प्रख्यात आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी
हजारी प्रसाद द्विवेदी का आलोचक व्यक्तित्व अन्य आलोचकों की तुलना में इसलिए विशिष्ट हो जाता है कि उनमें एक ओर आचार्यत्व की गरीमा है तो दूसरी ओर गहरी सृजनात्मक ऊर्जा।चिंतन एवं भावुकता का यह दुर्लभ संयोग बिरले लेखकों में दिखाई देता है।उनका आलोचक व्यक्तित्व मूलतः एक सर्जनात्मक व्यक्तित्व है जो अत्यंत जीवंत,सरस एवं गतिशील है।उनमें जो भाव प्रवणता एवं भावोच्छवास है वह सम्भवतः रवीन्द्रनाथ टैगोर से प्रभावित है।जिसके कारण आलोचक द्विवेदीजी को विशुद्ध आलोचक नहीं मानते है।हजारी प्रसाद द्विवेदी जी की दृष्टि मुख्यतः शोधपरक तथा ऐतिहासिक-सांस्कृतिक है।यह उनकी आलोचना को क्षतिग्रस्त नहीं करती बरन उसे और भी अर्थवान एवं महत्वपूर्ण बनाती है।इनमें एक रचनात्मक संलग्नता है;जिसके कारण वे बड़ी तन्मयता एवं सहृदयता के साथ किसी कवि का मूल्यांकन करते थे।वे साहित्य को या साहित्यकार को एक व्यापक ऐतिहासिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में रखकर,उस समय के धर्म,राजनीति और लोक जीवन के साथ रखकर उसका विश्लेषण-मूल्यांकन करते थे।द्विवेदीजी की दृष्टि शोधपरक थी,पर वे पुरानी पोथियों और शास्त्रों तक ही सीमित नहीं रहते थे और न उनकी व्याख्या मात्र करके रह जाते थे;वे अपने पुराने ज्ञान को आधुनिक दृष्टि से जोड़ते भी चलते थे।फलतः वे अपने पाठक के ज्ञान क्षितिज को विस्तृत करते और व्यापक आयाम देते चलते थे।वे जितनी गहराई से प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र,ज्योतिष,तन्त्र,धर्म और दर्शन में घुसते थे उतनी ही गहराई से पाश्चात्य विद्वानों के आधुनिक चिंतन में।
द्विवेदीजी कि साहित्य एवं आलोचना संबंधी मान्यताएं मुख्य रूप से उनके विचार प्रधान निबंधों एवं ललित निबंधों यथा लालित्य तत्व,साहित्य का मर्म और साहित्य का साथी जैसी कृतियों में व्यक्त हुई है।उनकी दृष्टि ऐतिहासिक-सांस्कृतिक,मानवतावादी तथा समाजशास्त्रीय होने के कारण वे संस्कृति की जीवनधारा से साहित्य को जोड़कर देखते है।उनकी आलोचना के केंद्र में मनुष्य है।उनके अनुसार "साहित्य का मर्म वहीं जान सकता है ;जो साधना एवं तपस्या का मूल्य जानता है।मनुष्य रूपी पुरुष ही सृष्टि की सबसे बड़ी साधना है,उससे बड़ा कुछ भी नहीं।"द्विवेदीजी का मानना है कि साहित्य वहीं है जो मानव हृदय को उदात्त बनाता है।उसे पशुत्व से उठाकर देवत्व की ओर अग्रसर करता है।मनुष्य को सारे विश्व के साथ एकत्व की अनुभूति कराता है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी साहित्य में उस यथार्थ को पसंद नहीं करते थे जो नग्नता के प्रदर्शन के बल पर मनुष्य की कुंठा को और विस्तार देता है।उनके अनुसार स्थानीय दृश्यों के व्यौरेवार चित्रण,छोटी-बड़ी घटनाओं का सिल-सिलेवार निरूपण,विस्तारित वर्णन,बोलियों और गालियों का प्रयोग;ये सब यथार्थवादी लेखन नहीं है,बल्कि यथार्थवादी कौशल है जिससे लेखक अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करता है।लेकिन साहित्य का यहीं लक्ष्य नहीं होना चाहिए। उनका मानना है कि साहित्य में मनुष्य के सामूहिक कल्याण की दृष्टि प्रधान हो गयी है;लेकिन यह दृष्टि हमारी साहित्य आलोचना के मूलभूत तत्वों में से एक रही है और हमें उस पुरानी परम्परा को भलन नही चाहिए।अच्छा लेखक समाज की जटिलताओं के अंदर प्रविष्ट करता है।