ब्रिटिश राज के अन्तर्गत स्त्री-शिक्षा

उन्नीसवीं सदी में जब सती प्रश्न प्रगति और आधुनिकता विषयक संवादों का अंग बन गया तो उपनिवेशित पुरुषों की नई सती के लिए तलाश के अंग के रूप में स्त्री-शिक्षा का एक आन्दोलन शुरु हुआ। गेराल्डाइन फोर्बेस के अनुसार तीन समूह शिक्षा-प्रसार के निमित बने अंग्रेज शासक, ईसाई मिशनरियाँ, पुरुष सुधारक एवं शिक्षित भारतीय स्त्रियॉँ। सर्वप्रथम, ईसाई मिशनरियों द्वारा भारत में बालिका विद्यालयों की स्थापना की गई, परन्तु उन्हें भारतीय समाजसुधारकों से कड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ा। 19वीं शताब्दी के मध्य तक सरकार द्वारा शहरी क्षेत्र के बुद्विजीवी समाजसुधारकों के सहयोग से भाषायी आधार पर बालिका विद्यालय खोले जाने के प्रयास किए गए। 19वीं शताब्दी के अंत तक मध्यवर्गीय शिक्षित महिलाओं द्वारा कई शिक्षण संस्थान स्थापित किए जा चूके थे तथा उनके बीच बहस के केन्द्र में स्थापित प्रश्न था कि कौन सा शैक्षिण मॉडल महिलाओं के लिए अत्यधिक अनुकूल होगा। 19वीं शताब्दी के उत्रार्द्व तक कुछ ही महिलायें शिक्षा के लिए चल रहे अभियानों का हिस्सा बन पाई थी। लेकिन दौर बदला, माहौल बदला, 20वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षां में ही महिलायें शिक्षा के लिए विषय चयन के साथ-साथ पाठ्य-योजना तैयार कर कन्या पाठशालाएॅँ स्थापित करने लगी थी।19वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में तुलनात्मक रूप में लड़कों के विद्यालयों को सरकारी अनुदान मिलता रहा जबकि कन्या शिक्षा के प्रति ब्रिटिश अधिकारी लगभग उदासीन ही रहे। उदारवादियां एवं ईसाई मिशनरियों के काफी दबाव के बावजूद भी सरकार ने महिला शिक्षा के प्रति कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। स्त्री शिक्षा का क्षेत्र ईसाई मिशनरियों के लिए रूचि का विषय बना; क्योंकि धर्मान्तरण एवं धर्मप्रचार के लिए महिलाएँॅ आसान लक्ष्य साबित हो सकती थी। सर्वप्रथम, 1789 ई0 श्रीमती कैम्पवेल और डॉ0 एण्ड्रुवेल ने मद्रास में एक महिला बालिकाश्रम की स्थापना की थी। मिशनरियों द्वारा पहला बालिका विद्यालय मे ;डंलद्ध के निर्देशन में बंगाल के चिन्सुरा में स्थापित किया गया। 1816 ई0 में घड़ीसाज डेविड हेयर द्वारा हिन्दू कॉलेज की स्थापना के बाद 1818 ई0 में कलकता विद्यालय समिति की स्थापना की गई जिसका प्रमुख उद्देश्य कन्याओं को बालकों के समान ही शिक्षा दिए जाने का प्रबंध करना था। राजा राधाकांत देव इस संस्था के प्रथम एवं एकमात्र सचिव थे, जो आगे चलकर महिला शिक्षा के संरक्षक भी बने। राधकांत देव ने महिला शिक्षा पर 20 से अधिक निबन्ध लिखे। परम्परावादी धडे़ की अगुयाई करने के बावजूद भी उनकी इच्छा थी कि लड़के एवं लड़कियॉँ एक साथ विद्यालय में प्रवेश पाए; जबकि उनके इस सहवŸार् शिक्षा के विचार को हिन्दू समाज के उदारवादी समझे जानेवाले सुधारवादियों का भी समर्थन हासिल नहीं हो सका। स्त्री शिक्षा से सम्बन्धित पहली पुस्तक किसी भारतीय भाषा में 1819 ई0 में गुरुमोहन सेन द्वारा बांग्ला में लिखी गई जिसे 1820 ई0 में राधाकांत देव के प्रयासों से कलकता की कन्या बाल समिति द्वारा प्रकाशित किया गया था। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक बंगाल खासतौर पर कलकता में स्त्रियों की शिक्षा का मुद्दा उदार हिन्दुओं, ब्राह्यणों और प्रगतिशील छात्रों के लिए आन्दोलन का विषय बन चुका था। मिशनरी विद्यालयों द्वारा ईसाईयत फैलाने के डर से हिन्दू और ब्राह्यण पाठशालायें खोली जा रही थी। 1819 ई0 में कलकता फीमेल जुबेनाइल सोसायटी ने जिसका गठन राधाकांत देव के सहयोग एवं परामर्श से बापटिस्ट सोसायटी ने किया था, उŸारी कलकता के गौरी बाजार में कन्याओं के लिए एक स्कूल स्थापित किया। लंदन मिशनरी सोसायटी के तहत कार्य करते हुए श्रीमती गोगरली ने 1820 ई0 में लड़कियों के लिए एक स्कूल खोला जिसमें इंगलिश के साथ - साथ बंगाली भाषा में पढ़ने-लिखने की सुविधा थी। इस विद्यालय में सिलाई, बुनाई, भूगोल और बाइबिल का ज्ञान कराया जाता था। जून 1824 ई0 में क्रिश्चियन मिशनरी सोसायटी की संचालन समिति ने नारी शिक्षा के विकास के लिए अपना उŸाराधिकारी लेडीज सोसायटी फॉर नेटिव फीमेल एडुकेशन को नियुक्त किया जिसकी संरक्षिका लेडी एमहर्स्ट थी। डेविड हेयर इस संस्थान को वार्षिक चंदा दिया करते थे। गवर्नर जनरल लार्ड एमहर्स्ट की पत्नी लेडी एमहर्स्ट के प्रयासों से कलकता में बंगाल लेडीज सोसायटी का गठन हुआ। इस समिति ने 18 मई 1826 ई0 को आर्क डिकान कोरी के परामर्श से कलकता के कार्नवालिस एस्क्वायर के पूर्वी छोर पर सेंट्रल स्कूल की नींव डाली। लंदन मिशनरी सोसायटी कलकता से सम्बद्व विद्यालय जो उस समय कार्यरत थे उनमें छात्राओं की संख्या क्रमशः 45,25 और 28 थी। धीरे-धीरे लोग अपनी लड़कियों को इन स्कूलों में भेजने लगे। वर्द्वमान के स्कूलों में तो 14-15 वर्ष की नवयुवतियाँ भी पढ़ने जाया करती थी। सिरामपुर मिशनरी के विलियम कैरी, मार्शमैन तथा वार्ड ने कुछ भारतीयों के सहयोग से 1823 ई0 में सिरामपुर और उसके आस-पास के क्षेत्रां में बालिका विद्यालयों की स्थापना का कार्य शुरु किया था। बंगाल के अतिरिक्त उन्होंने बनारस, इलाहाबाद तथा अराकान (बर्मा) में भी बालिकाओं के लिए स्कूल खोले। 