सिंधुघाटी सभ्यता की भौतिक विशेषता

सिंधुघाटी सभ्यता का भौगलिक विस्तार सिंध से प्रारम्भ होकर दक्षिण और दक्षिण - पश्चिम में हुआ है।हड़प्पा सभ्यता के अवशेष जिस भौगोलिक क्षेत्र में पाये गए है;वह सम्पूर्ण क्षेत्र त्रिभुज के आकार का है तथा भौतिक अवशेषों में अद्भुत साम्य है। इस सभ्यता का कोई भी समुदाय चाहें वह राजस्थान में रहता हो या पंजाब या महाराष्ट्र या सिंध में बॉट, माप-तौल के सामान एक ही प्रकार का इस्तेमाल करते थे।उनकी लिपि एक थी,ताँबे और कांसे से निर्मित औजारों के आकार-प्रकार समान थे।उनके कुछ नगरों में बनीं इमारतों, किलों आदि की बनावटों में एकरूपताएँ थीं। ईंटों का अनुपात 4:2:1 था। इनकी वस्तीयों की पहचान इनके गुलाबी रंग के बरत्तनों से होती है जिस पर काले रंग से पेड़ एवं पशु-पक्षियों के चित्र बने होते थे साथ ही उन पर ज्यामिति के चित्र भी अंकित होते थे।

हड़प्पा,मोहनजोदड़ और कालीबंगां के रक्षा प्राचीर समलम्ब चतुर्भुज के समान थे। मोहनजोदड़ो से पक्की ईंटों और लोथल,रंगपुर तथा कालीबंगां से कच्ची ईंटों के प्रयोग का साक्ष्य मिला है।मोहनजोदड़ो से पशुपति शिव की एक मुहर मिली है जिसकी पहचान आदिशिव के रूप में गयी है।यह शिव ही हड़प्पा सभ्यता का सबसे प्रमुख देवता था।मुहर में देवता के दाहिनी ओर एक हाथी एवं बाघ की तथा बायीं ओर एक गैंडा और एक भैंसे को चित्रित किया गया है।चौकी के नीचे दो हिरण बैठे है।पुरुष के दोनों हाथ चूड़ियों से भरे है और वह पद्मासन की मुद्रा में बैठा है।यहीं से कांस्य निर्मित एक नर्तकी की 12 सेमी.उँची प्रतिमा मिली है;जो आभूषणों को छोड़कर पूर्णतः नग्न है।बाएं हाथ कंधे से कलाई तक चूड़ियाँ भरी पड़ी है।मोहनजोदड़ो से ही 19 सेमी.लंबी खंडित एक पुरुष प्रतिमा मिली है जिसका निर्माण सेलखड़ी से किया गया है।इसके बाल हवा में लहरा रहे है,यह दाढ़ी रखे हुए है और यह पुरुष अपने शरीर को एक शाल से ढके हुए है,जिसपर तिपतियाँ पैटर्न की आकृति बनी हुई है।

हड़प्पा में मोहनजोदड़ो के विपरीत पुरुष मूर्तियाँ नारी मुर्तियों की तुलना में अधिक मिले है।नारी मूर्तियों में काली सलेटी 10 सेमी. नृत्यरत युवती की मूर्ति अद्भुत है।इस मूर्ति के गले एवं कंधे में छेद है।यहीं उल्टी खड़ी एक स्त्री की मूर्ति मिली है जो एकदम निर्वस्त्र है तथा इसके गर्भ से एक पौधा निकलता हुआ दिखाया गया है।इस मुद्रा के पृष्ठभाग में एक पुरुष हाथ में हंसिया लिए हुए खड़ा है और कुछ महिलायें जमीन पर विनीत मुद्रा में बैठी हुई है।बंदरगाह नगर लोथल से रंगाई के कुण्ड मिले है,साथ ही सूती वस्त्रों के गट्ठर भी मिले है।यहीं से नावों के पाँच प्रकार के मॉडल प्राप्त हुए है।मोहनजोदड़ो से सीप का और लोथल से हाथीदाँत का बना एक एक स्केल मिला है। दोनों जगहों से हाथीदाँत से निर्मित तराजू के पलड़े भी मिले है।मोहनजोदड़ो से तलवारों का एक सेट भी प्राप्त हुआ है।हड़प्पा से ताँबे की एक इककागाड़ी प्राप्त हुई जिसपर छतरी लगी हुई और पहिये ठोस है।लोथल से मनका बनानेवाले एक कारखाने का पता चला है।यहीं से एक बरमा (Dril) तथा एक चक्की (Quern) के साक्ष्य मिले है।लोथल से एक मृदभांड पर ऐसा चित्र बना है जो पंचतंत्र की चालाक लोमड़ी का यथार्थ रूपांकन लगता है।

