महिला सशक्तिकरण:सामाजिक द्वंद्व
महिला सशक्तिकरण एवं सामाजिक द्वन्द्व
19वीं शताब्दी महिलाओं की शताब्दी के रूप में उभर कर सामने आई। यह वह दौर था जब सम्पूर्ण विश्व में महिलाओं की अच्छाई-बुराई, प्रकृति, क्षमताएँ एवं उर्वरा को लेकर गर्मागर्म बहसें चल रही थी। स्त्री की ‘स्थिति‘ पुनः व्याख्यायित हुई। भारतीय मानस पर यूरोप के स्वतंत्रता, तार्किकता और मानवीयता के विचार के सहवŸार् प्रभाव ने एक खुलापन प्रारम्भ किया एवं अन्य प्रश्नों के साथ ही स्त्री-प्रश्नों को विचार के केन्द्र में रखा गया। इन प्रश्नों पर अंग्रेज व भारतीय समाज सुधारकों दोनों ने विचार किया। जहाँ प्रारम्भ में तटस्थ अंग्रेजों के लिए ये प्रश्न स्त्रियों की दयनीय स्थिति में औपनिवेशिक राज्य के संरक्षण एवं दखल की आवश्यकता से जन्में थे, औपनिवेशिक विचारधारा के निर्णायक औजार बन गये थे, वहीं भारतीय बुद्विजीवियों ने दोहरे मूल्यबोधों के साथ इस विषय पर विचार किया। एक ओर प्राचीन युग में प्रासांगिक मूल्य खोजने की मुहिम चली तो दूसरी ओर पाश्चात्य प्रभाव के प्रकाश में आए नये विचारां ने उन्हें उद्वेलित किया। मूल्यों की टकराहट से अनिश्चय की स्थिति पैदा हुई।1 भारतीय सुधारक पूर्व और पश्चिम के जीवन मूल्यों में से चुनाव एवं मध्यकालीन मूल्यों को तोड़ने के बीच डाँवाडोल थे। एक ओर पाश्चात्य दृष्टि अपनाना उन्हें गुलामी का प्रतीक लगा, वहीं भारतीय अतीत अंधविश्वासों से भरा। मध्यवर्गीय मानसिकता के चलते उन्होंने नवीनता का आग्रह अपने सार्वजनिक मूल्यों के लिए स्वीकारा और व्यक्तिगत निर्णयों में परम्परा का साथ दिया।2
औपनिवेशिक ब्रिटिश सरकार अपने प्रारम्भिक वर्षां में भारतीय सामाजिक मामलों में अहस्तक्षेप की नीति अपनाती रही। मौजूदा व्यवस्थाओं को जारी रखने की माँग करने वाली व्यावहारिकता के साथ- साथ भारतीय संस्कृति के प्रति एक सम्मान का भाव उनके अंदर था। लेकिन इसके पूर्व प्रबोधनकाल के बाद ब्रिटेन के बौद्धिक वातावरण में अंग्रेजों ने अपने आप को पूरबवालों के मुकाबले आधुनिक एवं सभ्य जतलाना शुरु कर दिया और इस धारणा ने 19वीं सदी में उनकी साम्राज्यवादी दृष्टि को एक औचित्य प्रदान किया, जब भारत में तथाकथित सुधार का युग आरम्भ हुआ। पतित व्यवस्था का अंग्रेजी विचार भारत के अतीत की एक प्रयोजनवादी (ज्मसमवसवहपबंस) पुनर्रचना की उपज था। आरम्भिक काल में पश्चिम में भारत की छवि एक बीत चूकी गरिमा और साथ में उसके पतन की छवि थी।3 प्रजातिवादियों ने आनुवांशिक श्रेष्ठता की व्याख्या करते हुए अंग्रेजी शासन को प्रकृति प्रदŸा बतलाया। वंशवादियों का कहना था कि अंग्रेज आनुंवाशिक रुप से शासन करने के लिए उपयुक्त है, इसलिए वे निम्न जातियों को अपना शिकार बनाते है।4 यहीं से भारतीय सुधारकों ने अपना ध्यान वंश एवं जैविक परिभाषाओं के मुद्दे पर केन्द्रित किया, तथा उन्होंने यह साबित करने का प्रयत्न किया कि लघुता आनुवांशिक नहीं वरन् सामाजिक व्यवस्था का अंग है। यहीं सोचकर सुधारकों ने सती, बालविवाह तथा पर्दाप्रथा पर हमले किए। इसके साथ ही स्त्रियों की शिक्षा तथा विधवा पुनर्विवाह के आन्दोलन तेज कर दिए गये।
प्रथम चार्टर अधिनियम 1813 से पूर्व तक निश्चित रुप से ईस्ट इंडिया कम्पनी सामाजिक हस्तक्षेप के विरुद्ध रही। ब्रिटिश शासक एवं स्थानीय अधिकारी कतिपय कारणों से भारतीय समाज के दुर्गुणों के विरुद्ध कोई सकारात्मक कदम नहीं उठा पा रहे थे, इसका प्रमुख कारण था कि भारतीय समाज एवं संस्कृति का दृढ़ धार्मिक आधार प्रशासकों को हतोत्साहित करते रहे और उन्हें सामाजिक कुरीतियों को यथावत रहने देने के लिए बाध्य करते रहे। प्रथाओं के विरुद्ध सरकारी आदेश निकाले जाएगे तो भारत में जनाक्रोश फैल जाएगा जिससे नवस्थापित ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है। तत्पश्चात् ब्रिटिश नीति में परिवर्तान हुआ तथा भारतीय सामाजिक संस्थाओं में सावधानी के साथ हस्तक्षेप करने की कोशिशें धीरे-धीरे शुरु हुई। यह परिवर्तन मुख्यतः अनेक वैचारिक प्रभावों जैसे उपयोगितावाद, इवैंजेलिकतावाद (एंजिलवाद), मुक्त व्यापार की सोच आदि के कारण हुआ था। जहाँ उपयोगितावादी, सामाजिक अभियांत्रिकी (ैवबपंस मदहपदममतपदह) और कठोर सुधारवाद की बात करने लगे थे; वहीं एंजिलवादी भारतवासियों को उनके धर्मों से मुक्त कराने के लिए सरकार के हस्तक्षेप की आवश्यकता जतला रहे थे, जो अंधविश्वासों, मूŸार्पूजा और पुरोहित वर्ग की निरंकुशता से भरे हुए थे। मुक्त व्यापार के समर्थक भी व्यापार का मुक्त- प्रवाह सुनिश्चित करने के लिए परम्परा की बेड़ियों से भारतीय अर्थव्यवस्था को मुक्त कराने की गरज से सरकार के हस्तक्षेप की माँग कर रहे थे। मगर कम्पनी की सरकार प्रतिकूल भारतीय प्रतिक्रिया के डर से हस्तक्षेप के बारे में अभी भी शंकाग्रस्त थी। वह तब तक ऐसा नहीं कर सकती थी जब तक भारतीय समाज का एक बड़ा भाग सुधारों के समर्थन में न खड़ा हो।
19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में ब्रिटेन में होनेवाले बौद्धिक हलचल ने आम ब्रितानियों को भारतीय समाज के गहन अध्ययन करने एवं उनकी अच्छाई - बुराई से अपने को जोड़ने के लिए बाध्य कर दिया। ब्रिटिश नेताओं ने पार्लियामेंट के अंदर एवं बाहर भारतीय समाज में सुधार लाने हेतु व्यापक चर्चाएँ की, संगोष्ठियों का आयोजन किया, पर्चे निकाले तथा अधीनस्थ क्षेत्रों के समाज को प्रोन्नत करने के तरीकों पर वाद-विवाद किया। एडवर्ड वर्क का दबाव प्रभावकारी सिद्व नहीं हो पा रहा था, क्योंकि भारतीय समाज की बहुरंगी तस्वीर उनके कार्य को कठिन से कठिनतर बनाए दे रही थी। फिर भी विलियम कैरी, मार्शमैन, विलियम वार्ड आदि हतोत्साहित नहीं हुए, वे सुधार के लिए कृतसंकल्पित थे। अनुदारवादियों में कार्नवालिस से कैनिंग तक कोई भी प्रशासक ऐसा नहीं था जो भारतीय समाज के प्रति अच्छे विचार रखता हो।5 बेंथमवादी बेंटिक, मेटकॉफ और मैकाले भारतीय समाज में तेजी से सुधार लाना चाहते थे। उपयोगितावादी विचारधारावाले उदारवादी भारतीय समाज को उसके रुढ़िगत विचारों और प्रणालियों से उबारना चाहते थे। अनुदारवादी (टोरी दल) सुधार- प्रयासों के सर्वथा विरोधी थे, वे भारत में मिशनरियों के प्रचार कार्य को भी उचित नहीं मानते थे तथा भारत के रीति - रिवाजों और प्रथाओं में किसी प्रकार के परिवŸार्न की चेष्टा को हानिकर समझते थे।
विलियम बेंटिक के शासन काल में हस्तक्षेप की नीति स्पष्ट रुप से अपनाई गई और उसके बाद अंग्रेज शासकों ने कभी स्वेच्छा से तो कभी भारतीयों की मांग पर समाज को प्रोन्नत करने की दिशा में काम करना प्रारम्भ किया। भारतीय समाज के गलत एवं अमानवीय रिवाजों एवं प्रथाओं के विरुद्व सरकारी आदेश निकाले जाने तथा अधिनियम बनाये जाने लगे। उपयोगितावादी मिल के पक्के अनुयायी विलियम बेंटिक इस उपयोगितावादी दर्शन को मानता था कि कानून परिवŸार्न का एक कारगर साधन है और कानून के शासन की अवधारणा सुधार के लिए परम आवश्यक है। जब ऐसी ही माँग ऐज आँफ कंसेंट बिल के दौरान महिलाओं ने की तो अंग्रेजी सरकार थोड़ी हिचक के साथ आगे बढ़ी तथा एक हाथ - पैर बँधे कानून को भारतीय जनता को सौंप दिया जिसकी वास्तव में उपयोगिता ही समाप्त हो गई थी; क्योंकि इस कानून में काफी बंदिशें लगा दी गई थी। साथ ही भारतीय परम्पराओं में उनकी आस्था बनी रही और उनकी यह इच्छा भी पलती रही कि भारतीयों को उनका सच्चा धर्म वापस दिलाया जाए, इसीलिए सती सम्बन्धी सुधार पर आधिकारिक संवाद इस तर्क पर आधारित रहा कि प्राचीन हिन्दू धर्म ही उनके उन्मूलन की आवश्यकता बताते है।6 1857 के बाद भारत के विक्टोरियाई उदारवाद ने पिताविŸा ब्रिटिश राज की प्रमुख विचारधारा का रुप धारण कर लिया। 1857 की क्रांति ने बहुत लोगों को यह विश्वास दिला दिया था कि सुधार निरर्थक भी है।7
पुनर्जागरण काल में भारत में ‘स्त्री की स्थिति‘ के सुधार के सारे प्रयत्न अपनी ईमानदार कोशिशों के बावजूद अमूल- चूल परिवŸार्न के उद्देश्य से प्रेरित नहीं थे। जहाँ स्त्री की दयनीय दशा पर उदारतापूर्वक सोचा गया, सहानुभूतिपूर्वक समाधान खोजने की कोशिशें हुई; वहीं निर्णय के अधिकार पुरुषों के पास रहे। स्त्री अपने लिए कुछ नहीं करती स्त्री को जिस स्थिति में डाल दिया जाता है, उसे उसमें ही जीना है यदि पुरुष स्त्री के हित में सोचता है तो उसे उद्धारक का अहसान मानते हुए उसके व उसके परिवार के लिए होम होना स्त्री का लक्ष्य है, उसकी नियति है।8 सुधारवादी मौजूदा व्यवस्था में से ही हल निकालने के लिए प्रयत्नशील थे, इसलिए विधवा विवाह की संभावना बनने के बावजूद भी बालविवाह और सतीप्रथा का अंत नहीं हुआ। स्त्री की परिवार में हैसियत परिविŸार्त नहीं हो सकी। वस्तुतः विश्व के अधिकांश भागों में स्थापित पूँजीवादी पितृसŸात्मक व्यवस्था ने सामाजिक ढाँचा इस प्रकार निर्मित किया कि स्त्री व्यक्ति से वस्तु में बदल गई, जिसकी अपनी किसी भी वैयक्तिक सŸा से इंकार किया गया। ऐतिहासिक प्रक्रिया में स्त्री की शिक्षा, आर्थिक आत्मनिर्भरता, संस्कारों के प्रति सचेत दृष्टि के कारण उसकी स्वतंत्रता सीमित रही।9
शुरुआती चरण की वास्तविकता यह थी कि महिला सशक्तिकरण के प्रयास को कठिन समस्याओं का सामना करना पड़ा। इसने पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में अभूतपूर्व तनाव पैदा किया और समाज का मानस मथकर रख दिया। परम्पराओं के बँधन टूटने से जो भावनात्मक संकट समाज में उत्पन्न हुआ उसने पुरुषों और महिलाओं को कुछ समय के लिए अजीब से असमंजस में डाले रखा। इन सुधारों को लेकर तरह- तरह की प्रतिक्रियाएँ हुई। बंगाल में जब पहला विधवाविवाह हुआ तो उत्सुकतावश हजारों लोग इसे देखने जुटे। इसी तरह महाराष्ट्र में हुए पहले विधवाविवाह में जुटी भीड़ ने उग्र रुप धारण कर लिया तो पुलिस को आत्मरक्षार्थ लाठीचार्ज करना पड़ा। रुकमाबाई द्वारा अशिक्षित और बीमार पति के साथ रहने से इंकार करने पर पूरा कट्टरपंथी तबका विचालित हो उठा और धर्म की मर्यादा इस कदर हावी हुई कि रुकमाबाई को पैसे देकर अपनी जान छुड़ानी पड़ी। अपनी इच्छा के़े विपरीत रानाडे को एक युवा विधवा से शादी करने की स्थिति बनी तो उन्होंने अनेक रातें अंतर्द्वन्द्व में गुजारी। अंततः सामाजिक दबाव में आकर उन्होंने अपनी योजना का त्याग करते हुए वृद्वावस्था में एक युवा लड़की रमाबाई से शादी कर ली। लोकहितवादी, के0 टी0 तेलंग और कई दूसरे लोगों का भी यहीं हाल था जो अपने को दोराहे पर खड़ा पा रहे थे; एक तरफ परम्परायें थी तो दूसरी तरफ प्रतिबद्धता। यह अंतर्द्वन्द्व हरेक के मन में उथल - पुथल मचा रहा था। बहुत से लोग अंततः परम्पराओं की ओर वापस लौट गए। फिर भी इस संघर्ष में भारत में नया आदमी और नया समाज जरूर उभरा।10
19वीं शताब्दी के अंतिम वर्षों तक सुधारवादियों की मानसिक एवं वैचारिक द्वैधता की स्थिति सामाजिक धरातल पर भी स्पष्ट नजर आने लगी थी। सतीप्रथा का जितना तेजी से प्रतिरोध हुआ, विधवाओं के पुनर्वास के सम्बन्ध में उस सक्रियता का सर्वथा अभाव रहा; क्योंकि यौन-पावित्र्य की भावना भारतीय मानस में शक्तिशाली थी। सती को लेकर राममोहन राय दोहरे द्वन्द्व से घिरे थे। उनके विरोधियों ने उनके खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। 1828 ई0 में धर्मसभा के संस्थापक राजा राधाकांतदेव ने ‘शब्दकल्पद्रूम‘ के सम्पादन के क्रम में सतीप्रथा का समर्थन किया था। राय का अंर्तद्वन्द्व उनकी पुस्तिका पढ़ने से स्पष्ट हो जाएगी; जहाँ पति के साथ सती होने पर प्राप्त होने वाले स्वर्गीय आनन्द को शास्त्रों द्वारा दी गई प्रतिश्रुति, तपपूर्ण वैधव्य से निम्नतर बताया गया है और इसे शाश्वत परमानन्द और ब्रह्म के साथ एकात्म करनेवाला बताया गया है; वहीं वेदान्तचन्द्रिका में स्त्रियों के साथ असमान व्यवहार का एक सार्वत्रिक सामाजिक तथ्य के रुप में जोशिला खण्डन करते हुए कहा गया है कि “मुझे दुख इस बात का है कि स्त्रियों को इस प्रकार पराश्रित और हर तरह से पीड़ित देखकर भी आप उनके लिए दया का अनुभव नहीं करते जो संभवतः उन्हें बाँधकर जला देने जैसी यातना से मुक्ति दिला सकती थी।“11 यही द्वैध दयानन्द के व्यक्तित्व में भी दिखाई देता है। जहाँ एक ओर वे स्त्री शिक्षा एवं स्त्रियों को यज्ञोपवीत दिए जाने का समर्थन करते है, वही दूसरी ओर बालविवाह के साथ ही विधवा पुनर्विवाह का भी विरोध करते नजर आते है।
केशवचन्द्र सेन जैसे बौद्धिक प्रगतिशील व्यक्ति का अपनी तेरह वर्षीया पुत्री का कूचविहार के राजकुमार से विवाह, नवोत्थानवादी राणाडे का ग्यारह वर्षीया बालिका से वृद्वावस्था में विवाह, शारदा सदन का ईसाई मिशनरी में बदल जाना, ऐसी घटनायें थी, जिनका जनता पर विपरीत प्रभाव पड़ा और सामान्य जनता कोई स्पष्ट संकेत प्राप्त नहीं कर सकी। भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर दयानन्द सरस्वती ने विधवा पुनर्विवाह के विरोध के साथ ही नियोग प्रथा को उपयोगी बताया, तो तिलक ने बालविवाह के विरोध को भारतीय संस्कृति पर चोट माना। विवेकानन्द ने भी भारतीय अतीत की अधिभौतिक मातृछवि का महिमामंडन किया, बावजूद इसके कि वे पाश्चात्य स्त्री की स्वतंत्र चेतना से प्रभावित थे। समस्त क्षमताओं और संभावनाओं के बावजूद इसे पश्चिम का भारतीयकरण माना गया।12
19वीं शताब्दी के प्रारम्भिक कुछ वर्षां तक ब्रिटिश संसद ने सतीप्रथा के खिलाफ कानून बनाने से यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि इसे हिन्दुओं के धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप माना जाएगा। अंग्रेजों की भारत में जागरण लाने की आत्मपरिभाषित भूमिका और समय की माँग के बीच तनाव के कारण सदी के आरम्भिक वर्षों में अंग्रेजों को कई विषयों पर समझौतावादी रुख अपनाने पर बाध्य होना पड़ा। उन्होंने सतीप्रथा पर जो नियम औेर कानून बनाए उसमें जबरन सती किए जाने और स्वेच्छा से सती होने में भिन्नता की गई थी। इस भेद ने सतीप्रथा के विरुद्व अभियान चलानेवालों को झकझोर कर रख दिया। एडवर्ड थाम्पसन के अनुसार अनेक आन्दोलनकारियों ने अंग्रेजों के इस कदम को सतीप्रथा को कानूनी जामा पहनाने की उनकी कोशिश के रुप में देखा।13