1827 ई0 तक हुगली जिले में मिशनरियों द्वारा 12 कन्या पाठशालायें चलाई जाने लगी थी। एक वर्ष बाद लेडीज सोसायटी फॉर नेटीव फीमेल एडुकेशन इन कलकता एण्ड इट्स विसिनिटी ने एक विद्यालय मिस मेरी कुक के निर्देशन में स्थापित किया। ऐसा देखा गया कि गरीब इलाकों में खुले विद्यालयों के बारे में जानने के लिए मुस्लिम महिलायेंं भी दिलचस्पी ले रही थी। विलियम एडम्स के अनुसार इस समय सेन्ट्रल और क्रिश्चियन विलेज स्कूल स्त्री शिक्षा देने में संलग्न थे। सेन्ट्रल स्कूल में 138 और क्रिश्चियन विलेज स्कूलों में 14 बालिकाएँॅ शिक्षा ग्रहण कर रही थी। कलकता के बाद मद्रास को ईसाई मिशनरियों ने महिला शिक्षा के विकास के केन्द्र के रूप में चुना। चर्च मिशन सोसायटी को दक्षिण भारत में अपेक्षाकृत अधिक सफलता मिली; दो सालों के अंदर नौ और पाठशालाएॅँ खोली गई। 1831 ई0 में इस सोसायटी ने अहमदाबाद में दो कन्या पाठशालाओं की स्थापना की । इसमें छात्रावास की भी व्यवस्था थी। विल्सन दम्पिŸा ने 1829 - 30 ई0 में बम्बई में छः बालिका विद्यालयों की स्थापना की थी; जिसमें 200 छात्रायें अध्ययन करती थी। चर्च मिशन सोसायटी ने मुम्बई प्रेसीडेंसी में पहली बार 1826 ई0 में बालिका विद्यालयों को स्थापित करना शुरु किया था और अगले 10 वर्षों के अंदर थाणे, बसिन तथा नासिक में लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग प्राथमिक विद्यालयों की स्थापना सोसायटी के द्वारा की गई। 1850 का साल समाप्त होते-होते मिशनरियों के प्रयास से नारी शिक्षा के 354 दिन में चलने वाले स्कूल खुल गए, जिनमें 1500 लडकियॉँ शिक्षा ग्रहण करती थी और उनमें से 91 आवासीय विद्यालय थे। देहरादून, सियालकोट और गुजरानवाला में प्रोवेस्ट्रियन चर्च ने छात्राओं के लिए कई स्कूल स्थापित किए थे। महिला विद्यालयों में सबसे महत्वपूर्ण 1849 ई0 में जेम्स इल्वर्ट ड्रिंकवाटर बेथ्यून द्वारा हिन्दू कन्या विद्यालय की स्थापना कार्नवालिस एस्क्वायर कलकता में देशी भद्रपुरुषों की लड़कियों को शिक्षित करने के लिए किया गया था। बेथ्यून ने अपनी परियोजना में कुलीन परिवारों को सहभागी बनाने के लिए काफी प्रयत्न किया तथा ईश्वरचन्द्र विद्यासागर को सचिव नियुक्त किया। फलतः इस विद्यालय में पढ़नेवाली छात्राओं की संख्या 30 तक पहॅुँच गई। बेथ्यून ने अपनी मृत्यु से पूर्व अपनी सारी चल - अचल सम्पिŸा इस विद्यालय के नाम कर दी थी। 1863 ई0 में इस विद्यालय में कुल 95 लड़कियाँं नामांकित थी जिनकी आयु 5 से 7 वर्ष के बीच थी तथा तीन-चौथाई छात्रायें निम्न जाति या गरीब परिवार से सम्बन्धित थी। गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी (1848 - 1856) महिला शिक्षा को लाभदायक और महत्वपूर्ण मानता था। ‘शिक्षा का मैग्नाकार्टा‘ कही जानेवाली 1854 के वुड्स डिस्पैच में पुरुषों एवं महिलाओं को समान रुप से शिक्षा दिए जाने की बात कही गई थी।36 ब्रह्यसमाज के बंगाली सदस्यों ने महिला शिक्षा के प्रति होनेवाले सुधारों का प्रतिनिधित्व किया तथा राममोहन राय ने विधायिका सभा से अपील की कि कलकता के प्रत्येक मुहल्ले में लड़कियों के लिए विद्यालय स्थापित किये जाए। उन्होंने महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए काफी धन व्यय किए। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के प्रयत्नों से बालिकाओं के शिक्षण संस्थानों में उल्लेखनीय वृद्वि हुई। नवम्बर 1851 से 1858 तक उनके प्रयासों से लगभग 35 शिक्षा संस्थानों की स्थापना हुई थी। इन विद्यालयों में निः शुल्क शिक्षा दी जाती थी तथा प्रोत्साहनस्वरूप विद्यालय की तरफ से लेखन-सामग्री और पुस्तकें उपलब्ध कराई जाती थी। उन्होंने ह शिक्षा के प्रति जागरुकता फैलाने के उद्देश्य से एक लेख प्रतियोगिता का आयोजन भी किया था जिसका शीर्षक था ’महिला शिक्षा की उपयोगिता’।37 यंग बंगाल आन्दोलन महिलाओं से सम्बन्धित मुद्दां पर कुछ ज्यादा ही सक्रिय था। हिन्दू कॉलेज के स्नातक और प्रमुख समाजसुधारक पियारीचरण सरकार ने कलकता के बारासात मुहल्ले में स्थापित गवर्नमेंट स्कूल के प्रधानाध्यापक का पद संभाला। इस पद पर रहते हुए उन्होंने वारासात में कन्याओं के लिए एक निः शुल्क विद्यालय की स्थापना 1847 ई0 में की थी। बाद में इस विद्यालय का नाम कालीकृष्ण गर्ल्स हाई स्कूल पड़ा। शिक्षा सचिव के पद पर रहते हुए जे0 ई0 डी0 बेथ्यून ने इस विद्यालय का निरीक्षण किया था। इस समय इस विद्यालय को दक्षिणारंजन मुखर्जी, राजगोपाल घोष, मनमोहन तर्कांलंकार एवं ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का सक्रिय सहयोग मिल रहा था। उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक महिला शिक्षा के विरोध में बंगाली समाज खड़ा था। समाचार दर्पण के सम्पादक ने 1831 में नारी शिक्षा के समर्थकों की आलोचना की थी, उसी वर्ष बंगदूत ने अपने 20 अगस्तवाले अंक में नारी शिक्षा का समर्थन किया था। कृष्णमोहन बनर्जी ने 1840 ई0 में इंडियन फीमेल एडुकेशन शीर्षक निबंध में लड़कियों को सार्वजनिक विद्यालयों में भेजने की अपेक्षा प्राइवेट ट्यूशनों को अच्छा बताया। बाबू प्रसन्न कुमार टैगोर ने यूरोप के ट्यूटरों को अपनी पुत्रियों को पढ़ाने के लिए रखा था। 