द्वारा किया गया है जिनका मानना है कि भारतीय समाज में विघटन शक्तियों की भूमिका को अतिशयोक्ति के रूप में प्रस्तुत नहीं किया जाना चाहिए। भारतीय समाज में ऐसी शक्तियों अस्तित्व सदैव विद्यमान रहा, जिन्होंने विभिन्न जातियों, सम्प्रदायों, उपसंप्रदायों आदि के लोगों को एकीकृत किया। उनके अनुसार साम्प्रदायिकता को उत्पत्ति को अंग्रेजी साम्राज्य के भारत में प्रकटीकरण के साथ जोड़कर देखी जानी चाहिए, जिसका प्रभाव भारतीय समाज, संस्कृति अर्थव्यवस्था पर अद्भूत रूप से पड़ा।
    भारत में अंग्रेजी साम्राज्य के उदय के शक्ति संरचना में भारी परिवर्त्तन किए जिसका प्रभाव भारतीय समाज के सभी वर्गों पर पड़ा। साम्राज्यवाद के उदय के साथ ही उच्चवर्गीय मुसलमानों का पतन प्रारम्भ हुआ। बंगाल में इस वर्ग का सेना के उच्च पद, प्रशासन का पतन प्रारम्भ हुआ। बंगाल में इस वर्ग का सेना के उच्च पद, प्रशासन एवं न्यायालयों में रोजगार पर अर्ध अधिपत्य था, इसका सबसे अधिक प्रभाव देखने में आया, धीरे-धीरे भूमि पर भी उनका आधिपत्य कम होने लगा। विशेष रूप से 1793 भारतीय समाज की अपनी अलग विशेषता के कारण मुस्लिमों का नुकसान सामान्यतः हिन्दुओं के पक्ष में गया, जिन्होंने शिक्षा एवं अन्य आधुनिकीकृत शक्तियों पर मुसलमानों की अपेक्षा अधिक सकारात्मक प्रतिक्रिया दिखाई। मुसलमान रोजगार एवं शिक्षा के इस दौड़ में काफी पीछे छूट गये। ब्रिटिश साम्राज्यवादों शासन के अंतर्गत होनेवाले आर्थिक विकासों से मुसलमानों की अपेक्षा हिन्दुओं को काफी लाभ प्राप्त हुआ। हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों ने शिक्षा, संस्कृति, नये व्यवसाय तथा प्रशासन में पद जैसी सरकारी सुविधाओं को बाद में अपनाया। परिणामतः हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमानों में पुरानी परम्पराओं, रवैयों और मूल्यों के पुनर्मूल्यांकन के लिए बौद्धिक जागरण भी बाद में ही हुआ। इस बिन्दु पर राममोहन राय और सर सैयद अहमद खाँ के बीच समयान्तराल  को उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है। इस अंतराल के कारण मुसलमानों के बीच कमजोरी तथा असुरक्षा की भावना ने परम्परागत विचार प्रक्रिया तथा धर्म पर उन्हें आश्रित बना दिया।
    1857 के प्रथम स्वाधिनता संघर्ष के बाद दमन के कुचक्र का एक लम्बा दौर चला जिससे हिन्दुओं की अपेक्षा मुसलमान ज्यादा प्रभावित हुए। धीरे-धीरे लोगों को इस दमन चक्र से मुक्ति मिली तथा संवैधानिक सुधारों का तोहफा प्रदान किया गया। हिन्दुओं ने अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त करनी शुरू की, जिससे कि उन्हें सरकारी सेवाओं में आने का मुसलमानों की अपेक्षा अधिक मौका मिल सका। हिन्दुओं ने व्यवसायों और उद्योगों में भी भारी संख्या में प्रवेश करना शुरू किया। मुसलमानों को प्रतिक्रियावादी तत्वों ने आधुनिक शिक्षा और उद्योग में प्रवेश से उनको दूर ही रखा। इसी दौरान हिन्दुओं के बीच एक नये मध्यवर्ग का उदय हुआ, जबकि मुसलमान अभी सामंतवादी मानसिकता से ग्रस्त थे। हिन्दू मध्यवर्ग ने राष्ट्रीय आन्दोलन की नींव रखी। लगभग एक पीढ़ी के बाद मुसलमानों ने वहीं मार्ग अपनाया और अंग्रेजी शिक्षा एवं सरकारी सेवाओं एवं व्यवसायों की ओर बढ़े और उनके नीच भी एक नये वर्ग का उदय हुआ। विभिन्न मध्यवर्गीय तत्वों के बीच सरकारी सेवाओं पर प्रतिष्ठित होने के लिए प्रतिस्पर्धा बढ़ने लगी। आपसी हितों के इस टकराव ने धार्मिक गोलबंदी का अवसर प्रदान किया और इसी दौर में साम्प्रदायिकता की शुरूआत हुई। यों कहा जाय कि भारत में साम्प्रदायिकता शैक्षिक, राजनैतिक एवं आर्थिक रूप से असमान विभिन्न सम्प्रदायों के बीच रोजगार के लिए संघर्ष थी जिसे अंग्रेजी साम्राज्यवाद ने अपनी औपनिवेशिक नीति संतुलन, प्रतिसंतुलन के द्वारा और तीव्रता प्रदान कर दी। वास्तव में, साम्प्रदायिकता का इतिहास, भारत में ब्रिटिश नीति का इतिहास है, साथ ही यह भारत में मध्यवर्गीय चेतना के विकास तथा अनेकता और राजनैतिक शक्ति के लिए मध्यवर्ग की बढ़ती हुई मांग का इतिहास है किन्तु अंग्रेजी साम्राज्यवाद इसका केवल एक पक्ष है और देश की सामाजिक अर्थव्यवस्था इसका दूसरा पक्ष।