चांहूदड़ो से खिलौना बनाने के एक कारखाने का पता चला है।साथ ही ताम्बे की बनी दो गाड़ियों के मॉडल प्राप्त हुए है।यहीं से एक चार पहियों वाली गाड़ी के साक्ष्य मिला है जिसका अगला पहिया पिछले पहियों की अपेक्षा बड़ा है।चांहुदड़ो से ही काजल, चेहरे का प्रलेप,कंघा,उस्तरा ततजा अंगरांग मिले है।यहाँ चार खानोंवाला फियांस का बना एक बर्त्तन मिला है जिसका इस्तेमाल इत्र रखने के लिए होता था।एक ऐसी मुद्रा मिली है जिनपर तीन घड़ियाल और दो मछलियों का अंकन हुआ है। एक अन्य स्थान से ईटों पर बिल्ली का पीछा करते हुए कुत्ते के पैरों के निशान मिले है।चांहुदड़ो से ही बैलगाड़ी और इककगाड़ी का नमूना प्राप्त हुआ है।भौतिक अवशेषों में दैमाबाद मिली ताँबे की चार आकृतियाँ विशेष महत्वपूर्ण है।इन आकृतियों की पहचान रथ चलाते हुए मनुष्य,हाथी,गैंडे और सांड के रूप में की गयी है।सुरकोटड़ा से घोड़े का मिला कंकाल इतिहासकारों के लिए काफी महत्व का साबित हुआ ; क्योंकि इसको लेकर इतिहास्कारों का एक बड़ा धड़ा यह साबित करने में लगा रहा कि वैदिकयुगीन आर्यों ने इस सभ्यता का निर्माण किया था। कालीबंगां से खेत की जुटाई का साक्ष्य मिला है तो बनवाली और चोलिस्थान से हल के मिट्टी के फाल मिले है। धौलावीरा से मिले बांधों के अवशेष आधुनिक नहरी प्रणाली के संकेत देते है।

मृदभांड : - सिंधु सभ्यता की पहचान उसके मृदभाण्डों से होती है।यह अपने गुलाबी रंगों के कारण दूर से ही पहचाने जाते है।इस सभ्यता के मृदभांड लाल और गुलाबी रंग के होते थे।अलंकरण अभिप्राय प्रायः काले रंग से सजाये हुए है।त्रिभुज,वृत,वर्ग आदि ज्यामितीय आकृतियाँ,पीपल का पत्ता,खजूर,ताड़ का पेड़,केला आदि वनष्पति काफी लोकप्रिय है।लोथल से एक ऐसा मृदभांड मिला है जिसपर बारहसिंगे को उकेरा गया है। लोथल में बतख का चित्रण सर्वाधिक किया गया है।