24 दिसम्बर 1847 को कलकता में आयोजित एक नागरिक सभा में उन्होंने कहा कि प्रतिष्ठित हिन्दू लड़कियों को ईसाई विद्यालयों में पढ़ने की अनुमति दी जानी चाहिए। ब्रह्मसमाजी ईश्वरचद्र विद्यासागर ने स्कूल निरीक्षक के पद पर रहते हुए महिला शिक्षा का काफी प्रसार किया। 1849 ई0 में बेथ्यून के कन्या विद्यालय के सचिव पद पर रहते हुए उन्होंने भद्रलोक की महिलाओं को विद्यालय तक लाने में काफी जोर लगाया। अपने सरकारी हैसियत का फायदा उठाते हुए विद्यासागर ने नवम्बर 1847 से 1855 के बीच 40 गाँवों में लड़कियों के लिए विद्यालयों की स्थापना करवाई थी। 1858 में सरकार द्वारा छोटे सरकारी विद्यालयों को अनुदान बंद करने के नये नियम के विरोध में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने अपने पद से इस्तिफा दे दिया। ब्रह्यसमाजी केशवचन्द्र ने 1861 ई0 में महिला शिक्षा के महत्व पर कई व्याख्यान दिए। अगले वर्ष उन्होंने ’थेईस्टिक फ्रेड्स सोसायटी’ की स्थापना की जिसका उद्देश्य महिलाओं के प्रति होनेवाले सुधारों को गति प्रदान करना था। यह समिति जनना घरों में जाकर महिलाओं में पढ़ने की आदत डालने का कार्य करती थी। केशवचन्द्र सेन ने 1863 ई0 में बहुत बड़ी संख्या में ब्रह्यकन्या विद्यालय की स्थापना की थी । 1865 ई0 में ब्रह्यसमाज ने प्रथम आध्यात्मिक संस्था की स्थापना की जहॉँ महिलाएॅँ स्त्री - प्रश्न पर व्यापक विचार-विमर्श कर सकती थी एवं पाठ स्मरण तथा धार्मिक निर्देश प्राप्त कर सकती थी।38 महिला शिक्षा के विषय पर 1866 ई0 में ब्रह्यसमाज में विभाजन हो गया। इसी वर्ष केशवचन्द्र सेन के नेतृत्व में नवविधान दल ने मिस मेरी कारपेन्टर का कलकता में स्वागत किया जिसके भारत भ्रमण का उद्देश्य महिला शिक्षा को बढ़ावा देना था। 1872 ई0 में मेरी कारपेंटर, एनेट अक्राइड तथा केशवचन्द्र सेन ने मिलकर महिलाओं के लिए एक नॉर्मल स्कूल की स्थापना की। ब्रह्यसमाज के दूसरे धड़े के साथ मिलकर एनेट अक्राइड ने 18 सितम्बर 1873 ई0 को हिन्दू महिलाओं के लिए 22 बेनिया पुकुरलेन, कलकता में आवासीय हिन्दू महिला विद्यालय की स्थापना की। इसमें लड़कियों के लिए वहीं विषय एवं पाठ्य-योजना निर्धारित की गई थी जो लड़को के लिए तैयार किए गये थे। द्वारकानाथ गांगुली इस विद्यालय के प्रधानाचार्य थे तथा आनन्दमोहन बोस एवं दुर्गामोहन दास उनके सहयोगी थे। इस विद्यालय को शिवनाथ शास्त्री और मनमोहन घोष की सेवायें प्राप्त हो रही थी। श्रीमती जे0 बी0 फीयर यहॉँ बतौर अवैतनिक शिक्षक के रुप में कार्यरत थी। इसी दल ने विद्यालय का विस्तार करते हुए जून 1876 को बंग महिला कला महाविद्यालय की स्थापना की थी। यह भारत का प्रथम कला महाविद्यालय था। अगस्त 1878 ई0 को इस विद्यालय को बेथ्यून कॉलेज में मिला दिया गया जो कलकता विश्वविद्यालय से अंगीभूत था। 1883 ई0 में कादम्बिनी बसु और चन्द्रमुखी गांगुली ने बेथ्यून कॉलेज से स्नातक की डिग्री हासिल की थी। इस प्रकार, कादम्बिनी बसु स्नातक की डिग्री लेने वाली ब्रिटिश भारत में प्रथम महिला साबित हुई। महिला शिक्षा के प्रबल समर्थक स्वामी दयानन्द सरस्वती के अनुसार सभी मनुष्य जाति को शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार है इसमें सभी पुरूष और महिलायें शामिल है। उन्होंने लड़कों एवं लड़कियों के लिए समान रुप से शिक्षा की व्यवस्था किए जाने की वकालत की। दयानन्द सरस्वती का विश्वास था कि पुरुष और स्त्री के साझा सम्मिलन से ही मानव जाति का विकास संभव है। उनका विचार था कि लड़कियों के विद्यालय से लड़कों का विद्यालय कम से कम 3 मील की दूरी पर होना चाहिए तथा शिक्षक और कर्मचारी लडकों के विद्यालय में पुरुष और लड़कियों के विद्यालय में महिलायें नियुक्त होनी चाहिए। यहाँॅ तक कि 5 वर्ष से अधिक उम्र के विपरीत लिंगी बच्चों का विद्यालय की परिसीमा में प्रवेश पर प्रतिबंध होना चाहिए।39 इसी आदर्श पर आर्यसमाज द्वारा दयानन्द एंग्लो वैदिक बालक एवं बालिका विद्यालयों की स्थापना देश भर में की गई है। पंजाब में महिला शिक्षा की विस्तार योजना को आगे बढ़ाने की ओर पहला कदम आर्यसमाज की अमृतसर शाखा द्वारा उठाया गया। लेकिन इसकी सफलता का प्रतिशत काफी न्यून रहा न तो इसे जनता का सहयोग हासिल हो सका और न ही इसे किसी प्रकार का वितीय सहयोग ही मिल पाया। खर्च की अदायगी के लिए कई अनोखे प्रयोग किए गये जैसे अमृतसर न्यायालय में वकालत करने वाले वकीलों से अपील की गई कि वे अपनी आय से प्रतिदिन दो आना कोष में जमा करवाये। 1885 के प्रारम्भ तक आर्यसमाज की अमृतसर शाखा ने दो महिला विद्यालयों की स्थापना की घोषणा की थी तथा तीसरा कटरा डुला में प्रस्तावित था। 1880 के दौरान लाहौर आर्यसमाज महिला शिक्षा के क्षेत्र में अग्रणी बना हुआ था, क्योंकि इसका विŸाय आधार काफी मजबूत था। लेकिन इसके द्वारा स्थापित कन्या विद्यालयों की रफ्तार काफी धीमी थी जिसे सफल नहीं माना जा सकता था। 1889 ई0 में फिरोजपुर आर्यसमाज ने एक कन्या विद्यालय स्थापित किया था। 