उसका परत दर परत विश्लेषण-विवेचन करता है तथा उस सत्य को उदघटित करता है जिससे मानवता का कल्याण हो सके।लेकिन साहित्यकार का सबसे बड़ा लक्ष्य होना चाहिए मनुष्य को देवत्व पद पर आसीन करना।आचार्यजी का यह दृष्टिकोण उनकी व्यावहारिक समीक्षाओं में सर्वत्र छाया हुआ है।उन्होंने सौंदर्य का मूल्यांकन भी इसी दृष्टि से किया है।द्विवेदीजी सामाजिक वैषम्य का विरोध करते है।वे सामन्जस्य को सौंदर्य की आत्मा मानते हुए बाह्य जगत से उनका घनिष्ठ संबंध स्थापित करते है।यहीं कारण है की वे साहित्य को सम्पूर्ण जीवन के साथ जोड़कर देखते है।
समीक्षा के क्षेत्र में द्विवेदीजी अपने ऐतिहासिक दृष्टिकोण के लिए विख्यात है। वे इतिहास की घटनाओं को भूतकालीन घटनाओ का मात्र संकलन न मानकर उसे कालश्रोत में बह आते हुए जीवन्त समाज की विकास कथा मानते है।द्विवेदीजी इतिहास को मनुष्य के विकास एवं उसके भविष्य के साथ जोड़कर देखते है।इतिहास मनुष्य के जीवनधारा का प्रवाह है;उसके संघर्ष का नाम है।समस्त गलतियों के वावजूद मनुष्य मनुष्यता की उच्चत्तर अभिव्यक्तियों की ओर बद रहा है।पंडितजी मनुष्य की इस दुर्दम्य जिजीविषा को ही सबसे बड़ा सत्य मानते है जिसका उल्लेख 'अशोक के फूल'नामक निबंध में करते है।'अनामदास का पोथा'नामक उपन्यास में वे लिखते है कि"जसे लोग आत्मा कहते है,वह इसी जिजीविषा के अंदर कुछ होना चाहिए..........।आत्मा अज्ञात अपरिवर्तित संभावनाओं का द्वार है।अगर संभावना नहीं होती तो जिजीविषा भी नहीं होती।
द्विवेदीजी ने'हिन्दी साहित्य की भूमिका'में हिन्दी साहित्य की अविच्छिन्न परम्परा का प्रतिपादन किया है।इसी दृष्टिकोण के आधार पर उन्होंने हिन्दी साहित्य के विविध कालों का मूल्यांकन किया है।कबीर का मूल्यांकन करते हुए वे विविध साधना पद्धतियों और उनके ऐतिहासिक विकास का अध्ययन प्रस्तुत करते है।उन्होंने कवि के स्वभाव,व्यक्तित्व और विचारों पे उसी की वंश परम्परा,जातीय संस्कार और युगचेतना का प्रभाव लक्षित किया है।द्विवेदीजी की प्रथम आलोचना कृति 'सूर साहित्त्य'1930 के आस-पास प्रकाशित हुई थी।यह एक शोधपरक कृति है।इसके प्रारम्भिक दो अध्यायों -राधाकृष्ण का विकास तथा स्त्रीपूजा और उसका वैष्णव रूप में सर्वथा नूतन सामग्री प्रस्तुत की गयी है।जॉर्ज ग्रियर्सन ने सूरदास,नन्ददास,मीराबाई तथा तुलसीदास आदि कवियों पर ईसाई प्रभाव की चर्चा की है।द्विवेदीजी ने अपनी इस पुस्तक में ईसाई भक्तों और भारतीय वैष्णव भक्तों की बुनियादी जीवन अंतर स्पष्ट करते हुए कहा है कि ईसाई परिकल्पना मानव जीवन को आदिम पाप का दंड मानती है।इसलिए इसमें ईश्वर के सानिध्य के लिए अपने में पापबोध और दुःख बोध को जागृत करना आवश्यक है;जबकि वैष्णव धर्म शास्त्रीय धर्म की अपेक्षा लोकधर्म अधिक है।उन्होंने जयदेव,विद्यापति और चंडीदास की राधा के साथ सूरदास की राधा को रखकर प्रेमतत्व का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए बताया है कि भारतवर्ष के किसी भी कवि ने राधा का वर्णन ऐसी पूर्णता के साथ नहीं किया है;विश्व साहित्य में सूर की राधा जैसी प्रेमिका नहीं है।