सती पर प्रतिबन्ध के मुद्दे ने ब्रिटिश राजनीति में हलचल पैदा कर दी तथा इस मुद्दे पर अंग्रेज राजनीतिज्ञ एक-दूसरे के खिलाफ संघर्ष के निमित आ खड़े हुए थे। कंजरवेटिव दल के लोग जहाँ सती के मामले में हस्तक्षेप न करने का समर्थन कर रहे थे, वही लिबरल डेमोक्रेटिक पार्टी कानूनी कदम उठाने के लिए अभियान चला रही थी। स्वयं उदारवादी दो खेमों में विभाजित थ,े इसमें एक खेमे का प्रतिनिधित्व गरमपंथी कर रहे थे तथा दूसरे का नेतृत्व उदार पादरियों के हाथ में था। पादरी समुदाय सतीप्रथा के अनुयायियों की छवि एक क्रूर एवं निर्दयी व्यक्ति के रुप में प्रस्तुत कर रहा था ताकि वह अपनी दलील की सच्चाई को साबित कर सके कि इस जधन्य कृत्य से बचने का उपाय सिर्फ और सिर्फ ईसाईयत में ही है। उनका मकसद अपने धर्म का प्रचार करना था जिसमें मिल के एंजिलवादी सदस्य सक्रिय थे। हिन्दू समाजसुधारकों का इस अभियान में शामिल होने से उदारवादियों को कुछ राहत मिली और उन्होंने इसे अपने पक्ष में हिन्दू समुदाय के एक वर्ग का अघोषित समर्थन माना जिसकी कमी उन्हें प्रारम्भ से ही महसूस हो रही थी।14
1817 ई0 में सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य पंडित मृत्युंजय विद्यालंकार द्वारा ‘सती का कोई शास्त्रीय आधार नहीं है‘ की धोषणा के एक वर्ष बाद ही 1818 ई0 में बंगाल के तत्कालीन प्रान्तीय गर्वनर विलियम बेंटिक ने प्रान्त में सतीप्रथा पर रोक लगा दी थी जबकि सारे भारत में इस निषेध को फैलने में ग्यारह वर्ष लग गये। विलियम बेंटिक 1829 ई0 में जब भारत के गवर्नर जनरल बनकर आए तो उन्होंने सती उन्मूलन एक्ट पास किया।15 इस अधिनियम के पास होने के साथ-साथ रुढ़िवादियों द्वारा इसके खिलाफ विद्रोह प्रदर्शन का भी भय था। राममोहन राय ने स्वयं भी सती के खिलाफ अंग्रेजों की बुद्धिमता पर संदेह व्यक्त किया और उन्होंने महसूस किया कि विदेशी शासकों के इस कदम से हिन्दुओं में रक्षात्मक कदम उठाने की प्रवृŸा पनपेगी और इस टकराव के परिणामस्वरुप समस्या और भी जटिल हो जाएगी। हिन्दू रुढ़िवादियों ने आशा के अनुरुप विरोध प्रदर्शित किया, किन्तु इसकी तीव्रता काफी अल्प थी। 1830 में हिन्दू रुढ़िवादियों ने कलकता में राधाकांतदेव के नेतृत्व मे धर्म सभा की स्थापना की तथा सतीप्रथा के खिलाफ बनाए गए कानून को समाप्त किए जाने के लिए एक याचिका तैयार कर भारत के गवर्नर जनरल से मुलाकात की तथा ब्रितानी संसद को भेज दी।15 रुढ़िवादियों के विरोध के आंशिक परिणाम के तौर पर कोई 10 वर्षों के बाद भारतीय दण्ड संहिता में संशोधन किया गया। इनमें एक बार फिर स्वैच्छिक एवं जबरन सती मेंं वैभिन्य दर्शाते हुए अपनी इच्छानुसार सती होने को कानूनी कवच प्रदान किया गया।16 इस मुद्दे पर रियासतों में कुछ आन्दोलन भी भड़के जिसको अंग्रेज प्रतिनिधियों ने अपनी तौहीन मानते हुए सती की घटनाओं पर जबरन काबू पाने के उद्देश्य से अंग्रेज सैनिकों को भेज दिया। राजाओं के अधिकारों को हड़प लेने के कारण इन अंग्रेज प्रतिनिधियों के खिलाफ बड़े पैमाने पर हिंसा भड़की।
हालिया ऐतिहासिक अनुसंधान स्पष्ट करते है कि 19वीं सदी के सती निर्मूलन आन्दोलनों ने भ्रम की स्थिति पैदा कर दी थी। सती की घटनाएँ आम नहीं थी बल्कि इसका दायरा भी संकुचित था। सच्चाई यह है कि ये घटनाएँ कभी-कभार ही होती थी। अगर देखा जाय तो सती की घटनाएँ बड़े पैमाने पर 19वीं शताब्दी के आरम्भिक दशकां में बंगाल में हुई जहाँ लगभग हर रोज एक स्त्री सती होती थी। सुधार आन्दोलन के दौरान सती की घटनाओं से सम्बन्धित आँकड़े एकत्र किए गए तथा हैरानी जताई गई कि यह हाल उस राज्य का है जहाँ सतीप्रथा उन्मूलन के समर्थक विलियम बेंटिक का शासन था। उदाहरण के तौर पर आन्दोलनकारी यह उल्लेख कर पाने में विफल रहे कि इनमें कितने मामले सती के थे और कितने विधवाओं द्वारा किए गये आत्महत्या के। यह संभव है कि सती के प्रति घृणाभाव होने और सती की घटनाओं की गंभीरता को प्रमाणित करने के लिए सरकारी आकड़ों में हेर-फेर की गई हो तथा विधवा स्त्रियों द्वारा की गई आत्महत्याओं को भी सती के रुप में पेश किया गया हो। आनन्द यांग के अनुसार 19वीं सदी के पूर्वार्द्ध के बंगाल में जो आँकड़े एकत्र किए गये है उनमें एक निश्चित अनुपात में उन औरतों की संख्या बहुत थी; जिन्होंने अपने पति की मृत्यु के वर्षां बाद आत्महत्या कर ली थी। असहाय जिन्दगी के अकेलेपन से भयभीत होकर उन्होंने आत्महत्या का रास्ता अपनाया होगा, ऐसा नहीं था कि उनके अंदर ‘सत्‘ का प्रवेश हो गया था।17
दिलचस्प बात यह है कि बेंटिक ने यह दिखलाने के लिए कि सती होना आवश्यक नहीं है और यह भी कि यह कोई मान्यताप्राप्त धार्मिक गतिविधि नहीं है; शास्त्रीय, धार्मिक उद्धरणों को क्रमबद्ध करने की रणनीति अपनाई। यहीं रणनीति राममोहन राय ने अपनी पुस्तक ‘ए कांफ्रेंस विटवीन एन एडवोकेट फॉर एन्ड एन अपोनेन्ट टू दि प्रैक्टिस ऑफ वर्निंग विडो अलाइव’ में अपनाया था। इस पुस्तक में श्री राय ने यह साबित करने का प्रयास किया कि किसी भी प्राचीन हिन्दू पौराणिक ग्रंथ में यह नहीं कहा गया है कि विधवा को सती आवश्य होना चाहिए। प्रतिक्रियास्वरुप हिन्दुओं की भावनाएँ भड़क उठी। 28 पंड़ितों ने एक घोषणापत्र प्रकाशित किया, जिसमें कहा गया था कि राममोहन राय की दलीलें गलत है इसलिए उन्हें हिन्दू विचारधारा का प्रतिनिधि नहीं मानना चाहिए। इस घोषणा के प्रत्युŸार में श्री राय ने एकबार फिर शास्त्रों से तथ्यपरक साक्ष्य एकत्रित करके पंड़ितों को बताया कि शास्त्रों के अनुसार सती होना अनिवार्य नहीं है। वास्तव में यह न्यूनतम धार्मिक कृत्य है जो एक विधवा कर सकती हैं तथा इसकी सार्थकता तभी है जब वह अपनी मर्जी से सती हो।18
उल्लेखनीय है कि राममोहन राय ने सती उन्मूलन आन्दोलन के ब्रिटिश समर्थकों की तरह इसको प्रश्नित नहीं किया कि आत्महत्या एक उत्कृष्ट कार्य हो सकता है। ईसाईयों के लिए आत्महत्या एक घृणित एवं आपराधिक कृत्य था जबकि हिन्दुओं की नजर में आत्महत्या की कई किस्में धार्मिक थी। एक रुढ़िवादी हिन्दू तर्क यह था कि सती होने की इज़ाज़त उन धार्मिक ज्ञान से अनभिज्ञ स्त्रियों को दी गई ताकि वे सती होकर इस प्रकार के ज्ञान को प्राप्त करें और अपने परिवार को उस ज्ञान का उपहार दें। हिन्दुवादियों की इस दलील के खिलाफ राममोहन राय का मत था कि स्त्रियों को स्पष्ट रुप से धार्मिक कृत्य का ज्ञान था क्योंकि उनका जीवन दर्शाता है कि स्त्रियाँ अनन्त रुप से पुरुषों की अपेक्षा अधिक आत्म-बलिदानी थी। इस बात का उŸार देते हुए कि वीरता महिलाओं के दैनिक जीवन का अंग है राय ने उनकी वीरता को कभी-कभार प्रदर्शित करने के बजाय दैनिक जीवन में उतारने की कोशिश की। हालाँकि काफी हद तक इससे वीरता अवरुद्ध हुई और भारतीय स्त्रियों को अनिवार्य एवं निरंतर रुप से कुर्बानी देना एक बोझ नजर आने लगा। बाद के आन्दोलनों में भारत में स्त्रियों के स्वभाव और अधिकारों पर होनेवाले बहस में यह मुद्दा बार- बार उठाया जाता रहा और पश्चिमी औरतों की अपेक्षा भारतीय स्त्रियों को श्रेष्ठ बनाने के लिए उनके बलिदानी गुण को बार - बार उद्धृत किया जाता रहा। स्त्रियों का यह वैशिष्ट्य जितना महत्वपूर्ण पश्चिम में रहा उतना ही स्वयं भारत में भी रहा। एक ओर जहाँ सती को पूर्व की असभ्यता के उदाहरण के रुप में प्रस्तुत किया गया; वहीं दूसरी ओर पूर्वी स्त्रियों को श्रद्धालू, पतिव्रता एवं आध्यामिक शक्ति के रुप में भी उद्धृत किया गया।19
सामाजिक श्रृंखला के किसी भी महत्वपूर्ण कड़ी के विश्रृंखल होने का तात्पर्य है उसके बंधनकारी तत्व का विघटन। वह अपनी सारी शक्ति को खो देगा जिसके बल पर समाज में एकजुटता पैदा करता है। समाज का सुविधाभोगी वर्ग जो लम्बे समय से सामाजिक सुविधाओं को दीमक की तरह चट कर रहा है अपनी सता के खोने के भय से शांति के लिए खतरा पैदा कर देता है। इसलिए जब 19वीं शताब्दी में कुलीन प्रथा के अंतर्गत बहुपत्नी विवाह पर प्रतिबंध लगाने एवं विधवा पुनर्विवाह की बात हुई तो इसके बचाव में आनेवाले लोग शांति-व्यवस्था के लिए खतरा बन गये।20 यहाँ तक कि स्वयं विद्यासागर को कई अवसरों पर पुलिस को बुलाना पड़ा ताकि विधवा पुनर्विवाह समारोहों को शांतिपूर्ण ढ़ंग से सम्पन्न कराया जा सके। विधवा पुनर्विवाह की इच्छा रखनेवाली विधवाओं को कट्टरपंथी प्रेसों से लगातार यह धमकी मिल रही थी कि वे ऐसा नहीं करें अन्यथा उन्हें जातिवहिष्कृत कर दिया जाएगा। यह सर्वविदित था कि ये सभी प्रेस उच्चवर्गीय सम्पन्न लोगों के स्वामित्व में चल रहे थे और विधवा पुनर्विवाह को लेकर समाज में जो संधर्ष चल रहा था वह सही मायने में परम्परागत उच्चवर्गीय लोगों की समाज में सर्वोच्चता एवं एकाधिकार को लेकर था। यदि उन्हें इस संधर्ष में पराजय का सामना करना पड़ता तो इसका मतलब था कि वह मजबूत श्रृंखला धराशायी हो जाती जो वर्षों से उनके प्रभुत्व को सुरक्षित रखने के लिए बनी हुई थी।
उच्चवर्गीय कट्टरपंथी, सामाजिक सर्वोपरिता को बनाये रखने के लिए परम्परागत जातीय व्यवस्था को और मजबूत बनाये जाने का राग अलापने लगे। समाज और संरचना के स्तर पर मानदंडीय उच्चŸार मूल्य मानक तत्व के रुप में हिन्दुत्व के लिए आवश्यक अंग है यदि इसमें से एक नष्ट होता है तो दूसरा इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता। प्रत्येक विचार से ‘जाति‘ जो हिन्दू धर्म को समर्थन प्रदान करता है; का विधटन करनेवाले असमाजिक तत्व का सर्मथन किया जाता है तो वह बहुत से जीवन को बर्वाद कर देगा तथा धर्म की मजबूत स्थिति को समाप्त कर देगा।21 बुद्धिजीवी वर्ग सचेत रुप से लगातार दबाव बनाये हुए था कि जनता उस नैतिक व्यावहारिक संहिता से जुड़ी रहे जिसको सामाजिक श्रेणीक्रम में वैधता प्राप्त है। प्रत्येक व्यक्ति इस विचारधारा से जुड़ा हुआ था कि सामाजिक स्तरीकरण उनके कार्य एवं नैतिकता पर एक बंधन आरोपित करता है जिसका उल्लंघन उनके लिए हितकर नहीं है। 20वीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों का आकलन करते हुए एक सामाजिक पर्यवेक्षक निम्नवर्ग के जातीय सोच को व्यक्त करते हुए कहते है “एक व्यक्ति के लिए समाज में कोई जगह नहीं है जब तक कि वह किसी जाति से सम्बन्धित नहीं है। यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति अधिकाधिक सुविधाओं के दोहन के लिए सदैव अपनी जाति की ओर देखता है; कोई मूर्ख भी ऐसा नहीं होगा जो इस ब्राह्मणवादी अधिकार को चुनौती देकर उन्हें खोना चाहेगा।“22
जातिवहिष्कृत होने का अर्थ है अपने जाति के रीति-रिवाज एवं व्यवहार से च्यूत होना। समाज में प्रचलित सांस्कृतिक परिवेश को बलपूर्वक उखाड़ फेकनेवाली संरचना किसी व्यक्ति या परिवार में भय उत्पन्न करनेवाली होती है। कुछ ऐसी बहादुर हृदयवाली विधवाओं के साक्ष्य मिलते हैं, जिन्होंने इससे पहले कि उन्हें सामाजिक-नैतिक मापदंड के दायरे में लाया जाता हिन्दू धर्म के नियंत्रणवाली तकनीक से बाहर निकल कर इस्लाम या ईसाईयत को अपना लिया था, जहाँ वैवाहिक संगठन कुछ अधिक लचिला एवं सुविधाजनक था। परन्तु अधिसंख्य जनता इस प्रकार के कदम उठाने से भय खाती थी क्योंकि इसके निहितार्थ काफी भयंकर सिद्व होते। जैसा कि समाचार सुधावर्षण अपने लेख में स्पष्ट तौर पर लिखता है कि विधवा पुनर्विवाह का तात्पर्य हिन्दू धर्मशास्त्रों का उल्लंघन होगा। हम यह नहीं सोंच सकते कि धार्मिक विचारवाला व्यक्ति कोई भी जोखिम उठाने के लिए इतना साहसी हो जाएगा।23
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर इस तथ्य से भली- भाँति परिचित थे औेर वे चेतनरुप में हिन्दू समाज के संरचनात्मक शक्ति और उसके आदर्श को स्वीकार भी करते थे। उन्होंने न तो कभी हिन्दूधर्म की शक्ति संरचना को चुनौती दी और नहीं कोई अलग वैकल्पिक क्रांतिकारी विचारधारा प्रस्तुत करने की कोशिश ही की थी। बल्कि विद्यासागर समकालीन पाश्चात्य शिक्षाप्राप्त बुद्धिजीवियों के परम्परावादी विचारधारा का ही प्रतिनिधित्व करते थे। हिन्दू इंटेलिजेन्सर के अनुसार वे संस्कृत महाविद्यालय के विद्वान प्राचार्य थ,े उनके गहन शोध एवं विस्तृत चिंतन को विदेशियों का भी आदर प्राप्त था, और संवाद प्रभाकर की माने तो उनकी एकमात्र उपलब्धि संस्कृत महाविद्यालय को आंग्लरुप देना था जिसे वे एक निश्चित दिशा में विकसित नहीं कर सके। लेकिन कुछ भी हो विद्यासागर की जो लोकप्रिय छवि थी वह एक उदारवादी, मानवतावादी समाजसुधारक की थी जिसकी विचारधारा तथाकथित पाश्चात्य संस्कृति से उत्पन्न नहीं मानी जा सकती वह समानता और तार्किकता पर आधारित थी तथा हिन्दू समाज के स्तरीकरण की अवधारणा का विरोध करती थी।
विधवा पुनर्विवाह पर लिखे अपने प्रथम निबन्ध की शुरुआत में ही उन्होंने कार्य- कारण-सम्बन्ध को नकार दिया। उनका मानना था कि लोक सामान्य कारणों को महत्व नहीं देता है बल्कि वह धर्मशास्त्रों में उद्धृत वचनों से संचालित होता है। इसलिए उन्होंने धर्मग्रंथों की व्याख्या और पुनर्व्याख्या की तथा अपने सुधारों को शास्त्रीय ग्रंथों के आधार पर सिद्व करने का प्रयत्न किया। गुणात्मक रुप में विद्यासागर ने विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर वैकल्पिक व्यवस्था स्थापित करने का कोई प्रयत्न नहीं किया जैसा कि नवदीप एवं भाटपारा के पंडितों ने किया था। लेकिन यह अंतर केवल मात्रात्मक अनुपात का है, क्योंकि पंडितों ने जो व्यवस्था दी थी वह व्यक्ति विशेष के आधार पर थी जबकि ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा जो विधवा पुनर्विवाह के लिए प्रयत्न किए जा रहे थे, वे सम्पूर्ण भारतीय समाज को ध्यान में रखकर किये जा रहे थे।