19वीं शताब्दी के अंत में प्रगतिशील आर्यसमाजियों ने महिलाओं को भी अपने समाजसुधार प्रयासों में सम्मिलित किया। जालंधर आर्यसमाज की शाखा ने 1890 में आर्य कन्या पाठशाला की स्थापना की तथा एक महिला को यहॉँ का कार्य भार सांपा गया। लाला मुंशीराम ने अपनी आत्मकथा में महिला शिक्षा को प्राथमिक मुद्दों में शामिल करने के कारणों का विस्तार से उल्लेख किया है। 26 दिसम्बर 1886 को जालंघर समाज की अंतरंग बैठक में जनाना विद्यालय खोले जाने का निर्णय लिया गया। खर्च के लिए प्रति सदस्य एक रुपया रोजाना चंदा लगाया गया। लेकिन स्थापना के बाद बेहतर शिक्षकों के अभाव में जनाना विद्यालय सही ढंग से संचालित नहीं हो सके।40 लाला देवराज की माँ कहन देवी ने जनाना विद्यालयों के संचालन की जिम्मेदारी स्वयं ली तथा मिशन स्कूल में कार्य कर चूकी माई लाडी के साथ अपने घर में ही वर्ग लगाना शुरू कर दिया तथा शिक्षकों को भोजन अपने घर से ही कराया। लेकिन कुछ समय बाद ही आर्यसमाज से उपलब्ध विŸाय सहायता बंद हो गई फिर भी कहन देवी ने अपने खर्चे से विद्यालय में पठन - पाठन जारी रखा। कुछ समय बाद ही छात्रों के अभाव में जनाना विद्यालय बंद कर देने पड़े। 1890 - 91 में तीसरे प्रयास में जालंधर आर्यसमाज को काफी हद तक सफलता मिली। विŸाय सहायता के लिए ‘राडी फंड‘ एवं ‘आटा फंड‘ बनाया गया जिसको पहले प्रायोगिक तौर पर डी0 ए0 वी0 विद्यालयों के संचालन में अपनाया गया था। लाला देवराज ने जालंधर एवं निकटवर्ती शहरों में भीक्षाटन कर फंड की व्यवस्था की थी।41महिला शिक्षा के विकास में महत्वपूर्ण परिवŸार्नकारी बिन्दु वह प्रस्ताव था जिसे लाला देवराज और लाला मुंशीराम द्वारा कार्यकारिणी के सम्मुख लाया गया। इस प्रस्ताव में आर्य कन्या महाविद्यालय स्थापित करने की बात कही गई थी। जालंधर शाखा ने आधिकारिक तौर पर लड़कियों लिए उच्च विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की स्थापना 1892 ई0 तक कर ली थी। इन विद्यालयों को जनता का काफी समर्थन प्राप्त हुआ। विद्यालयों में नामांकित छात्राओं की संख्या पंजाब में स्त्री शिक्षा की प्रगति को रेखांकित करते है। आर्यसमाज के कार्यकर्ता, महिला अध्यापिकाएँॅ तथा विद्यालय प्रशासन ने मिलकर इन विद्यालयों के संचालन हेतु विवरणिकाएॅँ एवं नियमावली तैयार की। शीध्र ही इस संस्थान ने पंजाबी समुदाय में विशिष्ट स्थान प्राप्त कर लिया तथा महिलाओं से सम्बन्धित होनेवाले सभी प्रकार के सुधारों के लिए उत्प्रेरक का कार्य किया।42 गुजरात के वर्नाकुलर सेसायटी ने 1849 ई0 में अहमदाबाद में कन्या पाठशालाओं की शुरुआत की थी। 1851 ई0 में मुम्बई के मगन भाई करमचन्द ने दो बालिका विद्यालयों की स्थापना अहमदाबाद में की तथा इसके संचालन के लिए 20 हजार रुपये दान दिए थे। इसी वर्ष पूणे में ज्योतिराव फुले ने एक स्वतंत्र बालिका विद्यालय की स्थापना की। एल्फिंस्टन कॉलेज के प्रोफेसर पैटन ने ’स्टूडेन्ट्स लिटरेरी एण्ड साईंटिफिक सोसायटी’ का उन्नयन किया जिसके नेतृत्व में तीन पारसी महिला विद्यालय 196 छात्राओं के साथ चलाते थे। इन्हांने कलकता में भी एक महिला विद्यालय की स्थापना की थी। महाराष्ट्र फीमेल एडुकेशन सोसायटी की 1890-91 की रिपोर्ट के अनुसार इसके अंतर्गत चार शिक्षण संस्थान चलाये जा रहे थे, जिसमें उच्च विद्यालय, महिला प्रशिक्षण महाविद्यालय, प्रशिक्षण विद्यालय से जुड़े अभ्यास विद्यालय तथा उच्च विद्यालय से जूडे़ प्राथमिक विद्यालय शामिल थे। फैन्सिना सोराबजी ने 1872 ई0 में पूना में तीन बड़े विद्यालयों की स्थापना की जिसमें एक मराठी लड़कियां के लिए, दूसरा मुस्लिम लड़कियों के लिए तथा तीसरा प्रशिक्षण विद्यालय था। 1888 में आयोजित इलाहाबाद के चौथे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अधिवेशन में एक प्रस्ताव पारित कर स्थानीय ईकाईयों को यह निर्देश दिया गया था कि वे अपने क्षेत्र की महिलाओं को शिक्षित करने का कार्य करें। नवम्बर 1889 ई0 में क्वेटा में एक गर्ल्स स्कूल खोला गया जिसे जमैत राय का काफी सहयोग मिला। 1893 के पूना रिपोर्ट के अनुसार विवाहित लड़कियों को विद्यालय जाकर शिक्षा ग्रहण करने की अनुमति नहीं थी। किन्तु धीरे-धीरे विवाहिताओं की संख्या विद्यालय में बढ़ने लगी। वयस्क महिलाओं के लिए ऐसे विद्यालय खुले जहाँॅ उन्हे आधे दिन की शिक्षा दी जाती थी। महाराष्ट्र फीमेल एडुकेशन सोसायटी 1898 की रिपोर्ट के अनुसार सोसायटी के अंतर्गत आनेवाली संस्थाओं में 280 छात्रायें अध्ययन करती थी; जिनमें 138 ब्राह्यण परिवार की लडकियाँॅ थी, इनमें 86 विवाहित तथा 45 विधवाएॅँ थी तथा विद्यालय आनेवाली सभी छात्रायें 15 वर्ष से अधिक उम्र की थी। 1898 में मुम्बई विश्वविद्यालय से श्रीमती शारदा सुमंत बतुक्रम इंटरमीडिएट की परीक्षा में उतीर्ण हुई थी तथा श्रीमती बसंत कुमारी ने मैट्रिक की परीक्षा दी थी; दोनों प्रार्थना समाज से सम्बधित थी। गुजरात वर्नाकलर सोसायटी के तत्वावधान में 1894,1895 और 1897 ई0 में महिला शिक्षा पर संगोष्ठियों का आयोजन हुआ था, जिसमें बडे़ पैमाने पर महिलाओं की भागीदारी रही थी। 