    साम्प्रदायिकता के विकास के लिए ब्रिटिश सरकार की औपनिवेक्षिक नीति काफी हद तक जिम्मेदार है। यदि साम्प्रदायिकता भारत में पनपी और इसने भयावह रूप धारण किया जैसा कि 1947 के दंगे और भारत विभाजन से स्पष्ट है तो इसके लिए बहुत कुछ अंग्रेजी सरकार जिम्मेदार है, जिसने कि साम्प्रदायिकता का बढ़ावा दिया। साम्प्रदायिकता से सम्बन्धित ब्रिटिश नीति की शुरूआ 1857 के विद्रोह के बाद से शुरू होती है। 1857 के बाद सरकारी नीति में महत्वपूर्ण परिवर्तन आए और अंग्रेजी नीतियों का दोहरा चरित्र सामने आया। इसमें अब उदारवादी एवं साम्राज्यवादी नीतियों का समावेश हुआ। यह नीति दोहरे उद्देश्य के साथ तैयार की गई थी। एक ओर नये उभरते एक-दूसरे के विरूद्ध ला खड़ा करना। एक वर्ग के वर्गीय हितों को दूसरे वर्ग के वर्गीय हितों से टकराना, एक वर्ग को दूसरे वर्ग के विरूद्ध ला खड़ा करना। एक बार इस नीति के व्यवहार में आ जाने के बाद इसका परिणाम साम्प्रदायिकता के रूप में सामने आया। साम्प्रदायिक विचारधारा का इस्तेमाल करके उसे बढ़ावा देते हुए भारतीयों में एकता नहीं होने दी गई। 20वीं शताब्दी में यह कार्य और भी प्रभावी ढंग से किया गया। और राष्ट्रीय विचारधारा संगठन और मांगों के न्यायसंगत होने तक उसकी प्रमाणिकता को नकारने के उद्देश्य से साम्प्रदायिक मांगों और संगठनों को प्रोत्साहित किया गया।
    1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना के बाद, एक ओर मुसलमानों को कांग्रेस से दूर रखने का भरसक प्रयास किया गया और दर ओर कांग्रेस के दाबों को यह कहकर ठुकराया जाता रहा कि कांग्रेस मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही है। साम्प्रदायिकता ने एक अन्य तरीके से भी सरकार को फायदा पहुँचाया। साम्प्रदायिकता तनाव कायम रहने तथा इसके और बदतर होने को अंग्रेजी शासन ने अपनी सरकार बनाये रखने के एक बहाने के रूप में इस्तेमाल किया। पहले साम्प्रदायिकता को बढ़ावा देना और बाद में इसी को अपने राजनीति लाभों के लिए इस्तेमाल करने का खेल ब्रिटिश राज ने 1905 के बाद बखूबी खेला।
    19वीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों में पुनरूत्थान के रवैये ने भी साम्प्रदायिकता के विकास में काफी योगदान दिया। पुनरूत्थान उस स्वाभिमान की पुनर्पाप्ति का प्रयास था जिसे राजनीतिक वशीकरण के कारण ठेस पहुँची थीं। यह स्वाभिमान भारत के प्राचीन युग को गौरवान्वित करके प्राप्त करने का प्रयास किया गया। हिन्दू सुधारवादियों ने भारत के प्राचीन युग को गौरवान्वित करते हुए मध्ययुगीन भारत को बर्बरता का युग बताते हुए उसकी भर्त्सना की थी। इसी प्रकार मुसलमानों ने अपने गौरव और महानता की तलाश में अरब के इतिहास की शरण ली। स्वाधीनता संघर्ष के ऐसे क्षण में जबकि हिन्दू और मुसलमान हर रूप में एकवद्ध होने चाहिए थे, ऐतिहासिक रूप शताब्दी में और भी स्पष्ट रूप से सामने आयी जब जिन्ना ने अपने द्विराष्ट्रीय नजरिये के आधार पर यह कहा कि भारत एक राष्ट्र नहीं बल्कि हिन्दू और मुस्लिम राष्ट्र के रूप में दो राष्ट्र है। इसका कारण उन्होंने यह बताया कि दोनों का इतिहास अलग-अलग है और अक्सर एक राष्ट्रीयत का नायक दूसरे राष्ट्रीयता के लिए खलनायक सिद्ध होता रहा है।
    पुनरूत्थान के प्रश्न से जूड़ा हुआ प्रश्न 19वीं शताब्दी में भारत में मुसलमानों के कुछ वर्गों में एक प्रकार के राजनैतिक रवैये का विकास था। सैय्द अहमद खान की राजनैतिक समझ और गतिविधयाँ हमेशा एक दोहरेपन से प्रभावित रही। उन्होंने अपनी गतिविधियों का आरम्भ बिना किसी साम्प्रदायिक भेद-भाव के किया। उनका उद्देश्य मुसलमानों में सुधार लाने की प्रक्रिया आरम्भ करना, उन्हें आधुनिक शिक्षा की आवश्यकता की ओर प्रेरित करना और उन्हें सरकारी संरक्षण दिलाना था। इसके लिए उन्होंने अलीगढ़ कॉलेज की स्थापना की, जिसे बहुत से हिन्दुओं द्वारा आर्थिक सहायता