सूरदास के बाद हिन्दी के दूसरे कवि जिसपर द्विवेदीजी ने स्वतंत्र पुस्तक लिखी है,वह कबीर है।संत कवि कबीर के मूल्यांकन में उन्होंने कविता के नए प्रतिमानों की स्थापना की;जो आज भी चल रहे है।कबीर द्विवेदीजी के आदर्श कवि बन गए वैसे ही जैसे तुलसीदास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के।इसीलिए कबीर की आलोचना में द्विवेदीजी का मन सबसे ज्यादा रमा है और वह उनकी अप्रतिम आलोचना कृति बन गयी।द्विवेदीजी ने पहली बार कबीर के व्यक्तित्व को,उनके कवित्व को,उनकी भाषा को और उनकी व्यंग्य क्षमता को रेखांकित करते हुए उन्हें हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठत किया।शोध,ऐतिहासिक दृष्टि और सहृदय समीक्षा का दुर्लभ संयोग द्विवेदीजी के कबीर संबंधी अध्ययन में दिखाई पड़ता है।उपसंहार में वे कबीर की भाषा के बारे में लिखते है कि"भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था,वे वाणी के डिक्टेटर थे।"कबीर के व्यक्तित्व पर उनकी टिप्पणी है कि"हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ।"
सूर और कबीर पर जिसप्रकार द्विवेदीजी ने अलग-अलग ग्रंथ लिखे उसीप्रकार संस्कृत के कवि कालिदास और बांग्ला के कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर पर भी स्वतंत्र ग्रंथों की रचना की।ये दोनों हजारी प्रसाद द्विवेदीजी के प्रेरणाश्रोत थे।कालिदास की लालित्य योजना नामक पुस्तक में द्विवेदीजी ने कालिदास का नया मूल्यांकन किया है।वे आधुनिक पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्र और प्राचीन भारतीय दार्शनिक एवं आध्यात्मिक परम्परा दोनों का सहारा लेते हुए कालिदास की कला विषयक मान्यताओं का अध्ययन करते है।कालिदास उनके लिए सामान्य कवि नहीं अपितु भारत की अंतरात्मा और भारतीय मनीषा को वाणी देनेवाले कवि है।द्विवेदीजी का मानना है कि "भारतीय दर्शन,धर्म,शिल्प और साधना में जो कुछ भी उदात्त है,जो कुछ दिप्त है,जो कुछ महनीय है,जो कुछ लालित्य और मोहन है;उनका प्रयत्नपूर्वक सजाया-सँवारा रूप कालिदास का काव्य है।"पंडितजी ने 'मेघदूत की टीका'मेघदूत एक पुरानी कहानी नाम से लिखी है।इसे वे एक गप्प की संज्ञा देते है।उनकी दृष्टि में मेघदूत एक अद्भुत काव्य है।यह मनुष्य की चिर-नवीन विरह वेदना और मिलनाकांक्षा का सर्वोत्तम काव्य है।'मृत्युंजय रवीन्द्र'रवीन्द्रनाथ टैगोर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर लिखी गयी हजारी प्रसाद के लेखों का संग्रह है।इन लेखों में कुछ तो महाकवि के व्यतित्व के बारें में संस्मरणात्मक है और कुछ उनके विचारों और रचनाओं पर प्रकाश डालते है।मृत्युंजय रवीन्द्र में द्विवेदीजी ने रवीन्द्र के सहज,संयमित,प्रेरणादायक व्यक्तित्व का और उनके काव्य,दर्शन तथा उनकी विचारधारा का गंभीर विश्लेषणात्मक अध्य्यन प्रस्तुत किया है।नाथ सम्प्रदाय द्विवेदीजी का शोधपरक ग्रंथ है।इनमें उन्होंने नाथ सम्प्रदाय के सिद्धों का परिचय देते हुए गोरखनाथ के सिद्धांतों और उनकी साधना का विस्तार से विवेचन किया है।'सिक्ख गुरुओं का पुण्य संस्मरण(1979)जो द्विवेदीजी की अंतिम पुस्तक है।यह पुस्तक द्विवेदीजी की मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हो सकी।यह सिक्ख गुरुओं के धार्मिक-साहित्यिक अवदान को विषय बनाकर लिखी गयी है।
हिन्दी साहित्य का आदिकाल और मध्यकाल द्विवेदीजी के अध्ययन का प्रिय क्षेत्र रहा है।मध्यकालीन बोध का स्वरूप पंजाब विश्वविद्यालय में दिए गए द्विवेदीजी के पाँच व्याख्यानों का संग्रह है।द्विवेदीजी के अनुसार 8वीं शताब्दी से भारतीय साहित्य में स्वतंत्र चिंतन का ह्रास शुरू हो गया था।इस काल का अंतिम सीमांत 18वीं शताब्दी है।मध्यकालीन धर्मसाधना नामक ग्रंथ में उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों के साधना विषयक तथा सिद्धांत विषयक ग्रंथों एवं उनसे संबद्ध काव्यग्रंथों से प्रयाप्त जानकारी एकत्रित कर विभिन्न धर्मसाधनाओं का परिचय दिया है।सहज साधना द्विवेदीजी के उन चार व्याख्यानों का संकलन है;जो उनके द्वारा मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद् के आयोजन में नागपुर में दिए गए थे।इन सभी व्याख्यानों का केंद्रीय विषय सहज साधना है।