जब प्रथम निबंध विधवाविवाह एतद्विषयक प्रथम प्रस्ताव में उल्लिखित शास्त्रसम्मत तरीका प्रभावी नहीं हुआ तो विद्यासागर ने अपने विधवाविवाह पर लिखे दूसरे निबंध में समाज में प्रचलित लोकाचार एवं स्थानीय परम्पराओं में परिवŸार्न की बात उठाई। विद्यासागर ने अपने दोनों निबंधों में विधवाओं के कारुणिक दुर्दशा के प्रति पैतृक सहानुभूति दिखाई है। उन्होंने सामाजिक तौर पर गिरते नैतिक स्तर के प्रति गहरी चिन्ता व्यक्त की है। उनका मानना था कि आम आदमी का परागमन और दुराचार के प्रति काफी झुकाव है इसके पीछे वे विधवायें है जो आत्मसंयम एवं आत्मनियंत्रण को आत्मसात् करने में असमर्थ है। इन महिलाओं द्वारा अपनी अतृप्त काम-पिपासा को शांत करने के लिए निकटतम सम्बन्धियों से अनैतिक सम्बन्ध बना लिया जाता है। सामाजिक स्तर पर इस दुराचार को रोकने का सबसे प्रभावी तरीका यह है कि विधवा पुनर्विवाह पर लगे सामाजिक प्रतिबंध को हटा लिया जाए और उनकी यौनलिप्सा की पूŸार् के लिए किसी उपयुक्त व्यक्ति से विवाह कर दिया जाए। यह विचार स्पष्टतः उस पितृसŸात्मक पारिवारिक संघटन को बल प्रदान करता है जिसमें सामाजिक अनुशासन एवं यौन-सुचिता के नाम पर महिलाओं के शारीरिक एवं लैंगिक इच्छाओं पर बुजूर्गां के कठोर नियंत्रण को प्रभावी ढंग से लागू किया गया है।
हिन्दू समाज के श्रेणीकरण एवं नैतिकता के कारणों को भद्रलोक का समर्थन प्राप्त था। बौद्धिकों का मानना था कि सामाजिक स्तर पर फैली यौन अराजकता विधवाओं के असंतृप्त कामेच्छा के कारण ही था। अपने समय की प्रगतिशील समझी जानेवाली पत्रिका तत्वबोधिनी ने बड़े भयभीत लहजे में लिखा था कि इसका प्रभाव उन दूसरी महिलाओं पर भी पड़ेगा और वे परम्परागत पारिवारिक संरचना के लिए खतरा उत्पन्न कर देगी। इसीलिए विधवा पुनर्विवाह के लिए दी गई याचिका में लैंगिक असमानता को दूर करने की बात उठाई गई। इसमें कहा गया था कि अगर पति अपनी पत्नी के मरने के बाद दूसरी शादी कर सकता है तो क्या कारण है कि महिलायें ऐसा नहीं कर सकती। इसी साँस में पत्रिका विधवा पुनर्विवाह की वकालत करते हुए कहता है कि ‘‘विधवाविवाह अत्यंत आवश्यक है क्योंकि महिलाओं की यौनेच्छा पुरुषों की आठगुनी अधिक होती है। यह वह प्रमुख कारण है जिस पर आसानी से नियंत्रण करना कठिन कार्य है तथा इसे बंगाल में एक बुराई के रुप में ढोया जा रहा है।’’ जीवविज्ञानी भी स्वाभाविक तौर पर व्यक्ति की नैतिकता के गिरते स्तर के लिए लैंगिक असमानता को प्रमुख कारण मानते थे। सुधारक भी कुलीनों में प्रचलित बहुपत्नीवाद और बालविवाह को इससे जोड़कर देख रहे थे। उनका मानना था कि स्त्री- पुरुष लिंगानुपात, बहुपत्नीवाद और बालविवाह तीनों ने मिलकर नैतिकता के लिए खतरा पैदा कर दिया है।24
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर द्वारा जिस सुधार और व्यवस्था की बात की जा रही थी, उसे हिन्दू समाज के लिए वैकल्पिक रुप में स्वीकार करना संभव नहीं था। साथ ही शिक्षित हिन्दू कट्टरपंथियों द्वारा समाधान के रुप में प्रस्तुत वंशानुगत व्युत्पिŸा का सिद्वान्त भी अस्वीकार्य था जब तक कि उसे उच्चवर्ग का समर्थन प्राप्त नहीं होता। दूसरी तरफ इस नये सुधारवादी दृष्टिकोण को जनता का समर्थन भी हासिल नहीं हो सकता था। यहाँ तक कि सुधार को समाज के लिए आवश्यक मानने के पक्षधर भी इस मामले में दबी जुबान में ही बात कर रहे थे। तत्वबोधिनी पत्रिका के अनुसार वे इस भय से सदैव आक्रांत थे कि या तो उन्हें दलपतियों के विरोध का सामना करना पड़ेगा या जनता का बहिष्कार सहना पड़ेगा। परिमाणस्वरुप ईश्वरचन्द्र विद्यासागर एवं अन्य समाजसुधारक हिन्दू समाज की शक्ति संरचना को अपनी तरफ करने के लिए इन दलपतियों एवं कट्टरपंथी ब्राह्मणों की संरक्षकता प्राप्त करने की लगातार कोशिशें करते रहे। इसी प्रयास में विद्यासागर विधवाविवाह के कट्टर विरोधी राजा राधाकांत देव का समर्थन चाहा था। प्रथम चरण के बहस में विद्यासागर को इन शक्तिशाली दलपतियों के सहयोग से कट्टरपंथियों पर बहस के दौरान निर्णायक जीत मिली, लेकिन सुधार के प्रति उनके दृष्टिकोण में कोई बदलाव नहीं हुआ। बाद में कट्टरपंथियों ने राधाकांतदेव से सम्पर्क साधा और उनसे सुधार के प्रति अपने दृष्टिकोण पर पुनर्विचार करने की अपील की। दूसरे चरण के बहस में विद्यासागर कट्टरपंथियों से लगभग पराजित हुए, क्योंकि दलपतियों का समर्थन अब कट्टरपंथियों को मिल रहा था और इसके साथ ही सुधार आन्दोलन का भाग्य भी पिटारे में बंद हो गया। इतना ही नहीं वे पंडित भी जो पहले श्यामाचरण दास की विधवा पुत्री के पुनर्विवाह की व्यवस्था दे चूके थे, वे भी अचानक अपने विचार परिवर्तित करते हुए विधवा पुनर्विवाह विरोधी खेमें में शामिल हो गए। जनता इस पूरे प्रकरण में मूकदर्शक बनी हुई थी, उसमें इतनी साहस नहीं थी कि वे दलपतियों, पडितांं एवं शास्त्रों द्वारा स्थापित व्यवस्था के खिलाफ खड़ी होती और इस सुधार आन्दोलन को गति प्रदान करती। एक पत्रिका के अनुसार ‘‘किसी वैधानिक कानून में इतनी ताकत नहीं थी कि इस मजबूत श्रृंखला की किसी एक कड़ी को भी तोड़कर पृथक कर दे।25
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने लोकप्रिय संस्कृति में सुधार के लिए जिस परम्परागत तरीके का चुनाव किया था उसकी सफलता के लिए उच्चवर्गीय परम्परावादी शक्तियों के समर्थन की अत्यंत आवश्यकता थी। यहीं कारण था कि कुलीन आन्दोलन को महत्वपूर्ण सफलता प्राप्त हुई क्योंकि इसे ‘हिन्दुओं के हिन्द‘ू दिनाजपुर के राजा, नदिया के राजा और वर्धमान के महाराजा जैसे प्रभुत्वशाली व्यक्तियों का समर्थन मिला था। विधवा पुनर्विवाह हिन्दुओं द्वारा स्थापित व्यावहारिक नैतिक संहिता से विचलन भरा कार्य था जिसका समर्थन करना परम्परागत उच्चवर्ग के लिए आत्मघाती होता।
विधवा पुनर्विवाह अधिनियम जब लेजेस्लेटिव कांसिल में प्रस्तुत किया गया, उस समय बंगाल में बौद्विक जुगाली का दौर चल रहा था। अधिकांश बौद्विकों ने इस कानून बनानेवाली संस्था के अस्तित्व पर ही प्रश्न खड़े किए। इस्टर्न स्टार ने टिप्पणी की कि ‘‘देश की वैधानिक संस्था जनता की प्रतिनिधि संस्था नहीं ह,ै जिसके लिए यह कानून बनाया जा रहा और जो विवकेशील कानून उन पर लागू किया जाएगा, क्या सही अर्थां में उनकी भलाई के लिए होगा? यह विधायिका सभा अपनी विधवा के विवाह के लिए देशी लोगों पर दबाव नहीं डाल सकती, बल्कि वह सिर्फ इतना करेगी कि हिन्दू विधवाओं से जन्म लनेवाले बच्चों की वैधता पर मुहर लगवा देगी। लेकिन समुदाय सदैव उस बच्चे को एक ‘दोगले‘ के रुप में देखता रहेगा जिसका जन्म हिन्दू संस्कारों के अनुपालन से नहीं हुआ है। सच पूछा जाय तो यह विधान प्रत्यक्ष रुप से न तो जनता के मनोमस्तिष्क पर छाये इस विचार को परिविŸार्त कर सकता है औेर न उसके सामाजिक-सांस्कृतिक रिश्ते को ही प्रभावित कर सकता है।‘‘26 इस अधिनियम के पारित होने के बाद इसे लागू करने के प्रश्न पर समाचारदर्पण ने भी भविष्यवाणी थी कि इसको लागू करने का कोई तरीका दिखाई नहीं पड़ता। सती के सम्बन्ध में प्रस्ताव पारित कर एक बूरे रिवाज के रुप में इसे खत्म कर दिया गया किन्तु विधवा पुनर्विवाह का प्रारम्भ एक बहुत ही क्रांतिकारी कदम था जिसे सरकार के कार्यालीय आदेश से लागू नहीं कराया जा सकता था। यहीं वह कारण है कि यह कानून पारित होने और विद्यासागर के मरने तक एवं उसके बाद भी एक ‘मृतपत्र ;क्मंक स्मजजमतद्ध की तरह पड़ा रहा।
सबसे महत्वर्पूण तथ्य यह है कि सुधार आन्दोलनों के दौरान इस सारी प्रक्रिया में स्वयं महिलायें हाशिए पर रही। स्वयं विद्यासागर जो विधवा महिलाओं के प्रति दयाभाव रखते थे, इस भुक्तभोगी समाज से किसी प्रकार का सम्बन्ध नहीं रखते थे। उनकी सारी कोशिशें इस बात को लेकर थी कि वे कट्टरपंथियों को किस प्रकार अपने से नीचा दिखाए। धर्मग्रंथों के उद्धरणों की व्याख्या के क्रम में कहीं भी महिलायें ‘विषयवस्तु‘ के रुप में नहीं ली गई। 19वीं शताब्दी के अंतिम दशकों तक सामाजिक परिदृश्य में महिलायें इतिहास की विषयवस्तु के रुप में उभर कर सामने नहीं आई थी। जहाँ तक वामाबोधिनी पत्रिका का प्रश्न है जो हमेशा महिलाओं की स्थिति में सुधार की बात करती थी उसने भी सुधार के प्रयत्नों की सार्थकता को अस्वीकार कर दिया। दूसरी तरफ महिलायें परम्परावादी रुढ़िवादी पुरुषों द्वारा रचित संसार के सामाजिक स्तरीकरण के सबसे निचले पायदान पर थी जिसमें न केवल वह अपनी निम्न स्थिति को स्वीकार करती थी बल्कि हिन्दू रूढ़िवादियों द्वारा निर्मित ‘स्त्रीत्व‘ की अवधारणा को औेर मजबूती प्र्रदान कर रही थी। साथ ही उनमें विधवा पुनर्विवाह के सिद्वान्त के नकार का भाव स्पष्ट तौर पर दिखाई दे रहा था। कृष्णभामिनी अग्रवाल द्वारा सम्पादित महिष्य जाति की महिलाओं की एकमात्र पत्रिका ‘महिष्य महिला‘ में विधवा पुनर्विवाह का तीव्र विरोध तीव्र किया गया था।27
पुरुष पर्यवेक्षकों की देख-रेख में दिसम्बर 1925 में आयोजित स्वर्णवनिक महिला सम्मेलनी, जिसमें 500 से अधिक महिलाओं ने भाग लिया था; के एजेन्डे में महिला शिक्षा प्रसार सहित कई मुद्दों को शामिल किया गया था; लेकिन उन्होंने महिला पुनर्विवाह के प्रश्न को जान-बुझकर छोड़ दिया था। यह वह महत्वपूर्ण तथ्य है जो दो सुधार आन्दोलनों के मध्य के अंतर को व्याख्यायित करता हे। प्रथम, सुधार महिलाओं में शिक्षा के प्रसार को लेकर चला, जिसे जनता का व्यापक सहयोग प्राप्त हुआ। दूसरा, विधवा पुनर्विवाह आन्दोलन था जिससे जनता सदैव कतराती रही। इस जातिवादी महिला संगठनों ने महिलाओं में शिक्षा के प्रचार-प्रसार हेतु चंदा इकट्टा करने में बढ़- चढ़कर हिस्सा लिया। महिष्य महिला पत्रिका ने अपनी जाति की शिक्षित महिलाओं से अपील की कि वे लोकगीतों तथा कई अन्य परम्परागत तरीकों से अपने पड़ोसियों में शिक्षा का प्रसार करे। परन्तु कोई भी संस्था इस प्रकार से विधवा पुनर्विवाह के अभियान में अग्रदूत बनकर नहीं उभरी जो इसके समर्थन में महिलाओं की आवाज को उठा सके या वास्तविक सुधार प्रक्रिया में सक्रिय भागीदारी निभा सके। अल्पज्ञात तथ्य यह हे कि इस समस्त सुधार आन्दोलन के दौरान विधवा पुनर्विवाह के पक्ष एवं विपक्ष में एक भी महिला का वक्तव्य रिकार्ड नहीं किया गया है जो औपनिवेशिक बंगाल में होने वाले सबसे गर्मागर्म सामाजिक विवाद में उनके हाशिए पर रहने की स्वीकारोक्ति है।
विधवा पुनर्विवाह एवं बहुपत्नीवाद के लिए विद्यासागर के सुधार अभियान के खिलाफ 24 परगना, नदिया, खुलना, जैसोर के कट्टरपंथी ब्राह्मण संगठित हो गये थे जिसमें उनके पूर्व सहयोगी तारानाथ वाचस्पति भी शामिल थे। मजे की बात यह है कि बहुपत्नी विवाह के विरोध में उन्होंने जो तर्क दिया था वह बालविवाह के खिलाफ जाता था। जो राजा, महाराजा, नवधनाढ्य एवं कुलीन याचिका प्रस्तुत करते समय विद्यासागर को आर्थिक मदद देने की बात करते थे, वे भी अपने वायदे से पीछे हटते नजर आए। जुलाई 1867 ई0 में हिन्दू पैट्रियाट को लिखे विद्यासागर के पत्रों से स्पष्ट होता है कि प्रथम विधवा विवाह को सम्मान दिलवाने के लिए मुफस्सिल गाँवों में विभिन्न दलों को खुश करने के लिए उन्हें काफी रुपये खर्च करने पडे़ थे। मुफस्सिल थानों में बहुत से मामले सुधार आन्दोलन के कार्यकर्ताओं के खिलाफ आए ओैर कई अवसरों पर उनके साथ शारीरिक तौर पर बल प्रयोग किया गया।
विधवा पुनर्विवाह आन्दोलन के दौरान स्वयं विद्यासागर के कार्यक्रम में विरोधाभासी स्थिति कायम थी। कानून बनने के पश्चात् कई विधवाओं ने पुनर्विवाह की इच्छा व्यक्त की थी, जिसके लिए विद्यासागर ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। इतना ही नहीं जब उनकी पुत्री स्वयं एक विधवा के रुप में पिता के घर वापस आई तो विद्यासागर ने उन्हीं विधि- निषेधों के अनुपालन की सलाह अपनी पुत्री को दिया जिसका वह सदैव विरोध करते थे। विद्यासागर ने मेरी कारपेन्टर के उस प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया जिसमें एक नार्मल स्कूल खोलने तथा महिला सम्बन्धियों द्वारा ट्यूशन के माध्यम से घरेलू उच्चवर्गीय हिन्दू महिलाओं को शिक्षित करने का विचार था। इस सेवा कार्य में असुरक्षित, लाचार एवं परित्यक्त विधवाओं को लगाये जाने की योजना थी। विद्यासागर की असफलता इस बात में भी थी कि उन्होंने उन विधवा महिलाओं के जीवन स्तर को सुधारने का कोई प्रयास नहीं किया जिन्होंने विधवा पुनर्विवाह की इच्छा व्यक्त नहीं की थी। विरोधाभासी रुप में 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में रामकृष्ण मिशन द्वारा विधवाओं की दशा सुधारने के लिए जैसा अभियान चला था, वैसा अभियान विद्यासागर के सुधार के लिए अछूता ही रहा । फिर उनके व्यक्तिगत जीवन में भी यह विरोधाभास स्पष्ट नजर आ रहा था। 19वीं शताब्दी में बहुत से ऐसे साक्ष्य है जो इस बात की ओर संकेत करते है कि ‘पति ही पत्नियों के गुरु‘ हुआ करते थे परन्तु इस महान शिक्षाविद् एवं आधुनिक शिक्षा के अग्रदूत की पत्नी ‘दीनामयी देवी‘ नैतिक रुप से अज्ञानी ही रही तथा बीरसींगा के एक छोटे से घर में विद्यासागर के माता-पिता की सेवा में अपने जीवन का अधिकांश समय गुजार दिया।28
19वीं शताब्दी में भारतीय जनमानस में धर्मशास्त्रों के नकार की प्रवृŸा जन्म ले रही थी, जो एक अन्य दृढ विचाधारा की पूरक थी। यह प्रवृŸा खासकर निचली जातियों में पनप रही थी। 1855 ई0 में हिन्दू इंटेलिजेंसर लिखता है कि ‘‘परम्परागत तौर पर यह रिवाज उच्चवर्गीय देशी लोगों में अनवरतकाल से शाश्वत रुप में नहीं आ रही है बल्कि यह अभी - अभी छोटी जातियों द्वारा अपनाया जा रहा है। विशेषकर यह रिवाज अंत्यजों में हरि, मेहŸार, डोम, चंडाल आदि जातियों में ही प्रचलित है। विद्यासागर द्वारा प्रस्तावित विधवा पुनर्विवाह उन फूहड़ एवं अभद्र समझी जानेवाली जातियों द्वारा अपनाया जा रहा था जो समाज के सबसे निचले वर्ग ‘अंत्यज‘ या ‘अंत्येवासी‘ से सम्बन्धित थे। यहाँ तक कि ब्राह्यण एवं शिक्षित भद्रलोक के सम्पर्क में आनेवाले पवित्र शूद्र, परम्परा से हो रहे अपनी जाति में विधवाविवाह का विरोध करने लगे थे।29 इस स्थिति में जब सुधार के विपरीत सुधार की प्रक्रिया चल रही हो उसमें शिक्षाप्राप्त वर्ग सिर्फ अपने प्रयासों को बनाये रखने की कोशिश ही कर सकता था।