मिली। उस कॉलेज में बहुत से हिन्दू छात्र और अध्यापक भी आए। स्वयं उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम सद्भावना के समर्थन में आवाज उठाई। लेकिन 1885 में कांग्रेस की स्थापना के बाद उनकी राजनीतिक समझ में काफी परिवर्त्तन आया। मुसलमानों के लिए प्रशासनिक पद हासिल करने के लिए तथा अंग्रेजी शासन के प्रति समर्थन दर्शाने की उनकी प्राथमिकता कांग्रेस की साम्राज्यवाद विरोधी नीति के एकदम प्रतिकूल थी। यद्यपि उनका कांग्रेस के साथ बुनियादी मतभेद अंग्रेजी शासन के प्रति उनके रूख से था, लेकिन उन्होंने साथ ही कांग्रेस को एक हिन्दू दल के रूप में आरोपित करते हुए मुसलमान विरोधी दल बताकर उसका विरोध किया। इस प्रकार उन्होंने साम्प्रदायिकता के कुछ बहुसंख्यक है और यदि अंग्रेजों ने शासन की बागडोर भारतीयों के हाथ में दे दी तो मुसलमानों के हितों को नुकसान पहुँचेगा। यहीं वह आधार था जिसके कारण सैय्यद अहमद खान ने प्रतिनिधि जनतांत्रिक संस्थाओं को विरोध किया। उनके अनुसार जनतंत्र का अर्थ होगा, बहुसंख्यकों के हाथ में शक्ति एकत्रित होना क्योंकि यह उस पासे के खेल  जैसा होगा, जिसमें एक आदमी के पास चार पासे हो और दूसरे के पास केवल एक। उनका यह भी विचार था कि चुनाव-प्रणाली सारी शक्ति हिन्दुओं के पास पहुँचा देगी। इस प्रकार, सैय्यद अहमद खान और उनके सहयोगियों के विचारधारा के परिणाम स्वरूप साम्प्रदायिकता के तीन तत्व प्रमुखता से उभरे प्रथम राष्ट्रवादी शक्तियों का विरोध, द्वितीय जनतांत्रिक प्रक्रियाओं और संस्थाओं का विरोध तथा तृतीय अंग्रेजी शासन की स्वामिभक्ति।
    साम्प्रदायिकत के एक बार उभरने के बाद उसे सरकार का प्रोत्साहन मिल गया और यह फिर स्वयं ही पनपने लगी। वास्तव में यह एक ऐसी व्यवस्था थी जो बिना किसी सहारे के स्वयं मजबूत बन सकती थी। इस प्रक्रिया में साम्प्रदायिक संगठनों ने एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मुख्य साम्प्रदायिक संगठन मुस्लिम लीग 1906 में गठित और हिन्दू महासभा 1915 में गठित एक-दूसरे के विरोधी थे। लेकिन वे हमेशा एक-दूसरे को औचित्य प्रदान करते हुए एक दूसरे को और भी साम्प्रदायिक बनाते रहे। अपने प्रचार एवं राजनैतिक गतिविधियों द्वारा उन्होंने हिन्दुओं और मुसलमानों को एक- दूसरे के नजदीक नहीं आने दिया। एक-दूसरे के प्रति अविश्वास की भावना फैलायी और इस प्रकार जनसाधारण में साम्प्रदायिकता का प्रचार-प्रसार किया।
    बीसवीं शताब्दी में साम्प्रदायिकता के विकास को राष्ट्रवादी आन्दोलन द्वारा ही अवरूद्ध किया जा सकता था। राष्ट्रवादी विचारधारा एवं शक्तियों के द्वारा ही साम्प्रदायिकता को परास्त किया जा सकता था। लेकिन एक राष्ट्रवादी विचारधारा एवं शक्ति के प्रतिनिधि के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अखिल भारतीय स्तर पर जनसाधारण में साम्प्रदायिकता के फैलते जहर को नहीं रोक सकी। लेकिन कांग्रेस राष्ट्रवाद एवं धर्मनिरपेक्षता के प्रति कटिबद्ध थी और भारतीयों में एकता लाने की इच्छुक थी। उसने भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में साम्प्रदायिक शक्तियों के विरूद्ध भी संघर्ष किया, लेकिन वह असफल रही। यह असफलता कई बिन्दुओं पर केन्द्रित थी, यथा, कांग्रेस साम्प्रदायिकता के स्वरूप को पूरी तरह नहीं समझ सकी, जिसके कारण इससे लड़ने के लिए एक समग्र नीति तैयार करने में वह असफल रही। इसका परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस विभिन्न अस्थाई कार्यनीतियाँ अपनाती रही। साथ ही साम्प्रदायिकता के तेजी से बदलते स्वरूप के साथ कांग्रेस गति कायम नहीं रख सकी। दूसरे, राष्ट्रीय आन्दोलन में कुछ हिन्दू पुनरूत्थानवादी शक्तियाँ प्रवेश कर गई जिन्होंने कांग्रेस द्वारा मुसलमानों का विश्वास प्राप्त करने और उन्हें साथ ले चलने के प्रयत्न में बाधा उत्पन्न की। साथ ही कुछ हिन्दू प्रतीकों के इस्तेमाल ने भी इसमें अवरोध पैदा किया। तीसरे, साम्प्रदायिक शक्तियों के निपटने में कांग्रेस ने क्रियान्वयन के स्तर पर भी गलत चुनाव किए। कांग्रेस ने साम्प्रदायिक शक्तियों को रियायत देने का प्रयास किया और उनके साथ समझौता किया जिसके कारण साम्प्रदायिक समूह को राजनैतिक प्रतिष्ठा मिलने  लगी। कुछ अवसरों पर समझौते के मौके गवाँ दिए गये जिससे गत्यारोध की स्थिति पैदा हो गई।