द्विवेदीजी कि ऐतिहासिक की पहचान उनकी हिन्दी साहित्य की भूमिका,हिन्दी साहित्य का आदिकाल और हिन्दी साहित्य:उसका उद्भव और विकास नामक आलोचनात्मक पुस्तकों से होती है।'हिन्दी साहित्य की भूमिका'में द्विवेदीजी ने हिन्दी साहित्य को एक विशाल परम्परा के अंग के रूप में देखा है।उसे सम्पूर्ण भारतीय साहित्य से विच्छिन्न करके नहीं देख है।इसीलिए इसमें बार-बार संस्कृत,पाली,प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य की चर्चा आई है तथा इसके परिशिष्ट में उन्होंने वैदिक बौद्ध और जैन साहित्य का परिचय भी दे दिया है।द्विवेदीजी साहित्य के इतिहास को लोकचेतना के इतिहास के रूप में विश्लेषित करते है जो भारतीय चिंतनधारा का स्वभाविक विकास है।द्विवेदीजी की यह इतिहास दृष्टि पूर्ववर्ती इतिहासकारों से भिन्न है।वे इसी दृष्टि से हिन्दी काव्य की अनेक धाराओं के उद्भव के संबंध में प्रचलित मान्यताओं का खंडन करते है।पूर्ववर्ती विद्वानों के अनुसार आदिकाल एवं भक्तिकाल की विभिन्न काव्यधारायें इस्लाम के प्रभाव से विकसित हुई।द्विवेदीजी इन मान्यताओं को कठोरता से नकार देते है।वे बताते है कि मुसलमानों के आगमन से पहले भी अपभ्रंश और लोकभाषाओं को सम्मानपूर्वक स्थान प्राप्त था।वे संतों को विशुद्ध ज्ञानमार्गी न मानकर प्रेममार्गी भी स्वीकार करते है।वे सूफियों के प्रबन्ध काव्यों की प्रतिपादन शैली और उनकी कथानक रूढ़ियों की छानबीन करते हुए उनके प्रेमाख्यानों को भारतीय साहित्य की परम्परा से जोड़ते है। वे कृष्णभक्ति के मुलश्रोतों को ढूढ़ते हुए तांत्रिक साधनाओं तक पहुचते है।इसप्रकार द्विवेदीजी हिन्दी के आदि काल और भक्तिकाल के लिए एक ऐसे इतिहासकार के रूप में दिखाई पड़ते है जो अपनी प्रचीन साधना परम्पराओं से पूरी तरह परिचित है और इतिहास को उसकी निरन्तरता में देखते हुए अपने पूर्ववर्ती इतिहासकारों को प्रबल तर्कों के आधार पर चुनौती देने में समर्थ है।
हिन्दी साहित्य का आदिकाल पाँच व्याख्यानों का संग्रह है जो बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् के तत्वाधान में दिए गए थे।हिन्दी साहित्य का आदिकाल जो एक प्रकार से हिन्दी का अंधकार युग था;उसपर सबसे पहले प्रामाणिक रौशनी डालने का काम हजारी प्रसाद द्विवेदीजी ने किया।उन्होंने इस उपेक्षित काल के बहुत से प्रश्नों को सुलझाया।हिन्दी के अनेक काव्य रूपों का सूत्र प्राकृत और अपभ्रंश के काव्यरूपों में ढूढ़ते हुए मध्यकालीन काव्यरूपों का संबंध उनसे जोड़ दिया।इतना ही नहीं हिन्दी साहित्य के साथ विभिन्न प्रान्तों के साहित्य का संबंध जोड़ते हुए उनके काव्यरूपों का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है।यह एक सर्वथा नवीन अध्ययन है।
हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास द्विवेदीजी का एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें आदिकाल से लेकर आधुनिक काल के प्रगतिवाद तक की संक्षिप्त जानकारी दि गयी है।इस पुस्तक में हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के बारें में भी द्विवेदीजी के विचार प्रकट हुए है जो कवियों-लेखकों और उनकी प्रवृत्तियों के बारें में संक्षिप्त टिप्पणियाँ होने के बावजूद भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।द्विवेदीजी ने अपनी उदार मानवतावादी दृष्टि से ही हिन्दी के आधुनिक काल को देखने परखने की कोशिश की है।वस्तुतः यहीं द्विवेदीजी की बुनियादी दृष्टि रही जिनसे वे सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य का मूल्यांकन करते रहे है।इस मूल्यांकन में उनकी शोधदृष्टि और इतिहासदृष्टि निरन्तर जाग्रत रही है।हिन्दी के आदिकाल और मध्यकाल के मूल्यांकन में द्विवेदीजी का एक महत्वपूर्ण योगदान है जिसके आगे हर आलोचक को सिर झुकाना ही होगा और उनके द्वारा स्थापित मान्यताओं के आधार पर ही अपनी आलोचनाओं की इमारत खड़ी करनी होगी।
द्विवेदीजी कि साहित्य एवं आलोचना संबंधी मान्यताएं मुख्य रूप से उनके विचार प्रधान निबंधों एवं ललित निबंधों यथा लालित्य तत्व,साहित्य का मर्म और साहित्य का साथी जैसी कृतियों में व्यक्त हुई है।उनकी दृष्टि ऐतिहासिक-सांस्कृतिक,मानवतावादी तथा समाजशास्त्रीय होने के कारण वे संस्कृति की जीवनधारा से साहित्य को जोड़कर देखते है।उनकी आलोचना के केंद्र में मनुष्य है।उनके अनुसार "साहित्य का मर्म वहीं जान सकता है ;जो साधना एवं तपस्या का मूल्य जानता है।मनुष्य रूपी पुरुष ही सृष्टि की सबसे बड़ी साधना है,उससे बड़ा कुछ भी नहीं।"द्विवेदीजी का मानना है कि साहित्य वहीं है जो मानव हृदय को उदात्त बनाता है।उसे पशुत्व से उठाकर देवत्व की ओर अग्रसर करता है।मनुष्य को सारे विश्व के साथ एकत्व की अनुभूति कराता है।
हजारी प्रसाद द्विवेदी साहित्य में उस यथार्थ को पसंद नहीं करते थे जो नग्नता के प्रदर्शन के बल पर मनुष्य की कुंठा को और विस्तार देता है।उनके अनुसार स्थानीय दृश्यों के व्यौरेवार चित्रण,छोटी-बड़ी घटनाओं का सिल-सिलेवार निरूपण,विस्तारित वर्णन,बोलियों और गालियों का प्रयोग;ये सब यथार्थवादी लेखन नहीं है,बल्कि यथार्थवादी कौशल है जिससे लेखक अपने प्रति विश्वास उत्पन्न करता है।लेकिन साहित्य का यहीं लक्ष्य नहीं होना चाहिए। उनका मानना है कि साहित्य में मनुष्य के सामूहिक कल्याण की दृष्टि प्रधान हो गयी है;लेकिन यह दृष्टि हमारी साहित्य आलोचना के मूलभूत तत्वों में से एक रही है और हमें उस पुरानी परम्परा को भलन नही चाहिए।अच्छा लेखक समाज की जटिलताओं के अंदर प्रविष्ट करता है।उसका परत दर परत विश्लेषण-विवेचन करता है तथा उस सत्य को उदघटित करता है जिससे मानवता का कल्याण हो सके।लेकिन साहित्यकार का सबसे बड़ा लक्ष्य होना चाहिए मनुष्य को देवत्व पद पर आसीन करना।आचार्यजी का यह दृष्टिकोण उनकी व्यावहारिक समीक्षाओं में सर्वत्र छाया हुआ है।उन्होंने सौंदर्य का मूल्यांकन भी इसी दृष्टि से किया है।द्विवेदीजी सामाजिक वैषम्य का विरोध करते है।वे सामन्जस्य को सौंदर्य की आत्मा मानते हुए बाह्य जगत से उनका घनिष्ठ संबंध स्थापित करते है।यहीं कारण है की वे साहित्य को सम्पूर्ण जीवन के साथ जोड़कर देखते है।