1856 ई0 में कानून के पारित होने के बावजूद भी 1़9वीं शताब्दी के उतरार्द्व में उच्च जातियों; खासकर मध्यवर्गीय जातियों में विधवा विवाह कड़ाई से प्रतिबंधित था। 1891ई0 की जनसंख्या रिपोर्ट में जिन जातियों में विधवा पुनर्विवाह वर्जित दिखाया गया है उनमें ब्राह्यण, कायस्थ, वैद्य, वणिक जातियों जैसे सदगोप , सुन्डी , महिष्य, तेली, मैयर और नाप्री शामिल थे। यह विवाह निम्न समझी जानेवाली जातियों में ही प्रचलित था, उसमें भी जो जातियाँ अपने को सामाजिक स्तरीकरण में ऊपर समझती थी विधवा विवाह से परहेज करती थी। जहाँ इसे मान्यता मिली भी थी वहाँ उपेक्षा की दृष्टि से देखा जाता था। रिजले ने अपने सर्वेक्षण में जो आँकड़े एकत्रित किए है उसमें नामशूद्रों में प्रचलित विधवा विवाह को ‘कृष्णपक्ष‘ ओैर सामान्य रीति से होने वाले विवाहों को ‘शुक्लपक्ष‘ के रुप में अंकित किया हे। कृष्ण एवं शुक्ल शब्द का सामाजिक प्रयोग दोनां प्रकार के विवाहों की श्रेष्ठता के अंतर को स्पष्ट करता है। विवाह का पारम्परिक रुप समाज का उजला पक्ष था जबकि विधवाविवाह को एक काला अध्याय समझा जाता था। उन्नीसवीं सदी के अंतिम वर्षो में अंत्यजों की कई जातियों में विधवा पुनर्विवाह एक अल्प प्रचलित प्रथा के रूप में ही विद्यमान था। इन जातियां का नजरिया भी बंगाल के उच्चजातियों की विधवाओं के प्रति नजरिये से किसी भी मायने में भिन्न नहीं था।30
यह देखना समीचीन होगा कि 19वीं शताब्दी में बंगाली भद्रलोक जिसमें अंग्रेजी शिक्षाप्राप्त एवं यंग बंगाल सोसायटी के सदस्य भी शामिल थे, ने एक नये माँडल के रूप में नारीत्व का सामाजिक मनोवैज्ञानिक, यहाँ तक कि राजनीतिक ढाँचा विकसित करने का प्रयत्न किया था तथा उनके अनुषंगी देशी प्रेसों यथा, हिन्दू पैट्रियाट, तत्वबोधिनी प्रत्रिका, सम्बन्ध पूर्णचन्द्रोदय, वामाबोधिनी आदि पत्रिकाओं ने विद्यासागर के जीवन काल में इस सुधार आन्दोलन को पूरा समर्थन प्रदान किया था; के बीच विधवा पुनर्विवाह को कितनी स्वीकृति प्राप्त थी? 19वीं शताब्दी के मध्य में जॉन मैकग्यूरे द्वारा किए गये अध्ययन से पता चलता है कि बंगाली भद्रलोक ऊपरी तीन जातियों तक ही सीमित न होकर सभी जाति एवं वर्ग की सीमाओं को लाँघकर 18 विभिन्न जातियों में फैल गया था। इनके बीच विधवा पुनर्विवाह एक सदाचार के रुप में व्यवहृत था जबकि इस पर प्रतिबंध कदाचार के रुप में लगाया गया था। नये सामाजिक व्यवस्थावाले समुदायों में विधवा पुनर्विवाह को सांकेतिक स्वीकार्यता ही प्राप्त हो सकी थी। सद्गोपों के एक निश्चित समूह वारुईस, गंधवनिक, जोगी, राजवंशी तथा नामशूद्रों के अल्पभाग ने ही विधवा विवाह को स्वीकृति प्रदान की थी। महिष्य जाति के पढ़े- लिखे व्यक्तियों ने विधवा पुनर्विवाह की वकालत तो की थी, लेकिन जब इसे व्यावहारिक रुप देने का समय आया तो ये वहीं लोग थे जिनका ब्रह्मचर्य के पालन के प्रति विश्वास चूक गया था। सिर्फ जोगी एवं सद्गोप जाति के ही कुछ ऐसे व्यक्ति थे जिन्होंने बंगाल के विभिन्न भागों में कुछ विधवाविवाह समारोहों का आयोजन किया था। 19वीं शताब्दी के उŸारार्द्ध में शिक्षित समाज में विधवा पुनर्विवाह पर जो प्रतिबंध था उसका और विस्तार ही हुआ, जिन शिक्षितों ने इस नवीनता को स्वीकर किया उन्होंने भी विधवाविवाह को बढ़ावा देने के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं किया। शताब्दी के उŸारार्द्ध तक बंगाल में विधवा पुनर्विवाह को लेकर एक विरोधाभासी स्थिति बनी रही तथा इसे सिर्फ एक लोकप्रिय संस्कृति के रुप में परिभाषित भर किया जाता रहा।
भद्रलोक की समस्या यह थी कि कैसे किसी हानिप्रद स्थिति का सामना किए बिना या जातिवहिष्कृत हुए बिना सहायताविहिन विधवाओं को दुर्गति से छुटकारा दिलाने के प्रयास को संतोषजनक स्थिति तक पहुँचाया जाए? प्रथम प्रस्तावित विधवा पुनर्विवाह की विधवा और भविष्य में होनेवाले उसके पति द्वारा इस बात की शिकायत की गई थी कि या तो उन्हें जातिवहिष्कृत कर दिया जाएगा या समाज में निचली स्थिति प्रदान कर अवहेलना की दृष्टि से देखा जाएगा। विवाह के पश्चात् न सिर्फ विवाहित जोड़ा बल्कि वे पर्यवेक्षक या विधवा पुनर्विवाह के आयोजन में शामिल होने वाले लोग भी व्यापक पैमाने पर बंगाली भद्रलोक द्वारा जातिवहिष्कृत किए गये। इस सामाजिक विद्रोह के प्रथम वीर दक्षिणारंजन मुखोपाध्याय, जिन्होंने दूहरा पाप किया था; एक तो उन्होंने अंतरजातीय विवाह किया था, दूसरे कि वह एक विधवा थी, को सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ा। उन्हें अपने समाज के प्रकोप का सामना करते हुए अपने समाज से ही नहीं, अपने सांस्कृतिक परिवेश का परित्याग कर सर्वथा भिन्न सांस्कृतिक वातावरणवाले अवध प्रदेश में शेष जीवन बिताना पड़ा था।31 जाति से बाहर किए जाने का भय ऐसा भय है जिसके चलते व्यक्ति सामाजिक प्रतिमानों के आगे आत्मसमर्पण कर देता है और आज भी अपने यहाँ यह हथियार आतंक पैदा करने का कार्य करता है।
हिन्दुओं में वैवाहिक सम्बन्ध शाश्वत रुप से मृत्युपर्यंत चलनेवाली अवधारणा थी जिसमें विधवा पुनर्विवाह की कोई गुजाईश नहीं थी। 19वीं शताब्दी के बंगाली समाज में कुछ ऐसे विधुर थे जो सिर्फ उतराधिकारी की खोज में बच्चे पैदा करने के लिए विधवा पुनर्विवाह को प्रश्रय दे रहे थे। यहाँ तक कि बीसवीं शताब्दी के बंगाली साहित्य में भी इस सड़ी हुई सामाजिक मानसिकता के व्यापक साक्ष्य मिलते है। परम्परा से हिन्दू समाज में शूद्रों एवं महिलाओं की गणना एक साथ की जाती रही थी जिसकी पहुँच वैदिक ऋचाओं तक नहीं थी। बाद में शूद्र जाति ने भी संस्कृतिकरण के माध्यम से उच्च जाति की संस्कृति, नियम एवं सामाजिक विधिनिषेधों को अपना लिया तथा समाज में उच्च दर्जे की मांग करने लगे थे। स्पष्टतः सामाजिक तौर पर उनकी महिलाओं का भी संस्कृतिकरण हुआ जिससे वे उच्चवर्गीय हिन्दू महिलाओं की भाँति आचरण करने लगी। उन्होंने भी पुरुष समाज के प्रति नैतिक प्रतिमानों को उच्च स्तर तक उठाया। उनके अनुसार ‘‘समर्पित पत्नियाँ सदैव अपने पति की सहगामिनी होती है चाहें वह जीवित हो या मर गया हो।‘‘ 1911 ई0 में महिष्य महिला पत्रिका में लिखा गया था कि अगर पति मर जाता है तो वह अपना जीवन आगे उसकी विधवा के रुप में व्यतीत करेगी, मृत्युपर्यंत वह सादगी, संयम एवं आत्मत्याग का अनुशरण करेगी तथा वह कभी भी अपने मुँह से किसी दूसरे पुरुष का नाम तक नहीं लेगी, क्योंकि वह ऐसा कर स्वर्ग में अपने पति तक पहुँच सकती है।“ समाज में विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबंध जिसे महिलाओं के शरीर और मस्तिष्क पर पूर्णतः नियंत्रण स्थापित करने की एक प्रक्रिया के रूप में देखा जाता था, पूरे बंगाल में 19वीं शताब्दी के अंत तक भी प्रचलित था। विधवाओं को हिन्दूधर्म के विधि-निषेध बिल्कुल स्वीकार्य थे। इसका परिणाम यह हुआ कि लोकप्रिय संस्कृति में जो सुधार की लम्बी खिंचने वाली प्रक्रिया थी, निरर्थक साबित हुई और विधवा पुनर्विवाह कानून ‘ऊपर से थोपा हुआ‘ मान लिया गया।
ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने धर्मग्रंथों के संग्रह से उन धार्मिक कथनों को तलाशने की भरपूर कोशिश की थी जो विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में कहे गये थे। लेकिन वे प्राच्यवादी परम्परा के अनुसार अपने तत्कालीन समाज को समझने में असमर्थ ही रहे। अपने तर्क को शास्त्रसम्मत् बनाने की धुन में उन्होंने पराशर संहिता का हवाला दिया। इसके तत्काल बाद इंटेलीजेंसर ने टिप्पणी की कि यदि विधवा पुनर्विवाह के समर्थन में लेखक द्वारा पराशर का मंतव्य उद्धृत किया गया है तो यह कभी स्वीकार्य नहीं होगा और आनेवाले लम्बे समय तक इस देश की जनता उसे नकारती रहेगी। समाचार सुधावर्षण ने लिखा कि ‘‘कलियुग की शुरुआत से आजतक विधवा पुनर्विवाह न कभी देखा गया है और न सूना गया है। जनता इस बात से इतिफाक रखती है कि विधवा पुनर्विवाह शास्त्रों के विपरीत है और सदाचार (अच्छे व्यवहार) पर ग्रहण लगाती है।‘‘
विधवा पुनर्विवाह किसी भी लिखित परम्परागत मौलिकग्रंथ में लोकप्रिय संस्कृति के रुप में स्वीकार्य नहीं था। यहाँ तक कि हिन्दुओं द्वारा मान्य सर्वाधिक महत्वपूर्ण विधिग्रंथ मनुस्मृति में इसका उल्लेख तक नहीं है। नैतिक संहिता के प्रत्यक्ष बोध के आधार पर भी इसे सामाजिक स्वीकृति प्राप्त नहीं थी। हिन्दुओं में प्रचलित रीति-रिवाज ही कानून है तथा इस विषय में समाज के बड़े-बुजूर्गों की ही अधिकारिता है। यह परम्परा विधवाओं को वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित करने से प्रतिबंधित करते है। वामाबोधिनी पत्रिका में स्वयं विद्यासागर ने सुधार प्रयत्नों की व्यर्थता पर संपादकीय टिप्पणी की थी कि ‘‘सामान्य जनता न तो कारण पर विचार करती है और न शास्त्रों को ही समझती है वह स्थापित परम्परा से ही परिचालित होती है। लोग विधवा पुनर्विवाह को एक पाप की तरह मानते है और धृणा की नजर से देखते है तथा इसे अपनी संस्कृति के लिए सर्वथा विदेशी समझते है। देशाचार या स्थानीय परम्परा का दास होने के नाते वे विधवा पुनविर्वाह का विरोध करते रहेंगे।‘‘32 आशावादी सोच के अनुसार विद्यासागर मानते थे कि समय-समय पर हमारी संस्कृति में परिवर्तन आते रहे है, यह अमानवीय प्रथा भी परिविŸार्त हो सकती है, जरुरत है केवल सामाजिक चेतना को सही तरीके से जागृत करने की। परन्तु वे स्वयं उस चेतना को जागृत करने में अक्षम सबित हुए। न तो वे स्वयं और न उनके किसी सहयोगी ने वैसी कोई क्रांतिकारी विचारधारा या कार्यक्रम प्रस्तुत करने में सफलता पाई, जो परम्परागत सामाजिक शक्ति संरचना के समक्ष चुनौती प्रस्तुत कर सके या उसकी सŸा को पलट दे।
वास्तविकता यह है कि यद्यपि 1856 ई0 में कानून पारित कर दिया गया किन्तु इसके परिणामस्वरुप बहुत कम ही पुनर्विवाह हुए। समाजसुधारकों ने खुद ही इसे मुर्दापत्र की संज्ञा दे डाली। विधवा पुनर्विवाह ब्यूरो नामक एक समिति ने इस पर अमल सुनिश्चित करने की भरपूर कोशिश की। सुधारकों ने खुद भी उपदेशां के विपरीत इस व्यवस्था में कई कठिनाईयाँ महसूस की। उस समय के एक युवा सुधारक की कहानी उन दिनां काफी प्रचलित थी कि उन्होंने अपने श्रोताओं के समक्ष घोषणा की थी कि वह केवल विधवा से ही विवाह करेगा, किसी अन्य से नहीं। पुनर्विवाह ब्यूरो ने उसे गले लगा लिया और अपनी पसंद की विधवा से विवाह करने की घोषणा को मूŸार् रूप देने को कहा, इससे पहले कि विवाह वास्तव में सम्पन्न होता उसने अपने साथियों को एक भोज दिया तथा आमंत्रित सदस्यों से पूछा कि क्या वह पुनर्विवाह के बाद उन्हें भोज में आमंत्रित करे तो कितने लोग आएगे? प्रत्युŸार में उसे एक भी प्रस्ताव नहीं मिला।33
1890 के दशक में यह तथ्य सामने आया कि विधवा पुनर्विवाह कानून बनने के 40 वर्षों में कुल 500 विधवा पुनर्विवाह हुए थे। हालांकि उस समय तक समाजसुधार संगठन कुकुरमुŸां की भाँति सारे भारत में फैल चुके थे, और प्रत्येक का प्रण था कि वे विधवा पुनर्विवाह के लिए अभियान चलाएगें। किन्तु अपनी तमाम कवायद के बावजूद वे इतना ही हासिल कर सके। इसके अलावा ऐसा लगता है कि ये पाँच सौ विधवाविवाह भी बाल विधवाओं या कुँवारी विधवाओं के थे। ऊँची जातियों की वे विधवाएँ जो कुँवारी नहीं थी, उन्होंने न तो पुनर्विवाह किया और नहीं उनका पुनर्विवाह हो सका।34 इतना ही नहीं इस एक्ट के प्रति सुधारवादियों के वैचारिक मतभेद के कारण भी उचित सहयोग हासिल नहीं हो सका। विद्यासागर से प्रभावित होने के बावजूद भी दयानन्द सरस्वती का दृढ़ मत था कि केवल शिशुविहीन विधवाओं को ही पुनर्विवाह की अनुमति दी जानी चाहिए। उनका तर्क था कि प्राचीन भारत में भी विधवाओं के लिए नियोग की प्रथा थी परन्तु यह विवाह विधवा के मृत पति के छोटे भाई के साथ ही किया जा सकता था। आर्यसमाजियों ने कठिन हो चले वैवाहिक रीति के विकल्प के रुप में समाचार पत्र में विज्ञापन पद्वति का विकास किया। 1882-83 में प्रमुख आर्यसमाजियों ने विधवा पुनर्विवाह की वकालत करते हुए दो नियमावलियाँ तैयार की। इन वर्षों में आर्य पत्र-पत्रिकाओं ने विधवा पुनर्विवाह के आँकड़े प्रकाशित करना शुरु कर दिए। अमृतसर आर्यसमाज इस कार्य में विशेष रुप से लगा हुआ था। उसने बड़ी लगन के साथ विधवा पुनर्विवाह सम्पन्न कराये। हालॉकि आर्यसमाज को केवल अक्षत यौवन विधवाओं के पुनर्विवाह में ही आंशिक सफलता मिली, बाल-बच्चेदार विधवाओं के पुनर्विवाह में नहीं।
इस कानून की कार्यशैली को लेकर हालिया अनुसंधानों से पता चलता है कि किस प्रकार इसने अनुसूचित जातियों और जनजातियों में जहाँ कि पहले ही विधवा पुनर्विवाह पर प्रतिबंध नहीं था विधवाविवाह को कितना कठिन बना दिया। हालॉकि कानून सभी हिन्दू विधवाओं को फिर से विवाह करने का अधिकार देता है। इसमें एक धारा विधवा के पुनर्विवाह के पश्चात् साम्पिŸाक अधिकार से सम्बन्धित थी, जोड़ी गई थी कि किस प्रकार की सम्पिŸा की वह हकदार होगी? लकी कैरोल ने ऐसे अनेक उदाहरणों का हवाला दिया है जिनमें विधवाओं के साम्पिŸाक अधिकार के प्रकार को लेकर भेद व्यक्त किया गया है और उन समुदायों में भी जिनमें परम्परागत कानूनों के अनुसार विधवाओं को पुनर्विवाह के पश्चात् सम्पिŸा अपने पास रखने की इजाजत थी, उनके रिश्तेदारों ने उन्हें जायदाद से बेदखल कर दिया। उदाहरण के तौर पर एक आदिवासी परिवार ने अपनी याचिका में दावा किया कि पुनर्विवाह के पश्चात् उनकी एक विधवा को अपनी जायदाद के अधिकार से हाथ धोना पड़ा। वह मुकदमा एक अल्प महत्व के सबूत के बिना पर जीत लिया गया कि आदिवासियों की कुछ शाखाओं में हिन्दू रीति- नीति लागू है; अदालत ने समूची जनजाति को इस कानून की परिधि में लाने का उसे पर्याप्त सबूत माना।35 इसप्रकार इस कानून ने हिन्दुओं को अपने रीति-रिवाजों के बल पर अन्य जातियों का हिन्दुकरण करने का एक स्वार्थी कारण थमा दिया।