    साम्प्रदायिकता के प्रति ब्रिटिश नीति ने भारत में साम्प्रदायिक उलझनों को और भी बढ़ा दिया। अंग्रेजी सरकार ने विभिन्न राजनैतिक हलों के बीच समझौता न होने देने के हर संभव प्रयास किए। कांग्रेस मुसलमानों को जो भी सुविधायें देने की कोशिश करती अंग्रेजी सरकार उससे अधिक रियायतें दे देती थी और कांग्रेस एक बार फिर मुसलमानों का समर्थन पाने में असफल रह जाती थी। मसलन, 1905 में बंगाल का विभाजन प्रशासनिक पहल के रूप में किया गया, लेकिन इसने जल्दी ही अंग्रेजी सरकार को एक अन्य राजनीतिक लाभ प्रदान किया, क्योंकि इसने बंगाल को हिन्दू बाहुल्य और मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों में बाँट दिया। इस प्रकार, यह बंगाल के राष्ट्रवाद को कमजोर बनाने और उसके  विरूद्ध मुसलमानों को मजबुत करने की अंग्रेजी इच्छा का परिणाम था। विभाजन की योजना और स्वदेशी आन्दोलन के साथ ही सरकारी संरक्षण में 1906 के अंत में अखिल भारतीय मुस्लिम लीग का गठन हुआ। इस दल में आगाखाँ, ढ़ाका के नबाव मुहसिन उल मुल्क जैसे बड़े जमींदार, भूतपूर्व नौकरशाह और उच्चवर्गीय मुसलमान शामिल थे। इनका उद्देश्य नौजवानों को कांग्रेस की ओर न जाने देने और राष्ट्रवादी मुख्यधारा में न शामिल होने देना था। मुस्लिम लीग का गठन पूर्ण रूप से सरकार के प्रति निष्ठा की भावना से प्रेरित था और इसका एकमात्र कारण समर्थन एवं संरक्षण के लिए सरकार का दामन पकड़ना था। इस काल में मुस्लिम अलगाववाद का विकास हुआ, जिसके पीछे निम्न कारण थे - स्वदेशी आन्दोलन के दौरान हिन्दूवादी पुनरूत्थानवादी शक्तियों का फैलाव हो रहा था, दूसरा, सरकार का यह प्रचार कि बंगाल के विभाजन से मुसलमानों को फायदा होगा और तीसरा, साम्प्रदायिक दंगे भड़कना। स्वदेशी आन्दोलन के दौरान पूर्वी बंगाल में कई साम्प्रदायिक दंगे हुए, जिन्होंने अलगाववाद में योगदानन्दूवादी पुनरूत्थानवादी शक्तियों का फैलाव हो रहा था, दूसरा, सरकार का यह प्रचार कि बंगाल के विभाजन से मुसलमानों को फायदा होगा और तीसरा, साम्प्रदायिक दंगे भड़कना। स्वदेशी आन्दोलन के दौरान पूर्वी बंगाल में कई साम्प्रदायिक दंगे हुए, जिन्होंने अलगाववाद में योगदान दिया।
    1909 में विधान परिषदों के लिए निर्वाचन मार्ले मिन्टों सुधार का एक महत्वपूर्ण अंग था तथा साम्प्रदायिकता के इतिहास में भी यह महत्वपूर्ण कदम था। पृथक् निर्वाचक मंडल का अर्थ चुनाव क्षेत्रों, मतदाताओं और निर्वाचित उम्मीदवारों को धर्म के आधार पर समूहों में बाँटना था। व्यावहारिक रूप से इसका अर्थ भिन्न मुस्लिम चुनाव क्षेत्र, मुस्लिम मतदाता और मुस्लिम उम्मीदवारों की प्रथा आरम्भ करना था। इसका अर्थ यह भी था कि गैर मुस्लिम मतदाता मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए मतदान नहीं कर सकते थे। इस प्रकार, चुनाव प्रचार और राजनीतिकरण को धार्मिक दीवार के बीच सीमाबद्ध कर दिया गया। इन सभी घटनाओं के खतरनाक परिणाम आवश्यम्भावी थे। पृथक निर्वाचन मंडल के पीछे सोच यह थी कि भारतीय समाज भिन्न हितों और समूहों का जमघट है और यह बुनियादी रूप में हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच में बँटा हुआ है। भारतीय मुसलमान एक भिन्न और मजबूत समुदाय के रूप में देखे गये। इसका उद्देश्य अपने संभावित सहयोगियों के हाथ मजबूत करना और हिन्दू-मुस्लिम एकता में बाधा डालता था। इस परियोजना के पूर्ण होने तक मुसलमानों को यह आश्वासन दिया गया कि उन्हें कौंसिलों का प्रतिनिधित्व केवल उनकी संख्या के आधार पर नहीं अपितु उनके ‘राजनैतिक महत्व‘ के आधार पर प्रदान किया जायेगा। इस प्रकार, पृथक निर्वाचन मंडल ने ऐसी संस्थागत संरचनाओं को जन्म दिया जिनसे अलगाववाद को बढ़ावा मिला। इससे कांग्रेस पर गंभीर दबाव आनेवाला था तथा राष्ट्रवादी गतिविधियों के लिए इसके कारण क्षेत्र सीमित होनेवाला था। साम्प्रदायिक समूहों एवं संगठनों की प्रक्रिया तेज होनेवाल थी तथा भारतीय राजनीतिक दलों के बीच किसी भी समझौते की संभावना समाप्त कर दी।