समीक्षा के क्षेत्र में द्विवेदीजी अपने ऐतिहासिक दृष्टिकोण के लिए विख्यात है। वे इतिहास की घटनाओं को भूतकालीन घटनाओ का मात्र संकलन न मानकर उसे कालश्रोत में बह आते हुए जीवन्त समाज की विकास कथा मानते है।द्विवेदीजी इतिहास को मनुष्य के विकास एवं उसके भविष्य के साथ जोड़कर देखते है।इतिहास मनुष्य के जीवनधारा का प्रवाह है;उसके संघर्ष का नाम है।समस्त गलतियों के वावजूद मनुष्य मनुष्यता की उच्चत्तर अभिव्यक्तियों की ओर बद रहा है।पंडितजी मनुष्य की इस दुर्दम्य जिजीविषा को ही सबसे बड़ा सत्य मानते है जिसका उल्लेख 'अशोक के फूल'नामक निबंध में करते है।'अनामदास का पोथा'नामक उपन्यास में वे लिखते है कि"जसे लोग आत्मा कहते है,वह इसी जिजीविषा के अंदर कुछ होना चाहिए..........।आत्मा अज्ञात अपरिवर्तित संभावनाओं का द्वार है।अगर संभावना नहीं होती तो जिजीविषा भी नहीं होती।
द्विवेदीजी ने'हिन्दी साहित्य की भूमिका'में हिन्दी साहित्य की अविच्छिन्न परम्परा का प्रतिपादन किया है।इसी दृष्टिकोण के आधार पर उन्होंने हिन्दी साहित्य के विविध कालों का मूल्यांकन किया है।कबीर का मूल्यांकन करते हुए वे विविध साधना पद्धतियों और उनके ऐतिहासिक विकास का अध्ययन प्रस्तुत करते है।उन्होंने कवि के स्वभाव,व्यक्तित्व और विचारों पे उसी की वंश परम्परा,जातीय संस्कार और युगचेतना का प्रभाव लक्षित किया है।द्विवेदीजी की प्रथम आलोचना कृति 'सूर साहित्त्य'1930 के आस-पास प्रकाशित हुई थी।यह एक शोधपरक कृति है।इसके प्रारम्भिक दो अध्यायों -राधाकृष्ण का विकास तथा स्त्रीपूजा और उसका वैष्णव रूप में सर्वथा नूतन सामग्री प्रस्तुत की गयी है।जॉर्ज ग्रियर्सन ने सूरदास,नन्ददास,मीराबाई तथा तुलसीदास आदि कवियों पर ईसाई प्रभाव की चर्चा की है।द्विवेदीजी ने अपनी इस पुस्तक में ईसाई भक्तों और भारतीय वैष्णव भक्तों की बुनियादी जीवन अंतर स्पष्ट करते हुए कहा है कि ईसाई परिकल्पना मानव जीवन को आदिम पाप का दंड मानती है।इसलिए इसमें ईश्वर के सानिध्य के लिए अपने में पापबोध और दुःख बोध को जागृत करना आवश्यक है;जबकि वैष्णव धर्म शास्त्रीय धर्म की अपेक्षा लोकधर्म अधिक है।उन्होंने जयदेव,विद्यापति और चंडीदास की राधा के साथ सूरदास की राधा को रखकर प्रेमतत्व का सूक्ष्म विश्लेषण करते हुए बताया है कि भारतवर्ष के किसी भी कवि ने राधा का वर्णन ऐसी पूर्णता के साथ नहीं किया है;विश्व साहित्य में सूर की राधा जैसी प्रेमिका नहीं है।
सूरदास के बाद हिन्दी के दूसरे कवि जिसपर द्विवेदीजी ने स्वतंत्र पुस्तक लिखी है,वह कबीर है।संत कवि कबीर के मूल्यांकन में उन्होंने कविता के नए प्रतिमानों की स्थापना की;जो आज भी चल रहे है।कबीर द्विवेदीजी के आदर्श कवि बन गए वैसे ही जैसे तुलसीदास आचार्य रामचन्द्र शुक्ल के।इसीलिए कबीर की आलोचना में द्विवेदीजी का मन सबसे ज्यादा रमा है और वह उनकी अप्रतिम आलोचना कृति बन गयी।द्विवेदीजी ने पहली बार कबीर के व्यक्तित्व को,उनके कवित्व को,उनकी भाषा को और उनकी व्यंग्य क्षमता को रेखांकित करते हुए उन्हें हिन्दी साहित्य में प्रतिष्ठत किया।शोध,ऐतिहासिक दृष्टि और सहृदय समीक्षा का दुर्लभ संयोग द्विवेदीजी के कबीर संबंधी अध्ययन में दिखाई पड़ता है।उपसंहार में वे कबीर की भाषा के बारे में लिखते है कि"भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था,वे वाणी के डिक्टेटर थे।"कबीर के व्यक्तित्व पर उनकी टिप्पणी है कि"हिन्दी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न नहीं हुआ।"