1848 ई0 में जे0 ई0 डी0 बेथ्यून द्वारा हिन्दू कन्या विद्यालय स्थापित किए जाने से लेकर 1881 ई0 में हंटर कमीशन के गठन तक समाज सुधारकों ने स्त्री शिक्षा की समीक्षा के दौरान पाया कि लड़कियों के लिए स्कूल खोलने और महिला अध्यापिकाओं के लिए प्रशिक्षण संस्थान स्थापित किए जाने की आवश्यकता है। महिलाओं के लिए सह-शिक्षा एवं उच्च शिक्षा प्रदान करना एक अन्य मुद्दा था। उन्हें इस सच्चाई का सामना करना पड़ रहा था कि 98 प्रतिशत विद्यालय जाने वाली लड़कियाँॅ अभी भी विद्यालयों से बाहर है। हंटर कमीशन की रिपोर्ट में लड़कियों को विद्यालय की ओर आकर्षित करने के लिए अधिक अनुदान छात्रवृŸायाँॅ और पुरस्कार दिए जाने की बात कही गई थी, अगले दो दशकां तक महिलाओं को उच्च शिक्षा दिए जाने पर जोर दिया जाता रहा। परिणामस्वरूप जहाँॅ 1882 ई0 में केवल छह महिलायें विश्वविद्यालयों में पंजीकृत थी वहीं सदी के अंत तक 264 हो गई। इस दौरान मैट्रिक की परीक्षा देनेवाली छात्राओं की संख्या 2054 से बढकर 41 हजार 582 हो गई थी।43 महिलाओं के लिए प्रशिक्षण हेतु नार्मल स्कूलों की स्थापना का कार्य 1852 ई0 में क्रिश्चियन मिशन की ओर से कलकŸा में हुआ था जिसमें ईसाई महिलाओं को शिक्षण-प्रशिक्षण दिया जाता था। 1863 ई0 में एक अलग शाखा के तौर पर सराह टक्कर विद्यालय शिक्षिकाओं के प्रशिक्षण के लिए स्थापित हुआ। 1870 के दौरान मेरी कारपेन्टर ने महिलाओं के लिए पूणे, अहमदाबाद और मद्रास में नार्मल स्कूलों की स्थापना की थी। प्रशिक्षण कक्षाओं की शुरुआत मद्रास मिशन्स डे स्कूल में हुई। आर्यसमाज ने उŸारप्रदेश और पंजाब में कई नॉर्मल स्कूलों की स्थापना की थी। इजाबेला थाबर्न स्कूल और संत अन्ने स्कूल मंगलोर नॉर्मल स्कूल प्रणाली के अंतर्गत शुरु किए गये थे। इसके अतिरिक्त कलकता, शिलांग और चेन्नई में प्रशिक्षण के लिए नार्मल स्कूलों की स्थापना की गई थी। हंटर कमीशन के बाद कई महिलाओं ने स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया जिसमें माताजी तपस्विनी और पंडिता रमाबाई प्रमुख है। 1889 ई0 में रमाबाई ने महिलाओं के लिए पूणे और मुम्बई में शारदा सदन की स्थापना की जबकि 1893 ई0 में कलकता में माताजी तपस्विनी ने महाकाली पाठशाला स्थापित किया था। पंडिता रमाबाई ने अपने पूर्ण प्रवास के दौरान अन्य सुधारकों के साथ मिलकर आर्य महिला समाज के माध्यम से महिलाओं को शिक्षित करना शुरु किया। बम्बई में रमाबाई ने ज्ञान के घर के रूप में शारदा सदन की स्थापना की जो वि़धवाओं के लिए संचालित आवासीय विद्यालय था। रमाबाई ने मुक्तिसदन के नाम से एक दूसरा विद्यालय पूणे से 30 किमी0 दूर केडगॉँव में 1897 ई0 में स्थापित किया। उन्होंने अकालपीड़ित लड़कियों को इस विद्यालय में दाखिला दिला कर 1900 ई0 में एक संस्थान की नींव डाली जिसके तीन संकाय थे- मुक्ति सदन, कृपा सदन और सदानन्द सदन।44 पथभ्रष्ट स्त्रियों के उदार गृह के रूप में कृपा सदन कार्य करता था कृपा सदन की शुरुआत 6 लड़कियों से हुई और तीन साल के अंदर इनकी संख्या 300 हो गई। कृपासदन के बगल में एक मातृगृह स्थापित किया गया इसमें नवजात बच्चों की माताएँॅ रखी जाती थी, मुक्ति सदन के नाम से जाना गया। इन माताओं में ज्यादातर की उम्र 15 वर्ष से कम थी। अंधी लड़कियों को पढ़ाने की अलग से व्यवस्था की गई। लड़कां का स्कूल और अनाथाश्रम के रूप में सदानन्द सदन खोला गया जिसका उद्देश्य यह था कि उन्हें पढ़ा-लिखाकर योग्य बनाया जाए ताकि बेसहारा लड़कियों के लिए योग्य साथी की आवश्यकता को दूर किया जा सके। माताजी महारानी तपस्विनी (गंगाबाई) द्वारा कलकता में स्थापित महाकाली पाठशाला पंडिता रमाबाई द्वारा स्थापित विद्यालयों के एकदम विपरीत था। रमाबाई के विद्यालय लंदन स्थित रमाबाई एसोसियेशन, ईसाई मिशनरियों तथा अमेरिकी मित्रों द्वारा समर्थित एवं विदेशी सहायता एवं अनुदान से संचालित हो रहे थे। वहीं 1893 में स्थापित महाकाली विद्यालय की सभी शाखायें देशी श्रोतां से धन संग्रह कर परिचालित हो रही थी तथा पूरी तरह भारतीयों के प्रयासों द्वारा महिला शिक्षा को बढ़ावा देने के उद्देश्य से स्थापित की गई थी।45 किसी भी विदेशी श्रोत से विŸाय सहायता ग्रहण नहीं किया गया था तथा इसमें विदेशी शिक्षकों को भी नियुक्त नहीं किया गया था। संस्थान के प्रबंधक महाकाली विद्यालय को मॉडल स्कूल की तरह विकसित करना चाहते थे। छात्र एवं छात्राओं के लिए एक ही पाठ्यक्रम निर्धारित था लेकिन सहशिक्षा को अस्वीकार कर दिया गया। इसका प्राथमिक उद्देश्य राष्ट्रवाद पैदा कर हिन्दू समाज को पुनर्जागृत करना था। इस परियोजना को पुनरूत्थानवादियों एवं उदारवादियों दोनों धड़ों का सक्रिय सहयोग हासिल हो रहा था तथा यह सब औपनिवेशिक शिक्षा के विरेध के नाम पर हो रहा था।46 1876 ई0 में असम में सिलहट युनियन की स्थापना की गई थी जिसका उद्देश्य नारी शिक्षा का प्रचार - प्रसार करना था। इस संस्था ने 1881 ई0 में नारी शिक्षा के प्रसार का कार्य तेज कर दिया। विपिनचन्द्र पाल इस संस्था के सदस्य थे। कुछ ब्रह्यसमाजियों ने विविध पत्रिकाओं का प्रकाशन कर महिला शिक्षा को बढ़ावा देने का प्रयत्न किया जिन्हें काफी सफलता भी मिली। 1863 ई0 में ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा स्थापित वामाबोधिनी, उमेशचन्द्र दŸा की अबला बांधव (1869), द्वारिकानाथ गुलाटी की पत्रिका महिला, गिरिशचन्द्र सेन द्वारा प्रकाशित पत्रिका महिला, शशिपद् बनर्जी की पत्रिका अंतःपुर, टैगोर परिवार की पत्रिका भारती तथा बसन्ती मित्र एवं कुमुदनी की पत्रिका सुप्रभात ने महिला शिक्षा के पक्ष में जनमत को तैयार करने में काफी प्रभावी भूमिका अदा की। 