अस्त्र-शस्त्र : - हड़प्पावासियो के मूल औजार ताँबे और कांसे के थे।सिंध के सुक्कुर नामक स्थान में इन हथियारों का निर्माण किया जाता था। एक अन्य स्थान लिवान से भी हथियार निर्माण के साक्ष्य मिले है।मोहनजोदड़ो से ताम्बे की दो तलवारें प्राप्त हुई है। भाला,तीर-धनुष,ढ़ाल,बरछे आदि का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होता था।खेतड़ी क्षेत्र में गणेश्वर से हड़प्पाकालीन वाण मिला है। गणेश्वर का सम्पूर्ण इलाका इस संस्कृति को ताँबे  की आपूर्ति करता था।

मनके : - मनके हड़प्पा संस्कृति की विशिष्ट पहचान है।मनके बनाने के लिए अधिकत्तर सेलखड़ी का प्रयोग किया जाता था।लाल रंग के मनके बहुतायत में मिले है।मंक अन्य धातुओं से भी बनाया जाता था जैसे ; सोना,चांदी,कांसा,पक्की मिट्टी तथा लाजवर्द आदि से। वैदूर्यमणि सर्वाधिक मात्रा में शोतुरघई से पाया गया है।

दाह संस्कार : - हड़प्पा सभ्यता में मुर्दों के अंतिम संस्कार का सबसे प्रचलित तरीका दफ़नाना था।जमीन में गड्ढा  खोदकर कब्र बनाई जाती थी। लोथल में एक कंकाल के साथ बकरे के सींग और हड्डियाँ मिली है। रोपड़ में नवपाषाणकालीन स्थल बुर्जहोम की तरह एक कब्र में मालिक के साथ कुत्ते को दफनाया गया है।लोथल से तीन युग्म समाधियाँ मिली है,जिससे निष्कर्ष निकाला गया है कि हड़प्पा सभ्यता से ही भारत में सती प्रथा विद्यमान थी।मोहनजोदड़ो से कतिपय कलश शवाधान के साक्ष्य मिले है।इसमें शव के जलाने के बाद बची खुची हड्डियों और राख को दफना दिया जाता था। हड़प्पा के एक कक्ष से ताबूत भी प्राप्त हुआ है ।

लिपि :- सिंधु सभ्यता से प्राप्त लेखों में लगभग 419 बुनियादी संकेत चिन्ह प्राप्त होते है। धौलावीरा से भूमि पर गिरा 9 चिन्हों का एक ऐसा अनोखा लेख मिला है जिसका प्रत्येक चिन्ह 37 मि.×25मि.है।इसकी कुछ मुहरें चौकोर और कुछ वर्गाकार है। यह चित्राक्षर लिपि का एक प्रकार है।इसके कुछ संकेत चित्र है और कुछ अक्षर है।इस लिपि के अधिकांश संकेत दायीं से बाईं ओर लिखे गए है।कुछ दोनों तरफ से लिखे गए है अर्थात पहली पंक्ति दाई से बाई ओर और दूसरी पंक्ति बाई से दाई ओर।इस शैली को वेस्टोफेडन शैली भी कहा जाता है।इस लिपि की एक पंक्ति में अक्सर 26 अक्षर होते थे।अभी तक यह लिपि अबूझ पहेली बनी हुई है।यह लिपि भी अज्ञात है और इस सभ्यता की भाषा भी अज्ञात बनी हुई है।पुराविदों का मानना  है कि सिंधु लेखों में प्राक्-द्रविड़ भाषा निहित है जबकि कुछ विद्वान इसे प्राक् वैदिक मानते है।डॉ.नटवर झा और डॉ. राजाराम सिंधु लिपि को पढ़ने का दावा करते है।उनके अनुसार सिंधु लिपि व्यंजनमालात्मक है।इसमें केवल तीन ही स्वर है और संकेत के अंत में सभी अक्षरों को केवल एक ही संकेत (U) से व्यक्त किया गया है।जर्मन भाषाविद् कुर्त शिल्डमैन का दावा  है कि ये शिलालेख संस्कृत में है। इटली की लिपि इट्रस्कन के अलावा सिंधु एकमात्र लिपि है जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है।


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