सूर और कबीर पर जिसप्रकार द्विवेदीजी ने अलग-अलग ग्रंथ लिखे उसीप्रकार संस्कृत के कवि कालिदास और बांग्ला के कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर पर भी स्वतंत्र ग्रंथों की रचना की।ये दोनों हजारी प्रसाद द्विवेदीजी के प्रेरणाश्रोत थे।कालिदास की लालित्य योजना नामक पुस्तक में द्विवेदीजी ने कालिदास का नया मूल्यांकन किया है।वे आधुनिक पाश्चात्य सौंदर्यशास्त्र और प्राचीन भारतीय दार्शनिक एवं आध्यात्मिक परम्परा दोनों का सहारा लेते हुए कालिदास की कला विषयक मान्यताओं का अध्ययन करते है।कालिदास उनके लिए सामान्य कवि नहीं अपितु भारत की अंतरात्मा और भारतीय मनीषा को वाणी देनेवाले कवि है।द्विवेदीजी का मानना है कि "भारतीय दर्शन,धर्म,शिल्प और साधना में जो कुछ भी उदात्त है,जो कुछ दिप्त है,जो कुछ महनीय है,जो कुछ लालित्य और मोहन है;उनका प्रयत्नपूर्वक सजाया-सँवारा रूप कालिदास का काव्य है।"पंडितजी ने 'मेघदूत की टीका'मेघदूत एक पुरानी कहानी नाम से लिखी है।इसे वे एक गप्प की संज्ञा देते है।उनकी दृष्टि में मेघदूत एक अद्भुत काव्य है।यह मनुष्य की चिर-नवीन विरह वेदना और मिलनाकांक्षा का सर्वोत्तम काव्य है।'मृत्युंजय रवीन्द्र'रवीन्द्रनाथ टैगोर के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर लिखी गयी हजारी प्रसाद के लेखों का संग्रह है।इन लेखों में कुछ तो महाकवि के व्यतित्व के बारें में संस्मरणात्मक है और कुछ उनके विचारों और रचनाओं पर प्रकाश डालते है।मृत्युंजय रवीन्द्र में द्विवेदीजी ने रवीन्द्र के सहज,संयमित,प्रेरणादायक व्यक्तित्व का और उनके काव्य,दर्शन तथा उनकी विचारधारा का गंभीर विश्लेषणात्मक अध्य्यन प्रस्तुत किया है।नाथ सम्प्रदाय द्विवेदीजी का शोधपरक ग्रंथ है।इनमें उन्होंने नाथ सम्प्रदाय के सिद्धों का परिचय देते हुए गोरखनाथ के सिद्धांतों और उनकी साधना का विस्तार से विवेचन किया है।'सिक्ख गुरुओं का पुण्य संस्मरण(1979)जो द्विवेदीजी की अंतिम पुस्तक है।यह पुस्तक द्विवेदीजी की मृत्यु के बाद ही प्रकाशित हो सकी।यह सिक्ख गुरुओं के धार्मिक-साहित्यिक अवदान को विषय बनाकर लिखी गयी है।
हिन्दी साहित्य का आदिकाल और मध्यकाल द्विवेदीजी के अध्ययन का प्रिय क्षेत्र रहा है।मध्यकालीन बोध का स्वरूप पंजाब विश्वविद्यालय में दिए गए द्विवेदीजी के पाँच व्याख्यानों का संग्रह है।द्विवेदीजी के अनुसार 8वीं शताब्दी से भारतीय साहित्य में स्वतंत्र चिंतन का ह्रास शुरू हो गया था।इस काल का अंतिम सीमांत 18वीं शताब्दी है।मध्यकालीन धर्मसाधना नामक ग्रंथ में उन्होंने विभिन्न सम्प्रदायों के साधना विषयक तथा सिद्धांत विषयक ग्रंथों एवं उनसे संबद्ध काव्यग्रंथों से प्रयाप्त जानकारी एकत्रित कर विभिन्न धर्मसाधनाओं का परिचय दिया है।सहज साधना द्विवेदीजी के उन चार व्याख्यानों का संकलन है;जो उनके द्वारा मध्यप्रदेश शासन साहित्य परिषद् के आयोजन में नागपुर में दिए गए थे।इन सभी व्याख्यानों का केंद्रीय विषय सहज साधना है।
द्विवेदीजी कि ऐतिहासिक की पहचान उनकी हिन्दी साहित्य की भूमिका,हिन्दी साहित्य का आदिकाल और हिन्दी साहित्य:उसका उद्भव और विकास नामक आलोचनात्मक पुस्तकों से होती है।'हिन्दी साहित्य की भूमिका'में द्विवेदीजी ने हिन्दी साहित्य को एक विशाल परम्परा के अंग के रूप में देखा है।उसे सम्पूर्ण भारतीय साहित्य से विच्छिन्न करके नहीं देख है।इसीलिए इसमें बार-बार संस्कृत,पाली,प्राकृत और अपभ्रंश साहित्य की चर्चा आई है तथा इसके परिशिष्ट में उन्होंने वैदिक बौद्ध और जैन साहित्य का परिचय भी दे दिया है।द्विवेदीजी साहित्य के इतिहास को लोकचेतना के इतिहास के रूप में विश्लेषित करते है जो भारतीय चिंतनधारा का स्वभाविक विकास है।