1890 के दशक में डी0 के0 कार्वे ने पूणे में कई महिला विद्यालयों की स्थापना की थी। उन्होंने अपनी जीवनी में विधवाओं के लिए 1896 में एक विद्यालय स्थापित करने का उल्लेख किया है। कार्वे के विद्यालय का उद्देश्य जवान विधवाओं को आत्मनिर्भर और रोजगारपरक बनाना था।47 मद्रास प्रांत में थियासोफिकल सोसायटी स्त्री शिक्षा के प्रसार का कार्य कर रही थी। एनी बेसेन्ट ने अपने एक सार्वजनिक भाषण में अतीत की याद दिलाते हुए कहा कि प्राचीन काल में हिन्दू महिलायें विदुषी हुआ करती थी तथा समाज में स्वच्छंदतापूर्वक विचरण करती थी। उन्होंने महिलाओं से सुनहरे अतीत की पुनरावृŸा की अपील की।48 एनी बेसेन्ट ने महिलाओं की दुरावस्था के लिए अशिक्षा को जिम्मेदार ठहराते हुए 1901 ई0 में इंडियन लेडीज मैगजीन में स्त्री शिक्षा पर लेख लिखा। इस लेख में उन्होंने भारतीयों को चेतावनी दी थी कि अगर भारत के भविष्य को अंधकार में धकेल देना है तो वे अपनी महिलाओं को शिक्षा से दूर रखे। महिला शिक्षा का हल पाश्चात्य शिक्षा नहीं है, अपितु भारतीयों को अपने देवी दुर्गा जैसी आदर्श नारीत्व की ओर देखना होगा। एनी बेसेंन्ट ने महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए सुधारों की आवश्यकता जताई तथा अपने आदर्शों को मूŸार्रुप देते हुए उन्होंने एक महिला विद्यालय स्थापित करने का प्रयास किया। आन्ध्रप्रदेश के तटीय इलाकों में वीरेशलिंगम पंटुलु ने लड़कियों की शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए 1874 ई0 में एक बालिका विद्यालय की स्थापना की थी। 1881 ई0 में उन्होंने एक दूसरा कन्या विद्यालय राजमुन्द्री में स्थापित किया था। उन्हांने अपने लेखन में महिला शिक्षा की उपयोगिता पर प्रकाश डाला। 1881 में राजमुन्द्री में मिशनरियों ने जो कन्या विद्यालय स्थापित किए थे उसमें सिर्फ 1.02 प्रतिशत कन्याओं का ही दाखिला हुआ था।49 यहाँॅ अमेरिकन लुथेरियन मिशनरी कन्या शिक्षा के प्रसार का कार्य कर रही थी। मुस्लिम महिलाओं की शिक्षा का प्रयास थोड़ा विलम्बित रहा। 19वींं शताब्दी के अंतिम दशक में महिला शिक्षा के प्रसार के प्रयास किए गये। कुछ उर्दू स्कूलों की स्थापना की गई थी जिसमें 48 छात्रायें पढ़ती थी। पर्दाप्रथा के प्रचलन के कारण मुसलमान परिवार की लड़कियाँ शिक्षा ग्रहण करने में पिछड़ गई। कुमार लिनवाई फ्रामजी, अब्बास तैयबजी और श्रीमती तैयबजी के प्रयासों ने मुस्लिम लड़कियों को शिक्षा की राह दिखाई। बड़ौदा में मुस्लिम लड़कियों के लिए एक स्कूल तथा अन्य पाँॅच स्कूल खोले गये जिनमें 484 छात्रायें पढ़ती थी। लाहौर के मियॉँ परिवार अंजुमन-ए-हिमायत-ए-इस्लाम एवं अंजुमन-ए-इस्लाम जैसे संगठनों, हैदराबाद के बिलग्रामी तथा हैदराबाद के निजाम सरकार ने महिला शिक्षा के क्षेत्र में महत्वपूर्ण पहल किया । 1866 ई0 में अंजुमन- ए-हिमायत-ए-इस्लाम की लाहौर शाखा की स्थापना हुई थी। इस समिति ने पश्चिमी शिक्षा के आधार पर महिला विद्यालयों की स्थापना की।50 1869 ई0 में नाजीर अहमद ने अपन पहला उपन्यास मिरातु -उल-अर्स महिला शिक्षा के प्रसार के लिए प्रकाशित करवाया। इसा दिशा में आगे कदम बढ़ाते हुए अल्ताफ हुसैन हाली ने ’मजालिस उन निशा’ नामक पुस्तक की रचना की 1896 ई0 में मुहम्मडन एडुकेशनल कांफ्रेंस ने स्त्री शिक्षा को विस्तार देने के उद्देश्य से महिला विभाग की स्थापना की। इसकी अगली कड़ी के रूप में मुमताज अली ने ‘तहजीब ए निस्वान’ नामक महिला पत्रिका का प्रकाशन 1898 ई0 से प्रारम्भ किया। मुस्लिम शिक्षा के प्रति बडे़ पैमाने पर रचनात्मक कार्य बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक में ही प्रारम्भ किए जा सके। 1904 में शेख अब्दुल्ला द्वारा ’खातुन’ नामक महिला जर्नल की शुरूआत की गई। महिलाओं को नैतिक शिक्षा प्रदान करने के लिए अशरफ अली थानवी ने 1905 ई0 में ‘बहिश्त-ए- जेवर’ नामक पुस्तक लिखी। 1906 ई0 में अलीगढ़ जनाना मदरसा स्थापित किया गया था। 1911 ई0 में में बेगम रुकैया शेखावत हुसैन ने कलकता में शेखावत मेमोरियल स्कूल की स्थापना की तथा मुस्लिम महिलाओं को सहायता पहुँॅचाने के उद्देश्य से ’अंजुमन-ए-ख्वातीन-ए-इस्लाम’ नामक संगठन खड़ा किया।51 सैयद अहमद देहलवी ने महिलाओं के लिए एक समाचारपत्र जो अर्द्धमासिक था, 1887 ई0 से प्रकाशित करना शुरु किया, लेकिन यह अल्पजीवी साबित हुआ। 1890 के दशक में हैदराबाद से मौलाना मुहिब ए हुसैन द्वारा सम्पादित एक मासिक पत्रिका मौलिम ए निस्वान का प्रकाशन शुरु हुआ, लेकिन यह भी 1901 ई0 तक लगभग बंद ही हो गया।52इंगलैण्ड एवं अमेरिका की ईसाई मिशनरियों ने भारतीय महिलाओं को मेडिकल सेवाओं से परिचित करवाया। डॉ0 एचिन्सन ने 1866 ई0 में अमृतसर में महिलाओं के लिए चिकित्सीय कक्षाएॅँ स्थापित की। 