    1916 का लखनऊ समझौता कांग्रेस और मुस्लिम लीग द्वारा एक समझौते पर पहुँचने का प्रयास था। मुस्लिम लीग का समर्थन प्राप्त करने के लिए एक अस्थायी प्रबन्ध के रूप में कांग्रेस ने पृथक निर्वाचन मंडल की माँग स्वीकार कर ली। लखनऊ समझौता नेताओं के बीच का समझौता था, इसमें सामान्य जन की कोई भागीदारी नहीं थी। कांग्रेस लीग के समझौते को गलत रूप में हिन्दू-मुस्लिम समझौते का नाम दिया गया। इसके पीछे यह समझ थी कि लीग मुसलमानों की असली प्रतिनिधि है। लेकिन भारत सरकार अधिनियम, 1919 में मुसलमानों को लखनऊ समझौते की अपेक्षा कहीं अधिक रियायतें देने के कारण लखनऊ समझौता अर्थहीन हो गया।
    खिलाफत आन्दोलन एक ऐसे विशिष्ट राजनैतिक महौल की उपज था जिसमें भारतीय राष्ट्रवाद और इस्लामी विश्व बंधुत्व साथ-साथ कदम बढ़ा रहे थे। इसके साथ राष्ट्रवादी आन्दोलन में मुसलमानों की सहभागिता में अभूतपूर्व बढ़ोतरी हुई। चौरी-चौरा कांड के तुरन्त बाद असहयोग आन्दोलन के वापस लेने के साथ साम्प्रदायिकता भारतीय राजनीति में प्रवेश करने लगी। 1922-27 के दौरान साम्प्रदायिकता के उत्थान के कई लक्षण सामने आने लगे। इस दौरान साम्प्रदायिक हिंसा में अभूतपूर्व वृद्धि हुई। केवल संयुक्त प्रान्त में 1923-27 के दौरान 91 साम्प्रदायिक दंगे हुए। गोहत्या और मस्जिदों के सामने संगीत के मुद्दे उभरकर सामने आये। हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतिनिधित्व करनेवाली खिलाफत कमेटियाँ धीरे-धीरे लुप्त होने लगी। 1922-23 के दौरान मुस्लिम लीग को पुनर्जीवित किया गया और इसने खुलेआम अलगाववादी राजनीति के पक्ष में बोलना आरम्भ कर दिया। 1915 में गठित हिन्दू महासभा जो कि अभी तक अक्रियाशील थी उसे ऐसा माहौल मिल पाया कि वह भी अपने आप को पुनर्जीवित कर सके। तबलीग (प्रचार) और तन्जीम (संगठन) जैसे आन्दोलन मुसलमानों के बीच उठे, जो कि हिन्दुओं के उठे शुद्धि और संगठन आन्दोलनों की प्रतिक्रिया स्वरूप थे। आंशिक रूप से ये आन्दोलन भी मोपिल्ला विद्रोह के दौरान हुए जबरन धर्म परिवर्त्तन की प्रतिक्रिया में हुए। इनत माम घटनाओं ने राजनैतिक वातावरण को काफी दूषित कर दिया और 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना से यह और भयावह हो गया। इस साम्प्रदायिक परिस्थिति के पीछे कई कारण मौजूद थे, यथा असहयोग-खिलाफत गठनजोड़ ने धार्मिक नेताओं का राजनीति में खींच लिया, जिन्होंने राजनीति में प्रवेश अपनी शर्त्तो पर किया था। आन्दोलन वापसी के वावजूद भी राजनीति में इनकी सहभागिता समाप्त नहीं हुई। फलतः अब राजनीति की व्याख्या में धार्मिक तत्व भी समाविष्ट हो गया। आलोचनाएँ धार्मिक आधार पर की जाने लगी। राजनीतिक संरचना का स्वरूप अपने आप में पृथक् निर्वाचक मंडल की प्रक्रिया आरंभ करने के साथ ही साम्प्रदायिकता का बीज बन गया। इस साम्प्रदायिक परिस्थिति के पीछे कई कारण मौजूद थे, यथा असहयोग-खिलाफत गठगोड़ ने धार्मिक नेताओं को राजनीति में खींच लिया, जिन्होंने राजनीति में प्रवेश अपनी शर्त्तो पर किया था। आन्दोलन वापसी के वावजूद भी राजनीति में इनकी सहभागिता समाप्त नहीं हुई। फलतः अब राजनीति की व्याख्या में धार्मिक तत्व भी समाविष्ट हो गया। आलोचनाएँ धार्मिक आधार पर की जाने लगी। राजनीतिक संरचना का स्वरूप अपने आप में पृथक् निर्वाचक मंडल की प्रक्रिया आरंभ करने के साथ ही साम्प्रदायिकता का बीज बन गया। इस संरचना का विस्तार 1919 में मांटेज्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के आधार पर हुआ जिसमें साम्प्रदायिक प्रचार और इसके आधार पर राजनैतिक गतिविधियों के पनपने का पथ प्रदर्शित किया। रोजगार के अवसरों के भारी कमी के माहौल में शिक्षा के विस्तार ने काफी बड़ी संख्या में शिक्षित बेरोजगार पैदा कर दिए जो कि नौकरियों के लिए धर्म का इस्तेमाल करने के लिए तैयार थे। इसके परिणामस्वरूप 1927 में राजनैतिक परिस्थिति काफी असंतोषजनक हो गई। राष्ट्रवादी शक्तियों में फूट पुड़ गयी थी और वे बहुत ही सतही तौर पर कार्यरत थी। साम्प्रदायिकता इस दौरान काफी जोर पकड़ती जा रही थी।