द्विवेदीजी की यह इतिहास दृष्टि पूर्ववर्ती इतिहासकारों से भिन्न है।वे इसी दृष्टि से हिन्दी काव्य की अनेक धाराओं के उद्भव के संबंध में प्रचलित मान्यताओं का खंडन करते है।पूर्ववर्ती विद्वानों के अनुसार आदिकाल एवं भक्तिकाल की विभिन्न काव्यधारायें इस्लाम के प्रभाव से विकसित हुई।द्विवेदीजी इन मान्यताओं को कठोरता से नकार देते है।वे बताते है कि मुसलमानों के आगमन से पहले भी अपभ्रंश और लोकभाषाओं को सम्मानपूर्वक स्थान प्राप्त था।वे संतों को विशुद्ध ज्ञानमार्गी न मानकर प्रेममार्गी भी स्वीकार करते है।वे सूफियों के प्रबन्ध काव्यों की प्रतिपादन शैली और उनकी कथानक रूढ़ियों की छानबीन करते हुए उनके प्रेमाख्यानों को भारतीय साहित्य की परम्परा से जोड़ते है। वे कृष्णभक्ति के मुलश्रोतों को ढूढ़ते हुए तांत्रिक साधनाओं तक पहुचते है।इसप्रकार द्विवेदीजी हिन्दी के आदि काल और भक्तिकाल के लिए एक ऐसे इतिहासकार के रूप में दिखाई पड़ते है जो अपनी प्रचीन साधना परम्पराओं से पूरी तरह परिचित है और इतिहास को उसकी निरन्तरता में देखते हुए अपने पूर्ववर्ती इतिहासकारों को प्रबल तर्कों के आधार पर चुनौती देने में समर्थ है।
हिन्दी साहित्य का आदिकाल पाँच व्याख्यानों का संग्रह है जो बिहार-राष्ट्रभाषा-परिषद् के तत्वाधान में दिए गए थे।हिन्दी साहित्य का आदिकाल जो एक प्रकार से हिन्दी का अंधकार युग था;उसपर सबसे पहले प्रामाणिक रौशनी डालने का काम हजारी प्रसाद द्विवेदीजी ने किया।उन्होंने इस उपेक्षित काल के बहुत से प्रश्नों को सुलझाया।हिन्दी के अनेक काव्य रूपों का सूत्र प्राकृत और अपभ्रंश के काव्यरूपों में ढूढ़ते हुए मध्यकालीन काव्यरूपों का संबंध उनसे जोड़ दिया।इतना ही नहीं हिन्दी साहित्य के साथ विभिन्न प्रान्तों के साहित्य का संबंध जोड़ते हुए उनके काव्यरूपों का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है।यह एक सर्वथा नवीन अध्ययन है।
हिन्दी साहित्य का उद्भव और विकास द्विवेदीजी का एक ऐसा ग्रंथ है जिसमें आदिकाल से लेकर आधुनिक काल के प्रगतिवाद तक की संक्षिप्त जानकारी दि गयी है।इस पुस्तक में हिन्दी साहित्य के आधुनिक काल के बारें में भी द्विवेदीजी के विचार प्रकट हुए है जो कवियों-लेखकों और उनकी प्रवृत्तियों के बारें में संक्षिप्त टिप्पणियाँ होने के बावजूद भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।द्विवेदीजी ने अपनी उदार मानवतावादी दृष्टि से ही हिन्दी के आधुनिक काल को देखने परखने की कोशिश की है।वस्तुतः यहीं द्विवेदीजी की बुनियादी दृष्टि रही जिनसे वे सम्पूर्ण हिन्दी साहित्य का मूल्यांकन करते रहे है।इस मूल्यांकन में उनकी शोधदृष्टि और इतिहासदृष्टि निरन्तर जाग्रत रही है।हिन्दी के आदिकाल और मध्यकाल के मूल्यांकन में द्विवेदीजी का एक महत्वपूर्ण योगदान है जिसके आगे हर आलोचक को सिर झुकाना ही होगा और उनके द्वारा स्थापित मान्यताओं के आधार पर ही अपनी आलोचनाओं की इमारत खड़ी करनी होगी।
Bht acha smjhya ha apne
ReplyDeleteNice
ReplyDeleteVery nice
ReplyDeleteHindi aalochan hajri prsad dvivedi shahityak mamanyta ke pdf send ka do plz
ReplyDelete4th sem hindi aalochan hajri prsade dvivedi
अत्यंत तथ्यपरक और रोचक। Comparative Aesthetics के अपने लेक्चर के लिए सामग्री ढूंढ रहा था तब इसपर नजर पड़ी। अभिवादन।
ReplyDeleteSend me
ReplyDeleteSending you
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