1869 ई0 में बरेली में प्रथम अमेरिकन मेडोडिस्ट इपिस्कोपलीन मिशन द्वारा एक महिला चिकित्सा विद्यालय उŸारप्रदेश में स्थापित किया गया। सरकारी तौर पर 1866 ई0 में मुम्बई में प्रथम महिला अस्पताल की स्थापना हुई थी। ईसाई मिशनरियों ने महिलाओं को सर्जरी की शिक्षा देने के लिए लुधियाना (पंजाब) में दो चिकित्सा महाविद्यालयों की स्थापना की थी। कलकता विश्वविद्यालय में 1866 ई0 में महिलाओं ने विज्ञान संकाय के प्रवेश के किए अपने आवेदन दिए थे। पहली बार दो पारसी महिलाओं ने इस विश्वविद्यालय से चिकित्साशास्त्र की डिग्री ली थी। बम्बई और मद्रास की कुछ महिलाओं ने एम0 बी0 बी0 एस0 की डिग्री पाँॅच सालों में पूरी की। 1857 ई0 में मद्रास मेडिकल कॉलेज तथा 1883 ई0 में बम्बई मेडिकल कॉलेज में महिलाओं के दाखिले की शुरुआत हुई थी। एक पारसी ने 1882 ई0 में बम्बई में कामा अस्पताल की स्थापना की जो पूरी तरह महिलाओं के प्रबंधन एवं देख-रेख में संचालित होता था। 1882 ई0 में पंडिता रमाबाई ने हंटर कमीशन को सुझाव दिया था कि भारतीय महिलाओं की मानसिकता को देखते हुए उनका इलाज महिला चिकित्सकों द्वारा ही किया जाना चाहिए। इसीलिए भारतीय स्त्रियों को मेडिकल कॉलेजों में प्रशिक्षण दिए जाने की आवश्यकता है। कमीशन के सामने स्त्री चिकित्सकों के लिए निवेदन ने साम्राज्ञी का ध्यान आकर्षित कर लिया और भारत में अप्रत्यक्ष रुप से एक आन्दोलन का जन्म हुआ, जो अपने नवीनतम विकास के साथ ’द नेशनल एसोसियेशन फॉर सप्लाइंग फीमेल मेडिकल एड टू द वीमेन ऑफ इंडिया’ के रुप में पहचाना गया। इस एसोसियेशन ने लार्ड डफरिन की पत्नी लेडी डफरिन के प्रयासों से एक फंड की व्यवस्था की जिसे ‘डफरिन कोष‘ नाम दिया गया। डफरिन कोष की स्थापना भारत में महिला डॉक्टरों के प्रशिक्षण के लिए आर्थिक सहायता उपलब्ध कराने के उद्देश्य से की गई थी। 1886 ई0 में कोष से छः लडकियों को कलकता मेडिकल कॉलेज मे’ सहायता अनुदान के रुप में दी गई थी। इस फंड से बम्बई के ग्रांट मेंडिकल कॉलेज में तीन तथा तीन लड़कियों को कलकŸा मेडिकल कॉलेज में सहायता अनुदान के रूप में की गई थी। यद्यपि महिलाओं की स्थिति में सुधार की आवाज उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य मुट्ठीभर शिक्षित अभिजन समाज के उन नेक दिल पुरुष समाजसुधारकां और धर्मसुधार आन्दोलन के पुरौधाओं ने ही उठाई थी जो पश्चिमी जनतांत्रिक समाज के आदर्शों और आचरणों से प्रभावित थे। स्त्रियों को दबाकर रखनेवाले धर्मनिषेधों और रीति-रिवाजों की शिकार स्त्रियाँॅ भी कालक्रम में स्वयं उद्बुध हुई और उन्होंने अपने स्वयं के नेतृत्व में अपनी मुक्ति के लिए आन्दोलन चलाए। उन्होंने अपने संगठन बनाए और अपनी अशक्तताओं के विरुद्व संघर्ष के लिए मोर्चाबंदी की। 19वीं शताब्दी के उŸारार्द्व तक मध्यवर्ग के ऊपरी और अधिक शिक्षित तबके की स्त्रियों में एक नई मुक्ति की चेतना, सामाजिक अधिकारों एवं समानता की भावना संचारित होने लगी थी। सदी के अंतिम चतुर्थांस में स्त्रियों के नेतृत्व मे स्त्री अधिकार संगठन कतिपय सुधार आन्दोलनों के रुप में और विभिन्न स्त्री कल्याणकारी संस्थाओं के माध्यम से प्रारम्भ हुआ। 19वीं शताब्दी के उŸारार्द्व में स्त्रियों का आन्दोलन उनके अपने हाथों में आने लगा था। सुधार के प्रति समर्पित ब्रह्यसमाज के संरक्षण में एक महिला पत्रिका वामाबोधिनी 1863 ई0 में प्रारम्भ हुई थी। यह पत्रिका महिलाओं की आवाज बनकर उभरी। इस समय महिलायें एक तरफ परम्परा से जकड़ी हुई थी तो दूसरी ओर उनमें बोलने का साहस भी पैदा हो रहा था। राजेन्द्रबाला घोष ने अपने आक्रामक लेखन के द्वारा पितृसŸात्मक समाज की रुढ़ एवं जड़ परम्पराओं की तीव्र भर्त्सना की। बंग महिला के छद्मनाम से लिखते हुए उन्होंने पति का चुनाव करने, तलाक देने और यहॉँ तक कि पत्यन्तर करने के अधिकार की पुरजोर मांग उठाई। 1870 के दशक में कैलाशवासिनी देवी ने महिला समस्या पर केन्द्रित तीन पुस्तकों ‘महिला गनेर हीनावस्था‘, ‘हिन्दू महिला कुलेर विद्यान्यास ओ तहार समुन्नति‘ और ‘विश्वशोभा‘ की रचना की। उन्होंने महिला गनेर हीनावास्था में भद्रलोक समाज में महिलाओं की दुखद स्थिति, कुलीनवाद, बहुविवाह, बालविवाह पर कड़ा आक्षेप करते हुए कलकता एवं वृंदावन में रहकर वेश्याजीवन अपनाने के लिए बाध्य महिलाओं के जीवन के मार्मिक चित्र उकेरे है। महाराष्ट्र में यद्यपि नारी प्रश्न पर पहली पुस्तक बाबा पद्मसी की यमुनापर्यन्त है लेकिन नारी अधिकारिता के लिए काफी तीखी और ऊँची आवाज ताराबाई शिन्दे ने बुलन्द की थी। उन्होंने अपनी पुस्तक ‘स्त्री-पुरुष तुलना‘ के माध्यम से पितृसŸात्मक सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं पर होनेवाले अत्याचारों को परत-दर परत खोल कर रख दिया। महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु पंडिता रमाबाई ने पूणे में स्त्रियों की एक संस्था मई 1882 ई0 में आर्य महिला समाज के नाम से खोला था। इसका उद्देश्य देश में स्त्रियों की शिक्षा का स्तर बढ़ाना और बालविवाह को हतोत्सहित करना था।