    1927 ई0 में साइमन कमीशन के आने और लगभग सभी राजनैतिक विचारों द्वारा सर्वसम्मति से इसका बहिस्कार किए जाने के कारण एक बार फिर एकता का अवसर आया। मोहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व में मुस्लिम लीग का एक हिस्सा पृथक् निर्वाचक मंडल के स्थान पर संयुक्त निर्वाचक मंडल के समर्थन में जाने को तैयार था। लेकिन उसके लिए शर्ते भी शामिल की गई थी, वे थीं - केन्द्रीय विधानमंडल में मुसलमानों का एक तिहाई प्रतिनिधित्व हो, सिंध को बम्बई से अलग करके एक अलग प्रदेश बनाया जाय। उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रदेशों में सुधार लाये जाएँ तथा बंगाल और पंजाब में उनकी जनसंख्या के प्रतिशत के अनुसार मुसमानों को विधान परिषदों में प्रतिनिधित्व मिले। कांग्रेस ने ये मांगे स्वीकार कर ली, जिससे कि एकता की संभावनाएँ बढ़ी। लेकिन हिन्दू महासभा द्वारा ऑल पार्टीज कांफ्रेंस में इसके बिना शर्त्त नामंजूर किए जाने के कारण समस्या ने गंभीर रूप धारण कर लिया। मुस्लिम लीग और हिन्दू महासभा की आपसी प्रतिद्वन्द्विता ने एकता के सभी प्रयास असफल कर दिए। नेहरू रिपोर्ट मुस्लिम लीग द्वारा नामंजूर कर दी गई, क्योंकि इसमें उसकी सभी मांगे शामिल नहीं की गई थी। नेहरू रिपोर्ट की नामंजूरी का प्रभाव काफी महत्वपूर्ण रहा। इसके कारण जिन्ना जिन्होंने कि ‘इसे अलग-अलग रास्तों पर जाना बताया‘ का कांग्रेस के साथ सम्बन्ध टूट गया। जिन्ना ने फिर से पृथक् निर्वाचन मंडल का रास्ता अपनाया और अपने प्रसिद्ध चौदह सूत्री कार्यक्रम जिसमें पृथक् निर्वाचन मंडल, केन्द्र और प्रदेशों में सीटों का आरक्षण, रोजगार में मुसलमानों के लिए आरक्षण, नई मुस्लिम बहुसंख्यक प्रदेश की स्थापना आदि शामि थे, की घोषणा की जो कि साम्प्रदायिक मांगों का दस्तावेज बन गया। इसके कारण विभिन्न राजनैतिक दलों के बीच दूरी बढ़ गई और जिन्ना साम्प्रदायिकता के ओर भी जनदीक पहुँच गये। परिणाम स्वरूप कांग्रेस के नेतृत्व में चले सविनय अवज्ञा आन्दोलन के प्रति अधिकतर मुसलमान नेताओं के बीच उदासीनता और कभी-कभी शत्रुता का भाव परिलक्षित होने लगा।
    1928-29 की घटनाओं ने साम्प्रदायिक शक्तियों को चारो ओर फैला दिया। धीरे-धीरे साम्प्रदायिकता ऐसी जनशक्ति के रूप में परिवर्त्तित होने लगी जिसका सामना करना कठिन से कठिनत्तर हो गया। 1940 में मुसलमानों के लिए एक अलग देश के रूप में पाकिस्तान के गठन की उठनेवाली नई मांग ने सभी अन्य साम्प्रदायिक मांगों को अर्थहीन बना दिया। भारत सरकार अधिनियम 1935 ने प्रादेशिक स्वायतन एवं पहले के मुकाबले अधिक अधिकार उपलब्ध कराये। पृथक् निर्वाचक मंडल के अंतर्गत 1937 के आरम्भ में चुनाव हुए। परिणाम काफी स्पष्ट थे। आम चुनावों में कांग्रेस ने भारी विजय पाई और छः प्रदेशों में मंत्रिमंड का गठन करने में सफल हो पाई तथा अन्य दो प्रदेशों में अकेली सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभर कर सामने आई। लेकिन मुस्लिम चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस को निराशा हाथ लगी। 1482 मुस्लिम चुनाव क्षेत्रों में से सिर्फ 58 सीटों पर कांग्रेस ने अपने उम्मीदवार उतारे थे जिसमें सिर्फ 26 ही निर्वाचित हुए। इतना ही नहीं अपने को मुसलमानों की प्रतिनिधि कहने वाली पार्टी मुस्लिम लीग की स्थिति भी काफी बुरी रही। उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों में उसे एक भी सीट नहीं मिल पाई। पंजाब में 48 सीटों में सेन्ट तथा सिन्ध में 33 सीटों में से उसे 3 सीटें ही प्राप्त हो सकी। मुस्लिम कहीं भी मंत्रिमण्डल का गठन नहीं कर पायी। बंगाल और पंजाब जैसे मुस्लिम बहुल प्रान्तों में क्षेत्रीय पार्टियाँ ने मंत्रिमण्डल का गठन किया, मुस्लिम लीग केवल उनकी सहयोगी पार्टी बनकर रह गई।