महाराष्ट्र प्रांत में 1850 के दशक में समाजसुधार आन्दोलनों के खिलाफ रुढ़िवादी हिन्दुओं की प्रतिक्रिया में उल्लेखनीय तेजी आई। वह तेजी आंशिक तौर पर इन अभियानों की बढ़ती ताकत के स्वाभाविक विरोध के सिद्वान्त पर और आंशिक रूप से यह प्रतिक्रिया अंग्रेजों द्वारा दी जा रही इन आन्दोलनकारियों के समर्थन के कारण आई। क्योंकि रुढ़िवादियों का मानना था कि यूरोपीय लोग हिन्दुओं को अपमानित करने के लिए आन्दोलनकारियों को इंधन के रुप में इस्तेमाल कर रहे है। बम्बई प्रेसीडेंसी में जहाँ बम्बई, बालविवाह के विरुद्व आन्दोलन का मुख्य केन्द्र रहा वहीं, पूना इस आन्दोलन के प्रबल विरोध के रूप में उभरा। समाजसुधार के विरोध में 1860 में शुरु हुआ अभियान 1870 तक पूना में अपने चरम पर पहुँच गया तथा अनेक समाजसुधारकां ने अपनी बिरादरी के सामने हथियार डाल दिए। गोपालहरि देशमुख जैसे समाजसुधारक, जिन्हांने 1840 में कहा था कि ब्राह्यणों को अपनी मुर्खतापूर्ण नीतियों को त्यागकर यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि सभी लोग समान है तथा हर एक को ज्ञान प्राप्त करने का अधिकार है, ने भी 1871 में चितपावनों की सामाजिक वहिष्कार की धमकी के आगे नतमस्तक होकर स्वयं को समाज पर ब्राह्यणों के नियंत्रण के विरुद्व चलाये जा रहे अभियान से अलग कर लिया। पूना के सुधारक एम0 जी0 राणाडे ने अपनी पहली पत्नी की मृत्यु के पश्चात् किसी विधवा के साथ विवाह करने के बजाय प्रतिष्ठा का ख्याल करते हुए अपने घर एक बालवधू को लाना अधिक उचित समझा।1873 ई0 में उदारवादी राजनीतिक संगठन पूना र्सावजनिक सभा के गठन के साथ ही उसके सदस्यों ने तय किया कि वे धार्मिक मामलों में दखल नहीं देंगे। इसप्रकार, तत्कालीन राजनीति को समाजसुधार अभियान से अलग कर दिया गया।
1873 ई0 में अधिसंख्य मराठी समाजसुधारक वेद एवं शास्त्रों के लिए नवगठित समिति में शामिल हो गए। इस समिति ने आर्यभारत की सुधारवादी परिभाषाओं का प्रतिपादन किया था। दयानन्द 1875 ई0 में जब बम्बई प्रेसीडेंसी पधारे तो उनकी सभाओं में राणाडे से लेकर फुले तक सभी समाजसुधारकां ने बड़ी संख्या में भाग लिया। पंडिता रमाबाई ने पूना में आर्यमहिला सभा की स्थापना की तो पूना के अनेक समाजसुधारकों ने उनकी सहायता की। ठीक यहीं समय था जब आर्यभारत की सशक्त एवं वर्णवादी व्याख्या ने जोर पकड़ा। वी0 एस0 चिपलुणकर की 1874 में प्रकाशित ‘निबंधमाला श्रृंखला‘ विशेषरूप से प्रभावशाली रही जिसने न केवल ब्राह्यणों तथा मराठों वरन् विलुप्त होते सम्पूर्ण हिन्दू गौरव को जगाने के साथ-साथ सुधारकां एवं सुधारविरोधियों दोनों पर हमला बोला। 1880 के दशक की दो घटनाओं ने रुढ़िवादियों को स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए चलाए जा रहे अभियानों का विरोध करने के लिए पूरी ताकत के साथ उनके विरुद्ध खड़ा कर दिया। 1884 ई0 में दादाजी भीका जी ने अपनी पत्नी रुकमाबाई पर आरोप लगाते हुए कि बचपन में शादी करने के बाद शिक्षा ग्रहण कर वह अब उसके साथ रहने को तैयार नहीं है; जिला अदालत में मुकदमा दायर कर दिया। जहाँॅ फैसला उसके विरुद्व चला गया। इसके बाद उसने रुढ़िवादियों के दबाव में मुम्बई हाईकोर्ट में अपील की। रुढ़िवादियों ने जिला न्यायालय के निर्णय के विरुद्व उग्र अभियान चलते हुए कहा कि विदेशी शासकों को हिन्दुओं के रीति- रिवाजों में हस्तक्षेप करने को कोई अधिकार नहीं है। तिलक के लिखा कि “स्त्री शिक्षा आन्दोलन के बहाने रुकमाबाई की आड़ में हमारे पुरातन धर्म पर आक्रमण करने का प्रयास किया जा रहा है। ऐसा प्रतीत होता है कि अंग्रेजों की नीयत हमारे अनन्त धर्म को बाँझ बनाने की है।’
मुम्बई हाईकोर्ट ने दादाजी के पक्ष में निर्णय सुनाया जिससे समाजसुधारकों में खासी नाराजगी दिखाई पड़ी और उन्होंने इसे सरकार की रुढ़िवादियों की तुष्टिकरण की नीति की संज्ञा दी। उन्होंने कहा कि इस फैसले ने अंग्रेजों के प्रतिक्रियावादी रवैये को बेनकाब कर दिया है। रुकमाबाई ने स्वयं भी इस निर्णय को मानने से इंकार कर दिया, जिसके दण्डस्वरूप उन्हें जुर्माना तथा जिलाबदर की सजा दी गई। दूसरा, शारदा सदन का उपयोग पंडिता रमाबाई द्वारा हिन्दू महिलाओं को ईसाई धर्म ग्रहण करने के लिए उत्प्रेरित करने को लेकर पुरातनपंथियों के इस दावे को बल मिला कि सुधारकों पर अंग्रेजियत सवार है। दिसम्बर 1889 ई0 को ‘इलेस्ट्रेटेड क्रिश्चियन वीकली‘ में सदन में रहने वाली दो विधवाओं के धर्मान्तरण की खबर ने रमाबाई के आलोचकों को खुलकर बोलने का मौका दिया। अगस्त 1893 ई0 तक राणाडे, भंडारकर आदि ने सलाहकार समिति से सामुहिक इस्तिफा दे दिया। इसका कारण शारदा नामक लड़की का ईसाई धर्म के प्रति रुझान बताया गया। नतीजा यह हुआ कि स्कूल से एक-एक करके 25 लड़कियाँॅ हटा ली गई।
बालविवाह पर प्रतिबंध लगाने के लिए 1872 ई0 में ब्रह्मविवाह कानून पारित किया गया जिसमें ब्रह्मविवाहों को वैध ठहराया गया था। शŸार् केवल यह थी कि विवाह करने वाले अपने आपको गैर हिन्दू घोषित करें। आगे चलकर केशवचन्द्र सेन, जिनके प्रयासों से यह कानून पारित हुआ था पीछे हट गए तथा दैवविमुख विवाहों की निन्दा करने लगे। इस कानून के तहत विवाह की उम्र 10 वर्ष से बढ़ाकर 12 वर्ष कर दी गई थी; जो सिर्फ ब्रह्मसमाजियों पर ही लागू हो सकता था। मालावारी के नोट्स जो बालविवाह और बलात् वैधव्य पर लिखे गये थे, ने सामाजिक तापमान को सहसा बढ़ा दिया। इसके बाद बंगाल ओैर महाराष्ट्र में सहवास की आयु बढ़ाने पर एक लम्बी श्रृंखला के रूप में वाद-विवाद चला।
इस पूरे प्रकरण में विवाह का आधार एक विषयवस्तु बन गया था। रूकमाबाई और फूलमनी की घटनायें बी0 एम0 मालावारी की उम्र बढ़ाने के अभियान को विशेष बल प्रदान करती थी तथा यह भी साबित करती थी कि सहवास की उम्र 10 वर्ष से बढाकर 12 वर्ष किए जाने की मांग कितनी सार्थक है। फूलमनी की घटना के बाद पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवादी सकते में आ गये। उनकी चुप्पी तब टूटी जब ऐज ऑफ कंसेंट बिल विधायिका सभा में प्रस्तुत हुआ, इस बीच केवल सुधारवादियों की गूँज ही सुनाई दे रही थी। बिल का महाराष्ट्र और बंगाल में भारी विरोध हुआ। इस मुद्दे पर स्पष्ट रूप से राष्ट्रवादी एवं सुधारविरोधी भावनाएँं राष्ट्रवादी तर्कों के साथ मिल गई थी जिसे सबसे बढ़कर तिलक ने प्रस्तुत किया था। उनके अनुसार विदेशी शासकों को धार्मिक एवं सामाजिक रीति- रिवाजों में हस्तक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है। इस सम्बन्ध में थोड़ी खिन्नता के साथ विवेकानन्द ने टिप्पणी की थी कि ‘गोया की धर्म बारह-तेरह वर्ष की लड़की को माँॅ बना देने में ही निहित हैं।‘36
केतकर ने बालविवाह का पक्षपोषण करते हुए कहा कि इस प्रकार से यौन चेतना का विकास हेने से पूर्व ही लड़की को यह जानने में मदद मिलती हे कि उसे किसे प्यार करना है। डॉ0 एम0 एल0 सरकार में बालविवाह का विरोध करने का उत्साह कूट- कूटकर भरा था ओैर चिकित्साविज्ञान आधारित इस औेचित्य से भी सुपरिचित थे कि कच्ची उम्र में सहवास करना या गर्भधारण करना हानिकारक सिद्व हो सकता है, फिर भी कानून बनाकर बालविवाह रोकने की बात का समर्थन करने में सदा घबराते रहे। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने बालविवाह विरेधी बिल का एक सीमा तक सर्मथन किया था; फिर डब्ल्यू0 सी0 बनर्जी ने पूरी तरह से बिल पर अपनी असहमति प्रकट की। मनमोहन घोष ने अप्रासांगिक किन्तु रोचक बात छेड़कर प्रस्तुत विषय से ध्यान हटाने के लिए इधर-उधर की हाँकते हुए एक साँॅस में तो बिल की निंदा की औेर दूसरे ही सॉँस में बिल को पारित करने के पक्ष में हो गए, जबकि एस0 एन0 बनर्जी पक्ष-विपक्ष की दुविधा में फँॅसकर रह गये थे।37
रामकृष्ण भंडारकार ने पूरे लिखित प्रमाणों के साथ एक पुस्तिका निकाली। इसमें उन्होंने संस्कृत वचनों का हवाला देकर यह प्रमाणित करने की कोशिश की कि लड़की की शादी वयस्क होने पर ही की जानी चाहिए। पुनरूत्थानवादी कर्कश आवाज के तले भंडारकर जैसे उदारवादियों की आवाज कहीं दब सी गई। भारतीय संस्कृत को ग्रंथबद्व करने की प्राच्यवादी संज्ञान परम्परा के अनुरुप उन्होंने धर्मशास्त्रों का गहन अनुसंधान करके दिखाया कि रजस्वला की अवस्था के बाद विवाहों की अनुमति थी औेर ये विवाह हिन्दू धार्मिक विधानों के खिलाफ नहीं थे। ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि अपने निजी जीवन में तिलक जैसे व्यक्ति शायद ही कभी कट्टरपंथी रहे हो, यदि ऐसा होता तो उनकी सबसे छोटी बेटी तेरह वर्ष तक कुँवारी नहीं रहती।38
यह नई ऐतिहासिक लेखन की चूक ही कही जाएगी कि ब्रिटिश लेखकां के भारतीय इतिहासलेखन पर प्रश्नचिह्न खड़े नहीं किए जाते। विदेशी लेखकां ने पुनरूत्थानवादियों के बारे में लिखते हुए उन्हें सदैव संदेह की दृष्टि से देखा है यथा पंडिता रमाबाई के बारे में वे लिखते है कि पंडितो ने रमाबाई को ‘सरस्वती‘ कहा लेकिन जैसे ही वह ब्राह्यणवादी पितृसŸा के खिलाफ बोलने लगी ओैर ईसाई धर्म को अपनाया वैसे ही सरस्वती गायब हो गई अब वह विद्रोहिणी बन गई थी जो हिन्दू धर्म के खोखलेपन के खिलाफ खड़ी थी।M लेकिन कट्टरपंथियों का विरोध कभी एक-सा नहीं रहा। जहाँॅ राष्ट्रवाद की बाते उनकी जेहन में आई, उन्होंने उन महिलाओं का समर्थन ही किया। रमाबाई को आर्यमहिला समिति के गठन में पुनरुत्थानवादियों ने काफी सहयोग किया था। आनन्दीबाई जोशी जब पति के साथ डॉक्टर ऑफ मेडीसीन की उपाधि लेकर स्वदेश लौटी तो हिन्दू रीति- रिवाजों के मुताबिक उनके साथ अछूतों सा व्यवहार किया जाना चाहिए था औेर उनकी छाया से भी दूर भागना चाहिए था। इसके बावजूद यह पता चलने पर कि वह विलक्षण हिन्दू युवती अपने घर आ चूकी है तो युवा, वृद्व, परम्परावादी, उदारवादी, कट्टरपंथी सभी ने उनसे सद्भावनापूर्वक भेंट की और उनका भव्य स्वागत किया। सुधारक भी आश्चर्यचकित थे क्योंकि विदेश जाकर भारत आए व्यक्तियों के साथ ज्यादातर रुढ़िवादी परिवार ऐसा व्यवहार नहीं करता था। समाचारपत्रों ने भी आनन्दीबाई के स्वास्थ्य की जानकारी रोज प्रकाशित की और जब उनकी मृत्यु हो गई तो स्थानीय भाषा में पूना के कई जर्नलों ने शोक प्रकट किया तथा उनके चरित्र व कार्यों की दिल खोलकर प्रशंसा की। केसरी ने लिखा कि ब्राह्यण स्त्री ने विश्व को बता दिया है कि तथाकथित रुप से कमजोर कहे जानेवाले लिंग में भी श्रेष्ठ गुण, दृढ़ता, निःस्वार्थता, निर्भिक साहस औेर अपने देश की सेवा करने की उत्कट अभिलाषा होती है।39 ध्यानचक्षु ने लिखा कि इस देश की स्त्रियों की आशाओं पर तुषारापात हो गया है, जो उस दिन का इंतजार कर रही थी, जब वे आनन्दीबाई के अद्भूत योग्यता और ज्ञान से लाभान्वित होगी। यह आशंका व्यक्त की जा रही थी कि पंडित हिन्दू क्रियाविधि के अनुसार उनके शरीर को पवित्र अग्नि को सांपने को लेकर कुछ कठिनाई खड़ी करेंगे, लेकिन यह आशंका निराधार साबित हुई। उनकी मृत्यु को टालने के लिए धार्मिक अनुष्ठान किए गये तो पंडितों ने इस कार्य के लिए अपने आपको सहर्ष प्रस्तुत किया। जब उनका शरीर चिता पर रख दिया गया तब बी0 एम0 राणाडे, जो एक बहुत बड़े कट्टरवादी माने जाते थे, आनन्दीबाई के सम्मान में भाषण दिया और बिना किसी बाधा के अंत्येष्टि क्रिया सम्पन्न हुई।
एज ऑफ कंसेंट बिल कलकŸा लेजिस्लेटिव कांसिल में प्रस्तुत होने के बाद सरकार इन बात से सहमत थी कि सहवास की उम्र बढ़ाई जाएगी। सरकारी महकमों में यह हवा गर्म थी कि इसे व्यापक पैमाने पर लिए जाने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि अभी हिन्दू विधि संहिता को विस्तार से पढ़ने की जरुरत है। फूलमनी की घटना एकमात्र घटना नहीं है। डॉ0 शेवर ने 1856 में अपने निरीक्षण के पश्चात् बताया था कि कम से कम 14 ऐसी घटनाएँ प्रकाश में आई है, जिसमें रजोनिवृŸा से पूर्व ही लड़कियों के साथ शारीरिक सम्बन्ध बना लिया गया था। मैकलियोड द्वारा प्रस्तुत आँॅकड़े भी इस तथ्य की पुष्टि करते है। फूलमनी के केस में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत एक भारतीय डाँक्टर की रिपोर्ट में कहा गया था कि 13 प्रतिशत प्रजनन की घटनाएँॅ ऐसी होती है जिसमें माँॅ की उम्र 12 या 13 वर्ष होती है। यह आश्चर्यजनक घटना थी कि जब सुधारविरोधी पक्ष के वकील ने न्यायालय में चुनौती देते हुए कहा कि बालविवाह की प्रथा हिन्दू समाज में गहराई तक घंसी हुई है। कितने लोग इस न्यायालय में उपस्थित है, जो इसे गलत मानते है ओैर इसे खत्म कर देना चाहते है; प्रत्युŸार में एक भी आवाज नहीं आई।
बंगाल सचिवालय द्वारा मांगी गई रिपोर्ट में नदिया, नोआखाली, चिटगॉग एवं वर्द्धमान के डिप्टी कमिश्नरों ने लिखा था कि आदिवासियों को छोड़कर प्रायः सभी जातियों में बालविवाह का प्रचलन था। राजशाही डिवीजन के कमिश्नर ने इस बात की तस्दीक की थी कि केवल मिल्चा मुस्लिम तथा राजवंशी जाति में ही बालविवाह नहीं होता है, क्योंकि इन जातियों में महिलाओं को बाहरी कार्यों के लिए बेहतर माना जाता है, इसलिए इनमें अधिक उम्र में विवाह किए जाने की प्रथा है। उच्चवर्ग में भी अब विवाह की आयु बढ़कर 12 से 13 वर्ष हो गई है इसके पीछे उदार शिक्षा का बहुत बड़ा हाथ है। वह थोड़ा व्यंग्यात्मक लहजे में कहता है कि अभिभावकों पर दहेज का दबाव भी कार्य कर रहा था; वे अपनी लड़कियों की शादी तब तक नहीं कर सकते थे जब तक कि दहेज के लिए उनके पास पैसे इकट्ठे नहीं हो जाते।