53 इस संस्था की शाखायें बम्बई प्रेसीडेंसी के कई छोटे-बड़े शहरों में खोली गई। बंगाल में भी इसका प्रभाव पड़ा। रमाबाई के चुम्बकीय व्यक्तित्व से प्रभावित होकर कई महिलाओं ने द्वारकानाथ गांगुली के नेतृत्व में एक ऐसे ही समाज की स्थापना कलकŸा में करने की अपील की थी। इस समाज ने जागरुकता फैलाकर स्त्रियों को एकजूट करने का काम किया। इसकी बैठकें हरेक शनिवार को नियम से होती थी। बैठकों में सामाजिक रीति-रिवाजों में सुधार लाने की मांग को लेकर आपस में वाद-विवाद होता था और इसके बाद कोई कार्यक्रम तय होता था। जून 1882 ई0 में पंडिता रमाबाई ने अपनी पहली पुस्तक ‘स्त्री धर्मनीति‘ मराठी भाषा में लिखी थी। इसका बांग्ला अनुवाद रजनीनाथ नंदी ने किया था। इसमें उन्होंने स्त्री की प्रगति के नींव के रूप में आत्मनिर्भरता एवं आत्मविश्वास को रेखांकित किया था। जून 1883 में अपने इंगलैण्ड प्रवास में रमाबाई सर बर्टले फ्रेरे से मिली, जो बम्बई प्रेसीडेंसी के गवर्नर रह चूके थे। उन्होंने उसे ’भारतीय नारी के विलाप’ नाम से एक पत्र लिखकर बालविवाह एवं पहली पत्नी के जिन्दा रहते दूसरे विवाह पर रोक तथा स्त्री शिक्षा को बढ़ावा देने की वकालत की थी। रमाबाई ने अपनी पुस्तक ’द हाई कास्ट हिन्दू वीमेन’ में मनुस्मृति के उदाहरण देकर उन धार्मिक परम्पराओं एवं रीति-रिवाजों का उल्लेख किया है जिसमें महिला उत्पीड़न एवं शोषण को बढ़ावा मिलता है। उन्होंने महिलाओं की स्थिति बेहतर बनाने के लिए तीन तत्वों पर बल दिया है आत्मनिर्भरता, शिक्षा एवं महिला अध्यापिकाएँॅ।महिलाओं को राजनीतिक अधिकार दिलाने के लिए 1889 के कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में पंडिता रमाबाई ने आर्य महिला समाज एवं वीमेन्स क्रिश्चियन टेंपरेंस यूनियन का प्रतिनिधित्व किया था, इसमें 10 महिला प्रतिनिधियों ने भाग किया था। इस मंच से उन्होंने भारत की सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने की मांग की। उन्होंने अपने भाषण में बतलाया कि किस तरह पुरुषों ने महिलाओं को हाशिए पर धकेल दिया है। 29 दिसम्बर 1889 को इंडियन नेशनल सोशल कांफ्रेंस के मंच से रमाबाई ने बाल विधवाओं का सवाल उठाया। स्त्रियों की बदहाली के सम्बन्ध में उन्हांने संन्यासीन का वेश धारण कर मथुरा एवं वृन्दावन का दौरा किया तथा पाया कि देश के विभिन्न हिस्सों से आश्रय की खोज में आई विधवाएॅँ पंडो एवं पुजारियों के चंगुल में फॅँसकर यौन-शोषण का शिकार बन जाती है। इसका पर्दाफाश करते हुए उन्होंने वृन्दावन यात्रा का संस्मरण अखबार में छपवाया। रमाबाई एसोसियेशन के प्रतिनिधि मिसेज जूडिथ एण्ड्रूज के साथ दिल्ली और आगरा की यात्रा के दौरान पाया कि हर जगह स्त्रियों को शोषित एवं प्रताड़ित किया जाता है। 1896 में मध्य भारत और राजपूताना में पडे़ अकाल के दौरान रमाबाई ने मिसेज इमर्सन के साथ राजपूताना के अकालपीड़ितों के सहायतार्थ दौरा किया तथा 60 विधवाओं को पूना लाने में सफल रही। इसके साथ ही बेसहारा लड़कियों एवं बच्चों को शारदा सदन लाया गया। ब्यूबोनिक प्लेग फैलने से जब पूना शहर में बाहर से आनेवाले अकालपीड़ितों पर सरकार द्वारा प्रतिबंध लगा दिया गया तब रमाबाई ने किराये के टेन्ट में लड़कियों को ठहराया जिसे मुक्ति मिशन का नाम दिया गया। केडगॉव में विद्यालय, शयनशाला, चिकित्सालय, रसोईघर एवं चर्च का निर्माण किया गया। इस कार्य में रमाबाई को मिस मिनी अब्राहम का सक्रिय सहयोग मिला। 1893 के बाद रमाबाई राणाडे के नेतृत्व में आर्य महिला समाज एक बडे़ संगठन के रूप में उभरा। इसकी दूसरी शाखा के रूप में बम्बई में हिन्दू महिला साहित्यिक एवं सामाजिक क्लब की स्थापना हुई। इसका प्रमुख कार्य महिलाओं को लगातार कक्षाओं के माध्यम से प्रशिक्षित करना था, ताकि वे सेवागृह में कार्य कर सके। राणाडे ने सेवासदन की एक शाखा नर्सिंग एवं मेडिकल एसोसियेशन के तौर पर स्थापित किया। इसका प्रमुख उद्देश्य उच्चवर्ग की हिन्दू महिलाओं और विधवाओं को नर्स एवं मिडवाईफ या स्वयंसेवक के रूप में तैयार करना था। रमाबाई राणाडे ने विवाहित महिलाओं के लिए मुफ्त कक्षाओं की शुरुआत की, जहॉँ महिलाओं को सिलाई, बुनाई और कढ़ाई की शिक्षा दी जाती थी तथा साप्ताहिक तौर पर एक व्याख्यानमाला आयोजित कर प्राथमिक चिकित्सीय सेवा की जानकारी उपलब्ध कराई जाती थी। उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक में महिलाओं की सक्रियता काफी तेज हो गई थी। रुकमाबाई, स्वर्ण कुमारी देवी, आनन्दीबाई जोशी, फानना सोराबजी, एनी जगन्नाथ, कादम्बिनी गांगुली और सरलादेवी चौधुरानी ने विभिन्न कारणों से महिलाओं को नेतृत्व प्रदान किया। पहली मराठी महिला उपन्यासकार काशीबाई कानितकर ने 1890 से लेखन कार्य प्रारम्भ किया। इन्हीं दिनों माई भगवती ने आर्य समाज की उपदेशिका के तौर पर सभाओं का आयोजन किया था। दैनिक ट्रिव्यून ने उनके विशाल जनसभा के संबोधन के बारे में अपने संवाददाता की रिर्पोट छापते हुए लिखा था कि ‘‘माई भगवती के उपदेश के पश्चात् हरियाणा के किसी भी घर में अच्छी तरह पका हुआ भोजन पा लेना कठिन हो गया है, लोग बदहजमी के डर से हरियाणा में ठहरने से कतराते हैं।“ घर गृहस्थी से बाहर निकलकर व्यापक तौर पर समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने की कोशिश अब आरंभ हो गई थी।

Comments

  1. Thanku sir .. ye essay UPSC preparation k liy bhut hi informative h🙏🙏🙏

    ReplyDelete
  2. ब्रिटिश कालीन राजस्थान में स्त्री शिक्षा लिए क्या प्रयास किए गए

    ReplyDelete

Post a Comment

Popular posts from this blog

प्रख्यात आलोचक हजारी प्रसाद द्विवेदी

साम्प्रदायिकता का उद्भव एवं विकास