    चुनाव परिणाम काफी चौकानेवाले थे तथा कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सामने अलग-अलग चुनौतियाँ लेकर आए। कांग्रेस की चुनौती काफी स्पष्ट थी। हिन्दुओं के बीच कांग्रेस का आधार काफी मजबूत था, लेकिन मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने में यह अभी भी कामयाब नहीं हो सकी थी। कांग्रेस के लिए संतोष का कारण यह था कि उसकी प्रतिद्वन्द्वी पार्टी मुस्लिम लीग भी मुसलमानों के प्रतिनिधित्व का दावा नहीं कर सकती थी। इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए कांग्रेस ने मुस्लिम जनसम्पर्क अभियान शुरू करते हुए प्रत्यक्ष रूप से मुसलमानों से कांग्रेस में शामिल होने के उद्देश्य से किया गया था। कांग्रेस के इस कदम से जिन्ना काफी चिंतित हुए और कांग्रेस से मुसलमानों को दूर रहने की चेतावनी दी क्योंकि उनके अनुसार केवल मुस्लिम लीग ही मुसलमानों का प्रतिनिधत्व कर सकती है।
    मुस्लिम लीग की भी चुनौतियाँ स्पष्ट थी। मुस्लिम लीग अभी तक केवल उच्चवर्गीय का संगठन था, जिसका नेतृत्व राजाओं और जमींदारों के हाथ में था तथा उसके पास कोई जनाधार नहीं था फलतः चुनावी विजय के लिए जन आधार आवश्यक था। 1937 तक सरकार ने जिन्ना के सभी चौदह सूत्रीय कार्यक्रम स्वीकार कर लिए थे, फिर भी जिन्ना लक्ष्य से दूर थे। अतः आवश्यकता इस बात की थी कि कुछ और बड़ी माँगे प्रस्तुत की जाय। इस चुनौती का मुकाबला करने के लिए सहायता शुल्क घटा दिया गया प्रान्तीय कमिटियाँ गठित की गई और कार्यक्रम को सामाजिक आर्थिक आधार देने के लिए उसमें परिवर्त्तन किए गये। कांग्रेस मंत्रिमण्डलों की भर्त्सना करने के उद्देश्य से उतना ही बड़ा अभियान शुरू किया गया। 1940 के लाहौर सत्र में जिन्ना ने द्वि-राष्ट्रीय नजरिया देश किया। इसके अनुसार मुस्लिम अल्पसंख्यक नहीं बल्कि वे एक राष्ट्र थे। चूँकि हिन्दु और मुसलमान आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और ऐतिहासिक रूप में भिन्न थे, इसलिए वे दो अलग-अलग राष्ट्र थे। अतः भारतीय मुसलमानों के लिए एक अलग स्वायत्त देश होना चाहिए। इसलिए एक मुस्लिम देश के रूप में प्रस्ताव के गठन का प्रस्ताव सामने आया।
    1940 के अगस्त प्रस्ताव में लार्ड लिनलिथगों ने सर्वप्रथम मुसलमानों को यह आवश्वासन दिया कि ब्रिटेन और भारत के बीच कोई समझौता होने की स्थिति में उन्हें पूर्ण सुरक्षा प्रदान की जायेगी। 1942 ई0 में क्रिप्स मिशन ने अपने योजना प्रस्तुत की, जिसे कांग्रेस और लीग ने सिरे से नकार दिया। 8 अगस्त 1942 ई0 को कांग्रेस ने भारत छोड़ों आन्दोलन आरम्भ किया। लीग ने आन्दोलन का विरोध किया और जबकि कांग्रेस के सभी नेता जेल में बन्द थे उस समय उसने गंभीरता से पाकिस्तान के निर्माण के पक्ष में प्रचार किया। लीग ने धर्म के आधार पर मुसलमानों से अपने माँग का समर्थन करने को कहा। मुस्लिम धार्मिक नेताओं ने इस कार्य में उसकी सहायता की। अलीगढ़ विश्वविद्यालय के विद्यार्थी विभिन्न प्रान्तों में पाकिस्तान का प्रचार करने के लिए भेजे गये। लीग ने यह भी धमकी दी कि यदि पाकिस्तान की माँग स्वीकार नहीं की गई तो वह गृहयुद्ध आरम्भ कर देगी। उत्तर-पश्चिम में पठानों की सार्वजनिक सभा को संबोधित करते हुए मि0 जिन्ना ने लागों को मुस्लिम लीग को वोट देने का आहवान करते हुए कहा कि ‘यदि पाकिस्तान का निर्माण चाहते हो तो लीग को वोट दो‘, इस्लाम को मिटने से बचाने का एक ही रास्ता है लीग को वोट देना। साथ ही उन्होंने मुसलमानों को हिन्दुओं का गुलाम नहीं बनने देने का वायदा किया। लगभग इसी तरह का प्रचार मुस्लिम लीग ने सम्पूर्ण भारत में किया। स्पष्ट रूप से यह कहा कि लीग का समर्थन करना इस्लाम धर्म का समर्थन करना है। अनेक समाचार पत्रों ने पाकिस्तान के निर्माण के पक्ष में प्रचार किया। दिल्ली से अंग्रेजी में ‘डॉन‘ और उर्दू में ‘अन्जाम‘ ‘जंग‘ और ‘मंसूर‘ लाहौर से इंकलाब, ‘नवा-ए-वक्त‘ और जमींदार, लखनऊ से हमदम और बंगाल से कलस्ती अंग्रेजी से स्टार ऑफ इंडिया, बंगाली में आजाद और उर्दू में असरे जदीद ने पाकिस्तान के समर्थक बन गये। बी0 आर0 अम्बेडकर और सी0 राजगोपालचारी भी लीग को पाकिस्तान की माँग को स्वीकार किए जाने के पक्ष में हो गये। राजगोपालचारी ने 1944 में समझौता करने के लिए अपना एक प्रस्ताव जिन्ना के सम्मुख रखा, परन्तु इसमें प्रत्यक्ष रूप से पाकिस्तान की मांग को स्वीकार नहीं किया गया था, जिन्ना ने ठुकरा दिया।