नये ऐतिहासिक अनुसंधान से पता चलता है कि धर्मशास्त्र एवं हिन्दू संस्कृति दोनों इस बात के पक्ष में है कि यद्यपि विवाह कम उम्र में ही होनी चाहिए फिर भी परिस्थिति विशेष में उम्र बढ़ाई जा सकती है। सुधारवादी चिकित्सकों का दल जिसमें यूरोपीय एवं भारतीय चिकित्सक भी शामिल थे; चाहता था कि हिन्दू विवाह रीति में आवश्य परिवर्तन होना चाहिए। उन्हेंने प्रशासकों को सलाह दी कि एक कानून बनाकर दूसरे विवाह सम्पन्न होने से पूर्व पति-पत्नी द्वारा शारीरिक सम्बन्ध बनाये जाने पर रोक लगाई जानी चाहिए। उन्होंने यह भी आशा व्यक्त की कि हिन्दू परम्परा एवं विधिशास्त्रों द्वारा बालविवाह के पीछे जो निषेधाज्ञाएँ कार्यरत है, उसके लिए ये आधार काफी मजबूत है। अधिकांश सुधारवादियों की राय थी कि सहवास की उम्र 12 वर्ष से अधिक तय की जानी चाहिए क्यांकि वयस्कता एक लम्बी प्रक्रिया है और मासिक धर्म का आना इसके आगमन का परिचायक है न कि इसके चरमोत्कर्ष का। रजोनिवृŸा की शुरुआत यह सिद्व नहीं करता कि बालिका यौनक्रिया के लिए परिपक्व हो गई है या उसके अंग इतने विकसित हो चूके है कि वह बिना किसी छटपटाहट या क्षति के यौनक्रिया में संलिप्त हो सके। कभी- कभी ऐसा देखा जाता है कि लड़कियों में ऋतुश्राव की घटनायें 10 या 11 वर्ष की आयु में ही दृष्टिगोचर होने लगती है, इसे आस्कमिक घटना माना जाना चाहिए, न कि प्राकृतिक लक्षण। अतः जब तक महिलाओं के प्रजनन अंग इतने विकसित न हो जाए या वह यह प्राकृतिक क्षमता हासिल न कर ले तब तक सहवास का विचार अर्थहीन है।
पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवादियों के लिए सहवास की उम्र बढ़ानेवाला प्रश्न जीवन-मरण का प्रश्न बन चूका था। वे नहीं चाहते थे कि हिन्दू धर्म में विहित 10 वर्ष की उम्र में कोई हस्तक्षेप किया जाय। यदि इस पर कानून बनाया ही जाना है तो वह सीमा 10 और 12 वर्ष के बीच होनी चाहिए। उनका मानना था कि ब्रिटिश शासन द्वारा पहले जो भी कानून बना था वह हिन्दुओं के गर्भाधान संस्कार में हस्तक्षेप नहीं करता था। बंगाल की जलवायु गर्म होने के कारण लड़कियों में मासिक श्राव की शुरुआत 10 से 12 वर्ष की उम्र में ही हो जाती है। इसलिए सहवास की उम्र बढ़ाये जाने से यह अर्थ निकलेगा कि यह प्रथम वास्तविक कानून होगा जो हिन्दुओं के गर्भाधान संस्कार का उल्लंघन करेगा। इसे हिन्दू मामले में औपनिवेशिक नीति का घुसपैठ माना जाएगा। अतः यह कानून अधिक दिनों तक अस्तित्व में बना नहीं रह सकता। सामान्य तौर पर एज ऑफ कंसेट बिल में कई प्रकार की भ्रांतियाँ थी। इसके उल्लघंन की रपट और जाँच वŸार्मान परिस्थितियों में संभव नहीं था। माता- पिता द्वारा पति पर मुकदमा दायर करने पर उसके खिलाफ इस कानून की धाराओं के अनुसार कार्यवाई करना संभव नहीं था, क्योंकि पति को पुरूष समाज का सहज ही संरक्षण प्राप्त हो जाता था। लड़की की उम्र तय करना एक कठिन समस्या थी, न केवल उन दिनों बल्कि आज भी समस्त इलाकों में शुद्वता के साथ यह परीक्षण असंभव ही नही,ं नामुमकिन भी है। बच्चों के जन्म का पंजीकरण नहीं होने से उनके जन्म की तारीख में घालमेल की संभावना बनी रहती थी। प्रायः डॉक्टरी जाँच अनिर्णित रह जाते थे ऐसी परिस्थिति में मामला ज्यूरी के न्यायालय में पहुँच जाता था और न्यायालय कट्टरपंथियों के ककर्श आवाज एवं दबाव से भयभीत होकर धर्म और परम्परा को संरक्षण प्रदान करने में लग जाता था। 1891 ई0 में एक पीड़ित माँ ने पति के खिलाफ कानूनी कार्यवाई करने के लिए मुकदमा दायर किया। साक्ष्य के तौर पर लड़की को न्यायालय में उपस्थित किया गया। दॉँतो के परीक्षण के पश्चात् अंग्रेज मजिस्ट्रेट ने यह निश्चित किया कि बालिका की उम्र 12 वर्ष से अधिक नहीं हो सकती, जबकि उसका पति लगातार उसके साथ संभोग करता रहा था।40
राष्ट्रवादी प्रेस बालविवाह एवं उम्र बढ़ाने सम्बन्धी प्रश्न को केन्द्रीय विषय के रूप में न लेकर एक पुरक प्रश्न के रूप में उठा रहे थे। जबकि राष्ट्रवादी-पुनरुत्थानवादी रुझान रखनेवाली अमृतबाजार पत्रिका, दैनिक ओ‘ समाचार चन्द्रिका एवं बंगवासी आदि पत्रिकाओं ने बिल के विरोध में एक अभियान चला रखा था।ं 1870 के दशक से ही इन समाचारपत्रों ने महिलाओं से सम्बधित सभी मुद्दों पर हमला करना शुरु कर दिया था। उनके अनुसार अंग्रेजी सरकार सदैव हमारे लिए विदेशी ही रही है; उन्हें हिन्दू संस्कार, परम्परा ओैर रीति-रिवाजों की कोई जानकारी नहीं है। राष्ट्रवादी-पुनरुत्थानवादी समाचारपत्रों के अनुसार प्रस्तावित एज ऑफ कंसेंट बिल हिन्दू धर्म के मौलिक तत्वों का माखौल उड़ाता हे जबकि इससे पूर्व के सभी किए गये सुधार हिन्दुओं के धार्मिक मामलों में दखलमात्र था। सती कभी भी आवश्यक धार्मिक व्यवस्था नहीं थी जिसे सभी महिलाओं पर समान रूप से हिन्दुओं द्वारा लागू किया गया हो, उसका उन्मूलन हिन्दू संस्कृति पर खरोंच के समान था। जहाँ तक विधवा पुनर्विवाह का मामला था इसका क्षे़त्र विस्तृत न होकर काफी सीमित था वह केवल द्वितीय विवाह से उत्पन्न बच्चे को वैधता प्रदान कर तथा उसे वास्तविक उŸाराधिकारी बनाकर पिता की सम्पति में हिस्सा दिलवा देगा, लेकिन यह बिल सम्पूर्ण सामाजिक एवं सांस्कृतिक परम्परा को तोड़कर रख देगा। बंगवासी ने लैंसडाउन के इस कदम की तुलना पलासी, असाई और मुल्तान के युद्वों की भयंकरता से करते हुए हिन्दुओं द्वारा इसके विरोध में विध्वंसात्मक कदम उठाये जाने की संभावना व्यक्त की थी। यह सिर्फ समाचारपत्रों के ही स्वर नहीं थे, बल्कि आदर्श सुधारवादी छविवाले विद्यासागर जैसे व्यक्ति भी एज ऑफ कंसेंट बिल का विरोध कर रहे थे।
इस प्रकार यह बिल एक महिला के शरीर पर पूरी शक्ति के साथ अधिकार जमाने के लिए संघर्ष की भूमि में परिविŸार्त हो गया था जहाँॅ प्रथम बार विदेशी ज्ञान एवं शक्ति की मोलिकता के नाम पर हिन्दू पुनरुत्थानवादी राष्ट्रवादियों ने युद्व की घोषणा कर दी थी। भीरू और भयभीत सरकार ने उग्र प्रदर्शन से घबराकर इस कानून के पारित होने के पाँॅच दिनो के अंदर ही इसे मृतप्राय बना डाला। लार्ड लैंसडाउन ने जिला मजिस्ट्रेटों के नाम एक सर्कुलर निकालकर यह आदेश प्रसारित किया कि होनेवाली घटना की जाँॅच एक देशी मजिस्ट्रेट से करवाई जाय और किसी प्रकार की दुविधा या संदेह की स्थिति में सुनवाई तुरंत बंद कर दी जाय।41
पुरातनपंथियों ने विवाह की उम्र बढ़ाने की मॉँग करनेवाले सुधारकों को हिन्दूविरोधी बताते हुए उपनिवेशवादियों का भोंपू बताया था। सच कहा जाए तो यह रुढ़िवादियों, सम्प्रदायवादियों, राष्ट्रवादियों एवं कट्टरपंथियों के प्रति बढ़ते रुझान का दौर था। सार्वजनिक तथा निजी जिन्दगियों में ब्रिटिश मूल के वर्चस्व से व्यापक असंतोष उभरा तथा कानून, पूँजीनिवेश एवं नौकरियों में गोरों को दी जानेवाली प्राथमिकता के विरुद्व आन्दोलन शुरु हुए। स्त्रियों से सम्बन्धित कानून पारित किए जाने के कारण हिन्दू समाज में यह सोच पैदा हुई कि उन्हें अलग-थलग करने की नीयत से उन पर अनेक प्रकार से आक्रमण किए जा रहे है। उल्लेखनीय है कि इनमें से अधिसंख्य कानून हिन्दू स्त्रियों की दशा सुधारने के लिए पारित किए गये थे।
यदि एज ऑफ कंसेंट बिल का विरोध हिन्दू धर्म की रक्षा के नाम पर आन्दोलन का रूप धारण कर लिया तो स्त्रियों की शिक्षा का आन्दोलन महिलाओं की स्थिति में सुधार के लिए चलाया गया था। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक बंगाल में स्त्रियों की शिक्षा का मुद्दा उदार हिन्दुओं, ब्राह्मणों और प्रगतिशील छात्रों के लिए आन्देलन का विषय बन गया था। मिशनरी स्कूलों द्वारा ईसाईयत फैलाने के खतरे से डरकर बंगाल में हिन्दू एवं ब्राह्यण पाठशालायें खोली गई। 19वीं शताब्दी के शुरुआत में जहाँॅ मिशनरी स्कूलों में अधिकांश लड़कियाँ गरीब परिवार की थी वहीं इन नये स्कूलों में ऊँची जातियों की लड़कियॉँ पढ़ने गई।42 बंगाल में उस समय जनाना या अंदरमहल के नाम से जाने जानेवाले स्थानों पर भी स्त्रियों के प्रौढ़ शिक्षा के लिए इन आन्दोलनकारियों ने धावा बोला। गृहशिक्षा आन्दोलन के नाम से मशहुर इस आन्दोलन की शुरुआत अंग्रेज, स्कॉटलैण्ड और अमेरिकी मिशनरियों द्वारा की गई जिसमें कुछ समय पश्चात् ही सवर्णां ने भी हिस्सा लिया। थोडे़ ही दिनों में सवर्णो ने अपने पाठ्यक्रमों को बंगाली आवश्यकताओं के अनुरूप ढ़ाल लिया।43
स्त्रियों की शिक्षा के आन्दोलन का उल्लेख आमतौर पर उभरते मध्यवर्ग द्वारा अपनी स्त्रियों को पाश्चात्य तौर-तरीकों में ढालने की आवश्यकता के रूप में किया जाता है। ब्रिटिश शिक्षा के प्रसार और पुरूषों को नये रोजगार के अवसरों के मद्देनजर सार्वजनिक एवं निजी का विचार पैदा हुआ और दोनां में समन्वय स्थापित करने के बजाय घर और संसार के बीच विरोध के स्वर उभरे। घर एक पुण्य स्थान होने के बजाय परम्पराओं का मुर्दा बोझ ढोता नजर आया जिसे फूहड़ एवं आदिम कहकर धिक्कारा गया। अतः इसे सुधार कर बाहरी दुनिया के साथ सौहार्द्र स्थापित करने की आवश्यकता दिखाई पड़ी। सुमन्त बनर्जी ने अंदरमहल की परम्पराओं का उल्लेख करते हुए लिखा है कि किस प्रकार महिलायें नुक्ताचीनी का विषय बनी खासकर घरों के अंदर गाये-बजाये जानेवाले लोकप्रिय सांस्कृतिक मनोरंजक गीतों और वाद्यों यथा, कीŸार्न, पांचातियों तथा कथाकाथस का मजाक उड़ाया गया। उपनिवेशवादी प्रभाव में भद्रलोक ने इन गतिविधियों को निकृष्ट एवं अश्लील कृत्यों के रूप में देखना शुरू किया। 18वीं सदी के उŸारार्द्व और 19वीं सदी के प्रारम्भिक वर्षो में मिशनरी तथा शास्त्रीय दोनों प्रकार के साहित्य में इन कृत्यों की बड़ी भयावह तस्वीर प्रस्तुत की गई। यद्यपि इसे उच्चवर्ग के लोगों ने भी धार्मिक कृत्य और मनोरंजन मानकर इसका आनन्द लिया। फूहड़ किस्म के बंगाली गीतों को अंग्रेजां ने पसंद नहीं किया क्योंकि उन्होंने अपनी संस्कृति में भी गाये जानेवाले परम्परागत गीतों एवं वाद्यों को फूहड़ कहकर निन्दा की थी। इसी बीच इस प्रकार के मनोरंजक कार्यक्रमों से आनन्दित होने के स्त्रियों के रवैये को दुश्चरित्रता के प्रति लगाव मानते हुए उनकी स्वाभाविक अवधारणा की संज्ञा दी गई।44 स्त्रियों की शिक्षा का उद्देश्य यह था कि ऊँची जाति की महिलाओं को असभ्य स्त्री समुदाय से किसी भी प्रकार का सम्पर्क स्थापित करने से रोका जाए और दूसरा यह कि उनके अंतर्निहित अशिष्टता की बुराई का उपचार किया जा सके। स्पष्ट तौर पर स्त्री शिक्षा आन्दोलन का असर यह हुआ कि स्त्रियों के मनोरंजन के लोकप्रिय तरीकों को हाशिए पर लाया गया तथा उनके पात्रों को रोजगार के दूसरे क्षेत्रों में धकेल दिया गया। साथ ही स्त्रियों के आत्माभिव्यक्ति के परम्परागत तरीके पृष्ठभूमि में चले गये।
उन्नीसवीं सदी के मध्य में बम्बई प्रेसीडेंसी में कई सुधारआन्देलन उभरे जिनकी शुरुआत दकियानुसी पुजारियों और जातिवादी संस्थानों पर हमले से हुई। बंगाल में शुरुआती हमले रुढ़िवादी हिन्दू रीति-रिवाजां पर शास्त्रार्थ के रूप में हुए तथा इसके पश्चात् सुधार आधारित संगठनों, स्कूलों एवं गृहों जैसे संस्थानों की स्थापना की गई। जबकि मुम्बई में जाति वर्चस्व एवं जाति आधारित शक्तिश्रोतों पर किए गए हमले बंगाल की तरह किसी धार्मिक संस्था की स्थापना में तब्दील नहीं हो पाए और न ही इन हमलों से किसी बड़े समाजसुधार आन्दोलन की शुरुआत हो सकी। 1848 ई0 में गोपालहरि देशमुख ने हिन्दू पुजारियों के कारगुजारियां की पोल खोलने के लिए अनेक पर्चे प्रकाशित करते हुए उन पर हमला बोला, जबकि दलित ज्योतिराव फुले ने पूना में लड़कियों के लिए अपना पहला स्कूल खोला। 1852 ई0 तक फुले कन्याओं के लिए तीन पाठशालाएँॅ खोले चुके थे। 1849 ई0 में एल्फिंस्टन कॉलेज मुम्बई के प्रोफेसरों ने नारीवादी रूझान प्रदर्शित करते हुए एक कन्या पाठशाला की शुरूआत की तथा स्त्रियों के लिए एक मासिक पत्रिका निकाली।
इन गतिविधियों के विरोध में रुढ़िवादी हिन्दुओं की प्रतिक्रिया बड़ी तेजी से हुई। इनके विरोध का स्वर बंगाल की अपेक्षा बम्बई प्रेसीडेंसी, खासतौर से पूना में बहुत प्रबल था। इसका एक प्रमुख कारण यह था कि बंगाल की बनिस्पत बम्बई प्रेसीडेंसी के ब्राह्यण ज्यादा शक्तिशाली थे तथा पूना ब्राह्मण संस्कृति का प्रमुख केन्द्र था। कुछ विशेष अवसरों पर इन समाजसुधारकों की पिटाई भी हुई । पूना में रहने वाले फुले को जातिवादी हिन्दुओं के हाथों असह्य यातना झेलनी पड़ी क्योंकि वे अछूतों एवं लड़कियों के स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास कर रहे थे। पुरातनपंथी ब्राह्मणों के दबाव में आकर फुले के पिता ने उन्हें अपने घर से निकाल दिया और वह अपने ही समुदाय के अनेक लोगों द्वारा वहिस्कृत कर दिए गये।45
1860 के दशक में समाजसुधार आन्दोलन के दौरान व्यापक तौर पर यह प्रश्न उभरकर सामने आया कि स्त्रियों को शिक्षित क्यों किया जाना चाहिए और उनकी शिक्षा में क्या- क्या विषय होने चाहिए ? मुम्बई के एक पारसी फ्रॉमजी बोमनजी ने घोषणा की कि हम अपनी पत्नियों तथा पुत्रियों के लिए अंग्रेजी भाषा, अंग्रेजी रीति-रिवाज और अंग्रेजी आचरण चाहते है औेर जब तक यह सब हमें नहीं मिलेगा तब तक अंग्रेज और भारतीयों के बीच यह खाई बरकरार रहेगी।46 इसप्रकार कुछ लोग अंग्रेजियत की इस बीमारी के शिकार हो गए। के0 सी0 सेन ने ईसाइंर्यत से मुठभेड़ को भारतीय इतिहास का सर्वोतम क्षण माना है। उनकी कन्या पाठशालाओं में बंगाली साहित्य एवं ब्रह्य धर्मशिक्षा पाठ्यक्रम में अनिवार्य रूप से शामिल किए गये थे। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने कभी भी धार्मिक शिक्षा नहीं दी किन्तु उन्होंने अपनी कन्या पाठशालाओं में संस्कृत तथा बंगाली पढा़या। सैयद अहमद खान का कहना था कि मुस्लिम औरतों को तालिम जरुर हासिल करनी चाहिए, मगर घर में। उन्होंने मुसलमान लड़कियों को अंग्रेजियत के खिलाफ आगाह किया।47 यह वहीं समय था जब दयानन्द सरस्वती द्वारा समाजसुधार का नया सिद्वान्त प्रतिपादित किया गया। यह वैसा ही सिद्वान्त था जैसा कि पहले सामान्य ज्ञान हासिल करने के लिए कलकŸा में 1838 ई0 में स्थापित स्टुडेन्ट्स सोसायटी के सदस्यों का था। इस समिति के विद्यासागर भी एक सदस्य थे, ने कहा कि हिन्दुत्व और इस्लाम दोनों ही भारत में स्त्रियों की अवनति के लिए जिम्मेदार है तथा इन्हें निरक्षरता एवं अज्ञानता के इस कुण्ड से निकालने के लिए धर्मनिरपेक्षता के सिद्वान्त पर शिक्षित करने की जरुरत है। अतः उन्होंने प्राचीन भारत में स्वर्णिम युग (वैदिककाल) के सिद्वान्तों का प्रतिपादन किया जिसमें विदुषी महिलाओं को विशेष स्थान प्राप्त था।48
ऐसा लगता है कि दयानन्द सरस्वती कलकŸा पहुँॅचे तो उन्होंने स्त्रियों की दशा के बारे में भी सोंचना शुरु किया। अपनी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश में, जैसा कि तत्वबोधिनी सभा का भी मत है कि वैदिक भारत में शिक्षित पुरुष-स्त्री एक समान है। लड़कियाँ जनेऊॅँ पहनने के लिए अधिकृत है तथा उनका भी यज्ञोपवीत संस्कार किया जा सकता है। बालक एवं बालिकाएँॅ दोनां पॉँच वर्ष की आयु से संस्कृत, हिन्दी तथा अन्य विदेशी भाषाओं की शिक्षा ग्रहण करना शुरु करेंगे तथा 8 वर्ष की आयु के पश्चात् दोनों की शिक्षा अलग- अलग स्कूलों में अनिवार्य रुप से जारी रहेगी। चूँकि शिक्षा धर्म का एक महत्वपूर्ण अंग है अतः प्रत्येक विद्यालय दिवस का प्रारम्भ संध्या तथा वैदिक यज्ञ से होना चाहिए। इसके अतिरिक्त कुछ वर्षां तक बालक तथा बालिका दोनों को ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिए। दयानन्द के अनुसार लड़कियों के विवाह की उम्र 16 वर्ष तथा लड़कों के लिए न्यूनतम आयु 25 वर्ष होनी चाहिए।49 यह प्रस्ताव महाराष्ट्र के नारीवादियों से काफी दूर था जिसे उन्होंने 1891 के स्मारपत्र में रानी विक्टोरिया को प्रस्तुत किया था जिसमें लड़कियों की विवाह की उम्र 14 वर्ष तक लड़कों की उम्र 18 वर्ष प्रस्तावित थी। इसप्रकार से सरस्वती ने चर्चा का रुख स्त्रियों की शिक्षा की ओर मोड़ दिया। उनका मत था कि शिक्षा से कर्म का मार्ग प्रशस्त होता है तथा कर्म मनुष्य को व्यक्तिगत रूप से करना होता है। उन्होंने वृŸावादियों के इस तर्क से असहमति जताई कि स्त्रियों को शिक्षा की आवश्यकता इसलिए है ताकि वे शिक्षित होकर पत्नी तथा माँ के रुप में अपने कŸार्व्यों का सम्यक् निर्वहन कर सके। इसप्रकार दयान्नद शिक्षा और कार्य में कोई सम्बन्ध स्थापित करते नजर नहीं आते, यद्यपि उनका भी यह विश्वास था कि माँॅ के रूप में स्त्री की भूमिका शिशु जन्म तथा उसके पश्चात् बच्चों के रहन - सहन सम्बन्धी मानदण्ड स्थापित करने के लिए शिक्षा बेहद जरुरी तत्व था।50
स्त्री शिक्षा की उपयोगिता को लेकर सुधारकों में मतैक्य नहीं था। एक ओर इस बात पर सहमति थी कि शिक्षा व्यावसायिक होनी चाहिए, वहीं दूसरी ओर व्यवहार विशेष को लेकर मतभेद बना हुआ था। सबसे प्रभावशाली विचार यह था कि स्त्रियों को गृहस्थी पर ध्यान देना चाहिए ताकि पति एवं बच्चों दोनां को इसका लाभ मिले। ब्राह्मण कन्या पाठशालाओं में लड़कियों को खाना पकाने, सिलाई-कटाई तथा सेवा सुश्रुषा की शिक्षा दी जाती तथा इन कार्यों में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए लड़कियों को प्रोत्साहन तथा पुरस्कार भी प्रदान किए जाते थे। उस समय कम प्रभावी परन्तु कालान्तर में जबरदस्त महत्वपूर्ण बनकर उभरा एक विचार यह था कि बच्चों के चरित्र निर्माण में माँॅ के रुप में स्त्रियों की भूमिका। क्योंकि ज्योतिबा फुले जैसे अनेक सुधारकों का मत था कि यदि स्त्री को शिक्षित किया जाए तो वह अपने बच्चों को भी शिक्षित बना सकेगी। फुले ने एक गृह शुरु करने का प्रयास किया जिसमें अविवाहित स्त्रियाँं अथवा विधवाएॅँ अपनी अवैध संतानों को गुप्त रूप से जन्म दे सकें तथा इस बात का वचन दे कि बाद में वे उन्हें गोद ले लेगी ताकि उसकी उचित परवरिश हो सके। उनका यह कदम निःसंदेह क्रांतिकारी था, परन्तु उन दिनों स्त्रियों के दैहिक सम्बन्धों से सम्बन्धित नियमां का उच्चवर्ग द्वारा इतनी कठोरता से पालन किया जाता था कि इस प्रकार के गृह का उपयोग सवर्ण स्त्रियाँ अधिक करती थी। हालाँॅकि स्त्री शिक्षा के बारे में उनका नजरियाँॅ अन्य सुधारकों के नजरिए से इतना भिन्न नहीं था। कन्या पाठशालाओं के बारे में फुले का विचार था कि कन्या पाठशालाओं की स्थापना बाल विद्यालयों से भी अधिक महत्वपूर्ण तथा आवश्यक है, क्योंकि शिक्षा की जडे़ं सामान्यतया स्त्रियों में अधिक गहरी होती है। इसलिए वे अपने बच्चों को दूसरे या तीसरे वर्ष से ही शिक्षित करना शुरु कर देती है।51
बंगाल और महाराष्ट्र के उदाहरणों को देखते हुए कहा जा सकता है कि सदी के अंत में स्वर्णिम युग की साम्प्रदायिक एवं वर्णवादी व्याख्या तेजी से बढ़ रही थी जिससे समाजसुधार के अनेक विचारों; खासतौर से स्त्रियों की शिक्षा के विषय पर विरोध दिखाई पड़ा। पंजाब में आर्यसमाज की गतिविधियों से ऐसा लगता है कि साम्प्रदायिक और स्त्रियों के अधिकारों के लिए चलाए जा रहे आन्दोलनों के रिश्तों में हमेशा विरोधाभास नहीं रहा। एक ओर जहाँॅ आर्यसमाज का मध्यवर्गीय कॉलेज गुट लड़कियों के उच्चŸार शिक्षा का विरोधी था वहीं दूसरी ओर गुरुकुल गुट इसके लिए कृतसंकल्पित था। वस्तुतः दोनों ही गुट हिन्दू चेतना के मुद्दे पर बल दे रहे थे। अतः बहस इस बात को लेकर थी कि हिन्दू लड़की के लिए क्या बेहतर है ?
1880 के मध्य से आर्यसमाज स्त्री आन्दोलन में उल्लेखनीय रुप से सक्रिय हुआ। 1880 के उŸारार्द्व से अनेक आर्यसमाजियों ने कुलीन कन्या पाठशालायें खोलनी शुरु की। उसे इस बदनामी का भी भय नहीं था कि इन दिनों ऐसे स्कूलों को धर्मान्तरण का अड्डा बताकर बदनाम करने की कोशिश की जा रही थी। 1890 ई0 में स्थापित जालंधर आर्यसमाज की कन्या पाठशाला में अविवाहित लड़कियों की भॉँति ही विधवाओं को भी प्रवेश दिया जाता था। इसके दो वर्ष पश्चात् 1892 ई0 में उच्च शिक्षा देने के लिए कन्या महाविद्यालय खोलने की भी घोषणा की गई। लुधियाना के नवगठित आर्य स्त्री समाज ने भी जो कि लुधियाना में कन्या वैदिक स्कूल एवं एक विधवाश्रम चलाता था, इस प्रस्ताव का समर्थन किया। कन्या महाविद्यालय के खुलने के पूर्व ही स्त्रियों की उच्च शिक्षा के विषय पर आर्य समाजी विभाजित हो गए। उच्च शिक्षा के विरोधियों में लाला लाजपत राय तथा लालचंद प्रमुख थे। दोनों ने ही स्त्रियों के प्राथमिक शिक्षा को स्वीकार किया परन्तु उच्च शिक्षा का विरोध किया । उन्होंने कहा कि अतीत से लेकर वŸार्मान तक मेरी यह दृढ़ मान्यता रही है कि पुरुषों में शिक्षा के प्रसार की सख्त जरुरत है परन्तु स्त्रियों की शिक्षा उन्हीं उद्देश्यों की पूŸार् के लिए कोई सहयोग दे; यह आवश्यक नही। दयानन्द के विपरीत कई आर्य समाजियों का मानना था कि लड़कियों की शिक्षा का चरित्र लड़कों की शिक्षा से भिन्न होना चाहिए। हिन्दू लड़की को हिन्दू लड़कों से भिन्न कार्य करने होते है अतः हम उस व्यवस्था को प्रोत्साहित नहीं करेंगे जो उन्हें उनके राष्ट्रीय चारित्रिक गुणों से वंचित कर दें। हम अपनी लड़कियों को ऐसी शिक्षा नहीं देंगे जो उनकी सोच को बदल दें। यद्यपि 1893 में कन्या महाविद्यालय खुला परन्तु उसका पाठ्यक्रम कन्या पाठशाला का ही विस्तारित रूप नजर आया। दोनों ही पाठ्यक्रम ब्राह्यण स्कूलों में प्रचलित पाठ्यक्रम के समान ही थे। प्राथमिक साक्षरता के साथ-साथ अंकगणित काव्य, आर्यसमाजी धार्मिक सहित्य, सिलाई-कढ़ाई, पाकशास्त्र तथा सफाई, कला एवं संगीत के विषय पढ़ाएँॅ जाते थे।52
शताब्दी के अंतिम वर्षों में ब्रह्यसमाजी भी, जो पहले भारतीय लड़कियों की शिक्षा की बात करते थे अब वे हिन्दू लड़की की शिक्षा की बात करने लगे। वास्तविकता यह थी कि जब वे भारतीय स्त्री की बात करते थे तो उनकी पृष्ठभ्मि में हिन्दू स्त्री ही होती थी। 19वीं शताब्दी के समाजसुधारकों की आमतौर पर इसलिए आलोचना हुई की उनके द्वारा जो भी मुद्दे उठाये गये वे बड़े पैमाने पर उच्च जाति की हिन्दू स्त्रियों के सती, विधवा पुनर्विवाह तथा बालविवाह जैसे मुद्दे थे। फिर भी यह कहा जा सकता है कि इस समय के सुधार आन्दोलनों ने नारी चरित्रों को जन्म दिया। सार्वजनिक जीवन में विद्रोही स्त्रियों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्वि हुई। निरूपमा देवी एवं अनुपमा देवी जैसी बंगाली उपन्यास लेखिकाओं से बांग्ला साहित्य समृद्ध हुआ जबकि पुरुष समाज द्वारा उनके कृतित्व को छोटा एवं मनोरंजक कहकर सर्वथा उपेक्षा की गई। महाराष्ट्र की पहली महिला उपन्यासकार काशीबाई कानितकर ने 1890 के दशक में लेखन प्रारम्भ किया, ठीक उसी समय महाराष्ट्र की पहली महिला डॉक्टर आनन्दी बाई जोशी ने अपनी शिक्षा पूरी की।53
शताब्दी के अंतिम दशक में पुनरुत्थानवादियों के इन दावों को काफी बल मिला कि पश्चिम जिन नव-वैज्ञानिक खोजों पर इतरा रहा है, उसकी आधारभूमि हमारे शास्त्र है। भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की ‘सतयुग थापन करो, कृष्णा, कल्कि अवतार; जैसे कई मिथकीय चरित्र निर्मित किए जाने लगे। रामकृष्ण परमहंस इसलिए मध्यवर्गीय महिलाओं में लोकप्रिय हो रहे थे, कि वे भी स्त्रियों की पूजा करते थे, इसका प्रमुख कारण यह था कि वे स्त्रियों को‘ देवी माँॅ की प्रतिनिधि मानते थे। इसी समय मुस्लिम आक्रांताओं के प्रतिरोध की कहानियों का समकालीन समाज में राष्ट्रवादी भावनाएॅँ जागृत करने के लिए औजार के रुप में प्रयोग किया जाने लगा था। मुस्लिम आक्रांताओं का विरोध करने वाली भारतीय राजपूत वीरांगनाओं के विषय में लिखी गई राजा टोडरमल की पुस्तकें इतनी लोकप्रिय हुई कि तत्कालीन नाटकों एवं उपन्यासों की विषय-वस्तु इन कहानियों - घटनाओं से भरी होती थी।ं बालविवाह का सती के समान महिमामंडन किया गया। आदर्श हिन्दू स्त्री की छवि निर्माण करने के बारे में पुनरूत्थानवादी साहित्यों का दोहरा दृष्टिकोण था। कुछ ने जहॉँ बालवधू के मधुर फूल जैसे कोमल कमलांत काव्य की कमनीयता जैसे सुकुमार गुणों को प्रथमिकता दी वही कुछ ने हिन्दू स्त्री की महान शक्ति का वर्णन करते हुए कहा कि पत्नी तथा माँॅ के रुप में विशेष तौर पर मुसलमानों के विरुद्व अत्यंत उग्र हो जाती है। तत्कालीन साहित्य में राजपूतों के महिमामंडन की यह प्रमुख लय थी। सती की यह कहकर प्रशंसा की जाती थी कि उसने अपने कुल की लाज हर हाल मे रख ली। बी0 सी0 पाल ने लिखा है कि बंकिमचन्द्र की दुर्गेशनन्दिनी का उनके छात्र जीवन पर कितना गहरा असर पड़ा था।
उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम दिनों में आरम्भिक राष्ट्रवादियों ने मातृत्व की धारण को देशी संस्कृति की विशिष्टता के एक शक्तिदायी और प्रामाणिक प्रतीक के रुप में अपना लिया। यूरोप की पितृभूमि की धारणा के विपरीत राष्ट्रवादियों ने देश की कल्पना मातृभूमि के रुप में की। इसका प्रारम्भ 1875 ई0 में हुआ जब मशहूर बंगाली बुद्विजीवी बंकिमचन्द्र चटर्जी ने बंदे मातरम गीत लिखा जिसे बाद में उनके उपन्यास ‘आनन्द मठ’ (1882) में शामिल करके उसे एक संदर्भ दे दिया गया। उपन्यास में गढ़ी गई मातृदेवी की तीनों छवियाँ भारतमाता के राष्ट्रवादी भक्तों की कल्पना और उनकी समर्पण भावना को पंख लगाने के लिए पर्याप्त थी और इन्होंने भारतीय राष्ट्रवादी संवाद में देवी माँ के रुप को हमेशा के लिए अंकित कर दिया। इस गीत को प्रथम बार रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 1896 में कांग्रेस के कलकŸा अधिवेशन में गया था। कुछ साल बाद स्वदेशी आन्दोलन के दौरान अरविन्द घोष ने इस बिम्ब की शक्ति का एहसास किया जो देशप्रेम और राष्ट्रीय जागरण का जन्मदाता बन सकता था। उसके बाद विपिनचन्द्र पाल से लेकर जवाहरलाल नेहरु, लालबहादुर शास्त्री से लेकर इन्दिरा गाँधी एवं अटल बिहारी वाजपेयी तक लगभग हर राष्ट्रवादी नेता ने देश और राष्ट्र के अभिमान को जगाने के लिए मातृत्व के इस मनोहर रुपक का प्रयोग किया। यह रुपक 19वीं सदी के उतरार्द्ध में ही नहीं, 21वीं सदी के पूर्वार्द्व में भी जनता में देशभक्ति एवं राष्ट्राभिमान के उत्प्रेरण का केन्द्र बना रहा।
देवी मॉँ की आरम्भिक राष्ट्रवादी प्रस्तुति में एक पालन-पोषण करनेवाली स्नेहमयी बंगाली माँॅ की सुपरिचित छवि को शक्ति की धारणा के साथ जोड़ दिया गया जिसे हिन्दू ब्रह्माण्ड ज्ञान में असुरों का विनाश और मासूमां की रक्षा करनेवाली देवी दुर्गा, माँॅ काली के रुप में पेश किया जाता था। लेकिन इस आक्रामक पहलू को नरम बनाते हुए माता की कल्पना भारतीय अध्यात्मवाद के सांस्कृतिक उत्स के साकार रुप में की जाने लगी। राष्ट्रवादी चित्रकला में अवनीन्द्र नाथ ठाकुर का चित्र भारतमाता इस नई छवि का प्रतीक बन गया, यहाँॅ देवी माँॅ अधिक सौम्य एवं शांत है तथा सुरक्षा एवं सुख समृद्वि देनेवाली है, यह ऐसी छवि है जो मानवीय एवं दैवी दोनों है, जो कुछ - कुछ परिचित भी है और कुछ पारलौकिक भी।54 जसोधरा बागची का तर्क है कि मातृत्व की इस विचारधारा से इसकी शक्ति और सामर्थ्य के बारे में एक मिथक गढ़कर स्त्रियों से उनकी वास्तविक शक्ति छीन ली गई, उनको केवल संतानोत्पति वाली भूमिका तक सीमित कर दिया और इस तरह उनको शिक्षा एवं व्यवसाय से दूर या दूसरे शब्दों में उनको वास्तविक शक्ति पाने की सभी संभावनाओं से वंचित कर दिया। महिलाओं को अनिवार्यतः एक मातृछवि के रुप में देखा गया तथा उन्हें एक अनुलंधनीय पवित्र, बाहरी हमलों से सुरक्षित किए जाने वाले आंतरिक कोने के रुपक के रुप में बाधा गया था।55