    1945 ई0 में शिमला सम्मेलन के अवसर पर मुस्लिम लीग ने भारतीय मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि सभा होने का दावा किया और इस आधार पर अब्दुल कलाम आजाद को कांग्रेस के प्रतिनिधि के रूप में अंतरिम सरकार में सम्मिलित किए जाने के सुझाव को मानने से इंकार कर दिया। इस कारण शिमला समझौता और बेवेल योजना असफल हुई। जुलाई 1945 में ब्रिटेन में मि0 एटली के नेतृत्व में लेबर पार्टी की सरकार बनी। यह वहीं समय था जब भारत में केन्द्रीय और प्रान्तीय व्यवस्थापिका सभाओं में चुनाव 1935 के भारत सरकार अधिनियम के आधार पर हुए। मार्च 1946 में कैबिनेट मिशन भारत आया और मई में उसने अपनी योजना प्रस्तुत की। पहले कांग्रेस और लीग दोनों ने उसे स्वीकार कर लिया। परन्तु बाद में लीग ने उसे अस्वीकारते हुए अंतरीम सरकार बनाने में भाग लेने से इंकार कर दिया। उसने विरोध में, 16 अगस्त 1946 ई0 को प्रत्यक्ष कार्यवाही दिवस मनाया, जिसके परिणाम स्वरूप भारत में विभिन्न स्थानों पर हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए। सितंबर में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार का गठन हुआ। प्रशासन में अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने के लिए मुस्लिम लीग ने उसमें सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया और अपने पाँच सदस्य उसके लिए नामजद कर दिए। इस बीच भारत की संविधान सभा का निर्माण हुआ और उसकी पहली बैठक दिसम्बर में हुई। कांग्रेस ने उसे सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न सभा माना, परन्तु लीग ने उसके इस विचार को स्वीकार नहीं किया। इस समय में भारत में हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते रहे जिसमें जीवन और सम्पति की बहुत हानि हुई और व्यक्तियों ने सुरक्षा की खोज में इधर-उधर पलायन किया। फरवरी 1947 ई0 में ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि अंग्रेज जून 1948 ई0 तक भारत छोड़ देंगे। भारतीय सामाजिक समस्या का हल निकालने के लिए लॉर्ड माउण्टबेटन को भारत का वायसराय बनाकर भेजा गया। 27 मार्च 1947 ई0 को मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान दिवस मनाया। इसके परिणाम स्वरूप भारत में विभिन्न स्थानों पर मुख्य तथा पंजाब और पूर्वी बंगाल में लूटमार, सम्पति विनाश, स्त्रियों का असम्मान आदि दुर्घटनाएँ हुई। अंतरीम सरकार इन दंगों को रोकने में असफल हुई। गाँधीजी के अतिरिक्त, कांग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेता, जिसमें जवाहरलाल नेहरू और बल्लभ भाई पटेल भी सम्मिलित थे, पाकिस्तान के निर्माण का विरोध करने की स्थिति से हट गये। वी0 पी0 मेनन ने भारत के विभाजन की एक योजना बनाई। ब्रिटिश सरकार ने उस योजना को स्वीकृति दे दी। लार्ड माउण्टबेटन ने उस योजना और माउण्टबेटन योजना को कांग्रेस और लीग दोनों के समक्ष रखा। दोनों ने उस योजना को स्वीकार कर लिया। तत्पश्चात ब्रिटिश सरकार ने भारतीय स्वतंत्रता कानून 1947 को स्वीकार कियास जिसके आधार पर भारत का विभाजन हुआ और 15 अगस्त 1947 को दो राज्य भारत और पाकिस्तान का निर्माण हुआ।


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  1. https://www.eguardian.co.in/mba-projects : Nice Post, I liked this post very Much,With Warm Regards, Eguardian India’s MBA/BBA Project Reports and Model question papers & Assignments

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