ऐसे समय में जब सारा ध्यान महिलाओं पर केन्द्रित था काली एवं दुर्गा का बढ़़ता महत्व मात्र सामान्य घटना नहीं थी। आमतौर पर यह दलील दी जा सकती है कि यह बढ़ोŸारी मादाशक्ति की प्रभावशाली मिश्र्रित छवि को उजागर करती है जो वस्तुतः स्त्रीत्व के दोहरे एवं घ्रुवीय दृष्टिकोण को प्रस्तुत करती है। भारत में यह एक सामान्य सोच है कि भारतीय, अकाल, महामारी या प्राकृतिक आपदा के समय किसी असीम शक्ति के अवतरित होने की कल्पना करते है। सामान्यतया आदि शक्तियों को प्रसन्न करने के लिए भेंट चढ़ाई जाती है तथा साथ ही साथ जो स्त्रियाँॅ अपने पति की सुरक्षा के लिए अपने प्राकृतिक कŸार्व्यों का निर्वहन नहीं करती उन्हें दंडित किया जाता है। दूसरे शब्दों में शक्ति का अवतार बहुत भयानक रुप में दुनियाँॅ में दिखाई पड़ा और इसे सीधे तौर पर महिलाओं की विफलता से जोड़ दिया गया। अन्य तरीके से यह बात मान ली गई कि चूॅँकि स्त्रियों ने अपने पारम्परिक कŸार्व्यों का निर्वहन नहीं किया और उन्होंने अपनी शक्ति को घर में सहेज कर नहीं रखा, अतः आदिशक्ति को अवतार लेना पड़ा। संकट या दुरावस्था की घड़ी में सि़्त्रयों को सामुहिक तौर पर दंडित करने के अवसर बार-बार मौजूद रहते है चरित्र हनन इसका प्रमुख उदाहरण है। नन्दी का तर्क है कि उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्द्व की प्रथम त्रयी में सती की बढ़ती घटनाओं के पीछे यही कारण था। नन्दी के अनुसार काली को आदिशक्तिस्वरूपा माता के रुप में माना जाने लगा तथा स्त्री अनुष्ठानों में काली की मौजूदगी अंग्रेजी तथा भारतीय सुधारकों ने हिन्दुओं की पतनशीलता की घटना बताया। इस नये मनोवैज्ञानिक माहौल में ऐसा लगता है कि सती के समय में जो लोकनीति पनपी वह और पुष्ट हुई तथा विधवाओं के पापों के लिए उन्हें दंडित करने का इसे उचित कारण माना जाने लगा। लोगों में यह अंधविश्वास बढ़ा कि चूँॅकि पत्नी के रुप में उसने अपने पारम्परिक कŸार्व्यों का निर्वहन नहीं किया, इसलिए उसके पति की मृत्यु हो गई।56
एक ओर सती की इस ‘बीमारी‘ को सामूहिक उन्माद के उद्घाटित क्षण के रुप में देखा जा सकता है जिसमें पुरुषप्रधान सामाजिक व्यवस्था को अपने ऊपर संकट मॅँडराता दिखाई पड़ा। इसलिए उसने उस व्यवस्था को बनाए रखने के लिए हिंसक प्रतिक्रिया व्यक्त की। उन्नीसवीं सदी के मध्य में इस संकट को रेखांकित करने के लिए नूतन प्रयास किए गये। दिलचस्प बात यह है कि इस संदर्भ में विधवा की स्थिति कितनी दयनीय हो गई खासतौर से तब जबकि उसे एक खतरनाक रुप में पेश किया गया। विधवाआें के बारे में यह स्पष्ट राय व्यक्त की गई कि पतिहीन होने के कारण उनकी कामोद्दीपक ऊर्जा खतरनाक हो सकती है, इसलिए 1850 के दशक में विधवा पुनर्विवाह के लिए चलाए गए आन्दोलनों में अक्सर इसका उल्लेख किया गया। इस अभियान में विधवा को कोई पुरुष उपलब्ध कराकर इस ऊर्जा को पुनर्व्यवस्थित करने के रूप में भी देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त उल्लेखनीय तथ्य यह है कि विधवा पुनर्विवाह के लिए जो कानून बनाया गया उसके अनुसार विधवा के दूसरे विवाह होने की स्थिति में वह अपने पहले पति की जायदाद से वंचित कर दी गई। यह एक ऐसा नियम था जिसने विधवा की जिन्दगी को न केवल उसे पहले पति की मृत्यु के साथ दुभर कर दिया बल्कि पुनर्विवाह के पश्चात् भी उसे उसके नए पति के ऊपर पूरी तरह निर्भर बना दिया। इस प्रकार अंग्रेजों द्वारा प्रतिपादित नई भू-सम्पदा नीति, औद्योगिक एवं सामाजिक नीतियों ने मौजूदा पितृसŸात्मक ढाँचे को विनष्ट कर दिया जिसके परिणामस्वरुप जहाँॅ एक ओर पितृसŸात्मक परम्पराओं की स्थापना के लिए हिंसक प्रतिक्रिया हुई, वहीं दूसरी ओर पुरूष प्रधानता को सुधारने के नाम पर उसे पाश्चात्य शैली की ओर मोड़ा गया और इस प्रक्रिया में स्त्रियों के कुल परम्परागत अधिकारों की बलि दे दी गई।
उन्नीसवीं शताब्दी के उतरार्द्व तक सामाजिक स्तर पर महिलाओं के प्रति असहिष्णुता बरकरार रही। जब काशीबाई कानितकर और आनन्दीबाई जोशी दोनों सहेलियॉँ जूते पहनकर और छाता लेकर पहली बार बाहर निकली तो उनपर यह कहकर पत्थर बरसाये गये कि उन्होंने पुरुष अधिकारवाले प्रतीकों को अपनाकर उनका अपमान करने की हिमाकत की है। 1882 ई0 में ताराबाई द्वारा लिखित एवं पूना से प्रकाशित पुस्तक ‘स्त्री पुरुष तुलना’ को लेकर सत्यशोधक समाज के दो सदस्यों कृष्णराव भालेकर तथा ज्योतिराव फुले के बीच गरमा गरम बहस शुरु हो गई। पुस्तक की आंतरिक भावना परम्परागत आवरण में लिपटी हुई थी। परन्तु सत्यशोघक समाज जैसे सुधारवादी संगठनों ने बड़े तिरस्कार भाव से इसका स्वागत किया। कृष्णराव भालेकर जैसे विचारकों ने तो इस पुस्तक पर लिखित धावा बोल दिया जिसके बचाव में फुले को उतरना पड़ा। उन्होंने बडे़ ही कटुतापूर्ण शब्दों मे भालेकर पर आरोप लगाया कि वे उस परम्परागत भारतीय परिवार प्रणाली का बचाव कर रहे है जिसमें पुरुषों को हर प्र्रकार की मनमानी करने की छूट तथा स्त्रियों को असहाय तथा घर की चारदीवारी में कैद कर रखने का रिवाज है। गेल ओमवेट के अनुसार फुले की दृष्टि में यह पति-पत्नी के बीच समानता पर आधारित सम्बन्धों का मुद्दा था तथा इसका निहितार्थ परिवार के अंदर पुराने एकाधिकारवादी ढाँॅचे को ध्वस्त करना था।
ब्रह्मसमाज और आर्यसमाज दोनों ने पंजाब और बंगाल में पुरुष सुधारकां को भ्रमित करने को उद्देश्य से महिला उपदेशिकाओं की नियुक्ति की। ब्रह्मसमाज के ढीले-़ढाले संरचनात्मक ढ़ॉँचे का फायदा उठाकर अनेक महिलाओं ने ब्रह्मसमाज की उपदेशिका के तौर पर अपने आप को नियुक्त करा लिया। हालाँॅकि भक्ति एवं तांत्रिक आन्दोलनों के संदर्भ में महिला प्रचारकों को परम्परागत रुप से स्वीकार किया गया, परन्तु सुधार पर आधारित आर्यसमाज तथा ब्रह्मसमाज जैसे धार्मिक संगठनों के लिए यह बिल्कुल नई बात थी। पंडिता रमाबाई पहली महिला प्रचारिका थी जिसे महिलाओं की हितैषी होने एवं उनके पक्ष-पोषण के लिए प्रसिद्वि मिली परन्तु सुधार आन्दोलनों के अंदर उन्हें पूरी तरह स्वीकार नहीं किया गया। इसका फायदा ब्रिटिश एवं अमेरिकन मिशनरियों ने उठाया तथा रमाबाई एसोसियेशन का गठन कर उन्हें ईसाई धर्म प्रचारिका के रुप में तब्दील कर दिया।
आर्यसमाज की महिला उपदेशिकाओं में से एक माई भगवती हरियाणा में विशाल जनसभाओं को संबोधित करती थी जबकि आम उपदेशिकाओं ने घरों को निशाना बनाया और वे आम तौर पर घर के अंदर ही प्रवचन दिए। उनके भाषण दैनिक ट्रिव्यून में अक्सर छपते थे। प्रसिद्धि चरम पर थी महिलायें इन धर्म प्रचारिकाओं को सुनने के लिए तमाम लोक निषेधाज्ञाओं का उल्लंधन कर घरों से निकल चुकी थी। इसी बीच ब्रह्यसमाज में स्त्री उपदेशिकाओं की नियुक्ति को लेकर तुफान उठ खड़ा हुआ। 1881 ई0 में मनेरमा मजूमदार की बारीसाल ब्रह्यसमाज द्वारा धर्मप्रचारिका के रुप में नियुक्ति की गई। इसके तत्काल बाद इसप्रकार महिलाओं को सम्मानित किऐ जाने के प्रश्न पर काफी विवाद पैदा हो गया। अंततः चंडीचरण सेन के हस्तक्षेप से मनोरमा के पक्ष में फैसला होने से मामला शांत हुआ।
उन्नीसवीं शताब्दी का अंतिम दशक महिलाओं के लिए राजनीतिक भागीदारी का दशक था। किसी महिला द्वारा जन अभियान के संचालन का पहला प्रयास ब्रह्यसमाज द्वारा 1890 ई0 में किया गया। कलकŸा में पर्दाप्रथा के विरुद्व जन अभियान की शुरुआत करते हुए ब्राह्मण स्त्रियाँ शहर की गलियों में गाते हुए निकलती तथा जहाँॅ भी लोग इकट्ठे दिखाई पडते वहाँॅ उन्हें पर्दाप्रथा की बुराईयों के बारें में बताने लगती। यहीं वह वर्ष था जब महिलाओं ने राष्ट्रवादी आन्दोलनों एवं संगठनों में भाग लेना शुरु किया। इस कार्य में उन्हें अपने सहकर्मी पुरुष मित्रों के कोप का सामना करना पड़ा। 1889 के कांग्रेस के बम्बई सत्र की रिपोर्ट में कहा गया कि कम से कम 10 महिला प्रतिनिधियों ने बम्बई कांग्रेस में हिस्सा लिया जिनमें से सिर्फ एक का ही चुनाव पुरुषों द्वारा एक जनसभा में किया गया। जबकि अन्य स्त्रियॉँ वीमेन्स टेंपरेंस युनियन, बंगाल लेडीज एसोसियेशन तथा आर्य महिला समाज जैसे अनेक स्त्री संगठनों से आई थी। इन दस महिलाओं में यूरोपीय, ईसाई, पारसी, एक रुढ़िवादी हिन्दू तथा तीन ब्राह्मण थी।57
वास्तविकता यह है कि इस कांग्रेस सत्र में महिलाओं की सहभागिता मुख्यतया रमाबाई के प्रयासों से ही संभव हुई। चार्ल्स ब्रेडलॉफ ने उन्हें तथा अन्य लोगों को सलाह दी थी कि महिला प्रतिनिधियों को कांग्रेस में अभी से शामिल हो जाना चाहिए ताकि जब स्वतंत्र भारत की संसद का कांग्रेस द्वारा गठन हो तो उनके सरोकारों को स्वर मिल सके। रानाडे तथा अन्य अग्रणी समाजसुधारकों ने ब्रेडलॉफ के सुझावों का विरोध किया। परन्तु अकेली रमाबाई ने उनके सुझावों को माना तथा वे अपने प्रयास से सात या आठ महिला प्रतिनिधियों को कांग्रेस के सम्मेलन में शामिल कराने में सफल हुई। रिपोर्ट में इस बात का उल्लेख किया गया है कि महिला प्रतिनिधियों को दरी पर बैठने की अनुमति दी गई परन्तु इस तथ्य को छुपा लिया गया कि उन्हें बोलने या मत देने का अधिकार नहीं था।58 1890 के कांग्रेस अधिवेशन में मात्र चार महिला प्रतिनिधि शामिल हुई जिनमें से एक को बोलने या कि अध्यक्ष के अभिभाषण पर धन्यवाद ज्ञापन की अनुमति मिली थी। अपने उद्बोधन में कादम्बिनी गांगुली ने अध्यक्ष द्वारा उन्हें बोलने की अनुमति देने के लिए धन्यवाद दिया तथा कहा कि ’इससे हम भारतीय स्त्रियों का दर्जा बढ़ गया है।’ 19वीं शताब्दी के अंतिम दशक में पूर्ववŸार् सुधार आन्दोलनों और सुधारकों के चिंतन और कार्यशैली पर प्रश्नचिह्न खड़े किए जाने लगे। हिन्दू धर्म के पैगम्बर कहे जाने वाले विवेकानन्द जैसे युवा चिंतक बंगाली समाजसुधारकां पर पश्चिमी मूल्यों तथा प्रणालियों का अनुसरण करने तथा संभ्रांत होने का प्रदर्शन करने का आरोप लगाते हुए हमला किया गया। इसके साथ ही विवेकानन्द ने आर्यभारत के गौरव की सराहना तथा उसके बाद पनपी भ्रष्टाचार की संस्कृति की आलोचना की। 17 फरवरी 1894 को यूटीलीटेरियन चर्च द्वारा आयोजित एक सभा में ‘द डिविनिटी ऑफ मैन’ पर भाषण करने के पश्चात् जब विवेकानन्द से एक श्रोता ने प्रश्न किया कि क्या हिन्दू लोग विधवाओं को अपने पति के शव के साथ जलाकर मारते है ? तब स्वामीजी ने इस बात से इन्कार किया कि विधवाओं को जीवित जलाकर मरा जाता है। साथ ही साथ उन्होंने यह भी कहा कि विधवाएँॅ स्वयं ही पति की चिता के साथ जलकर मरती है। इस प्रकार की एकाध घटना घटित होती है तो मुनि- ऋषिगण इसका विरोध करते हैं, ऐसे आत्महत्या के ये लोग विरोधी है।़59
सती वाले प्रश्न पर विवेकानन्द द्वैध मनः स्थिति के शिकार थे उनके लिए एक तरफ हिन्दुत्व था, जो अपनी विभत्स कुत्सीत कुरीति के साथ सामने उपस्थित था; दूसरी तरफ उनका मानवतावादी व्यक्तित्व था जो इस दुर्दमनीय पीड़ा को झेल नहीं पा रहा था, संभव है कि इस स्थिति में उन्होंने एक इतिहासविरोधी बात कह डाली हो। बहुत सारी प्रथाओं के विरोध में जोरदार हमला कर विवेकानन्द मुक्तविवेक और स्वच्छ चेतना के प्रतीक बन गये थे वे अदना से पुरोहितों का पक्षपोषण क्यों करते ? विवेकानन्द के इस उŸार पर प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए द ट्रिव्यून पत्रिका ने उन्हें ‘द ब्राह्मण मंक’ कहा था तथा यह टिप्पणी दी थी कि पंडितो के प्रति स्वामीजी क्षमाशील है। इनकी उज्ज्वल भावमूŸार् को फैलाने हेतु विवेकानन्द काफी प्रयत्नशील भी होते है। भारत में नारी समाज इस प्रथा का शिकार है। स्वामी जी के इस प्रकार के बयान एवं सफाई को वे शांतभाव से नहीं स्वीकार पाएगी और न अच्छी नजरों से देख पाएगी।60 1896 में स्वामी विवेकानन्द ने सामाजिक सेवा के आदर्श पर आधारित रामकृष्ण मिशन की बंगाल में स्थापना की। उन्नीसवीं सदी के मध्य में समाजसुधाराकों द्वारा प्रतिपादित सिद्धान्त वाक्य ‘विधवा से विवाह करो मुक्तिदाता कहलाओ’ सदी के अंत तक विकसित होकर कानूनी अभियानां के बजाय समाज सेवा का दर्शन बन गया था।
जहाँॅ उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में समाज के पतन के लिए महिलाओं को जिम्मेदार ठहराया गया वहीं सदी के उŸारार्द्व में सामाजिक पतन के लिए महिलाओं की ओर इशारा किया गया। फिलिप एरिज ने इस बात की ओर संकेत किया कि किस प्रकार 18वीं शताब्दी में फ्रांस में बाल्यावस्था एवं किशोरावस्था को अलग-अलग क्षेत्र मानने का विचार उभरा। उन्होंने इस बात का उल्लेख किया है कि पहले जहॉँ बच्चों को वयस्क जीवन की कठिनाईयों से सुरक्षा प्रदान करने की जरूरत महसूस की जाने लगी।61 यह कितनी विचित्र बात है कि स्त्रियों की जीवनदशा सुधारने की आवश्यकता इसलिए नहीं हुई कि वे कठिन दौर से गुजर रही थी बल्कि उनकी दशा में सुधार उनके पति तथा बच्चों के लिए महत्वपूर्ण था। कई वर्षां बाद यह विचार बड़े पैमाने पर प्रभावशाली ढं़ग से उभरा कि स्त्री की भूमिका माँॅ के रुप में अधिक स्वीकार्य है। अतः भारत में स्त्रियों की जीवनदशा सुधारने के लिए अनेक आन्दोलन चलाए गए। इसके महत्व को रेखांकित करते हुए कहा गया कि जिन परिस्थितियों में स्त्रियॉँ शिशुओं को जन्म देती है तथा जिनमें वे पलते है वे इतनी दयनीय है कि भारतीय मूल पूरी तरह विकृत हो जाता है। रूग्ण बच्चे पैदा होते है आगे चलकर वे जर्जर युवा के रूप में दिखाई पड़ते है। माताओं द्वारा बच्चों की उपेक्षा तथा कंजूसी से भारतीयों की एक पूरी पीढ़ी उद्यमशीलता खो चुकी है। इसलिए भारत को अंग्रेजों का गुलाम बनना पड़ा। अतः भारत राष्ट्र के लिए यह आवश्यक है कि उसके बच्चे उŸाम परिस्थितियों में जन्म लेकर पले-बढ़े।62
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ार कर दिया बल्कि पुनविर्वाह के प्ष्चात् भी उसे उसके नए पति के ऊपर पूरी तरह निर्भर बना दिया। इसप्रकार अंग्रेजों द्वारा प्रिारकिेकसरा
Good article
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